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Tuesday, 11 August 2015

यह पीला स्वेटर

न जाने
कितने दिनों में
तुमने बुना था
मेरे लिए
यह पीला स्वेटर ।

जो सर्दियों के आते ही
बंद आलमारी से निकल
मेरे बदन पर
आज भी सज जाता है ।

कई बार सोचा कि
अब तो तंग हो गया है
रंग भी
हलका हो गया है
सो कोई दूसरा ले लूँ ।

लेकिन न जाने क्यों
इसके जैसा
या कि
बेहतर इससे
अब तक मिला ही नहीं ।

इधर सालों से
तुम भी नहीं मिली
कहीं से कोई
ख़बर भी नहीं मिली तुम्हारी ।

लेकिन ऐसा बहुत कुछ
तुम छोड़ गई हो
मरे पास
जो मुझे तुमसे
आज भी जोड़े हुए है ।

इतने सालों बाद भी
मैंने संजोया हुआ है
तुम्हें
तुमसे जुड़ी
हर एक बात को
हर एक अहसास को ।

हाँ समय के साथ
इस स्वेटर की तरह
बहुत कुछ तंग
और बेरंग हुआ है
मेरे अंदर भी
मेरे बिना
मेरी ही दुनियाँ में ।


लेकिन
जितना भी
तुम्हें बचा पाया
सच कहूँ तो
उतना ही
बचा भी हूँ ।

अब देखो ना
सर्दियाँ अभी शरू भी नहीं हुईं
लेकिन
अक्टूबर की
गर्मी और उमस के बीच भी
जब अधिक बेचैन होता हूँ
तो ये पुराना स्वेटर
पहनकर सोता हूँ ।

एक जादू सा
होता है ।
सुकून मिलता है
पसीने से
तर बतर होकर भी ।

इस स्वेटर में
महसूस करता हूँ
तुम्हारी उंगलियाँ
तुम्हारी ऊष्मा
और तुम्हारा प्यार ।

अब जब की नहीं हो तुम
तुम्हारा दिया
यह स्वेटर
अब भी
बड़ा आराम देता है
सिर्फ़ सर्दियों में ही नहीं
लगभग
हर मौसम में
उन मौसमों में भी
जो मेरे अंदर होते हैं ।

जहाँ किसी और की नहीं
सिर्फ़ और सिर्फ़
तुम्हारी जरूरत होती है
तुम्हारी ऊष्मा ही
वहाँ प्राण शक्ति होती है ।


न जाने किस जादू से
तुमनें बुना था इसे
न जाने किस
ताने-बाने के साथ
कि यह मेरा साथ
छोड़ना ही नहीं चाहता
या कि मैं
इसे ।
             मनीष कुमार
             B H U

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