Showing posts with label 2. वहाँ आवाज़ में ख़ामोशी पनाह माँगती है ।. Show all posts
Showing posts with label 2. वहाँ आवाज़ में ख़ामोशी पनाह माँगती है ।. Show all posts

Tuesday, 25 December 2018

2. वहाँ आवाज़ में ख़ामोशी पनाह माँगती है ।


सोचो कि
बिना किसी भूल के
कंहीं कुछ मिलता है ?
नहीं ना !!!
इसलिए मैं अक़्सर
अपनी भूलों की
भूल- भुलैया में
उस जिंदगी से मिल आता हूँ
जो दरअसल
किसी का, किसी के लिए
देखा स्वप्न था ।
वहाँ
खोये औऱ भूले हुए
अतीत से
मिलता हूँ तो
जिंदगी का वीराना
थोड़ा कम महसूस होता है
वहाँ ध्यान की मुद्रा में
मुझे सुना जाता है
बड़े ध्यान से
फ़िर
एक के बाद एक किस्से
सुनाये जाते हैं
अधिकांश किस्से
अफ़सोस के
मग़र सच्चे औऱ मासूम ।
फ़िर कुछ बुरे स्वप्न भी
वहीं मिल जाते
यह कहते हुए कि
मैं ख़ुद में
एक बहुत बुरा स्वप्न हूँ
जिससे
वे सभी डरते हैं
मुझे
यह सोचकर हँसी आती
कि क्या सच में
मैं ईश्वर का देखा हुआ
सबसे बुरा स्वप्न हूँ ?
मैं वहाँ
जो देख रहा था
वह क्या
मेरे जीवन का
कोई अनुवाद था ?
या कि
बीते वक्त की कोई चादर
जो सपनों
औऱ क़िस्सों के धागे से
इसकदर बुनी गई थी कि
समझ ही न आये -
कौन सा सिरा सपनों का है
औऱ कौन सा क़िस्सों का ?
वह पूरी दुनिया
एक शब्द में कहूँ तो
- इंतजार थी
वहाँ का मौसम सर्द था
और न जाने क्यों
हमेशा
सर्द ही रहता
वहाँ आवाज़ में
ख़ामोशी पनाह माँगती
औऱ नज़र में
कोहरे सी थकान होती
जो
मनुष्यता और प्रेम की
सूनी रेतीली सरहदों पर
कुछ ख़ोज लेना चाहती हैं
कुछ खोया या
भूला हुआ ।
लेकिन
यहाँ होने पर
एक नशा तारी होता
उन मासूम रूहों से
बात का नशा
जो
सबकुछ लुटा के भी
सूखे इत्र की खुशबू में
डूबे हुए
काफ़िर रूह का
किस्सा सुनाते हैं ।
यहाँ से लौटते हुए
कोफ़्त होती है
यह सोचकर कि
सारी ज़िन्दगी
पढ़ना और पढ़ाना
कितनी बड़ी
अराजकता है ?
----- डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
मुंबई ।