अन्तःकरण शरण की वाणी
सच्चाई की होती है
जितना सम्भव हो पाये
इसी की मानों बात प्रिये ।
सहज-सरल जीवन की गति
प्रेम अनुभूति से मुमकिन है
मन में बसाओ प्रेम का भाव
फ़िर सब कुछ आसान प्रिये ।
मैं,मेरा का भाव त्यागकर
मन को सच्चा सुख मिलता
आख़िर रोग कहा देता है
सुख रोगी को कभी प्रिये ।
अज्ञान- भरे मन के अंदर
ज्ञान तभी सम्भव है जब ,
विद्या की लाठी लेकर के ,
भाजो इसको नित्य प्रिये ।
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