Showing posts with label मानवाधिकार और आतंकवाद. Show all posts
Showing posts with label मानवाधिकार और आतंकवाद. Show all posts

Sunday, 18 August 2013

मानवाधिकार और आतंकवाद


प्रारंभ में अंतर्राष्ट्रीय विधि में ये संकल्पना पूर्णत: पोषित थी कि राष्ट्र ही अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय हैं किन्तु कालांतर में उसमें परिवर्तन हुआ और राज्यों के अतिरिक्त, व्यक्तियों को अधिकार और कर्तव्य दिये जाने के कारण उनको भी अंतर्राष्ट्री विधि का विषय माना जाने लगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह निर्विवाद हो गया कि अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा उसी समय बनी रह सकती है जब व्यक्तियों की स्थिति में सुधार हो तथा उनके अधिकारों मूल स्वतंत्रताओं की अभिवृद्धी हो। इसी कारण व्यक्तियों को राज्यों द्वारा दिये गए कई अधिकारों में से एक अधिकार को `मानवाधिकार' कहते हैं।
चूँकि मानव बुद्धिमान एवं विवेकशील प्राणी है। इसीकारण इसको कुछ ऐसे मूल तथा अहरणीय अधिकार प्राप्त रहते हैं जिसे सामान्यतया मानवाधिकार कहा जाता है। चँूकि ये अधिकार उनके अस्तित्व के कारण उनसे संबंधित रहते हैं अत: वे उनमें जन्म से ही विहीत रहते हैं। इस प्रकार मानवाधिकार सभी व्यक्तियों के लिए होते हैं, चाहे उनका मूलवंश, धर्म, लिंग तथा राष्ट्रीयता कुछ भी हो। ये अधिकार सभी व्यक्तियों के लिए आवश्यक हैं क्योंकि ये उनकी गरिमा एवं स्वतंत्रता के अनुरुप हैं तथा शारीरिक, भौतिक, नैतिक, सामाजिक कल्याण के लिए सहायक होते हैं।
विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, उनके विचार तथा उनकी आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थितियों में भिन्नता के कारण `मानवाधिकार' इस शब्द को परिभाषित करना कठिन है। लेकिन यह कहा ही जा सकता है कि मानवाधिकार का विचार मानवीय गरिमा के विचार से संबंधित है। अत: उन सभी अधिकारों को मानवाधिकार कहा जा सकता है जो मानवीय गरिमा को बनाये रखने के लिए आवश्यक है।
वियना के 1993 में मानवाधिकार सम्मेलन की घोषणा में यह कहा गया था कि सभी मानवाधिकार व्यक्ति में गरिमा और अंतर्निहित योग्यता से प्रोद्युत होते हैं और `व्यक्ति' मानवाधिकार तथा मूल स्वतंत्रताओं का केन्द्रीय विषय है। डी. डी. बसु मानवाधिकारों को उन न्यूनतम अधिकारों के रुप में परिभाषित करते हैं, जिन्हें प्रत्येक व्यक्ति को, बिना किसी अन्य विचार के, मानव परिवार का सदस्य होने के फलस्वरुप राज्य या अन्य लोकप्राधिकारी के विरूद्ध धारण करना चाहिए।
मानवाधिकार अविभाज्य एवं अन्योन्याक्षित होते हैं इसलिए संक्षिप्त में भिन्न-भिन्न प्रकार के मानवाधिकार नहीं हो सकते फिर भी संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के अंतर्गत मानवाधिकार के क्षेत्र में किये गए विकास से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानवाधिकारों को मुख्य रुप से दो भागों में बाँटा जा सकता है। अर्थात
1) सिविल एवं राजनैतिक अधिकार और
2) आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार।
जब आतंक का व्यवस्थित प्रयोग कतिपय उ ेश्यों को विशेष रुप में राजनैतिक उ ेश्यों को पूरा करने के लिए किया जाता है तब सामान्यतया उसको आतंकवाद कहा जाता है।
आतंकवादी कार्य एवं तरीको से राज्यों की सामाजिक एवं संवैधानिक व्यवस्था तथा राज्यक्षेत्रीय अखण्डता एवं सुरक्षा का भय बना रहता है। फिर भी, आतंकवाद की उपर्युक्त परिभाषा सार्वभौमिक नहीं हो सकती। बहुत से समय या अवसरों पर किसी राज्य की सरकार किसी कृत्य को इसलिए आतंकवादी कृत्य मान लेती है क्योंकि यह उसके हित को प्रत्यक्ष रुप से प्रभावित करने लगता है। तब उन लोगों द्वारा न्यायोचित ठहराया जाता है जो कृत्यों को कारित करते हैं। आतंकवाद या तो देशी या आंतरिक हो सकता है या अंतर्राष्ट्रीया राज्य देशी आतंकवाद को उनकी दाण्डिक विधि का उल्लंघन मानते हैं और अपनी देशीय विधि के प्रयोग करने में नहीं हिचकते हैं। यहाँ यह बताना महत्वपूर्ण है कि आतंकवाद चाहे वह देशीय हो या अंतर्राष्ट्रीय, एक दाण्डिक अपराध है।
आतंकवाद से पीड़ित व्यक्तियों के मूलभूत मानवाधिकारों का हनन होता है। विशेष रुप से इससे प्राण के अधिकार, शारीरिक निष्ठा के अधिकार एवं वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार प्रभावित होते हैं। आतंकवाद के प्रोत्साहन हेतु उसमें धर्म की अफीम, काम (सेक्स) की स्वतंत्रता एवं उन्मुक्तता, ईश्वर या अल्लाह के लिए समर्पित कर्म, धन की उपाजेयता एवं स्वतंत्र तथा स्वच्छंद वातावरण की खुराक आवश्यक है।
आतंकवाद के प्रचार एवं प्रसार के लिए जहाँ एक वर्ग को जोड़ना आवश्यक है, वहीं युवाओं का झुकाव एक खुली सच्चाई है। जब कोई अपना सब कुछ लगाकर कुछ प्राप्त करने के लिए अवैधात्मक हिंसात्मक अवधारणाओं द्वारा किसी राज्य या उसके कुछ भाग के संवैधानिक आधारों तथा दाण्डिक एवं व्यवहारिक को नष्ट करता है तो वही ---- आतंकवाद है।
आतंकवाद का प्रारंभ ही मानवाधिकारों पर प्रहार है। किसी आतंकवाद प्रभावित क्षेत्र की जनता को प्रदत्त मानवाधिकारों का हनन न सिर्फ आतंकवादियों द्वारा ही होता है बल्कि उसे रोकने के निमित्त सुरक्षाबलों द्वारा कर दिया जाता है। पोटा (आतंकवाद निरोधक अधिनियम) एवम् एसपीएएफ (स्पेशल पॉवर आफ आर्मड फोर्सेस) को प्रदत्त किये गए अधिकार आतंकवाद के खत्में के लिए हैं किन्तु ये क्षेत्र विशेष की जनता के मानवाधिकारों को भी प्रभावित कर जाते हैं।
इस संबंध में समुचित प्रयास एवं विनियमों को पारित किया जाना आवश्यक है क्योंकि यही आतंकवाद विनाश आतंकवाद सृजन का रुप लेता है। आहत मानव न्याय चाहता है चाहे उसका तरीका कुछ भी हो, सही हो या गलत, वह सहज हो तो आतंकवादी हो जाता है।
मानवाधिकार एवं आतंकवाद एक दूसरे से आपवादिक रुप से जुड़े हैं। आतंकवाद का होना मानवाधिकारों का हनन है और समग्रता में मानवाधिकार आतंकवाद के लिए कुछ भी नहीं छोड़ता है।

                                     डॉ. मनीष कुमार मिश्रा 


संदर्भ ग्रंथ:-
1) अंतर्राष्ट्रीय विधि - अग्रवाल।
2) नोट्स - प्रो. . पी. तिवारी (एच..डी. लॉ गोरखपुर युनिवर्सिटी)
3) अंतर्राष्ट्रीय विधि - डॉ. कपूर।
                                                         
      



What should be included in traning programs of Abroad Hindi Teachers

  Cultural sensitivity and intercultural communication Syllabus design (Beginner, Intermediate, Advanced) Integrating grammar, vocabulary, a...