Showing posts with label ‘अक्टूबर उस साल’ की समीक्षा. Show all posts
Showing posts with label ‘अक्टूबर उस साल’ की समीक्षा. Show all posts
Monday, 28 December 2020
डाॅ. मनीष मिश्रा विरचित काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ की समीक्षा
डाॅ. मनीष मिश्रा विरचित काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ की समीक्षा
डाॅ. गजेन्द्र भारद्वाज, सहायक प्राचार्य हिंदी
सी.एम.बी. काॅलेज डेवढ़, घोघरडीहा, जिला- मधुबनी, बिहार
ORCID iD- 0000-0002-0712-9187
काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ साल 2019 में प्रकाशित लेखक मनीष मिश्रा जी के कृतित्व का वह इतिहास है जो उनके उत्तरोत्तर मँझते हुए लेखन और उनकी कविताओं के भाव गांभीर्य की विकास यात्रा को न केवल संकलित कविताओं के शीर्षक अपितु उनकी भाव संपदा की तन्मयता की गाथा सुनाता है। आज अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों से जो भी कविताएँ पढ़ने को मिलती हैं उनमें से अधिकांश को पढ़कर ऐसा लगता है मानो उन्हें एक ढाँचा निर्मित करके सायास लिखा गया है ऐसी कविताओं के लेखन के बीच से ऐसी कविता जो अनायास बन जाए इस संग्रह में दिखाई दी हैं जिन्हें पढ़कर यह लगता है कि आज भी कविता शब्दों और भावनाओं के परे जाकर हमारी चैतन्यता से जुड़ी है। संग्रह के लेखक इस संग्रह और इसमें संकलित कविताओं के प्रस्तुतिकरण के लिए बधाई के पात्र हैं जिनका प्रयास इतने कम समय में भी परिपक्वता की ओर अग्रसर दिखाई पड़ रहा है।
इस संग्रह में कुल 56 कविताएँ संकलित हैं जिनमें पहली कविता ‘आत्मीयता’ से लेकर संग्रह की अंतिम कविता ‘बचाना चाहता हू’ तक की विभिन्न कविताओं में लेखक की जिस वैचारिक चिंतनशीलता को महसूस किया जा सकता है उसको संप्रेषित करने के लिए यदि स्वयं कि शब्दों का प्रयोग किया जाए तो एक अन्य ग्रंथ लिखा जा सकता है। फिर भी संग्रह में संग्रहित कविताओं के आलोक में यदि लेखक के ही शब्दों में यदि लेखक की चिंतनधारा को समझने का प्रयास किया जाए तो उसके लिए इस संग्रह की विभिन्न कविताओं के शीर्षकों को संयोजित करने पर लेखक की विचार संपदा का थोड़ा परिचय मिल सकता है। यथा ‘जब कोई याद किसी को कारता है बहुत कठिन होता है उसके संकल्पों का संगीत पिछलती चेतना और तापमान से अनजाने अपराधों की पीड़ा गंभीर चिंताओं की परिधि दो आँखों में अटकी मैं नहीं चाहता था इतिहास मेरे साथ पिछली ऋतुओं की वह साथी जैसे कि तुम तुम से प्रेम, जाहिर था कि लंबे अंतराल के बाद आगत की अगवानी में स्थगित संवेदनाएँ बचाना चाहता हूँ।’1 उपरोक्त कथन लेखक की कविताओं की परोक्ष गहनता की ओर संकेत करता है। जिसके कई गहरे अर्थ निकलकर सामने आते हैं जैसे केवल कविताओं के शीर्षकों को मिलाकर ही कवि के उस भाव का पता चलता है जिसमें वह अपनी मीठी यादों से जुड़े किसी भी अविस्मरणीय प्रसंग को इतिहास बनते देखना नहीं चाहता। कवि मानता है कि उसका मन किसी याद को चिरजीवित रखना चाहता है, उस प्रेम और प्रेम से जुड़ी वे सभी संवेदनाएँ जो उसने वर्तमान व्यतताओं के कारण स्थगित कर रखी हैं उन्हें बचाते हुए अपने भीतर के उस राग तत्व को सदा बनाए रखना चाहता है जिसके कारण इस सृष्टि में और स्वयं उसके जीवन में सृजन की प्रक्रिया निरंतर चल रही है।
हिन्दी कविता में फैण्टेसी के महारथी गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताओं में जो अप्रस्तुत का प्रस्तुत उनकी कविताओं के अंतस में छिपा दिखाई देता है उसी परोक्ष की प्रत्यक्षता डाॅ. मनीष मिश्र के इस संग्रह की कविताओं में भी परिलक्षित होती है। इनकी कविता सरल होते हुए भी एकाधिक बार पढ़े जाने की मांग करती है। इन कविताओं को पहली बार पढ़ने से लगता है कि यह एक प्रेमी के द्वारा अपनी प्रेमिका के लिए उद्भाषित होते उद्गार हैं पर ध्यान देकर दोबारा पढ़ने पर लगता है कि ये कवि की एक भावना का दूसरे भाव से आत्म संवाद है, चिंतन करते हुए तीसरी बार पढ़ते हुए महसूस होता है कि ये तो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में बसने वाले एक नादान बालक की अपने भीतर बसने वाले समझदार व्यक्ति से बातचीत है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस संग्रह की कविताएँ जितनी बार पढ़ी जाएँ उतनी बार नया और आह्लादकारी अर्थ देती हुई मन को रोमांचित करती हैं।
मुझे मनीष जी की कविताओं में उनका वही शालीन, सौम्य और शांत व्यक्तित्व दिखाई देता है जो उनको नितांत सरल और आत्मीय बना देता है। इस संग्रह की कविताओं को एक बार पढ़ने के बाद बरबस ही दोबारा अध्ययन करते हुए पढ़ने की इच्छा हुई। अध्ययन के दौरान इन कविताओं से जो आनंद प्राप्त हुआ उससे पढ़कर कवि की वह सूक्ष्म दृष्टि पता चलती है जो आज के व्यस्ततम जीवन मंे भी मन की ओझल प्रतीत होने वाली गतिविधियों को भी देख लेती है। जब कवि कहता है कि ‘सुनन में/थोड़ा अजीब लग सकता है/लेकिन/सच कह रहा हूँ/यदि आप/धोखा देना पसंद करते हैं/या यह/आपकी फितरत में शामिल है/तो आप/मुझे अपना/निषाना बना सकते हैं/यकीन मानिए/मैं/आपको/निराश नहीं करूँगा/सहयोग करूँगा।’2 इसी से मिलती जुलती एक अन्य कविता ‘जैसे कि तुम’ भी है जिसमें धोखे के एक अन्य प्रकार से पाठकों को रूबरू कराया गया है। इस कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ पाठकों को एक मजबूत भावनात्मक बंधन में बाँधने की क्षमता रखती है जब कवि कहते हैं कि ‘ऐसा बहुत कुछ था/जो चाहा/पर मिला नहीं/वैसे ही/जैसे कि तुम।’3 पाठक इन पंक्तियों के साथ कवि के साथ आत्मीय संबंध स्थापित कर लेता है और फिर कवि लिखता है ‘धोखा/बड़ा आम सा/किस्सा है लेकिन/मेरे हिस्से में/किसके बदले में/दे गई तुम।’4
यह कविता स्वयं में व्यष्टि से समष्टि और वैयक्तिकता से सामाजिकता का वह पूरा ऐतिहासिक लेखा जोखा प्रस्तुत कर देती है जिसमें समाज की उस विचारधारा पर व्यंग्य की चोट की गई है जिसे अनगिनत कवियों ने प्रस्तुत करने के लिए वर्षों साधना करते हुए अनेक ग्रंथ रच डाले हैं पर फिर भी खुलकर उस बात पर चोट नहीं कर पाए जिसके सम्मोहन में आकर हम इस नश्वर देह और अस्थायी संबंधों को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानकर मोहपाश में बँधे हुए जीवन व्यतीत करते चले जा रहे हैं। इस भवसागर के प्रपंच में फँसे मानव को जीवनदर्शन का कठिन फलसफा बताते हुए कवि संकेत भी करता है कि ‘‘शिक्षित होने की/करने की/पूरी यात्रा/धोखे के अतिरिक्त/कुछ भी नहीं।/मित्रता, शत्रुता।/लाभ-हानि/पुण्य-पाप/मोक्ष और अमरता/सिर्फ और सिर्फ/धोखाधड़ी है।’’5 वह लिखता है ‘‘आत्मीय संबंधो का/भ्रमजाल/धोखे के/सबसे घातक/हथियारों में से एक हैं।’’6
इस कविता में अनुभूति और अभिव्यक्ति की जो तीखी धार पाठक को महसूस होती है उसे स्वयं अज्ञेय ने भी महसूस किया था जिसे उन्होंने अपनी एक कविता में बताते हुए लिखा था कि ‘‘साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं/नगर में बसना भी/तुम्हें नहीं आया/एक बात पूछूँ उत्तर दोगे?/तब कैसे सीखा डसना/विष कहाँ से पाया?’’7 अज्ञेय द्वारा प्रयुक्त ‘डसना’ और कवि मनीष मिश्र द्वारा प्रयुक्त ‘धारदार हथियार’ दोनों ही उस धोखे की ओर संकेत करते हैं। जिसका अनुभव पाठक को अपने जीवन के प्रारंभ से ही हो जाता है। यही कारण अज्ञेय और मनीष मिश्र जी में साम्य के रूप में उभरकर आता है। इतना ही नहीं कवि इस कविता में सांकेतिक रूप से इस समस्या का एक हल भी प्रस्तुत करता है जिसको समझने के लिए इस कविता को पूरा पढ़े बिना मन नहीं मानता। इस हल को ढूँढने की जिज्ञासा पाठक को कविता पूरी पढ़ने के लिए बाध्य करती है। पाठक की यह बाध्यता लेखक की उस परिपक्वता को इंगित करती है जो उसने इस अल्पवय में अपने लेखन की अवस्था में ही प्राप्त कर ली है।
मनीष मिश्र जी के ‘अक्टूबर उस साल’ की कविताओं को पढ़कर लगता है कि वे जानते हैं कि पाठक को अपनी भावनाओं के ज्वार में किस प्रकार ओतप्रोत करना है। जिसके कारण वे पाठकों को कविता दर कविता अपने साथ बहाए लिए जाते हैं। संग्रह की दूसरी ही कविता ‘जब कोई किसी को याद करता है’ भी एक ऐसी प्रस्तुति है जो प्रत्येक पाठक को उसकी गहरी संवेदनाओं के पाश में बाँधकर पाठक को अपने इतिहास की एक मानसयात्रा के लिए बाध्य कर देती है। पाठक कविता के शीर्षक मात्र से अपने जीवन के सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति को अनायास ही याद कर बैठता है फिर आगे की कविता पाठक और पाठक के प्रिय के साथ पढ़ी जाती है। अपने प्रिय के साथ मानसयात्रा के दौरान पाठक स्वयं को और अपने प्रिय को यह याद दिलाने का प्रयास करता है कि उसने अपने प्रिय को अपने हृदय की गहराइयों में एक विशिष्ट स्थान दिया है। वह शीर्षक में लिखी मान्यता को झुठलाना चाहता है और कह उठता है कि ‘‘अगर सच में/ ऐसा होता तो/अब तक/सारे तारे टूटकर/जमीन पर आ गए होते/आखिर/इतना तो याद/मैंने/तुम्हें किया ही है।’’8 इस संग्रह की कविता ‘रक्तचाप’ भी अपने प्रिय की याद करने और उसके साथ बिताये नितांत निजी और ऐसे अनुभूतिपूर्ण क्षणों से मिली गरमाहट की बात करता है जिससे आज भी पाठक भूल नहीं पाया है।
मनीष जी की यह कविता भी उनकी अन्य कविताओं की तरह इतनी छोटी तो है किंतु गहरी भी इतनी है कि पाठक अपने प्रिय के सानिध्य को कविता की चंद पंक्तियों को एक साँस में पढ़ तो जाता है पर एक क्षण में पढ़ ली गई इन लाइनों के बाद बाहर निकलने वाली साँस वर्षों के इतिहास को प्रत्यक्ष कर जाती है। एक बात और है जो मनीष जी की कवितओं को विशेष बनाती है वह यह कि पाठक मनीष जी की कविताओं को स्वयं के जीवन में निभाई जिस भूमिका की भावभूमि में पढ़ता है वे उसे उसी के अनुरूप झँकृत कर देती हैं। यदि पाठक एक बार प्रेमी की तरह इन कविताओं को पढ़ता है तो उसे अपनी प्रेमिका की निकटता का अहसास होता है। यदि पाठक एक पुत्र की तरह इन कविताओं को पढ़ता है तो उसे अपनी माँ के ममत्व की गरमाहट भरी निकटता महसूस होती है, यदि मित्र की तरह पढ़ता है तो उसे एक अन्यतम मित्र की निकटता का आभास होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी बात को इंगित करके लिखा था कि ‘जिन्ह कैं रही भावना जैसी, प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।’9 डाॅ. मनीष मिश्र जी की कविताएँ भी पाठक को बार-बार पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगी और प्रत्येक बार पाठक को एक नये रस का आस्वादन प्राप्त होगा ऐसा मेरा मानना है।
‘तुम्हारी एक मुस्कान के लिए’ कविता भी कुछ ऐसी ही तासीर की कविता है जिसमें पाठक देशकाल के बंधनों से परे जाकर जीवन के प्रत्येक क्षण में अपने प्रिय के साथ बिताए पलों को उसी ताजगी से याद करता है जिस ताजगी से वे घटित हुए थे। इस कविता में जब कवि कहता है कि ‘तुम्हारी एक मुस्कान के लिए/जनवरी में भी/हुई झमाझम बारिश/और अक्टूबर में ही/खेला गया फाग।’10 तब वह वर्तमान में होते हुए भी अपने प्रिय के साथ समययात्रा करता हुआ सूक्ष्मसमायांतराल में एक पुनर्जीवन को जी लेता है। मनीष जी की कविताएँ पाठक की संवेदनाओं को भी संबोधित करती हैं। ‘जब तुम साथ होती हो’ में ऐसा ही संबोधन सुनाई पड़ता है मानो व्यक्ति अपनी आषा को संबोधित करते हुए कह रहा हो कि ‘तुम जब साथ होती हो/तो होता है वह सब/कुछ जिसके होने से/खुद के होने का/एहसास बढ़ जाता है।’11 इस कविता का पहला भाव नायक द्वारा नायिका के प्रति उद्गार के रूप में सामने आता है पर एक अन्य अर्थ में ऐसा प्रतीत होता है कि कवि अपनी आषा के होने के महत्व का वर्णन करते हुए कह रहा है कि आषा के कारण ही कवि का अस्तित्व और पहचान है।
‘वह साल, वह अक्टूबर’ कविता इस संग्रह की मुख्य कविता प्रतीत होती है जिसके इर्दगिर्द इस संग्रह का तानाबाना रचा गया लगता है। इस कविता में कवि ने अपने और प्रिय के व्यक्तिगत अनुभवों को शब्दबद्ध करने का प्रयास किया है। जब वह कहता है कि ‘इस/साल का/यह अक्टूबर/याद रहेगा/साल दर साल/यादों का/एक सिलसिला बनकर।’12 तो इन पंक्तियों में कवि की नितांत व्यक्तिगत किंतु महत्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षणों की एक श्रृंखला ध्वनित होती दिखाई देती है। ‘बहुत कठिन होता है’, ‘अवसाद’, ‘कच्चे से इश्क में’, ‘विफलता के स्वप्न’ ‘भाषा के लिबास में’, ‘इतिहास मेरे साथ’, ‘पिछली ऋतुओं की वह साथी’ आदि इसी श्रेणी की कविताएँ है। इन कविताओं में बीते जीवन की जो सुखद अनुभूतियों की गूँज है उसी का इतिहास इस संग्रह में दिखाई देता है जिसके कारण इस संग्रह का शीर्षक ‘अक्टूबर उस साल’ बहुत उपर्युक्त प्रतीत होता है। इस संग्रह की कविता ‘जीवन यात्रा’ की निम्न पंक्तियाँ इसी तथ्य का साक्ष्य भी देती हैं ‘ऐसी यात्राएँ ही/जीवन हैं/जीवन ऐसी ही/यात्राओं का नाम है।’13
एक अन्य कविता ‘चाँदनी पीते हुए’ में भी लेखक प्रिय के अनुराग को व्यक्त करते हुए न जाने कितनी ही बिसरी बातें याद कर जाता है वह कहता है ’याद आता है/मुझे वह साल/जिसमें मिटी थी/दृगों की/चिर-प्यास।’14 इस कविता की इन प्रारंभिक पंक्तियों को पढ़ते ही पाठक की अपनी बीती अनुरक्ति की यादें ताजा हो जाती हैं उसकी आँखों के झरने में एक-एक करके अनगिनत मीठे लम्हे भीग जाते हैं। इस कविता में जब कवि लिखता है कि ‘यह/तुम्हारे भरोसे/और/मेरे बढ़ते अधिकारों की/एक सहज/यात्रा थी।’15 तब तक पाठक इस कविता के शब्दों के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है और कवि के शब्दों के अनुरूप अपने बीते जीवन को एक बार फिर से अपने भावदेश में जीने लगता है और तब कवि पाठक की अनुभूतियों को कुरेदता हुआ उन बातों की तह तक पहुँच जाता है जिसमें कवि और पाठक एक-दूसरे से अपनी अंतरंग बातें साझा करते हैं कवि लिखता है ‘तुम्हारे बालों में/घूमती/मेरी उंगलियाँ/निकल जाती/सम्मोहन की/किसी लंबी यात्रा पर।’16 कवि की इस कविता के साथ पाठक अपने मन की गइराइयों में छुपे उस अनुराग की तान छेड़ देता है जिसके कारण उसे प्रेम का उदात्त आभास हुआ है। इस भाव को शब्द देते हुए कवि लिखता है ‘जहाँ से तुम/मेरी सर्जनात्मक शक्ति की/आराध्या बन/रिसती रहोगी/मिलती रहोगी/उसी लालिमा/और आत्मीयता के साथ।’17 कवि की कविता इन शब्दों के साथ पूरी हो जाती है किंतु इस तरह की कविताओं के पाठ से पाठक के हृदय में जो स्पंदन शुरु हो जाता है वह पाठक को न केवल पूरी कविता को दोबारा पढ़ने के लिए विवश करता है बल्कि वह पाठक को प्रेरित करता है कि इसी प्रकार उसके मन की उन सभी बातों को इस संग्रह की अन्य कविताओं में ढूँढे जिनको पाठक ने स्वयं से भी साझा नहीं किया है। पाठक उत्प्रेरित होता है और इस संग्रह की अन्य कविताओं में अपने निजी क्षणों की तलाश करता है।
हर व्यक्ति के जीवन में कोई ऐसा प्रिय व्यक्ति अवश्य होता है जिसके प्रति उसका व्यवहार एक अतिरिक्त सावधानी या सुरक्षा के चलते कुछ ऐसा हो जाता है कि उस प्रिय व्यक्ति के कुछ निजी पलों का हमसे अतिक्रमण हो जाता है। ‘मुझे आदत थी’ कविता की पंक्तियाँ ‘मुझे आदत थी/तुम्हें रोकने की/टोकने की/बताने और/समझाने की।’18 ऐसे ही प्रिय व्यक्ति के प्रति पाठक द्वारा किए गए अतिक्रमण की क्षमायाचना करती है तथा प्रायश्चित स्वरूप पाठक को ‘अब/जब नहीं हो तुम/तो इन आदतों को/बदल देना चाहता हूँ/ताकि/शामिल हो सकूँ/तुम्हारे साथ/हर जगह/तुम्हारी आदत बनकर।’19 के माध्यम से समाधान करने का प्रयास करती है जिससे उसके मन की टीस समाप्त हो सके। ‘कब होता है प्रेम?’, ‘रंग-ए-इश्क में’ कविता की निम्न पंक्तियाँ भी पाठक को अपने रंग में रंगने में सफल हो जाती है ‘जहाँ बार-बार/लौटकर जाना चाहूँ/वह प्यार वाली/ऐसी कोई गली लगती।’20 इस संग्रह में कुछ अन्य कविताएँ जैसे ‘चुप्पी की पनाह में’, ‘कुछ उदास परंपराएँ’, ‘इन फकीर निगाहों के मुकद्दर में’, ‘प्रतीक्षा की स्थापत्य कला’, ‘पिघलती चेतना और तापमान से’, ‘गंभीर चिंताओं की परिधि’ आदि पाठक को अपने स्वप्नलोक से वापस लाकर यथार्थ का आभास कराती हैं और बताती हैं कि वह जिस भावभूमि में था वह उसको नास्टेल्जिया मात्र है पर ‘दो आँखों में अटकी’ जैसी कविता पाठक को आश्वस्त भी करती है कि उसके मन की गहराइयों में जो निश्छल और निर्मल प्रेम छुपा है वही उसकी अनमोल निधि है जो उसे उसके संबंधों के निर्माण के लिए प्रेरित करती है। जब कवि लिखता है ‘यकीन मानों/मेरे पास/और कुछ भी नहीं/मेरे कुछ होने की/अब तक कि/पूरी प्रक्रिया में।’21
एक अन्य कविता ‘यूँ तो संकीर्णताओं को’ भी उस सामाजिक एकता की ओर संकेत करती है जिसकी मजबूती से आज हम अपनी जी जाति को विनाश की ओर ढकेल रहे हैं। कवि लिखता है ‘हम/आसमान की/ओर बढ़ तो रहे हैं/पर अपनी/जड़ों का हवन कर रहे हैं।’22 मेरे विचार से कवि मनीष की यह कविता इनके इस संग्रह की सबसे सशक्त कविता है जो तीखे शब्दों में हमारे समाज के यथार्थ और सामाजिक संबंधों की वर्तमान स्थिति की दयनीयता को स्पष्ट रूप से न केवल सामने रखती है बल्कि पाठक को सोचने यह सोचने के लिए विवश करती है कि क्या मनुष्य जाति के विकास का लक्ष्य यही था जो कवि मनीष जी ने लिख दिया है। पाठक कवि से सहमत भी होता है तथा सृष्टि और समाज में अपनी भूमिका की समीक्षा पर मनन भी करता है। इस कविता के अंतिम पद की पंक्तियाँ ‘भगौड़े/भाग रहे हैं विदेश, देश को लूटकर/हमारे रहनुमा हैं कि/भाषण भजन कर रहे हैं।’23 कवि को दुष्यंत कुमार जैसे उन शीर्ष कवियों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर देती हैं जो हमारे समाज की बुराइयों को अपनी कलम की तलवार से काटने के लिए किये जाने वाले युद्धघोष की प्रथम पंक्ति में रहते हुए यह कहते हैं कि ‘हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए।24 ‘इस दौर-ए-निजाम’ कविता की ये पंक्तियाँ ‘विश्व के सबसे बड़े/सियासी लोकतंत्र में/आवाम की कोई भी मजबूरी/सिर्फ एक मौका है।’25 अनायास ही हिंदी के हस्ताक्षर गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ की याद दिला देती हैं।
कवि मनीष की कविताओं में यथा स्थान बिम्ब, प्रतीक एवं मिथकों को प्रयोग भी किया गया है जो युवा कवि होने पर भी अपने कार्य में दक्षता को दर्शाता है। ‘यूँ तो संकीर्णताओं को’ कविता में उनका यह लिखना कि ‘रावण के पक्ष में/खुद को/खड़ा करके/ये हर साल/किसका दहन कर रहे हैं?’26 मनीष जी की कविता में इसी कलात्मकता की ओर संकेत करता है। इस संग्रह में मनीष जी की अनुभूतियों का सबसे सशक्त रूप उनकी ‘माँ’ कविता में उभरकर सामने आता है। शायद यह कविता इस संग्रह की सबसे लंबी कविता भी है। हो भी क्यों न, व्यक्ति के समस्त जीवन की एकमात्र संभावना इस कविता के शीर्षक में छिपी हुई है। यदि इस कविता की भाव संपदा की व्याख्या की गई तो शायद अन्य किसी कविता के लिए अवकाश ही न मिले। कवि मनीष जी द्वारा अपनी माँ को समर्पित यह कविता उनके सहज, सरल और शांत व्यक्तित्व के निर्माण कर कहानी कहती है। इस कविता के तुरंत बाद की कविता में अपने पर हावी हो जाने के द्वंद्व में पददलित की हुई इच्छाओं का जैसा संक्षिप्त और सटीक प्रस्तुतिकरण कवि ने किया है उससे ‘तुम से प्रेम’ कविता कवि की प्रस्तुति का अंदाज ही बदल देती है। जो कवि अभी तक सरल शब्दों में अपनी बात रखता जा रहा था इस कविता से उसके शब्द अचानक अत्यंत गंभीर और गहरे अर्थों वाले दार्शनिक हो जाते हैं जिससे ऐसा लगता है मानो कवि वर्षों की काव्य साधना की चिर समाधि का अनुभव साथ लिए हुए धीरे-धीरे अपना पद्यकोश खोल रहा है।
इस संग्रह में इस कविता से आगे की लगभग समस्त कविताएँ तीक्ष्ण कटाक्ष और पैनी दृष्टि के साथ एक ऐसे विद्वान पाठक का आग्रह करती हैं जिन्हें पढ़ने वाले के पास अपना स्वयं के अनुभव का एक इतिहास हो। ‘तुमने कहा’ कविता की पंक्तियाँ ‘मैं वही हूँ/जिसे तुमने/अपनी सुविधा समझा/बिना किसी/दुविधा के।’27 बताती हैं कि केवल दान करना ही प्रेम की इति नहीं होती, प्रतिदान का भी प्रेम के व्यापक संसार में बहुत गहरा महत्व है। प्रतिदान के अभाव में प्रेम के दूषित भाव का भी जन्म हो सकता है जिसके कारण प्रेम के दीर्घायु होने में संषय उत्पन्न हो जाता है। ‘लंबे अंतराल के बाद’ कविता की ये पंक्तियाँ इसी की ओर संकेत करती हैं ‘सालते दुःख से/आजि़्ाज आकर/वह मौन संधि/गैरवाजिब मानकर/मैंने तोड़ दी’।28 इस कविता में मनीष जी ने अत्याधुनिक और तकनीकी युग में जीवन को यथार्थ की कसौटी पर परखते हुए जीने वाले आज के युग के लोगों के उस तनाव को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जो प्रतिदान के अभाव में उत्पन्न हो जाता है। इस अभाव को दूर करने का प्रयास संग्रह की अगली कविता ‘कुछ कहो तुम भी’ की निम्न प्रारंभिक पंक्तियों में ही दिखाई दे जाता है ‘यूँ खामोशी भरा/मुझसे/इंतकाम न लो/तुम/ऐसा भी नहीं कि/तुम्हें/किसी बात का/कोई/मलाल न हो/दूरियाँ कब नहीं थीं/हमारे बीच?/लेकिन/ये तनाव/ये कश्मकश न थी’29 मनीष जी के इस संग्रह में प्रेम का जो रूप दिखाई देता है वह एक के बाद एक आने वाली कविताओं में व्यक्तिगत से समष्टिगत विस्तार तो पाता ही है उसमें आलंबन का तिरोभाव भी होता चला जाता है।
‘जैसे होती है’ कविता की निम्न पंक्तियाँ एक प्रेमी में दूसरे प्रेमी के इसी विलय की ओर संकेत करती हैं ‘जैसे होती है/मंदिर/में आरती/सागर/में लहरें/आँखों/में रोशनी/फूल/में खुशबू/शरीर/में ऊष्मा/शराब/में नशा/और किसी मकान/में घर/वैसे ही/क्यों रहती हो?/मेरी हर साँस/में तुम।’30 मनीष जी की यह कविता कबीर के उस दोहे की बरबस ही याद दिला देती है जिसमें उन्होंने भी आलंबन के तिरोभाव का उल्लेख किया है। कबीर कहते हैं ‘जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं हम नाय, प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय।’31 प्रेम के विस्तार में स्वयं का विलय कर देने का यह भाव कबीर और मनीष जी के भाव में नितांत समानता दर्शाता है।
‘प्रेम ओर समर्पण’ कविता प्रथमदृष्टया इस संग्रह के प्रतिकूल दिखाई देने पर भी इस संग्रह के लिए निहायत ही अनुकूल है पर इस कविता को इस संग्रह में जो स्थान दिया गया है वह अनुकूल जान नहीं पड़ता। इस कविता को इस संग्रह की कविताओं ‘अवसाद’ और ‘मतवाला करुणामय पावस’ के बीच कहीं होना चाहिए था। इसी तरह ‘आगत की अगवानी में’, ‘स्थगित संवेदनाएँ’, ‘जो लौटकर आ गया’ इस संग्रह की ऐसी कविताएँ हैं जिनकी गहराई को समझने के लिए वांछित परिपक्वता अभी मुझमें नहीं है ऐसा मुझे प्रतीत होता है। इस संग्रह की अंतिम कविता ‘बचाना चाहता हूँ’ को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि लेखक ने इस संग्रह की अंतिम कविता के रूप में इसको बहुत पहले ही लिख लिया होगा क्योंकि यह कविता हर लिहाज से संग्रह की अंतिम कविता के रूप में ही फिट बैठती है। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए पाठक अपने बीते हुए नितांत व्यक्तिगत और सुखदायी वैचारिक जगत् में विचरण करता है उससे पाठक को यह समाधान हो जाता है कि उसके प्रेम के ये ही निजी क्षण उसकी ऐसी अक्षय निधि हैं जो उसके अकेलेपन को भावों के परिवार से भर देती हैं और पाठक विवश हो जाता है कि यदि उसे अपने अस्तित्व और अपने व्यक्तित्व की रक्षा करनी है तो उसे इन सुखद स्मृतियों को बचाना ही होगा। ऐसे निश्चय के साथ यह अंतिम कविता पाठक को अपने इस निर्णय पर अटल होने के लिए प्रेरित करती हैं जिसमें कवि कहता है ‘मैं/बचाना चाहता हूँ/दरकता हुआ/टूटता हुआ/वह सब/जो बचा सकूँगा/किसी भी कीमत पर’32 कवि ने बचाने वाली इस संपत्ति के कोष में जिस टूटते हुए मन, भरोसे की ऊष्मा, आँखों में बसे सपने की बात की है उनके लिए पाठक को लगता है कि ये तो स्वयं पाठक के मन में उठने वाले विचार हैं। इस प्रकार कवि मनीष की यह कविता भी पाठक के साथ तारतम्य स्थापित कर लेती है।
इस अंतिम कविता को पढ़ने के बाद इस बात की तसल्ली होती है कि अपने दूसरे ही संग्रह की कविताओं में कवि मनीष ने पाठक की रुचि के अनुरूप ऐसी कविताओं की रचना की है जो पहली कविता से लेकर अंतिम कविता तक पाठक को बाँधे रखने में सफल होती है। यद्यपि इन कविताओं में ध्यानस्थ पाठक की चेतना भंग नहीं होती तथापि कुछ कविताओं का स्थान यदि इधर-उधर कर दिया जाता तो मेरे जैसे अल्पज्ञ किंतु भावुक पाठक को और भी अधिक आनंद आता। फिर भी कम शब्दों में रची हुई छोटी छोटी कविताएँ होने के बावजूद कवि ने अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति जिस प्रकार से की है उसका रसास्वादन करते हुए साहित्य के बड़े-बड़े कवियों का अनायास स्मरण हो जाना कवि की कवितओं की सफलता और काव्य चेतना की गहराई की ओर संकेत करता है। इन कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि यह कवि केवल लिखने लिए ही कविताएँ नहीं लिखता बल्कि इसकी सूक्ष्म चैतन्य दृष्टि आज के आपाधापी भरे समय में भी मनुष्य को विश्राम देकर स्वयं के बारे में विचार करने के लिए बाध्य करती है। कवि के रूप में डाॅ. मनीष मिश्रा जी में असीमित संभावनाएँ हैं। अनंत संभावनाओं वाले कवि डाॅ. मनीष मिश्रा जी को उनके काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ की छोटी, सुंदर और गहरी कविताओं की रचना के लिए बहुत बधाई।
संदर्भ-
अनुक्रमणिका
आत्मीयता, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- शब्द सृष्टि दिल्ली, संस्करण- 2019, पृष्ठ-11
जैसे कि तुम, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-91
जैसे कि तुम, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-92
आत्मीयता, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-13
आत्मीयता, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-13
https://www.hindisamay.com/content/714/1/अज्ञेय-कविताएँ-चुनी-हुई-कविताएँ.cspx#साँप
जब कोई किसी को याद करता है, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, उपरोक्त, पृष्ठ-13
रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, बालकाण्ड, दोहा क्रमांक- 241 के अंतर्गत चैपाई क्रमांक-2
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- शब्द सृष्टि दिल्ली, संस्करण- 2019, पृष्ठ-20-21
जब तुम साथ होती हो, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-26
वह साल, वह अक्टूबर, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-29
जीवन यात्रा, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-34
चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-60
चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-62
चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-62
चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-66
मुझे आदत थी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-47
मुझे आदत थी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-48
रंग-ए-इश्क में, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-96
दो आँखों में अटकी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-83
यूँ तो संकीर्णताओं को, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-94
यूँ तो संकीर्णताओं को, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-95
http://kavitakosh.org/kk/हो_गई_है_पीर_पर्वत-सी_पिघलनी_चाहिए_/_दुष्यंत_कुमार
इस दौर-ए-निजाम, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-98
यूँ तो संकीर्णताओं को, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-94
तुमने कहा, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-108
लंबे अंतराल के बाद, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-110
कुछ कहो तुम भी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-113
जैसे होती है, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-122
https://hindisamay.com/kabir-granthawali/saakhi.htm दोहा क्रमांक 35
बचाना चाहता हूँ, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-132
डाॅ. गजेन्द्र भारद्वाज, सहायक प्राचार्य हिंदी
सी.एम.बी. काॅलेज डेवढ़, घोघरडीहा, जिला- मधुबनी, बिहार
ईमेल- drgajendrabhardwajhindi@gmail.com
संपर्क- 7898391639
ORCID iD- 0000-0002-0712-9187
Labels:
‘अक्टूबर उस साल’ की समीक्षा
Subscribe to:
Posts (Atom)
sample research synopsis
Here’s a basic sample research synopsis format you can adapt, typically used for academic purposes like thesis proposals or project submiss...
-
***औरत का नंगा जिस्म ********************* शायद ही कोई इस दुनिया में हो , जिसे औरत का जिस्म आकर्षित न करता हो . अगर सारे आवरण हटा क...
-
जी हाँ ! मैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष , जिसके विषय में पद््मपुराण यह कहता है कि - जो मनुष्य सड़क के किनारे तथा...
-
Factbook on Global Sexual Exploitation India Trafficking As of February 1998, there were 200 Bangladeshi children and women a...
-
अमरकांत की कहानी -जिन्दगी और जोक : 'जिंदगी और जोक` रजुआ नाम एक भिखमंगे व्यक्ति की कहानी है। जिसे लेखक ने मुहल्ले में आते-ज...
-
अनेकता मे एकता : भारत के विशेष सन्दर्भ मे हमारा भारत देश धर्म और दर्शन के देश के रूप मे जाना जाता है । यहाँ अनेको धर...
-
अर्गला मासिक पत्रिका Aha Zindagi, Hindi Masik Patrika अहा जिंदगी , मासिक संपादकीय कार्यालय ( Editorial Add.): 210, झेलम हॉस्टल , जवा...
-
Statement showing the Orientation Programme, Refresher Courses and Short Term Courses allotted by the UGC for the year 2011-2012 1...
-
अमरकांत की कहानी -डिप्टी कलक्टरी :- 'डिप्टी कलक्टरी` अमरकांत की प्रमुख कहानियों में से एक है। अमरकांत स्वयं इस कहानी के बार...