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Monday, 5 October 2020

भारतीय उपमहाद्वीप में क़व्वाली और तकनीकी परिप्रेक्ष्य ।

 

              भारतीय उपमहाद्वीप में क़व्वाली और तकनीकी परिप्रेक्ष्य ।  

                                           डॉ मनीष कुमार मिश्रा

                                         डॉ उषा आलोक दुबे

 

             भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद की जड़ें  इस्लामिक परमानंद प्राप्ति की उस शास्त्रीय परंपरा में है जो अरब और फ़ारस में 09 वीं से 11 वीं सदी के बीच विकसित हुई और धीरे-धीरे 12 वीं शताब्दी के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में आयी । “तरीक़ा” और “तौहीद” के माध्यम से ईश्वर से एकाकार होने की सूफ़ी पद्धति लोकप्रिय हुई । “मकाम” इसका चरम स्थल है । भारतीय उपमहाद्वीप में चिश्तिया परंपरा बड़ी महत्वपूर्ण रही । सूफ़ी संत मोईनुद्दीन चिश्ती जो कि हज़रत ख्वाजा गरीब नवाज़ के नाम से जाने जाते हैं वे अजमेर में सन 1236 के आस-पास आये । इसी परंपरा में काकी, बाबा फ़रीद और निज़ामुद्दीन औलिया जैसे अनेकों सूफ़ी संत हुए जिनसे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ियाना परंपरा को बढ़ावा मिला ।

       सूफ़ीवाद सीखने से अधिक अनुभूति का विषय मानी गयी । “जीकर” और “समा” संगीत के माध्यम से सूफ़ी ईश्वर से एकाकार होने की राह में आगे बढ़ते हैं । “समा” के आयोजन में समय, स्थान और लोग इत्यादि को लेकर नियम रहे हैं । पूरे  भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ी कलाओं की संगीतमय प्रस्तुति के रूप में क़व्वाली की पहचान बन गयी । नृत्य का सूफियों के यहाँ कोई बुनियादी स्वरूप नहीं मिलता । “समा” के समय पागलों की तरह नाचना, चिल्लाना इत्यादि आत्मा की छटपटाहट मानी गयी है । ऐसी अवस्था को “हाल” कहते हैं । ऐसी अनुभूतियों के लिए तैयार होने में क़व्वाली सहायक होती है । क़व्वाली की भाषा आत्मा की भाषा मानी जाती रही है । समय के साथ पूरी सूफ़ी परंपरा में बड़े बदलाव हुए । क़व्वाली भी दरगाहों और ख़ानकाहों से निकलकर एक व्यवसाय के रूप में बढ्ने लगी । इन्हीं सब स्थितियों, परिस्थितियों का गंभीर अकादमिक अध्ययन व विवेचना बहुत जरूरी है ।

                   सूफी परंपरा का रास्ता रहस्यात्मक रहा है। सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवम् धार्मिक परिस्थितियों ने सूफी परंपरा को आकार दिया राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं एवम् आंदोलनों ने सूफी परंपरा को वैश्विक विस्तार देने में सहायता की । बहुत से तकनीकी विकास ने भी  सूफी परंपरा के विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । 19वी शताब्दी में जब प्रेस का भारत और एशिया में आगमन हुआ तो यह बहुत क्रांतिकारी था । मनचाहे विषयों पर लिखित रूप में अध्ययन सामग्री की सहज उपलबधता बड़ी बात थी। सूफी साहित्य और संगीत को  इससे प्रचारित-प्रसारित होने का  तीव्र रास्ता मिला। इसी तरह ऑडियो रिकार्डिंग की खोज ने सूफी संगीत को अधिक लोकप्रियता दी। चिश्तिया संप्रदाय से जूड़ी  कव्वालीअब रिकार्ड होकर घर-घर तक पहुँचने लगी। पाकिस्तान के मशहूर कव्वाली गायक नुसरत फतेअली खॉ की 100 से अधिक सी.डी. रिकार्ड हुई। सूफी संगीत अन्य प्रकार के संगीत से जुड़कर अपना एक नया रूप प्रस्तुत करने में कामयाब हुआ। इस तरह कव्वाली और सूफी संगीत पूरी दुनिया में लोकप्रिय होने लगा। यह संगीत संलयन का ही प्रभाव रहा कि परंपरागत श्रोताओ के अतिरिक्त पूरे विश्व में सूफी संगीत के दीवाने तैयार हुए। कंप्युटर और इंटरनेट ने इसे और आगे बढाया। आज विश्व में कई ऐसी वेबसाईट हैं जो सूफी संप्रदाय, संगीत इत्यादी की जानकारी प्रदान करने का कार्य कर रही हैं।

              सूफी संगीत  परमानंदको पाने का मार्ग/साधन है। सूफी संगीत के आचार-विचार और इसे सुनने  को लेकर काफी कुछ लिखा गया है।  सूफी संतों की दरगाह पर आज भी लाखों लोग आते हैं   इजिप्ट / मिस्र  में बाकायदे ऐसी दरगाहों, मजारों इत्यादि के व्यवस्थापन के लिए सरकारी ब्युरो बने हुए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यहाँ चढ़ावे के रूप में बड़ी रकम आती है। कट्टरपंथियों द्वारा इनका विरोध  लगातार होता रहा है कि लेकिन इनकी लोकप्रियता में कोई कमी नही आयी है। सन 1925 के बाद अरब में ऐसे कट्टरपंथियों ने सूफियों की निशानी को मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। तुर्की, इंडोनेशिया जैसे देशों में विरोध के बावजूद सूफी परंपरा और विचारधारा को माननेवाले सक्रिय हैं। कई देशों में सूफी विचारधारा कोकट्टर इस्लाम के विपरीत पेश किया जाता है। धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता जैसे मुद्दों कोसूफी समूहोंकी आड़ में प्रस्तुत कर इस्लाम की कट्टरता के विरोध का एक राजनैतिक तरीका।

               कव्वाली की उत्पत्ति कुछ लोग अरबी शब्द  कौल से मानते हैं। जिसका अर्थ है कथन या वचन। यह सूफी संप्रदाय की एक आराधना पद्धति का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यह ईश्वर/खुदा से संवाद बनाने का साधन है। कव्वाल गाते हुएहाल की स्थिति में पहुँचते हैं जहाँ वे सामने बैठे बंदों से नहीं सीधे खुदा से संवाद करते हैं। कव्वाली की शुरूआत हम्दसे होती है जो उस परवर दिगार की शान में गायी जाती है। उसके बाद नाता जो पैगंबर हजरत मोहम्मद की शान में होती है। इसके बाद  मर्सिया, गजल, काफी, रंग और मुनाद प्रस्तुत किया जाता है।

             भारत में कव्वाली की शुरूआत 13 वी शती में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (1141-1236) और हजरत अमीर खुसरो से होती है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि आडियो रिकार्डिंग की सुविधा ने कव्वाली को लोकप्रिय करने में महत्त्वपूर्ण  भूमिका निभाई। कल्लन जैसे  कव्वालों के रिकार्ड 1920-25 के आस-पास निकलने शुरू हुए । वाद्य यंत्रों में शुरुआती दिनों में हारमोनियम की जगह सारंगी इस्तमाल होती थी। 1940 के बाद जो कव्वाल आये उनमें जानी बाबू कव्वाल, इस्माइल आजाद कव्वाल, युसूफ आजाद कव्वाल इत्यादि हैं। इस क्षेत्र में मर्दो के एकाधिकार को भोपाल की शकीला बानो भोपाली ने तोड़ा ।

          धीरे-धीरे कव्वाली के स्वरूप में परिवर्तन आता गया। लोकप्रिय/पॉपुलर कव्वाली और इसी का एक रूप मुकाबला--कव्वाली अधिक लोकप्रिय होने लगी। फिल्मों में क़व्वाली भरपूर इस्तमाल हुई। हिंदी फिल्मों के संदर्भ में देखें तोमुगल--आजम, ताजमहल, ‘धर्मा, ‘पुतलीबाई, ‘बरसात की रात, ‘कव्वाली की रात, ‘अमर-अकबर-एँथोनी जैसी अनेकों हिंदी फिल्मों में कव्वाली का उपयोग किया गया। फिल्मों में आकर कव्वालीटेक्नोकव्वाली हो गई। यहॉ कव्वाली को लोकप्रिय बनाने के लिए हरतरह के वाद्ययंत्र को उपयोग में लाया गया। इन्हें किसी से परहेज नहीं था।

           कव्वाली के संदर्भ में सीधे तौर पर लिखी हुई जानकारी नहीं मिलती। इस संदर्भ में जो थोड़ी जानकारी उपलब्ध होती है वह तजकिरा और मल्फुजत के माध्यम से होती है। तजकिरा में सूफियों के जीवन, कायों, चमत्कारों इत्यादि का जिक्र होता है तो मुल्फुजत में सूफीयों के संवादों को प्रस्तुत किया जाता है।  समाके जिक्र हिंदू-मुस्लिम साहित्य में मिल जाता है,इस्लाम में इसकी स्वीकृति-अस्वीकृति के संबंध में। दक्षिण एशिया में सूफी परंपरा का बड़ा श्रेय मोईन्नूदीन हसन चिश्ती का ही माना जाता है। 20 वी शताब्दी के अंत तक इस रहस्यात्मक अनुभूति पर लिखे जाने का एक कारण इसकी आध्यात्मिक शुद्धता, पवित्रता इत्यादि को बनाये रखना भी हो सकता है। चुंकि यह अल्लाह के इबादत का महत्त्वपूर्ण तरीका था अतः इसे जनसामान्य में प्रचालित करने की जरूरत महसूस नहीं की गई होगी। इसलिए यह परंपरा आभिजात्य मुस्लिमों के लिए रही ना कि जन सामान्य के लिए।

           शेख निजाम्मूद्दिन औलिया के जीवन और समय को लेकर भारतीय इतिहासकार खालिक अहमद निजामी का कार्य बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। उनका प्रकाशित  मोनोग्राफ इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है। लेकिन उन्होंने संगीत के पक्ष को लेकर अधिक लिखा है। कव्वाली संगीत एवम् उसकी प्रस्तुति को लेकर उन्होंने विस्तार से चर्चा की है। अल्ला केकौलसे चलते हुए  पॉपुलरकव्वाली तक की कव्वाली की  यात्रा मुख्य रूप से दो भागों में बटी हुई है।

 1) अभिजात्य मुस्लिमों के लिए निर्धारित और नियंत्रित क़व्वाली ।

 2) आम जन मानस के बीच लोकप्रिय बंधनमुक्त कव्वाली।

कव्वाली की शैली में यह बदलाव बड़े व्यापक रूप में हुआ है। निश्चित तौर पर इसमें तकनीकी विकास का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जिसकी चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। सन 1944 मेंनाईट बर्डनामक फिल्म के गानेहसीनों के लिए में कव्वाली का पहला फ़्यूजन रूप दिखायी पड़ा।

             महफिले--समा पवित्र स्थलों पर पूरे अदब, एहतराम और लिहाज के साथ प्रस्तुत की जाती थी। क्लबों, फिल्मों और ऐसे ही अन्य मनोरंजन के स्थलों पर प्रस्तुत की जानेवाली कव्वाली को  समाकहा जाता है। तकनीक के विकास और व्यावसायिकता के दबाव में कव्वाली का व्यावसायीकरण बहुत तेजी से हुआ।महफिल--समामें औरतों का निषेध था लेकिन व्यावसायिक प्रस्तुतियों में औरतों ने सूफियाना कलाम गायकी में अपना नाम कमाया। पाकिस्तानी गायिका आबिदा परवीन कुछ ऐसी ही मशहूर गायिकाओं में से एक  हैं। यह सच है कि चिश्तिया संप्रदाय की परंपरा में उनके खानकाहों में जो महफिल--सान होती थी उसमें कव्वाल पुरुष ही होते थे । इसी शाखा से जुड़े अमीर खुसरो ने अरबी, फारसी शैलियों को मिलाकर हिंदी / खड़ी बोली हिंदी में कव्वाली की परंपरा को आगे बढ़ाया।

             इसी चिश्तिया शाखा से जुड़े ताजूद्दीन चिश्ती, नूर मोहम्मद महरवी, मोहम्मद सुलेमान तौनसवी और ख्वाजा गुलाम फरीद आज के पाकिस्तान में सूफियाना विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए जाने गये। विशेष रूप से पाकिस्तान के पंजाब और सिंध प्रांत में कव्वाली गायकों/संगीतकारों की अच्छी संख्या  रही। इन्हें  हमनवा कहा जाता था। सूफी संगीत का साक्षात अनुभव धिकर कहलाता जो अपने सुननेवालों को  फना का आध्यात्मिक अनुभव करता था। एक अदब के तहत ये आयोजन होते थे। ऐसे आयोजनों में ताली इत्यादी बजाना प्रतिबंधित था, इसकी मनाई होती। शर्रिया कानून (शरत) के तहत वैसे भी औरतों का पुरुषों की उपस्थिति में गाना इस्लाम में प्रतिबंधित माना गया है। औरतों की उपस्थिति में पुरुषों के अपनेपथ से भटकने का भी अंदेशा रहता होगा। इसलिए भी शायद खानकाहों में औरतों का प्रवेश वर्जित रखा गया

              कव्वाली की प्रस्तुति के समय कव्वाल चमकदार कपड़े पहनते हैं। जैसे-जैस इसका व्यावसायिक रूप बढा, कई वाद्य यंत्रों का प्रयोग भी इसमें होने लगा। दक्षिण एशिया में कव्वाली के व्यावसायिक एवं आधुनिक स्वरूप को लोकप्रिय बनाने वाले लोगों में नुसरत फतेअली खान का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने कई पश्चिमी गायकों को अपनी शैली से प्रभावित किया । हिंदी फ़िल्मों के लिए भी आप ने कई गाने गाये। मुकाबला कव्वाली 40 के दशक से हिंदी फिल्मों में लोकप्रिय रहा है। हिंदी फिल्मों की कव्वाली में किसी महिला के सहभागी होने का पहला मामला सन 1945 में आया। फिल्मजीनत में दिखायी पड़ता है। इस फिल्म का लोकप्रिय गीत रहा ---- ‘‘आहें ना भरे, शिकवे ना किये।इसके बाद सन 1960 मेंबरसात की रातफिल्म में औरतों का समूह कव्वाली गाते हुए दिखायी पड़ता है । इसी तरह फिल्म निकाह जो कि सन 1982 आयी। फिल्म बर्निंग ट्रेन में भी औरतों द्वारा कव्वाली प्रस्तुत की गई। सन 1960 में ही आयी मुगल--आजम में भी औरतों द्वारा कव्वाली प्रस्तुत हुई।

        सोशल मीडिया ने भी कव्वाली के प्रचार-प्रसार में बहुत बड़ी भूमिका निभाई वो भी बिना किसी लैंगिक भेदभाव के भारत की बात करें तो यहाँ 300 मिलियन (30 करोड़) से भी जादा स्मार्ट फोन इस्तमाल में लाये जा रहे हैं। इंटरनेट के इस्तमाल में भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर है। यूट्यूब चैनल के माध्यम से लोग अपना पसंदीदा संगीत या कि पूरी फिल्म इत्यादि बनाकर उसे दुनिया भर के लोगों के बीच आसानी से पहुँचा रहे हैं। जहाँ तक सूफियाना कव्वाली की बात है तो ऐसे कई गायक हैं जिन्होंने इंटरनेट पर अपना गीत  अपलोडकरके लोकप्रियता कमाई। बहुत से प्रॉडक्शन हाऊस भी इसी सोशल मीडिया पर चल रहे हैं।

          नुसरत का जन्म एक पाकिस्तानी संगीतकार परिवार में हुआ। उन्हें तबला वादन की शिक्षा मिली। खयाल औरध्रुपदगायकी के साथ उन्होंने कव्वाली भी सीखी यद्यापि वे किसी खानकाह से जुड़े नहीं थे। सन 1971 में उन्होंने अपना कव्वाली टोली/समूह तैयार किया। उनकी लोकप्रियता भी धीरे-धीरे काफी बढ़ गई थी। पीटर गॅब्रीयल के साथ मिलकर उन्होंने अपना पहला कव्वाली फ्युजन अलबम सन 1990 मेंमस्त मस्तनाम से लाया। इलेक्ट्रानिक वाद्ययंत्रों के साथ उनके आवाज के संश्र्लेषण ने पूरी दुनिया को उनका दीवाना कर दिया। सन 1997 में अपनी मृत्य तक वे इस फ्युजन कव्वाली के साथ प्रयोग करते रहे। कई कव्वाल जो परंपरागत रूप से खानकाहों की कव्वाली से जुड़े थे वे भी नुसरत की तारीफ करते थे लेकिन वे यह बताना नहीं भूलते थे कि नुसरत कव्वाल नहीं, कव्वाली गायक थे। अर्थात खानकाहों के / से जुड़े परिवारों से वे  नहीं थे। दिल्ली में हर साल आयोजित होनेवाला जश्न--खुसरोकार्यक्रम कव्वाली के व्यावसायिक कामयाबी का एक उदाहरण है। यह आयोजनआगा खान ट्रस्ट ऑफ कल्चरद्वारा होता है। सूफियाना कलाम से सजा यह आयोजन निजामुद्दीन खानकाह की जद में होता है। इसके लिए मँहगे टिकट बेचे जाते हैं। इसमें अब कई तरह के वाद्ययत्रों का उपयोग होने लगा है जो परंपरागत खानकाही कव्वाली से मेल नहीं खाता। आगा खान ट्रस्ट  यह कार्यक्रम फोर्ड फाऊंडेशन और इंडिया इंटरनॅशनल सेंटर के साथ मिलकर करता रहा है।

            वर्तमान में निजामुद्दीन की खानकाह के अधिकांश कव्वाल सिकंदरा घरानेसे ताल्लुक रखते हैं। जो कि बुलंदशहर  में आता है। मोहम्मद इमाद खान ऐसे ही कव्वाल हैं जो खानकाह से परंपरागत रूप से जुड़े हुए हैं। उनकी कव्वाली टीम मिराज कव्वाली के नाम से जानी जाती है। इस तरह के व्यावसायिक कव्वालें के समक्ष जो दर्शक या संगीत प्रेमी होते हैं वे सभी धर्मों से आते हैं। ऐसे में उनके अनुकूल होकर कव्वाली प्रस्तुत करना महत्त्वपूर्ण होता है। सूफी परंपरा से जुड़े व्यावसायिक कव्वालियों को करने वाले इसमे किसी तरह की बुराई नहीं मानते। उनके अनुसार हम सभी एक ही  ईश्वर की संतान हैं। सब को उसका संदेश मिले, कृपा मिले, इसमें किसी को भी कोई ऐतराज कैसे हो सकता है?

              वाद्ययंत्रों को लेकर एक बड़ा परिवर्तन मुगल काल में हुआ। खास तौर परअकबरऔरजहाँगीरके समय में। कुंजी पटल वाले वाद्यंत्रभारत के संगीत कार्यक्रमों में इन्हीं के समय आया। हारमोनियम एक ऐसा ही वाद्ययंत्र था। सारंगी और सितारा पहले से ही कव्वाल उपयोग में लाते रहे हैं। लेकिन ब्रिटिश शासन में इसमें काफी परिवर्तन हुआ। सूफियाना शास्त्री गायकी की लोकप्रियता ने कव्वाली को नई पहचान दी। इस्लाम के प्रचार-प्रसार में भी इसका महत्त्वूपर्ण योगदान रहा। हिंदुस्तान में दरगाहों और खानकाहों की जगह  जैसे-जैसे बढ़ती गई वैसे-वैसे सूफी गायकी भी मशहूर होती रही। खानकाहो से जुड़े अधिकांश कव्वाल शास्त्रीय गायकी में शिक्षित होते थे। कव्वाल बुनियादी तौर पर संगीतकार होते थे। वे कव्वाली के गीत या बोल को नहीं लिखते थे। सूफी संत ये बोल / गीत लिख करके देते थे ।

          ऐसी मान्यता है कि कव्वाली की शुरूआत  पीर निजामुद्दीन औलिया के मार्गदर्शन में अमीर खुसरो ने शुरू किया। लेकिन इसके बीज मोईन्नूद्दीन चिश्ती ने भारत की धरती में बोये ।  बगदाद से अजमेर आनेपर हिंदुओं केभजन-कीर्तन की तर्ज  पर समा की परंपरा का रूप धीरे-धीरे कव्वाली के रूप में बदला। इसे निखारने का काम निश्चित तौर पर अमीर खुसरो ने किया। अमीर खुसरो द्वारा सिखाये गये गायको और संगीतकारों के माध्यम सेकव्वाल बच्चेघराना शुरू हुआ। ये सभी निजामुद्दीन के खानकाह से जुड़े हुए थे। ये कव्वाल फारसी, हिंदवी, उर्दू, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली हिंदी इत्यादी भाषाओं में कव्वाली प्रस्तुत करते थे । धीरे-धीरे इसका भी विस्तार हुआ और कई भारतीय भाषाओं में कव्वाली गाने का जिक्र मिलने लगा। यह सिलसिला कव्वाल गायकों के व्यावसायिक कार्यक्रमों की वजह से और बढ़ा।

         कव्वाली में प्रायः एक या दो मुख्य गायक होते हैं। जिनके पास हारमोनियम होता है। कोरस से लिए पाँच- साथी कलाकार होते हैं। ढोलक का इस्तमाल ये करते हैं।  हमीदुद्दीन वो पहले सूफी संगीतकार थे के जिन्हें इलतुतनिष की कोर्ट में गाने का अवसर मिला था। हमीदुद्दीन दिल्ली में काजी भी थे। सुलतान अलाउद्दीन खिलजी खुद बहुत बड़े संगीत प्रेमी थे। इनके दरबार में हिंदू और मुस्लिम दोनों ही तरह के विद्वान मौजूद थे। अमीर खुसरो जैसे विद्वानों को अपने विषय में महारत थी। खुसरो को खड़ी बोली हिंदी का पहला कवि माना जाता है। उन्हें कव्वाली का भी जनक कहा जाता है। तबला और सितार की खोज का श्रेय भी खुसरो और नायक गोपाल को ही है। इन्होंने अरबी, फारसी और भारतीय संगीत में संलयन / संश्र्लेषण से कई नई राग रागिनियों को जन्म दिया, जो आम जनता और दरबारों में लोकप्रिय हुई । राग यमन, हुसैनी, दरबारी इत्यादी कुछ ऐसी ही गायकी की नई पद्धतियाँ थी। आगे चलकर यह सिलसिला अकबर के दरबार में भी कायम रहा

         

          समा के आयोजन में समय, स्थान, लोग इत्यादि को लेकर भी नियम रहे हैं। जैसे कि नमाज के समयसमा नहीं होनी चाहिये। इसे सड़क या ऐसी जगह नहीं करना चाहिये जहाँ लगातार आना जान होता हो या वह जगह जो अपवित्र मानी जाती है। इसे ऐसे व्यक्ति के घर भी नहीं करना चाहिए जो क्रोधी, व्यभिचारी इत्यादि हो। इसे ऐसे लोगों के ही बीच करना चाहिये जो दानिशमंद हो । समा में आये लोगों को शांति और सलीके से बैठना चाहिये। आपस में बात-चीत नहीं करनी चाहिये।वाह-वाह या ताली पीटने जैसी बातों से भी उन्हे बचना चाहिये। अर्थात एक शिष्टाचार के तहत उन्हेंसमा में आना चाहिए।

           कव्वाली की प्रस्तुतीकरण को  लेकर भी कुछ नियम माने गये हैं। जैसे से कि - कव्वाली के बोल स्पष्ट रूप से उच्चारित हों एवम्  श्रोताओं  तक सुनायी पड़ने चाहियें। वाद्ययंत्रो की आवाज ठीक तरीके से निकलनी चाहिये। कव्वाली की आवाज तेज और भारी होनी चाहिये। मधुर, पतली या बहुत सुरीली आवाज की यहाँ उतनी अहमियत नहीं मानी जाती। कव्वाली प्रस्तुत करनेवाले लोगों के बीच बेहतर ताल-मेल होना चाहिए।बारंबारताका यहाँ महत्त्व है इसलिए ऐसे गीतों का चुनाव होना चाहिए जो इस तरह के हों ।ठेका, ‘वजन, ‘बंदिश, ‘तर्ज, ‘सुरइत्यादि का ध्यान रखना चाहिए। समाकला नहीं अपितु ईश्वर को याद करने की पद्धति ही है। सूफी अपना संदेशप्रेमके माध्यम से देते है।समा में सूफियों की कुछ खास पद्धतियाँ भी थीं । जैसे कि हल्क  - इसमें सूफी रोते  हुऐ नाचते  हैं एवम् पागलों की तरह चिल्लाते  हैं।

       अकेले भारत में उन्नीसवीं सदी के मध्य तक 112 स्थानीय प्रेस थे जो फारसी और उर्दू में प्रकाशन से जुड़े थे। ये धर्म, कविता और कानून से संबंधित सामग्री छापते थे । इसी तरह ईरान और मिश्र  के कई छापाखानों से सूफी संदेशो, कालाओं इत्यादि की छपायी के प्रमाण मिलते हैं। इसकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी रहा होगा कि प्राच्यवादी विचारकों नेसूफीयत को इस्लाम से अलग करके इसपर लिखना शुरू किया। दूसरी तरफ सुधारवादी एवम् कट्टरपंथी विद्वान अपने तरीके से इसपर लगातार लिख रहे थे। इसतरह अरबी, फारसी, अंग्रेजी, उर्दू और हिंदी में सूफी विचारों पर लेखन की परिपाटी बनी। अनुवाद के माध्यम से इसतरह के लेखन कार्य अन्य भाषाओं में भी संभव हो सका। खुद कई सुफी इस प्रकाशन व्यवसाय की महत्ता को देखते हुए इससे जुड़े।  भारत में ऐसे सूफियों में हसन निजामी का नाम आता है। जो कि खुद एक बड़े लेखक रहे और 1908 से उर्दू में प्रकाशन कार्य से जुडे।अनवर अल कुद्स जैसी सूफी पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ। यह पत्रिका मुंबई से ही अक्टूबर 1925 से फरवरी 1927 तक प्रकाशित हुई  

          इस तरह तमाम जन माध्यमों ने सूफियों को भी यह मौका दिया कि वे अपनी परंपरा को विस्तार से पूरी दुनियाँ के बीच रख सकें। साथ ही साथ कट्टरपंथियों या आधुनिकतावादियों द्वारा जो आरोप उनपर लगाये जाते, उनका वो भी व्यापक स्तर पर जबाब दे पाये। सूफी संगीत रिकार्डिंग के माध्यम से पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ जिससे इसे जुड़े कलाकारों को आजीविका के नये साधन मिले तो नई चुनौतिया भी। कलाकारों को एक तरफ अधिक कार्यक्रम करने, रिकार्डिंग करने, सूफी संगीत सिखाने, इत्यादि के अधिक अवसर उपलब्ध हुए तो नये कलाकारों के साथ व्यापक व्यावसायिक चुनौती भी मिलने लगी। नये परिवर्तनों को स्वीकार करते हुए उनमें जो कलाकार तालमेल बैठाने में सफल हुए उन्होंने व्यावसायिक सफलता के नये मकाम हासिल किये। लेकिन जो कलाकार पुरानी पद्धतियों और शैलियों में परिवर्तन के खिलाफ रहे वे व्यावसायिक स्तर पर सफल नहीं हो पाये। फिर सिर्फ अच्छे घरानों से जुड़े होने  से भी काम नहीं चलता, उन्हें अपनी गायकी और शैली को निखारने की निरंतर आवश्यकता थी। जिनके अंदर यह फन नहीं था उन्हें उनकी परंपरागतखानकाहों या सिलसिले में भी सिर्फ विशेष परंपरा के निर्वहन की औपचारिकता मात्र के लिए गाने का अवसर दिया जाने लगा। अन्य कार्यक्रमों से अलग कर दिये जाने की साफ चेतावनी मिलने लगी।

             एक दूसरी चुनौती तकनीक खुद बन गई। रिकार्डिंग के कारण छोटे-मोट कलाकारों को जो अवसर मिलते थे वे कम होने लगे। क्योंकिकव्वाल पार्टीको बुलाकर कव्वाली कार्यक्रम कराना लोगों को खर्चीला लगने लगा। जब कि अच्छे से अच्छे कव्वालों की कैसेट।/सीडी बाजार में उपलब्ध होती जो एक तरफ बजता रहता और लोग जलसे का आनंद लेते रहते। इससे कव्वाल पार्टियों विशेष तौर पर छोटे स्तर के कलाकारों का नुकसान हुआ। इसतरह तकनीक ने जहाँ उनकी सहायता की वहीं उनके लिए चुनौती भी खड़ी की। ऐसा नहीं था किप्रिंटको सूफीयों ने एकदम से एकस्वर में स्वीकार कर लिया हो। कई सूफियों ने इसका विरोध भी किया। उन्होंने तर्क दिया कि मौखिक परंपरा में गुरू सही उच्चारण इत्यादि के साथ सीखनेवालों को सिखाता है। उनपर ध्यान रखता है। उनकी गलतियों पर उन्हे टोकता है। लेकिन छपी हुई पुस्तक यह सब नहीं कर सकती। परिणाम स्वरूप वह गलत शिक्षा और विचार का प्रचार-प्रसार करेगी। चिश्तीयों में भी कई लोगों द्वारा इसके विरोध के संदर्भ मिलते हैं। पंजाब से संबंधित चिश्ती गुरू / पीर हैदर अली शाह (मृत्यु 1908) ऐसे ही सूफियों में से थे।

            समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ी मत के प्रचार – प्रसार में इनके सिद्धांतों के अतिरिक्त क़व्वाली जैसी गायन शैली का भी महत्वपूर्ण योगदान है । इसके प्रचार प्रसार में पहले दरगाहों और ख़ानकाहों की बढ़ती संख्या बाद में छपाई और रिकार्डिंग की तकनीकी व्यवस्थाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । हिन्दी सिनेमा के साथ साथ पश्चिमी संगीत और वाद्ययंत्रों के संलयन से इसकी वैश्विक लोकप्रियता आसमान पर पहुँच गई । बहुत सारी वैचारिक जडताओं से भी क़व्वाली अपनी व्यावसायिक संलग्नता के कारण ही अलग हो पायी ।

 

                              डॉ मनीष कुमार मिश्रा

                              सहायक आचार्य – हिन्दी विभाग

                              के एम अग्रवाल महाविद्यालय,कल्याण

                              महाराष्ट्र ।

 

                              डॉ उषा आलोक दुबे

सहायक आचार्य – हिन्दी विभाग

                              एम डी कालेज,परेल – मुंबई

                              महाराष्ट्र ।

 

    संदर्भ ग्रंथ सूची :

        1. SUFI Winter Issue Binnual Journal – Sufism: History, politics and culture: A   Conversation with CARL ERNST, Interviewd by ILewellyn Smith, winter 2014.

2. बाम्बे टॉकी - राजकुमार केसवानी। वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली संस्करण - 2011.

3- Rethinking Qawwali: Perspectives of Sufism, Music, and Devotion in North India – by – Christopher Paul Holland B.A.- The University of Texas at Austin, May 2010.

4- The Sufi Music of India and Pakistan: Sound Context and Meaning in Qawwali – Regula Qureshi.

5- Genedered Sufi Music: Mapping Female Voices in Qawwali Pervormance from bollywood to youtube channels. & Benson Rajan, September 12, 2018. www.maifeminism.com

6- The Sufi order in Islam – Trimingham J.S., Oxford. 1971.

7- The History of Sufism in India, Vol. I, 1978 – SAA Razvi.

8- The Delhi Sultanate – 1999 by V. D. Mahajan.

9- The Sacred and the Profane: Qawwali Represented in the Performance of Nusrat Fateh Ali Khan – Hiromi Lorraine Sakata the world of Music 36(3) – 1994 JSTOR.

10- A Multimodal Analysis of Qawwali : From Ecstasy to Exotic Trance – Iram Amjad, University of Management and Technology, Lahore, Pakistan, Linguistics & Literature Review (LLR) ISSN : 2409 – 109x online Vol. 3 issue I, March 2017.

11- दास्तान मुगल बादशाहों की - - हेरम्ब चतुवेंदी। लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019.

12- हुमायूँ नामा - गुलबदन बेगम अनुवादक - फजल शाह फजल। रामपुर रजा लाइब्रेरी, रामपुर, 2015

13-. मध्यकालीन भारत के मुसलमान शासकों की धार्मिक उदारता प्रथम भाग 1 - संग्रहकर्ता -सैय्यद सबाहउद्दीन अब्दुर्रहमा। संपादक - डॉ. डब्लू. एच. सिद्दीकी तथा डॉ. अबू साद - इस्लाही। रामपुर रजा लाइब्रेरी, रामपुर। वर्ष 2008.

14- वही। भाग दो

15- वही। भागतीन

16- Experiencing Qawwali: Sound as Spiritual power in Sufi India by – James Richard – Newell. Dissertation submitted to School of Vanderbilt University. December – 2007.

17- The Sensuous in Art: Reflections con Indian aesthetics. – Rekha Jhanji, Indian Institute of Advanced Study 1989.

18- Nicholson, R. A. (1911 /2000) Kashf al – Mahjub of al – Hujwiri "The Revelation of the veiled': An Early Persain Treatise on Sufism warminster: The E. J. W. Gibb Memorial Trust.

19- The Kashf Al – Mahjub: A Persian Treatise on Sufism. By Hazarat Alibin Vsman Al-Hujiwiri (R.A.) Pubilsher – Zia – ul – Quran Publication, Lahore – Karachi – Pakistan, 2001.