बोध कथा-५ : विश्वाश
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आज शाम जब मीमांसा अपनी माँ के साथ घूमने निकली,तो रास्ते में चलते हुए छोटी मीमांसा बार-बार पीछे छूट जा रही थी. ५ साल क़ी मीमांसा के लिए यह मुमकिन नहीं हो रहा था क़ि वह अपनी माँ के साथ कदम ताल कर सके. आज माँ भी कुछ अधिक ही जल्दी-जल्दी चल रही थी. दरअसल वे जिस अस्पताल में काम करती थी,वंहा उन्हें जल्दी पहुंचना था.अस्पताल से फ़ोन आया था. अस्पताल में किसी मरीज क़ी तबियत अचानक खराब हो गई थी .
माँ बार-बार मीमांसा से जल्दी -जल्दी चलने के लिए कह रही थी. मीमांसा क़ी हर कोशिश ना काफी साबित हो रही थी. अंत में हार कर उसने माँ से कहा,''माँ,आप मेरा हाथ पकड़ लो, आगे नदी भी है.मुझे डर लगता है.'' माँ ने मीमांसा क़ी तरफ देखा और हस्ते हुए बोली,''बेटा,डर तुम्हे लगता है.तो फिर तुम ही मेरा हाँथ क्यों नहीं पकड़ लेती ?'' माँ क़ी बात सुनकर मीमांसा ने उनका हाँथ तो पकड़ लिया ,मगर वह मन में कुछ सोच रही थी.अचानक ही वह फिर बोली,''माँ ,जब मैं तुम्हारा हाँथ पकडती हूँ तो अपने डर के कारण पकडती हूँ.इसलिएआपका हाँथ पकड़ने के बावजूद , मेरे मन का डर बना रहता है.लेकिन जब आप मेरा हाँथ पकड़ लेती हो तो मुझे विश्वाश हो जाता है क़ि अब मुझे कुछ नहीं होगा.मैं डर के साथ नहीं विश्वाश के साथ आगे तेजी से चल पाउंगी,इसलिए आप मेरा हाँथ पकड़ लीजिये .''
अपनी छोटी सी बेटी के मुह से इतनी समझदारी भरी बातें सुनकर माँ का दिल भर आया.माँ ने मीमांसा को गोंद में उठा कर उसे कई बार चूमा.और उसे गोंद में लेकर आगे बढती रही . कितनी सच्चाई थी उस छोटी सी बच्ची क़ि बातों में.अनायास ही किसी क़ि ये पंक्तियाँ याद आ जाती हैं क़ि ----
'' विश्वाश जंहा पे कायम है,
जीत वँही पे रहती है.
विश्वाश जंहा पे टूटा है,
इंसान वही पे हारा है .''
(i do not have any copy right on this photo.i have got the same as a mail.)
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Wednesday, 17 March 2010
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