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Tuesday 5 July 2011

अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध



(क) अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध :

1) रागात्मक संवेदना

2) निम्न मध्यवर्गीय जीवन बोध

3) मूल्य बोध

4) संबंधो के विविध आयाम

5) सांप्रदायिक सद्भाव

6) फॅशन और यौन संबंधों की समस्या

7) नारी संबंधी दृष्टि

8) आधुनिकता बोध





अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध :-

अपने समय के समाज को अमरकांत ने बड़ी ही गहराई के साथ अपने कथा साहित्य में चित्रित किया है। युग विशेष की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिस्थिति को पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ यथार्थ की ठोस भूमि पर चित्रित करना कोई आसान काम नहीं है। समय परिवर्तनशील है। युगीन परिस्थितियाँ हमेशा एक सी नहीं रहती। युग बदलने के साथ-साथ किसी समाज विशेष की परिस्थितियाँ भी बदल जाती है। इसलिए जिस रचनाकार के पास संवेदनाओं को गहराई से समझने और उसे विश्लेषित करने की समझ नहीं होगी, उसका साहित्य कभी भी कालजयी नहीं हो सकता। अमरकांत का कथा साहित्य अपने समय की वास्तविक तस्वीर पेश करता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

विद्वानों के बीच अमरकांत की रचनाओं को उसकी विश्वसनियता और गहरी संवेदनशीलता के कारण ही सराहा गया है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी अमरकांत के कथा साहित्य के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''अमरकांत का रचना संसार महान रचनाकारों के रचना संसारों जैसा विश्वसनीय है। उस विश्वसनीयता का कारण है स्थितियों का अचूक चित्रण जिससे व्यंग्य और मार्मिकता का जन्म होता है।``1 आज की पूँजीवादी व्यवस्था में आदमी कितना आत्मकेन्द्रित, संवेदनाहीन, मतलबी और स्वयं की इच्छाओं तक सिकुड़कर रह गया है, इसे अमरकांत के कथासाहित्य से आसानी से समझा जा सकता है।

अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में मुख्य रूप से मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया है। पर ऐसा नहीं है कि उच्चवर्ग को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने साहित्य नहीं रचा। यह अवश्य है कि जितने विस्तार और गहराई के साथ अमरकांत ने मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज को चित्रित किया है उतनी गहराई और विस्तार उच्चवर्ग को लेकर उनके साहित्य में नहीं मिलता। 'आकाश पक्षी` जैसा उपन्यास इसी उच्च वर्गीय समाज की मानसिकता को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। ठीक इसी तरह सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित और संपन्न लोगों की मानसिकता और व्यवहार को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने कई कहानियाँ लिखी हैं। पलाश के फूल, दोस्त का गम, आमंत्रण, जन्मकुण्डली और श्वान गाथा जैसी कितनी ही कहानियाँ हैं जहाँ समाज के उच्च वर्ग की मानसिकता तथा विचार और व्यवहार के अंतर को अमरकांत ने चित्रित किया है। साथ ही साथ हमें यह भी समझना होगा कि जब हम यह कहते हैं कि अमरकांत मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज की विसंगतियों, अभावों और शोषण को चित्रित चित्रित करने वले कथाकार हैं तो हमें यह भी समझना चाहिए कि शोषक और शोषित इन दोनों की स्थितियों का चित्रण किये बिना कोई कथाकार शोषण की तस्वीर किस तरह प्रस्तुत कर सकता है। इसलिए यह कहना सही नहीं लगता कि अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से सिर्फ और सिर्फ निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया।

वास्तविकता यह है कि अमरकांत ने उच्चवर्ग की अपेक्षा मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण अपने साहित्य में अधिक किया है। साथ ही साथ उन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि शोषण सिर्फ उच्चवर्ग द्वारा निम्नवर्ग या संपन्न द्वारा विपन्न का ही नहीं अपितु एक विपन्न भी अपने जैसे दूसरे व्यक्ति का शोषण करने में बिलकुल नहीं हिचकता। अमरकांत ने 'मूस` जैसी कहानी के माध्यम से यह दिखाया कि पुरूषप्रधान भारतीय समाज में 'मूस` जैसे पुरूष भी हैं जिनका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। 'सुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने भारतिय समाज के कई ऐसे भद्दे और नग्न यथार्थ को सामने लाया जो परंपरा और संस्कृति तथा आदर्शो के नाम पर हमेशा ही समाज में दबाये जाते रहे है। जिस घर में ससुर खुद अपनी बेटी की उम्रवाली बहू का शीलभंग करना चाहे और उसका मनोबल उसकी ही धर्मपत्नी बढ़ाये तो ऐसे घर की बहू कौन सी परंपरा और संस्कृति के भरोसे अपने आप को सुरक्षित समझ सकती है और कैसे?

स्पष्ट है कि अमरकांत के विचारों का दायरा संकुचित नहीं है अपितु संकुचित मानसिकता के साथ उनके कथा साहित्य पर विचार करना उचित प्रतीत नहीं होता। साथ ही साथ अमरकांत के संबंध में बात करते अथवा लिखते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अमरकांत की लेखनी लगातार साहित्य रचने का कार्य कर रही है। पिछले 50-60 वर्षों से अमरकांत का लेखन कार्य सतत जारी है। इसलिए किसी समीक्षक या विद्वान ने आज से 25-30 वर्ष पूर्व उनके रचना संसार के संबंध में जो कुछ कहा या समझा वह अमरकांत के तब तक के उपलबध साहित्य के आधार पर था। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अमरकांत के पूरे कथा साहित्य को लेकर उस पर नयी समीक्षा दृष्टि प्रस्तुत की जाय।

अमरकांत का कथा साहित्य बड़ा व्यापक और लगातार अपनी वृद्धि कर रहा है। 'सुरंग` और 'इन्हीं हथियारों से` जैसे उपन्यासों में अमरकांत की बदली हुई विचारधारा का स्पष्ट संकेत हमें मिलता है। सन 1977 में 'अमरकांत वर्ष 01` नामक पुस्तक का प्रकाशन अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के उद्देश्य से हुआ। इस संबंध में रवीन्द्र कालिया ने लिखा भी कि, ''अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के पीछे हमारा एक प्रयोेजन रहा है। वास्तव में नयी कहानी की आन्दोलनगत उत्तेजना समाप्त हो जाने के बाद हमें अमरकांत का मूल्यांकन और अध्ययन अधिक प्रासंगिक लगा। विजयमोहन सिंह का यह कथन कुछ लोगों को अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है कि 'अमरकांत की कहानियाँ नयी हिन्दी समीक्षा के लिए एक नया मानदण्ड बनाने की माँग करती हैं, जैसी माँग कभी मुक्तिबोध की कविताओं ने की थी` परन्तु यह सच है कि अमरकांत की चर्चा उस रूप में, उस माहौल में, उन मानदण्डों से संभव ही नहीं थी। ये मानदण्ड वास्तव में तत्कालीन लेखकों-समीक्षकों की महत्वाकांक्षाओं के अन्तर्विरोध के रूप में विकसित हुए थे।``2 अब विचारणीय यह है कि सन् 1977 तक उपलब्ध और लिखे गये अमरकांत के साहित्य के आधार पर जो कुछ बातें सामने आयी वे 2007 तक के अमरकांत के रचे गये साहित्य के आधार पर कहीं-कहीं खटकने लगी है।

उदाहरण के तौर पर 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास के प्रकाशन के बाद कुछ समीक्षक अमरकांत को महाकाव्यात्मक गरिमा वाले उपन्यासकारों की श्रेणी में गिनने लगे है। वेद प्रकाश जी अपने लेख 'स्वाधीनता का जनतान्त्रिक विचार` में प्रश्न करते हैं कि, ''.....व्यास और महाभारत एक युग की देन थे, अमरकांत और उनका यह उपन्यास दूसरे गुक की देन हैं। क्या हमारे युग का महाकाव्य ऐसा ही नहीं होगा?``3 इसलिए अब जब हमारे सामने अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध का प्रश्न उठेगा तो हमें नि:संकोच यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अमरकांत ने अपने समय को उसकी पूरी परिधि में न केवल चित्रित किया है अपितु समाज के सामने कुछ ऐसे प्रश्न भी खडे किये हैं जो मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती हैं।

समग्र रूप से अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध के संदर्भ में हम यही कह सकते है कि पिछले 50-60 वर्षो को तोडा है और विचारों तथा संवेदनाओं के नए स्वरूप को हमारे सामने लाया है। इससे स्पष्ट है कि अमरकांत अपने युग के सामाजिक यथार्थ को प्रगतिशील दृष्टि और आस्था के साथ लगातार चित्रित कर रहे है। यह बात निम्नलिखित बिंदुओं के विवेचन से और अधिक स्पष्ट हो जायेगी।

1) रागात्मक संवेदना :-

साहित्य में प्रेम और सौंदर्य हमेशा से ही उसके एक अंग के रूप में विद्यमान रहा है। मानवीय जीवन में प्रेम और सौंदर्य ही वे तत्व हैं जो जीवन में संजीवनी का काम करते हैं। यही वह रागबोध है जो जीवन की हर राह को आसान बना देता है। आदमी कठिन से कठिन परिश्रम के लिए तैयार होता है और खुद को 'परे` करके 'प्रेम` करनेवाला हमेसा अपने प्रेमी की सुख, सुविधा और कल्याण की बात सोचता है। प्रेम और सौंदर्य के द्वारा ही वह रागात्मक संवेदना विकसित होती है मनुष्य के अंदर मानवीय गुणों का विकास करती है। फिर यही गुण परंपरा और संस्कृति के रूप में आगे बढ़ते हैं।

प्रेम और सौंदर्य के आधार पर विकसित रागात्मक संवेदना ही मनुष्य को अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीने का भाव प्रधान करती हे। व्यक्ति अपनी निजता से हटकर सामाजिक दायित्वों को महसूस करता है, पारिवारिक दायित्व को समझता है। वह आत्मकेन्द्रित न होकर आत्मनिष्ठ बनता है। 'सौंदर्य` को किसी वस्तु के रूप में नही बताया जा सकता। सौंदर्य कोई वस्तु नहीं है अपितु वस्तु के प्रति हमारा अपना नजरिया है। सौंदर्य कभी किसी वस्तु में निहित नहीं होता, बल्कि सौंदर्य उस दृष्टि में होती है जो किसी वस्तु के प्रति आकर्षित होती है। यही कारण है कि सौन्दर्यशास्त्र में असुंदर कुछ भी नहीं माना गया है।

ठीक इसी तरह 'प्रेम` भी एक तरह का भाव है। 'प्रेम` व्यक्ति के विचार क्षेत्र को विस्तार प्रदान करता है। छल, कपट, लाभ और आत्मकेन्द्रियता से अलग होकर जब व्यक्ति सिर्फ और सिर्फ दूसरे के बारे में सोचता है तो वह उस दूसरे व्यक्ति विशेष का प्रेमी कहलाता है। प्रेम हमेशा पूरा समर्पण चाहता है। प्रेम एक निष्ठता चाहता है। प्रेम किसी भी सामाजिक बंधन या मान्यताओं को स्वीकार नहीं करता। भक्तिसूत्र में कहा भी गया है कि 'अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूपम्` अर्थात प्रेम का स्वरूप वाणी में नहीं बँधता। इसलिए इसे परिभाषित करना कठिन कार्य है। लेकिन इतना तो तँय है कि मनुष्य के जीवन में जो रागात्मक संवेदना उसे 'मनुष्यत्व` का गुण प्रदान करती हैं, उनका आधार प्रेम और सौंदर्य ही है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अत: समाज में रहते हुए हमें सामाजिक परंपराओं और मान्यताओं को अपनाना पड़ता है। न चाहते हुए भी बहुत से सामाजिक बंधनों को स्वीकार करना पड़ता है। लेकिन रागात्मक संवेदनाओं के प्रवाह में कई बार सामाजिक मान्यताओं से टकराना पड़ता है। समय के साथ-साथ कई पुरानी मान्यताएँ और रूढ़िया बेकार हो जाती है। सम्सामयिक युगीन परिस्थितियों के अनुसार भी इन रूढ़ियों और सड़ी-गली परंपराओं को आत्मसाथ करना मुमकिन नहीं होता। परिणाम स्वरूप व्यक्ति और समाज के बीच एक संघर्ष शुरू हो जाता है।

समाज में प्रेम के नाम पर 'चर्म सौंदर्य` के प्रति आकर्षण और शारीरिक संबंध स्थापित करने की लालसा अधिक दिखायी पड़ती है। मानसिक कुंठाओं को प्रेम के नाम पर प्रचारित एवम् प्रसारित किया जाता है। प्रेम का आदर्श एवम् उदात्त स्वरूप यहाँ दिखायी नहीं पड़ता। लेकिन अमरकांत के कथासाहित्य में प्रेम का उदात्त और आदर्श स्वरूप प्रकट हुआ है। अमरकांत के अधिकांश नायक एवम् नायिकाएँ प्रेम के साथ-साथ पारिवारिक एवम् सामाजिक स्थितियों का भी आकलन करते हुए दिखायी पड़ते हैं। इनके लिए प्रेम शारीरिक संबंध या नहीं है। साथ ही साथ अपनी कुछ रचनाओं के माध्यम से अमरकांत ने आत्मकेन्द्रित, कुंठित मानसिकता और स्वार्थपरक शारीरिक वासनाओं का भी चित्रण किया है। इस तरह समाज में व्याप्त प्रेम की दोनों ही स्थितियों का चित्रण करते हुए लेखक ने समाज की वास्तविक तस्वीर पेश की है। इसी संदर्भ में डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव लिखते हैं कि, ''....एक ऐसे समय में जब आधी संख्या नये कथाकार स्त्री-पुरूष-सम्बन्धों की कुछ सीमित विडम्बनाओं के चित्रण में संलग्न हैं, अमरकांत की कहानियों के विषय और चरित्र अनुभव और वास्तविकता के विस्तार में दूर तक फैले हुए हैं।``4 अमरकांत के उपन्यासों और कहानियों में चित्रित ऐसे ही कुछ रागात्मक संबंधों के स्वरूप का हम यहाँ परिचय प्राप्त करेंगे।

सबसे पहले चर्चा अमरकांत के उपन्यासों की करेंगे। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि अमरकांत ने अपने कथासाहित्य के माध्यम से मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज का चित्रण अधिक किया है। इस समाज की सबसे बड़ी कमजोरी यही रही है कि यह समाज शोषण करने वालों और शोषित होनेवाले लोगों के बीच कभी भी अपनी स्थिति को स्पष्ट रूप से पहचान नहीं पाया। अपने सामाजिक आदर्श और यथार्थ के बीच यह वर्ग हमेसा पिसता रहा।

ऐसे ही समाज की सबसे बड़ी कमज़ोरी को उद्घटित करते हुए कमला प्रसाद पाण्डेय जी लिखते हैं कि, ''मध्यवर्ग को गुमराह करने में सब से बड़ी कमजोरी 'सेक्स` है। 'सेक्स` के मात्र शारीरिक क्रिया कलापों के लिए भावुकतावश वह अपनी प्राणनिधि खो बैठता है। निराश होकर विक्षित हो जाता है तथा सैकड़ों किशोरियों को वेश्यालय बसाने को मजबूर कर देता है। एक ओर वह शरीर की पवित्रता की वकालत करता है दूसरी ओर वही अँधेरे में उस पवित्रता को, तोड़ता है। अँधेरे और उजाले का यह फर्क मध्यवर्ग में भरा पड़ा है। साहसहीन यह वर्ग शोषित और शोषकों के बीच में पेण्डुलम बना लटक रहा है। इसमे मनुष्य के सामने खतरों का अम्बार लगा दिया है। अमरकांत इसी वर्ग की तथाकथित प्रेम भावना का सामाजिक पुनर्निमाण करता है।``5

'सूखा पत्ता` उपन्यास का नायक कृष्णकुमार है। वह एक दब्बू, संकोची, कमजोर और कायर व्यक्तित्व वाला इंसान है। शायद यही कारण है कि वह ऐसे मित्र बनाता है जो उसकी अपेक्षा ज्यादा खुले हुए, साहसी और बड़बोले है। कृपाशंकर, दीनेश्वर, मनोहर और दीनानाथ जैसे मित्रों के साथ रहते हुए कृष्णकुमार अपने अंदर की कायरता को तोड़ने का प्रयास करता है। 'खूनी आजाद क्रांतिकारी पार्टी` से जुड़कर देश को स्वतंत्र कराने के लिए छोटी-मोटी चोरियाँ करता है। फिर वह समझ जाता है कि यह सब कोरी भावुकता के अलावा और कुछ भी नहीं है। अत: वह अपने को दूसरी तरफ मोड़ता है। किसी से प्रेम करके वह प्रेम के उच्चादर्श पर चलते हुए सामाजिक बदलाव के सपने देखने लगता है। उर्मिला के साथ उसका प्रेम परवान चढ़ता है। पर अंतर्जातिय विवाह की स्वीकृति उसे मिल नहीं पाती है। इतना साहस उसके अंदर है नहीं कि वह सभी सामाजिक बंधनों को तोड़कर उर्मिला को अपना बना ले। कृष्णकुमार का व्यक्तित्व उसी मध्यवर्ग के व्यक्ति का है जो आदर्श और यथार्थ की लड़ाई में सिर्फ झूलता रह जाता है। ज्यादा से ज्यादा अपने अहम् की तुष्टि के लिए जीवन की पुरानी बातों को भावुकता, मनोवेग, लडपन, गलत निर्णय या कभी-कभी अपनी सामाजिक परिस्थितियों को सबके लिए जिम्मेदार मानते हुए उनसे पल्ला झाड़ने की कोशिश करता है।

अमरकांत के उपन्यास 'ग्रामसेविका` की नायिका दमयन्ती है। वह ग्रामसेविका का कार्य अपनी आर्थिक परिस्थितियों से लड़ने के लिए करती है। साथ ही साथ समाज के लिए कुछ करने का उच्चादर्श भी उसके अंदर है। पर गाँव की स्त्रियाँ और अन्य लोग उसका मजाक उड़ाते हैं और उसे भला-बुरा कहते हैं। पर अपनी परिस्थितियों से लड़ने के लिए वह काम छोड़ नहीं पाती है। अपने किशोरावस्था में उसे अतुल नामक लड़के से भावात्मक जुड़ाव महसूस होता है। लेकिन सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं और रूढ़ियों के कारण अतुल के साथ उसका संबंध-विच्छेद हो जाता है। पर यह अनुभव उसके जीवन के लिए महत्वपूर्ण साबित होता है और ग्रामसेविका बनने के पश्वात वह अपने जैसे ही मोह में पड़े हरचरण को इस दल-दल से निकलती है। इस उपन्यास में दमयन्ती की भूमिका एक 'उद्धारक` के रूप में रही। वह ग्रामसेविका के रूप में समाज में व्याप्त अंधविश्वास और रूढ़ियों के प्रति ग्रामवासियों को जागृत करते हुए उन्हें ज्ञान-विज्ञान और तर्कसंगत विवेक से जोड़ने का काम करती है। दूसरी तरफ हरचरण के जैसे लोगों को प्रेम जैसी भावुकतापूर्ण स्थितियों से निकालकर उसका भी उद्धार करती है। साथ ही साथ उसके प्रति प्रेम और लगाव को महसूस करती है। सामाजिक बुराइयों से लड़ने का काम हरचरण और दमयन्ती दोनों ही कर रहे हैं। दमयन्ती रात को जब हरचरण से मिलने जाती है तो, ''वह भय, खुशी को स्वीकार कर रही थी।``6 वह समझती है कि यह स्थिति उसे एक और लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर करेगी। पर वह तैयार हैं। वह हरचरण से प्रेम के लिए तैयार। क्यों कि वह जानती है कि समाज से लड़ने की ताकत उसमें की है और हरचरण में की।

'कँटीली राह के फूल` का नायक अनुप है। उसके जीवन में मधु और कामिनी नाम की दो स्त्रियाँ है। मधु खुले विचारों वाली लड़की है। मस्ती, रोमांस, शारीरिक भोग, दिखावा, नये संबंध और शान-शौकत उसके लिए जिंदगी का सही अर्थ है। दूसरी तरफ कामिनी है जिसका स्वभाव मधु के बिलकुल विपरीत है। वह अनुप से सच्चा पे्रम करती है। अनुप भी उसी से प्रेम करता है। पर दोनों एक-दूसरे से यह बात कह नहीं पाते। लेकिन एक दिन जब साहस करके अनुप कामिनी को अपनी बाँहों में भरने का प्रयास करता है तो वह छटककर उसे दूर हो जाती है और कहती है कि वह अनुप से घृणा करती है।

अनुप अपने कमरे पर आकर आत्मग्लानि में डुबा रहता है तभी वहाँ कामिनी का आगमन होता है। वह अनुप से कहती है कि, ''मैं तुमको प्यार करती हूँ। पता नहीं कब से मैं तुमको प्यार करती हूँ। मैं शुरू से जानती हूँ कि तुम मुझको प्यार करते हो। मैंने इसको स्वीकार नहीं किया और तुम्हारे वियोग में तड़पती रही। तुमने कभी भी मुझ पर अधिकार नहीं जताया इसीलिए मुझको अपने प्रेम पर विश्वास नहीं हुआ। मैं सोचती रही कि समय आएगा और यह सब खत्म हो जायेगा। लेकिन आज जब तुमने मेरा शरीर छुआ, उस शरीर पर अधिकार करने की चेष्टा की तो मुझको विश्वास हो गया कि तुम्हारे बिना मेरे जीवन का कोई महत्व नहीं। मैं तुम्हारी सहजता को प्यार करती हूँ। तुममें किसी किस्म का ढोंग नही; तुम प्रदर्शन नहीं करते। ....तुम मेरे लिए संघर्ष कर सकते हो।``7 अमरकांत यह उपन्यास प्रेम की परणिति को नहीं दिखाता अपितु यह बतलाने की चेष्टा करता हुआ प्रतीत होता है कि सच्चा प्रेम समर्पण, एकनिष्ठता और अधिकार के लिए तड़पता है।

'काले उजले दिन` के नायक का विवाह 'कान्ति` नामक लड़की से होती है। कान्ति से पहले नायक उसकी बहन नीलम से मिल चुका था। नीलम के रूप, सौंदर्य ने उसे खूब आकर्षित किया था। उसकी कल्पना थी कि नीलम की बड़ी बहन कान्ति भी नीलम जैसी होगी। पर कान्ति को देखकर उसके सारे सपने चकमाचूर हो गये। उसकी इच्छा हुई कि वह कान्ति को छोड़कर भाग जाये। पर उसके अंदर इतनी हिम्मत न थी। खुद नायक के शब्दों में, ''मेरी इच्छा हुई कि मैं वहाँ से भाग जाऊँ। यह तय है कि इस परिवार में नहीं रह सकता। हर पल मैं घुटता रहूँगा। मुझे एक क्षण के लिए भी सुख नहीं मिलेगा। पर दरअसल मुझमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि मैं ऐसा कर सकूँ। मुझमे जो हीनता थी, वह मुझे विद्रोह करने से रोकती थी।..... इसलिए इस नियति से बचने का कोई उपाय नहीं था। यही सब मेरी किस्मत में लिखा था और मुझे यह सब भोगना था। अगर मेरी किस्मत खोटी न होती तो क्या ऐसा हो सकता था?``08

शादी के बाद कान्ति के व्यवहार और कार्य से नायक के मन में उसके प्रति सहानुभूति तो थी, पर प्रेम के लिए उसे किसी और की तलाश थी। इसीलिए वह सोचता है कि, ''प्यार की जैसी आकांक्षा मेरे दिल में थी, उसकी पूर्ति कान्ति कदापि नहीं कर सकती थी।.... वह मुझसे खेल नहीं सकती थी, हँसी-मजाक नहीं कर सकती थी।..... वह मुझसे एक संगिनी की तरह व्यवहार नहीं कर सकती थी, बल्कि वह मेरे सामने आत्मसमर्पण कर देती थी। वह मुझसे अपने को हीन और तुच्छ मानती थी - एक दासी की तरह।..... मेरा हृदय एक आधुनिक लड़की के लिए पागल रहने लगा, जो पढ़ी-लिखी हो, सुन्दर हो, जिसमें नाज-नखरे हो....।``09 इस तरह की लड़की की तलाश रजनी के रूप में पूरी हुई। वह रजनी से अपने प्रेम का इजहार करता है। पर मन ही मन वह यह भी सोचता रहा कि क्या वह सचमुच रजनी से प्रेम करता है या फिर उसका आकर्षण सिर्फ रजनी के शरीर के प्रति है। वह रजनी के प्रेम में डूब चुका था पर कान्ति के प्रति धोखे की भासना से आत्मग्लानि भी महसूस करता था। लेकिन रजनी से मिलन की कल्पना मात्र सारे आदर्शो और नैतिकता की बातों को मन से निकाल बाहर फेंक देती। कान्ति बिमारी और मानसिक पीड़ा को झेल नहीं सकती और उसने प्राण त्याग दिया। उसके मरने के कुछ समय बाद नायक और रजनी शादी कर लेते हैं। लेकिन नायक का मन कभी-कभी कान्ति को लेकर दुखी होता तो रजनी उसे समझाते हुए कहती थी कि, ''.....इसमें आपका भी दोष नहीं है, हमारी सामाजिक व्यवस्था का, जिसमें स्त्री को मन पसंद पति और पुरूष को मनपसंद पत्नी चुनने का अधिकार नहीं।``10

इस तरह इस उपन्यास में त्याग, विश्वास और समर्पण के साथ-साथ अपने जीवन साथी को स्वत: चुनने के अधिकार को प्रमुखता दी गई है। क्योंकि जिसे आप पसंद ही नहीं करते उसके समर्पण और विश्वास के प्रति आपकी सहानुभूति पूर्ण दृष्टि प्रेम नहीं उत्पन्न कर सकती। क्योंकि प्रेम के लिए हृदय में जिस रागात्मक संवेदना की आवश्यकता होती है वह सहानुभूति नहीं बल्कि लालसा और कामना से उत्पन्न होती है। और यह लालसा व्यक्ति विशेष के मन में किसी के रूप सौंदर्य, हाव-भाव, आदतों और गुणों के अनुभूति के द्वारा होती है।

'दीवार और आँगन- जो बाद में 'बीच की दीवार` नाम से प्रकाशित हुआ, यह उपन्यास दीप्ति और मोहन के बीच प्रेम की कथा है। उपन्यास की नायिका दीप्ति पहले अशोक से प्रेम करती है। अशोक और दीप्ति में शारीरिक संबंध भी स्थापित हो जाते हैं। पर अशोक का मन सिर्फ शारीरिक सुख ही चाहता था। अत: वह दीप्ति के बाद कंुती की ओर पूरी तरह आकर्षित हो जाता है। इस कारण दीप्ति भी मनफूल से संबंध बनाते हुए अपने अहम् को संतुष्ट करने का प्रयास करती है। लेकिन मनफूल भी दीप्ति से केवल शारीरिक सुख ही चाहता था। अत: कुछ दिनों बाद दीप्ति और मनफूल का भी आपसी संबंध टूट जाता है। फिर दीप्ति और मोहन आपस में संपर्क में आते है। दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगते है। दीप्ति भी अब समझ चुकी थी कि वास्तविक प्रेम सिर्फ शारीरिक संबंध द्वारा सुख प्राप्त करना नहीं है। प्रेम के उदात्त स्वरूप को अब वह समझने लगी थी। इस तरह इस उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने यही बताने का प्रयास किया है कि शारीरिक आकर्षण और मन की कोरी भावुकता 'प्रेम` नहीं वासना होती है। वास्तविक प्रेम को समझने में अक्सर हम गलती कर देते हैं। जैसी की दीप्ति के द्वारा हुई।

'आकाश पक्षी` भी अमरकांत का एक महत्वपूर्ण उपन्यास है। उपन्यास में हेमा और रवि की प्रेम कथा है। हेमा का परिवार रियासतवाला संपन्न परिवार था, पर रियासत खत्म हो जाने के बाद उनकी माली-हालत खराब हो गयी। उन्हें सामान्य लोगों जैसा जीवन यापन करना पड़ रहा था। इसी बीच हेमा की पड़ोस में रहनेवाले रवि से प्रेम हो जाता है। रवि के माता-पिता आधुनिक विचारों वाले लोग है। पर हेमा के माता-पिता रियासत खत्म हो जाने के बाद भी उसी मानसिकता में जीते हुए रवि और परिवार को तुच्छ समझते हैं। जब रवि और हेमा के प्रेम की बात रवि के घरवालों को पता चलती है तो उसके पिता विवाह का प्रस्ताव लेकर हेमा के पिताजी के पास जाते है। पर हेमा के पिता यह सुनकर आग बबूला हो उठते है। वे कहते हैं कि, ''क्या कहा आपने? रवि से हेमवती की शादी कर दू? कैसे हिम्मत हुई आपको ऐसी बात करने की?.... सैकड़ों-हजारों वर्षो से हमारे पुरखे राज-पाट करते आए है, हम शादी क्या अपने से नीची जाति में कर सकते हैं?..... ऊँचा हमेशा ऊँचा रहेगा और नीच हमेशा नीच रहेगा।..... काँग्रेस से देश का शासन नहीं होगा, यह जाहिर हो गया है। फिर लोग हमीं लोगों के पास आकर हाथ जोड़ेंगे और देश का शासन सम्हालने को कहेंगे।``11 इस तरह हेमा और रवि का प्रेम विवाह बंधन में नहीं बँध पाता। उसके पिता वह घर छोड़कर कहीं और चले जाते है। हेमा के पिता हेमा का विवाह एक अधेड़ उम्र के रईस व्यक्ति से जो कि उन्हीं की जाति का था, इसलिए कर देते हैं ताकि उनका गुजर-बसर भी आसानी से हो सके।

इस तरह इस उपन्यास में हेमा और रवि का प्रेम सामाजिक बंधनों और इस सामाजिकता की आड़ में अपने व्यक्तिगत स्वार्थ साधने वाले माता-पिता के इच्छओं के नीचे दबकर खत्म हो जाता है। माँ-बाप की इच्छाएँ, उनकी सामाजिक स्थिति, उनके अपने स्वार्थ और सामाजिक परंपराओं के आगे हेमा और रवि कुछ नहीं कर सके। अपने मन से एक-दूसरे के प्रेम की कामना के साथ वे हमेशा-हमेशा के लिए अलग हो गये।

'सुन्नर पांडे की पतोह` और 'सुरंग` अमरकांत के दो अन्य महत्वपूर्ण उपन्यास है। 'सुन्नर पांडे की पतोह` एक स्त्री के संघर्ष की कथा है। जिस पर उसी के ससुर की नीयत खराब हो जाती है। वह घर छोड़कर चली जाती है और पूरा जीवन अपने उस पति का इंतजार करते हुए मर जाती है जो उसे छोड़कर चला गया है। अपने पूरे जीवन में उसके मन में उसके पति के मधुर प्रेम की स्मृतियाँ बनी रहती हैं। वह किसी और के प्रति आकर्षित नहीं होती और हमेशा अपने सतीत्व की रक्षा करती है। पुरूषप्रधान इस समाज में भी अगर कोई स्त्री चाह ले तो कोई उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता, शायद यही संदेश इस उपन्यास के माध्यम से अमरकांत देना चाहते है।

इसी तरह 'सुरंग` बच्ची देवी नाम उस स्त्री की कहानी है जिसका विवाह एक पढ़े-लिखे व्यक्ति के साथ होता है। पर जब उस व्यक्ति को मालूम पड़ता है कि उसकी पत्नी निपट अनपढ़ गवार है तो वह उससे घृणा करने लगता है और उसे छोड़कर शहर चला जाता है। पर पिताजी के दबाव के कारण बाद में अपनी पत्नी को भी अपने साथ शहर ले जाता है। बच्ची देवी धीरे-धीरे मोहल्ले की अन्य स्त्रियों के संपर्क में आती है। उनकी मदद से वह पढ़ना-लिखना, उठना, बैठना और सिलाई- कढ़ाई का काम सीखते हुए अपने स्वभाव और व्यवहार में बदलाव लाती है। ताकि उसके पति उसे पसंद करने लगे।

अमरकांत का यह उपन्यास कई संदर्भों में बड़ा महत्वपूर्ण है। यहाँ पर 'बच्ची देवी` लगभग उसी तरह की पात्र है जैसी कि काले-उजले दिन की 'कान्ति` थी। पर बच्ची देवी अपनी स्थिति को बदलकर अपने आपको अपने पति के अनुकूल बनाने का प्रयास करती है। प्रेम व्यक्ति में कितनी बड़ी इच्छाशक्ति उत्पन्न कर सकता है, इसका जीवंत उदाहरण बच्ची देवी है।

'सुखजीवी` और 'इन्हीं हथियारों से` अमरकांत के दो अन्य महत्वपूर्ण उपन्यास हैं। 'सुखीजीवी` दीपक नामक ऐसे व्यक्ति की कथा है जो मन से सर्वथा कमजोर है पर उसके अंदर एक ऐसी स्वार्थपरकता, आत्मकेन्द्रियता, दुष्टता और लुच्चापन है कि वह अपने तर्को से सबकुछ अस्वीकार करने की ताकत रहता है।

अहल्या उसकी पत्नी है। सीधी-सरल, जो मिले उसमें गुजारा करनेवाली और दीपक के पति पूरी तरह समर्पित। पर दीपक बात-बात में उससे झूठ बोलता, बाहर अपने मित्रों की पत्नियों के बीच उसकी बुराई करता और उसके प्रेम की सर्वथा अवहेलना करता। इसी बीच पड़ोस में रहनेवाली रेखा के प्रति दीपक आकर्षित होता है। अपनी शारीरिक वासना को मिटाने के लिए वह रेखा को अपने जाल में फँसाकर उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित करता है।

लेकिन जब अहल्या को इस बात का पता चल जाता है तो दीपक रेखा को ही बदचलन साबित करते हुए अपने आप को उससे दूर रखने का वचन अहल्या को देने लगता है। अपनी बातों से वह अहल्या को इस बात का यकीन भी दिला देता है। पर रेखा दीपक की सारी बातें सुन लेती है। और उसके मन में जो प्रेम भाव दीपक के प्रति था वह पूरी तरह समाप्त हो जाता है। उसका मन घृणा भाव से भर जाता है। और दीपक से मिलने पर वह कह देती है कि, ''....मैं बस यही प्रार्थना करती हूँ कि आप आगे मुझसे मिलने की चेष्टा न कीजिएगा। मैं अब आपको समझ गई हूँ। आपको सिर्फ अपने सुख की चिन्ता रहती है और आप जिम्मेदारियों से इसलिए भागते हैं कि उससे कष्ट भी उठाना पड सकता है। आप इस पंछी की तरह हैं जो एक डाल से दूसरी डाल पर फुदकता रहता है, कहीं टिकता नहीं और दाना चुगकर फुर्र से उड़ जाता है। आप कृपा करके चले जाइये....।``12

इस तरह अपने इस उपन्यास के माध्मय से अमरकांत ने दीपक जैसे पात्र के माध्यम से उस मानसिकता को समाज के सामने रखा है जो स्त्रियों को शारीरिक सुख का साधन मात्र मानते हैं। वे प्रेम और त्याग के उच्चादर्शो के बीच अपनी शारीरिक हवस की पूर्ति करते हैं। पर यह सब करते हुए भी वे अपनी सामाजिक स्थिति को लेकर सचेत रहते हैं। और जब भी उन्हें अपनी सामाजिक स्थिति के प्रति खतरा महसूस होता है तो वे अपने आपको हर तरह से बचाने की चेष्टा करते हैं।

'इन्हीं हथियारों से` अमरकांत का एक महत्वपूर्ण और नवीनतम प्रकाशित उपन्यास है। उपन्यास के केन्द्र में बलिया है। इसमें कोई प्रमुख नायक और नायिका नहीं है। पर उपन्यास में कई प्रेम कथाओं का चित्रण है। पर उपन्यास में कई प्रेम कथाओं के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''.....उपन्यास में अनेक प्रेम कथाएँ हैं। ये कथाएँ असफल अधिक हैं। असफलता का एक कारण सदाशयव्रत बताता हैं, जिन्हें अपना चाहा हुआ मिल जाता है।`` यह कोई दार्शनिक कारण नहीं है, देश की पराधीनता से सम्बद्ध है। गरीबी, अन्याय और धोखा पराधीनता के कारण पनपते हैं और यही चाहा हुआ न मिलने की जड़ें हैं। .....उपन्यास के लेखक का मानना है कि स्वतन्त्रता हो तो ऐसी हो जिसमें दलित और मुस्लिम के साथ स्त्री की भी समाई हो। इन सभी के प्रति अन्याय समाप्त हो जाये।``13

उपन्यास में ढेला, भगजोगिनी और कनेरी की प्रेम कथाएँ प्रेम के उदात्त स्वरूप को दिखलाती हैं। उपन्यास में नीलेश और नम्रता की भी लंबी प्रेम कहानी है। ढेला पेशे से वेश्या रहती है, पर पेशे के अनुरूप कई लोगों से शारीरिक संबंध स्थापित करने के बाद भी वह आगे चलकर एक स्वाभिमानी स्त्री के रूप में अपने व्यक्तित्व को ढालती है। वेश्या से वह प्रेमिका बनती है और प्रेम के आदर्श स्थिति को अपनाती है।

अमरकांत के द्वारा रचित इस उपन्यास के संदर्भ में वेद प्रकाश आगे लिखते हैं कि, ''.....एक वेश्या को प्रेमिका और सामान्य नारी बनने की यात्रा का, भगजोगिनी के निश्चल आत्मसमर्पण, दामोदर के साथ उसके संबंधों का और कनेरी की चनरा के प्रति अनन्यता का मार्मिक वर्णन किया है। इनके द्वारा नारी और स्त्री-पुरूष संबंधों का मनोवैज्ञानिक संसार उभरता है। प्रेम, सौंदर्य तथा प्रतिबद्धता के क्षेत्र में भी अमरकांत इन निम्नवर्गीय नारी पात्रों के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। जब वे मध्यमवर्गीय स्त्रियों के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। जब वे मध्यमवर्गीय स्त्रियों के सौंदर्य और प्रेम-व्यापार का वर्णन करते हैं तो वह छायावादी ढंग का होता है, लेकिन जब निम्नवर्गीय स्त्री पात्रों का चित्रण करते हैं तो इससे आगे बढकर प्रगतिशील सौंदर्यबोध से प्रेरणा लेते हैं।..... इन नारी पात्रों का प्रेम संबंधी दृष्टिकोण भी उतना अमूर्त, द्वंद्वगत और एकांगी नहीं है जैसा नम्रता का है।..... उसमें देश के प्रति भावनाएँ बनती ही नीलेश के कारण हैं।.... लेकिन जैसे ही निलेश उसका सम्बन्ध समाप्त होता है, वह यह सब छोड़कर अपने भविष्य निर्माण में लग जाती है।``14

अमरकांत ने अपने इस उपन्यास के माध्यम से कई प्रेम कथाओं का चित्रण किया है। पर इन सब के मूल में स्वाधीनता प्राप्ति की ललक है। गरीबी, शोषण और चारों तरफ व्याप्त भ्रष्टाचार के बीच कई प्रेम कथाओं की असफल परणति तात्कालीन सामाजिक परिवेश को अधिक गहराई से समझने में मदद करती है। समीक्षकों ने इस उपन्यास को महाकाव्यात्मक गरिमावाला उपन्यास सिद्ध करने का प्रयास किया है। उपन्यास के मूल में एक साथ कई कथाओं का विस्तार है। मध्यवर्ग और निम्न मध्यमवर्गीय समाज की इन प्रेमकथाओं के माध्यम से अमरकांत का वैचारिक पक्ष समझने मे भी हमें मदद मिलती है।

इस तरह अमरकांत के उपन्यासों के बाद अब हम अमरकांत की कहानियों में प्रेम और सौंदर्यबोध से संबंधित दृष्टि की विवेचना करेंगे। रागात्मक संवेदनाओं से जुड़ी हुई अमरकांत की कई कहानियाँ हैं। उनमें से कुछ प्रमुख कहानियों की हम यहाँ पर चर्चा करते हुए उनमें निहित वैचारिक दृष्टिकोण को समझने का प्रयास करेंगे।

'संत तुलसीदास और सोलहवाँ साल` 1950 के दशक में लिखी गयी अमरकांत की एक महत्वपूर्ण कहानी है। बबुआ रणबहादुर सिंह को लोक संत तुलसीदास कहकर संबोधित करते थे। रणबहादुर अपनी पत्नी शकुन्तला से बहुत प्यार करते थे। पढ़ाई में उनका मन न लगता। जब मौका मिलता भागकर अपने घर पत्नी के पास आ जाते। लोक अब उनको जोरू का गुलाम कहने लगे। पर इसी बीच शकुन्तला ने भी एक दिन कह दिया कि, ''हाय राम, अब मैं क्या करूँ? बेकार में मैं बीच में सानी जा रही हूँ। आप भी तो दौडे चले आते थे।.... हाय दैया, आँगन में मैं अब उनके सामने कैसे निकलूँगी?``15 शकुंतला की बातों से रणबहादुर का मन आहत हो गया। उन्होंने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि वे एफ.ए. पास करने के बाद ही घर वापस आयेंगे। पर कुछ महीनों बाद जब उन्हें शकुंतला का एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि, ''....मैं आज पन्द्रह वर्ष, ग्यारह महीने और चार दिन की हो गयी। मेरा सोलहवाँ तेजी से भाग रहा है, स्वामी, यह सोलहवाँ वर्ष कभी भी लौट कर नहीं आएगा। क्या आप होली में एक रोज के लिए भी नहीं आ सकते।``16 पत्नी का यह पत्र पाते ही रणबहादुर सिंह का सारा संकल्प, अनुशासन और वैराग्य एक पल में टूट जाता है। और वे पत्नी से मिलने के लिए विफल हो जाते हैं।

मध्यवर्गीय समाज की कोरी भावुकता को इस कहानी के माध्यम से अमरकांत ने दिखाने का प्रयास किया है। इस वर्ग विशेष के संकल्पों और उसके लंबे समय तक निर्वाह की अमरकांत को बिलकुल भी आशा नहीं रहती। यही बात रणबहादुर सिंह जैसे पात्र के माध्यम से उन्होंने पाठकों के सामने रखी है।

'जिन्दगी और जोंक` अमरकांत की सबसे चर्चित कहानियों में से एक है। कहानी का प्रमुख पात्र रजुआ एक निरीह की पगली को अपने साथ रखना, उसके खाने की चिंता करना, काम के बीच में जा-जा कर पगली का हाल देख आना, यह उसके मन में निहित प्रेम की लालसा का प्रतीक है। वह पगली से अपनी शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति भी करता है। एक दिन जब उसने पगली के पास किसी और को सोया देखा तो उसने आपत्ति भी उठायी। इस कारण उसे मार भी खानी पड़ी। अपने जीवन में रोज ही रजुआ दिन में न जाने कितनी बार डॉट-मार और गालियाँ खाता जाता था। पर उसने कभी भी इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं की थी। लेकिन पगली के प्रेम में उसने आपत्ति की और मार खायी।

रजुआ उस पगली के साथ सिर्फ शारीरिक संबंध बनाना चाहता हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। उसका पगली के प्रति मोह शायद इसलिए था कि वह अपने जीवन में हमेशा ही तिरस्कृत रहा और प्रेम तथा सहानुभूति के लिए तरसता रहा। पगली से उसे शारीरिक सुख तो मिलता ही साथ ही साथ उसके जैसे निरीह व्यक्ति को भी किसी का स्वामी होने का मनोवैज्ञानिक आधार की। जो कि उसके जीवन में सबसे बड़ी पूँजी होती। पर उसके जैसे व्यक्ति को पगली का भी सुख नहीं मिला। यहाँ पर भी उसे मार कर, अपमानित करके भगा दिया गय।

'शुभचिंता` कहानी के केन्द्र में ज्ञान और सीता का प्रेम कहानी है। सीता ज्ञान की बहन मंजु की सहेली थी। शुरू-शुरू में ज्ञान जब उससे मिला तो उसे सीता का रहन-सहन, उठना-बैठना बिलकुल भी पसंद नहीं आया। उसने अपनी पसंद और आदर्श को मिला-जुला कर एक लंबा भाषण सीता को दिया। सीता मन ही मन ज्ञान को चाहने लगी थी। अत: वह अपने को पूरी तरह ज्ञान के अनुरूप ढालने की कोशिश करती है। जब ज्ञान को इस बात का एहसास होता है तो वह एक दिन चौका देखकर सीता से कह देता है कि, ''....मैंने देखा कि शायद तुम कोई ऐसी कमजोरी पाल रही हो, जो ठीक नहीं ....हमारे और तुम्हारे दोनों के लिए ....मैं चाहता हूँ कि तुम अधिक से अधिक पढ़ो और अपने जीवन को देश और समाज की भलाई में लगा दो....।``17

ज्ञान की इन बातों को सुनकर सीता रोने लगती है और कई दिनों तक मंजु के घर आती। कुछ दिनों बाद ज्ञान को सीता का मंजु के नाम लिखा एक पत्र मिलता है। जिसमें उसने जीवन के प्रति निराशा व्यक्त करते हुए आत्महत्या करने तक की बात लिखी थी। स्पष्ट है कि सीता के जीवन में पूरा उत्साह और बदलाव ज्ञान के प्रति प्रेम भावना को लेकर था। लेकिन जब ज्ञान ने ही उसके प्रेम को ठुकरा दिया तो उसके सारे उच्चादर्श धराशायी हो गये। प्रेम की भावना व्यक्ति को जीतने ऊपर उठाती है, उसकी नकारात्मक स्थिति आदमी को अंदर से उतनी ही बुरी तरह तोड़ भी देता है। सीता के व्यक्तित्व से यह स्पष्ट भी है।

'लड़की और आदर्श` कोरी भावुकता और आकर्षण की कहानी है। नरेन्द्र अपने विश्वविद्यालय में पढ़नेवाली कमला से मन ही मन एक तरफा प्यार करने लगे थे। यह बात उन्होंने कमला से कई बार बतानी चाही पर कभी भी इतरी हिम्मत नहीं जुटा पाये। और अंत में जब यह निश्चित हो गया कि कमला नरेन्द्र को नहीं मिलेगी तो, नरेन्द्र कमला के संबंध में मित्रों के बीच कहते कि, ''ऐसी लड़कियाँ अच्छे आचरण की थोड़े होती हैं। हमारे घरों की औरतों में जो शील, संकोच और शरम-लिहाज होता है, वह इनमें कहाँ? खूबसूरती में भी ये हमारे घर की औरतों को क्या पाएँगी? जो कुछ इनके पास मिलेगा वह है टीप-टाप, नाज-नखरा और लथकना-मटकना.....।``18 इस तरह नरेन्द्र का पूरा आदर्श सारा हृदय का रागात्मक भाव समाप्त हो जाता है। जिस कमला को वह कभी अपने जीवन का आदर्श मानता था, अब उसी की बुराई कर रहा है। इस तरह वह अपनी कमजोरियों और कायरता से बचने की कोशिश करता है।

'मुक्ति` कहानी के केन्द्र में मोहन और मधु की प्रेम कथा है। मधु एक विधवा कमकरिन की लड़की है। उसकी माँ लखनऊ के एक अस्पताल में नर्स का काम करती थी। उन दिनों मोहन लखनऊ में ही रहकर अपनी पढ़ाई कर रहा था। वह पारिवारिक रूप से धनी था। चाहता था कि उसकी शादी किसी पढ़ी-लिखी आधुनिक स्त्री से हो। पर विवाह ने उसके सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया। बाद में वह लखनऊ में ही छोटी-मोटी नौकरी करने लगा और मधु के नजदीक आता गया। मधु की माँ की मृत्यु के बाद मोहन और मधु आपस में अधिक करीबी रिश्ते बनाने लगे। दफ्तर से छूटने के बाद मोहन मधु के यहाँ ही आ जाता। वहीं खाना खाता और रात बिताता। यह सिलसिला पूरे आठ साल तक चलता रहा।

फिर एक दिन मोहन के ससुर ने मोहन से मुलाकात की। उन्होंने मोहन को समझाया कि, ''उनकी जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं और उनके बाद मोहन और मीरा को ही उनकी विशाल सम्पत्ति को भोगना है। डेढ़ सौ बीघा जमीन, बारी-बगीचे, हजारों रूपये के गहने तथा बैंक में जमा बीस हजार रूपये की देखभाल कौन करेगा?``19 ससुर की बातें सुनकर मोहन यह सोचने लगा कि मधु जैसी नीची जाति की लड़की के साथ वह अपना जीवन क्यों बरबाद कर रहा है। अत: वह मधु को सलाह देता है कि वह अपने सजातिय किसी लड़के से विवाह कर ले। वह यह सब उसके प्रति प्रेम में कुर्बानी देने के उद्देश्य से ही कह रहा है। साथ ही साथ वह मधु पर दोषारोपण करते हुए उससे संबंध तोड़ने की बात करते हुए उसके घर से निकल गया। यहाँ पर भी व्यक्तिगत स्वार्थो की पूर्ति करनेवाला मोहन मधु से प्रेम केवल मात्र अपनी मानसिक कुठा और घृणा को शांत करने के लिए करता है। उसे मधु से प्रेम नहीं था, पर अपनी पत्नी से नफरत और घृणा अवश्य थी। लगातार आठ वर्षों तक वह मधु के साथ प्रेम का राग अलापते हुए संबंध बनाये रखता है। पर जैसे ही ससुर की तरफ से मोटी जायदाद और धनलाभ की बात समझ में आती है तो वह मधु से पीछा छुड़ाने की ठान लेता है।

वह समस्त दोषारोपण मधु के ऊपर करते हुए उसे त्याग देता है। पर वास्तविकता यह है कि प्रेम के नाम पर मोहन ने मधु का सिर्फ और सिर्फ शारीरिक तथा मानसिक शोषण किया।

'असमर्थ हिलता हाथ` भी अमरकांत की चर्चित कहानियों में से एक है। कहानी की पात्र मीना यह ठान लेती है कि वह अपने प्रेम को एक सही अंजाम तक पहुँचायेगी। पर परिवार के लोगों के बीच इस बात पर सहमति नहीं बन पाती। इसी बीच मरती हुई माँ को मीना वचन देती है कि वह माँ की इच्छा के अनुरूप ही कार्य करेगी। माँ कुछ बोल नहीं पाती पर मीना को देखकर वह हाँथ उठाने का प्रयास करती है। मॉ की मृत्यु के बाद अब मीना की सारी शक्ति जवाब दे जाती है। मॉ अंतिम समय में हॉथ उठाकर क्या कहना चाहती थी यह स्पष्ट नहीं है। पर घर वाले मीना को समझाते है कि उसे कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे की परिवार की बदनामी हो।

कहानी का अंत बड़ा नाटकीय है। स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाती है। इस संबंध में डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव लिखते है कि, ''.....अंतिम संकेत इतना ही है - 'लक्ष्मी का प्राण निकल रहा था।` इस रूख से यह नतीजा निकालना जल्दबाजी होगी कि अमरकांत किसी रूढ़ि का समर्थन कर रहे हैं। या पीछे लौटने को चरित्र का गुण मान रहे हैं। वे इतना ही व्यंग्यात्मक यथार्थ दिखाना चाहते हैं जो स्थिति की तबदीली की तमामा कोशिशों के बावजूद उसी रूप में है।``20 स्पष्ट है कि कहानी के अंत के आधार पर कोई ठोस निर्णय निकालना मुश्किल है। पर इतना स्पष्ट है कि प्रेम के संबंधों पर पारिवारिक मान्यता सामाजिक मान्यता जैसी ही जटिल और विरोधों भरी होती है।

'लड़का-लड़की` कहानी के केन्द्र में चंदर और तारा की प्रेम कहानी हैं। चंदर तारा से प्रेम का इजहार करते हुए उसके लिए कुछ भी कर जाने की बात करता है। हर बड़ी से बड़ी कुर्बानी के लिए वह हमेशा तैयार रहता। और उसकी इन्हीं बातों ने तारा के मन में उसके प्रति प्रेम भाव को जगाया। तारा ने इस संबंध में अपने पिता से बात की। थोड़ा सोच-विचार कर तारा के पिता इस संबंध को स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाते हैं। लेकिन जब यह खुशखबरी तारा चंदर को देती है तो उसके पैरों के नीचे की जमीन सरक जाती है। उसे पहले तो इस बात पर विश्वास ही नहीं होता और बाद में वह तारा को धोखेबाज कहने लगता है। तारा भी चंदर के यथार्थ को समझ जाती है। और वह चंदर से कहती है कि, ''....बात तो यह है कि आप सदा हवा में उड़ते रहना चाहते है और आज जब जमीन पर उतरने का मौका आया है, त्याग करने का समय आया है, तो आप जान बचाना चाहते हैं, इसीलिए आप नाराज हैं, अपने लिए मौजपूर्ण गैरजिम्मेदारी और दूसरों के लिए परिश्रम, कर्तव्य और जिम्मेदारी, यही आपका जीवन दर्शन है। पर मैं आपसे यह पूछती हूँ कि आपने मेरा जीवन क्यों बरबाद किया?``21 इस तरह अमरकांत ने इस कहानी के माध्यम से चंदर के रूप में एक कोरी भावुकतापूर्ण और आदर्शो की बात करनेवाले एक ऐसे नौजवान का चित्रण करते हैं जो वास्तविक रूप में कमजोर और दायित्वों को निभाने की क्षमता नहीं रखता।

'रिश्ता` अमरकांत द्वारा रचित एक आदर्श प्रेम कहानी है। पहली बार इस कहानी में अमरकांत के मध्यमवर्गीय पात्र प्रेम करते हैं, प्रेम के उदात्त स्वरूप को समझते हैं और प्रेम कहानी का अंत भी आदर्श रूप में सामने आता है। रामानुजसिंह, नईम के अध्यापक थे। नईम बहुत गरीब लड़का रहता है। यहाँ तक कि उसके पास पढ़ने के लिए किताबें भी नहीं होती थी। रामनुजसिंह की लड़की निरूपमा उसे अपनी किताबें पढ़ने के लिए देती है। उसकी हर संभव सहायता करती है। फीस, कापी और किताबों से मास्टर साहब ने नईम की हमेशा मदद की और नईम की आगे बढ़ने में सहायता करते हैं। नईम की हर कामयाबी पे निरूपमा को बहुत खुशी होती थी। नईम के दिल में निरूपमा ने एक ऐसी ज्योति प्रज्वलित कर दी थी जो कभी बुझ नहीं सकती थी। मास्टर साहब ने नईम को एक प्रकार का आत्मविश्वास और आत्मबल प्रदान किया था।

नईम निरूपमा से जितना प्रेम करता था उतना ही उस परिवार के प्रति कृतज्ञता के भाव से भरा हुआ था। इसीलिए एक दिन वह निरूपमा से कहता है कि, ''नीरू, तुमसे अधिक प्रिय मेरे लिए कोई भी नहीं है। पर हमें और बातों का भी ख्याल करना चाहिए। मास्टर साहब रिटायर होने वाले हैं। हमारा समाज जैसा है, वह तो तुम जानती ही हो। अगर हम कुछ फैसला करते हैं, तो तुम्हारी दोनों बहनों का क्या होगा? उसकी वजह से गाँव में फसाद भी फैलेगा। मास्टर साहब का दिल टूट जाएगा। उन्होंने मुझ पर जो विश्वास किया था, वह खंड-खंड हो जाएगा।``22

नईम ने इस तरह निरूपमा को सामाजिक और पारिवारिक यथार्थ से अवगत कराया। जब वह आई.ए.एस. में पास होकर टे्रनिंग के लिए गया तो विवेक नामक लड़के से मिलता है। वह निरूपमा की ही जाति का था। अत: वह उसके सामने निरूपमा के लिए विवाह का प्रस्ताव रखता है। इस तरह निरूपमा और विवेक का विवाह संपन्न हो जाता है। निरूपमा के विवाह के बाद नईम उससे नहीं मिला। इस तरह अपनी इस कहानी के माध्यम से अमरकांत ने प्रेम का एक आदर्श स्वरूप सामने लाने का प्रयास किया है।

'एक निर्णायक पत्र` नामक कहानी में मास्टर विनय कुमार और नीति के प्रेम केो दिखलाया गया है। विनय, नीति को पढ़ाते हुए उससे प्रेम करने लगते हैं। नीति प्री-मेडिकल परीक्षा में सफल भी हो जाती है। उसके मन में भी विनय के प्रति ऐसे ही भाव उमड़ते हैं। लेकिन जब वह लखनऊ जाने के बाद कई दिनों तक विनय को पत्र नहीं लिखती तो विनय खुद लखनऊ पहुँच जाता है। जब होटल में नीति उससे मिलने आती है तो बातों ही बातों में वह नीति की इज्जत-आबरू नष्ट करने की बात करता है। नीति के शरीर से सारे कपड़े खीच कर उसे निर्वस्त्र कर देता है। यह सब देख नीति रोने लगती है और रोते-रोते कहती है कि, ''सर, आपको पूरा हक है। इज्जत-आबरू, प्राण, सब कुछ मैं आपको सहर्ष देने को तैयार हूँ गुरू-दक्षिणा के रूप में।``23 नीति की बातें सुनकर विनय शर्मिन्दा होता है। वह नीति को पुन: होस्टल छोड़कर चला जाता है। कुछ दिनों बाद वह नीति के पास एक लंबा पत्र लिखता है जिसमें उसकी तारीफ, भारतीय नारी के उच्चादर्श के साथ-साथ कसी हुई बे्रसरी न पहनने की हिदायत भी देता है। विनय का यह पत्र हवा से उड़कर रद्दी की टोकरी में जा गिरता है। और यहीं कहानी समाप्त हो जाती है।

जैसा कि कहानी का शीर्षक 'एक निर्णायक पत्र` है। तो यह माना जा सकता है कि विनय का व्यवहार और उसका वह पत्र नीति को उसके प्रति निर्णायक निर्णय लेने के लिए सहायक अवश्य था। हलांकि कहानी का अंत प्रतीकात्मक है। पर संभावना यही है कि जिस तरह हवा की नियति ने उसके पत्र को रद्दी के टोकरे के ही योग्य समझा, उसी तरह नीति भी विनय के भावुक, संशयित और वासनाग्रस्त प्रेम को त्याग कर उससे अपने संबंधों को तोड़ लेना चाहिए। लेकिन इस कहानी पर अंतिम रूप से कुछ कहना ठीक नहीं है।

इस तरह अमरकांत के उपन्यासों और कहानियों के समग्र विवेचन है आधार पर जो बातें स्पष्ट होती हैं उन्हें निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर आसानी से समझा जा सकता है।

1) अमरकांत की कहानियों की अपेक्षा उपन्यासों में रोमांटिक भाव अधिक हैं।

2) अमरकांत के कथा साहित्य के अधिकांश नायक प्रेम के द्वारा अपने व्यक्तित्व को ऊँचा उठाने का प्रयास करते हैं।

3) अमरकांत के कथा साहित्य के अधिकांश नायक अपनी प्रियसी से अपेक्षा करते हैं कि वे प्रेम के उच्चादर्श को समझें, खूब तरक्की करें, आत्मनिर्भर बनें और भारतीय स्त्रियों की वर्तमान स्थिति को बदलने में अहम योगदान निभायें।

4) अमरकांत के कथा साहित्य के अधिकांश मध्यमवर्गीय नायक प्रेम में आदर्श और त्याग की बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं, पर जब यथार्थ रूप में ऐसा कुछ करने का समय आता है तो वे पीछे हट जाते हैं।

5) अमरकांत के कथा साहित्य में नायक-नायिका के मिलन या प्रेम की स्थितियों का फूहड़ वर्णन नहीं हुआ है। इस संदर्भ में अमरकांत बहुत संयमित दिखाई पड़ते हैं।

6) अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में जितने प्रेम प्रसंग चित्रित किये हैं उनमे अधिकांश साथ पढ़नेवाले लड़के-लड़कियों के बीच है, या फिर ट्याूशन पढानेवाले लड़के और लड़की के बीच। जहाँ यह नहीं है वहाँ नायिका को पढ़ने का शौक है इसलिए नायक द्वारा पढ़ने की सामग्री देने और इसी तरह के प्रसंग चित्रित हैं। कुल मिलाकर पढ़ना-पढ़ाना ही प्रेम होने के केन्द्र में हैं।

7) अमरकांत ने विवाह के बाद भी प्रेम के जितने प्रसंग चित्रित किये हैं वहाँ स्त्री अनपढ़ और गावार है। वह समर्पित तो है पर उसमें आधुनिक स्त्रियों से गुण नहीं हैं। और नायक आधुनिक गुणों वाली स्त्रियों की चाह में प्रेम करता है।

8) अमरकांत के पात्रों ने समाज से लड़ते हुए अपने प्रेम को सामाजिक मान्यता दिलाई हो, ऐसे प्रसंग न के बराबर हैं। ('लाखो` कहानी को छोड़कर। पर यहाँ पर भी लाखों का विवाह समाज अपनी सहानुभूति में स्वीकार करता हुआ दिखायी देता है।)

9) अमरकांत के निम्न मध्यमवर्गीय पात्र, मध्यमवर्गीय पात्रों की तुलना में प्रेम में अधिक सफल, स्पष्ट और समाज से टकराने के लिए तैयार दिखायी पड़ते हैं।

10) अमरकांत के कथा साहित्य के अधिकांश प्रेम प्रसंग असफल ही साबित हुए हैं। कभी मोहभंग के कारण, कभी यथार्थ से न लड़ने की कायरता के कारण तो कभी सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारी को समझते हुए नायक-नायिका का प्रेम प्रसंग आगे न बढ़ाने के आदर्शवादी निर्णय के कारण।



2) निम्न मध्यमवर्गीय जीवन बोध :-

अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से निम्न मध्यमवर्गीय समाज का चित्रण अधिक किया है। अमरकांत हमेशा अपने परिवेश से जुड़े रहे और वास्तविक जीवन में जो कुछ देखा, समझा उसी को अपने साहित्य का विषय बनाया। इसी संदर्भ में शेखर जोशी लिखते हैं कि, ''आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य की विडम्बना यह रही की घोर पारम्परिक व्यवस्था में रहते हुए भी अनेकों कथाकार आधुनिकता के जोश में महानगर के खण्डित पारिवारिक सम्बन्धों पर झूटी रचनाएँ करने लगे जबकि अमरकांत ने अपनी रचनाओं के लिए वही भूमि चुनी जिसमें वे जी रहे थे। यही उनके जैनुइन होने का रहस्य है।``24 शायद यही कारण है कि अमरकांत निम्न मध्यवमवर्गीय समाज के अंदर व्याप्त लाचारी, परेशानी, तंगी, स्वार्थ, आदर्श, मोहभंग, दीनता और मनोवैज्ञानिक मानसिक स्थितियों को इतनी गंभीरता के साथ चित्रित करने में सफल हुए। व्यंग्य, निरीहता, पीड़ा, शोषण, विसंगतियां, चालाकी, कुटिलता और मूर्खता तथा गवारूपन जैसी अनेकों बातों के चित्रण मे अमरकांत को महारत हासिल है।

अमरकांत 'नई कहानी` के दौर के कथाकार हैं। लेकिन कई मायनों में अमरकांत अपने समकालीन साहित्यकारों से अलग थे। मधुरेश इस संदर्भ में लिखते हैं कि, ''उनके समकालीनों के बीच तब बहुतों को उनकी स्थिति बड़ी दयनीय लगी होगी और यह भी हो सकता है कि बहुतों को वह अपने समय से पीछे छूट जाते भी लगे हों - अपनी कहानियों की विषयवस्तु के चयन में ही नहीं, शिल्प-संचेतना और भाषा शैली की दृष्टि से भी। लेकिन एक तरह से अमरकांत का यह समय से पीछे छूट जाना ही उनका अपने समय से आगे बढ़ जाना था - कम से कम आज इसे प्रमाणित कर सकने में किसी किस्म की कोई दिक्कत पेश नहीं आनी चाहिए। अमरकांत जितनी सादालौही के साथ अपने आस-पास की जिन्दगी पर लिख रहे थे उसकी सादगी में ही उसकी सादी शक्ति छिपी थी।``25 स्पष्ट है कि अमरकांत ने जिस वर्ग विशेष को अपने कथा साहित्य का विषय बनाया, वह उनके परिवेश के सर्वथा अनुकूल था।

अमरकांत के संदर्भ में राजेन्द्र यादव लिखते हैं कि, ''..... अमरकांत टुच्चे, दुष्ट और कमीने लोगों के मनोविज्ञान का मास्टर है। उनकी तर्कपद्धति, मानसिकता और व्यवहार को जितनी गहराई से अमरकांत जानता है, मेरे खयाल से हिन्दी का कोई दूसरा लेखक नहीं जानता।..... निम्न मध्यमवर्गीय दयनीयता, असफलता और असहायता के बीच, उस सबका हिस्सा बनते हुए उसने कहानियाँ लिखी हैं। आर्थिक रूप से विपन्न, आधी आढ़ने - आधी निचोड़ने वाले बुजुर्ग, छोटे क्लर्क या बेकार नवयुवक अमरकांत के प्रिय पात्र हैं; और अभाव किस तरह नैतिकता और संस्कारों को स्तर-स्तर तोड़ता है - उसका सशक्त अध्ययन क्षेत्र है।``26 स्पष्ट है कि अमरकांत ने निम्न मध्यवर्गीय समाज के मनोविज्ञान को बखूबी समझा और उसे अपने साहित्य का विषय भी बनाया।

अमरकांत के उपन्यासों की बात करें तो कई ऐसे पात्र सामने आते हैं जिनके माध्यम से अमरकात ने निम्नमध्यवर्गीय समाज के जीवन को चित्रित करने का प्रयास किया है। 'सूखा पत्ता`, 'सुखजीवी`, 'कँटीली राह के फूल` तथा 'बीच की दीवार` जैसे उपन्यासों में तो इस तरह का चित्रण न के बराबर है। पर 'ग्रामसेविका`, 'सुन्नर पांडे की पतोह`, 'आकाश पक्षी` और 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास इस दृष्टि से महत्वपूर्ण जरूर है। मुख्य पात्र के रूप में न सही पर प्रसंगानुकूल पात्रों का चित्रण उनके पूरे सामाजिक परिवेश को पाठकों के मानस में जीवंत कर देता है।

'ग्राम सेविका` उपन्यास मेें कई ऐसे निम्न मध्यवर्गीय पात्रों का जिक्र है जो अपनी अज्ञानता, रूढियों और अंधविश्वास के कारण दमयंती की बातों पर संदेह करते हुए उसके बारे में अनुचित बातें करते हैं। छकौड़ी की स्त्री, सुमिरनी दाई, भीम पासी, रमैनी, सहुकाइन कुछ ऐसे ही पात्र हैं जो आशंका से करे हैं। लेकिन जंगी अहिर, जमुना कुछ ऐसे पात्र हैं जो दमयंती की बातों पर विश्वास करते हुए उसके पति सहानुभूति का भाव रखते हैं।

इस समाज में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़ियों और अज्ञानता तथा भोलेपन को लेखक ने कई जगह दिखलाया है। जमुना को बच्चा होने पर उसके कमरे की हालत परंपराओं के नाम पर ऐसी कर दी गयी कि बच्ची बिमार हो गई। इसके बाद भी झाड़-फूँक कराने में सबने अधिक दिलचस्पी ली। मिसिराइन और झींगुर सोख टोना-टटका के लिए ही पूरे गाँव में मशहूर थे। इस समाज की आर्थिक विपन्नता का भी वर्णन अमरकांत कई संदर्भो में करते हैं। जैसे कि दमयंती के स्कूल में दोपहर के समय बच्चों को पाउडर का दूध दिया जाता था। ऐसे में, ''....उन लड़कों की मातायें भी, जो अपने लड़कों को स्कूल नहीं भेजती, उनको गिलास या कटोरा पकड़ा देती और उनको ठेल कर कहती, ''जा, दूध ले आ स्कूल से।`` ऐसे ही अनेकों प्रसंग अमरकांत ने इस उपन्यास में चित्रत किये हैं।

'सुन्नर पांडे की पतोह` में दोमितलाल की सिफारिश करते हुए सुन्नर पांडे की पतोह कहती है कि, ''मालिक, दुखिया है, बड़ा सीधा-सादा है। मेहनत खूब करता है। बाप बड़ा ऐबी था, सब फूॅक-ताप गया। सन्तान भूखों मरने लगी। सूखा पड़ा तो यह अपने बड़े भाई के साथ शहर भाग आया। दोनों भाई मेहनत-मजूरी करते थे.... बाद में बड़े भाई ने इसको मारकर बाहर निकाल दिया.... बड़ा कंस है वेो....।``27 दोमितलाल जैसे ही कई अन्य निम्न मध्यमवर्गीय पात्र इस उपन्यास में हैं। सुनरी, दुबे ड्राइवर, बुधिया ऐसे ही पात्र हैं। मुख्य कथा के साथ इनकी कथाओं को जाड़ते हुए अमरकांत ने संक्षेप में ही इनके जीवन का परिचय दे दिया है।

'आकाश पक्षी` उपन्यास की मुख्य कथा तो सामंती परंपराओं वाले राजा साहब से परिवार के पतन और हेमा तथा रवि के प्रेम की है। पर राजा साहब के विचार और निम्न वर्ग पर उनका रोब इस वर्ग की स्थिति को स्पष्ट करता है। हेमा का कहानी कि, ''हमारी रियासत में बड़े लोगों द्वारा गरीब लोगों को मारने-पीटने और सताने की घटनाऍ सदा होती रहती थीं। .... कुछ अन्य लोगों को छोड़कर शेष जनता भयंकर निर्धनता में जीवन व्यतीत करती थी। दोनों जून रोटी का प्रबंध करना उनके लिए कठिन हो जाता था। उसका कोई नहीं था - न ईश्वर और न खुदा। जो कुछ था, वह राजा ही था।``28 हेमा की बात में जिन लोगों का जिक्र है वे इसी दबे-कुचले निम्न मध्यवर्ग की तरफ ही इशारा करते हैं।

'इन्हीं हथियारों से` अमरकांत का नवीनतम और महत्वपूर्ण उपन्यास है। सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय बलिया में ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया था। बलिया को ही केन्द्र में रखकर लिखे गये इस उपन्यास में निम्न मध्यवर्गीय जीवन के कई चित्र प्रस्तुत हुए हैं। साथ ही साथ इस उपन्यास की जो सबसे खास बात है वह यह कि इस उपन्यास के निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय पात्र उस तरह की निराशा, हताशा और मोहभंग के शिकार नहीं हैं, जैसे की अमरकांत के कथा साहित्य के अधिकांश पात्र हैं। कारण यह है कि इस उपन्यास की पृष्ठभूमि के आजादी का संकल्प है न कि आजादी के बाद का मोहभंग। यहॉ जीवन में भरपूर आशा, विश्वास, उत्तेजना और भविष्य को लेकर सुनहरे सपने हैं।

उपन्यास के निम्न मध्यवर्गीय पात्रों में नफीस, हसीना चूड़ीहारिन, श्यामदासी, ढेला, गोपालराम, किसुनी चाट वाला, धनेसरी, किनरी, फूलनी, छकौड़ी, भोलाराम, चनरा, भीमल-बो भगजोगिनी और रामचरन प्रमुख है। दरअसल उपन्यास में कोई प्रमुख नायक या नायिका नहीं हैं। साथ ही साथ इसकी कोई एक केन्द्रिय कथा भी नहीं है। उपन्यास में कई पात्रों से जुड़ी हुई कथाएँ हैं। प्रेम, राजनीति, डाकू, सन्यासी, वेश्या, दलाल और स्कूल-कॉलेज में पढ़नेवाले भावुक लड़कों का उपन्यास में न केवल जिक्र है अपितु उनसे संबंधित कई छोटी-बड़ी कहानियाँ भी इस उपन्यास में मिलती हैं।

उपन्यास में एक बात और स्पष्ट होती है कि अमरकांत के निम्न मध्यवर्गीय पात्र मध्यवर्गीय पात्रों की तुलना में अधिक कर्मशील और विचारों को लेकर दृढ़ दिखते हैं। इसी संदर्भ में वेदप्रकाश लिखते हैं कि, ''....अमरकांत ने मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय मानसिकता का भेद भी चित्रित किया है। यह भेद व्यक्त नहीं व्यंजित है। अधिकार मध्यवर्गीय पात्र उतने सकर्मक और स्पष्ट रूप से फैसला लेने वाले नहीं हैं जितने निम्नवर्गीय पात्र।``29 स्पष्ट है कि अमरकांत की दृष्टि निम्न मध्यवर्गीय समाज के साथ सिर्फ सहानुभूतिपूरक न होकर एक गहरी वैचारिक दृष्टि के कारण भी था।

अमरकांत के उपन्यासों की अपेक्षा उनकी कहानियों में निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्र अधिक उभर कर आया है। नौकर, जिंदगी और जोंक, दोपहर का भोजन, मूस, हत्यारे, बहादुर, निर्वासित, फर्क, कुहासा, लाखों और 'जाँच और बच्चे` जैसी कहानियों में उनकी संवेदनाएँ, सहानुभूति और इस वर्ग को लेकर उनका वैचारिक दृष्टिकोण एकदम साफ हो जाता है। अमरकांत की ये कहानियाँ बहुत चर्चित भी रही हैं और इनपर समीक्षकों की पर्याप्त समीक्षाएँ लिखी गई हैं।

डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी अमरकांत की कहानियों के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''अमरकांत 'कफन` की परम्परा के रचनाकार हैं। ....अमरकांत की कहानियाँ द्वंद्वात्मक दृष्टि से परस्पर विरोधी स्थितियों का समाहार कर पाने की शक्ति से रचित हैं। इसी अर्थ में वे 'कफन` की परम्परा में हैं। यह दृष्टि और शक्ति अमरकांत की अधिकांश कहानियों में सुलभ है।``30 अमरकांत की इस शक्ति का परिचय 'जिंदगी और जोंक` जैसी कहानियोें में स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ता है। कहानी का पात्र 'रजुआ` जितना निरीह और जितनीय दयनीय स्थिति में जीता है उतना ही काइयाँ और वर्ग सुलभ व्यावहारिक गुणों से संपन्न है। वह छोटी जातियों के बीच अंधविश्वास, भूत प्रेत और ऐसी बातों का प्रचार करता है। खुद दाढ़ी बढ़ाकर शनीचरी देवी को जल चढ़ाता है, पगली को फुसलाकर अपने पास रखता है और अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

अमरकांत अपने 'रजुआ` जैसे निम्न मध्यवर्गीय पात्रों के साथ तो सहानुभूति दिखलाते हैं पर उनकी परिस्थितियों के प्रति उतने ही निर्मम दिखायी पड़ते हैं। ''यह बात जिम्मेदारी के साथ कही जा सकती है कि जितनी वास्तविक और जटिलता के लिए निम्न और निम्न मध्यवर्गीय पात्रों की करूण स्थिति का चित्रण अमरकांत की कहानियों में मिलता है, उतना समकालीन कथा साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है।``31 शायद यही कारण है कि अमरकांत को निम्न मध्यवर्गीय समाज का कहानीकार माना जाता है।

'मूस` भी अमरकांत की चर्चित कहानियों में से एक है। कहानी का मुख्य पात्र 'मूस` ही है। जो उतना ही निरीह है जितना की 'रजुआ`। बल्कि कुछ संदर्भो में वह 'रजुआ` से भी अधिक दयनीय दिखायी पड़ता है। परबतिया के आगे उसकी एक नहीं चलती। परबतिया हर ढ़ंग से उसको अपने इशारे पर नचाती है। 'मुनरी` के साथ रहकर उसके अंदर के लिए भी तैयार हो जाता है। मुनरी किसी और के साथ घर बसाने के बाद भी मूस के प्रति भी मानव सुलभ रागात्मक भाव को बरकरार रखती है। अमरकांत के निम्न मध्यवर्गीय पात्रों में यहीं 'मानवीय दृष्टि` उनके मध्यवर्गीय पात्रों की अपेक्षा कृत अधिक विस्तृत और स्पष्ट है।

'दोपहर का भोजन` कहानी में अमरकांत ने जीवन में आर्थिक अभावों और उससे पनपती मानसिकता, व्यावहारिक द्वंद्व और यथार्थ से ऑखे मिलाने की जटीलता को दिखलाने का सफल प्रयास किया है। 'नौकर` और 'बहादुर` जैसी कहानियों में निम्न मध्यवर्गीय लोगों के प्रति मध्यवर्गीय मानसिकता स्पष्ट होती है। बात-बात पर गालियाँ देना, मारना-पीटना और हर बात के लिए इस वर्ग को शक की निगाह से देखना जैसे इस वर्ग विशेष के लिए ईश्वर द्वारा तॅय की गयी नियति हो।

'हत्यारे` अमरकांत की कहानियों में एक विशेष स्थान रखती है। इसमें एक ऐसी मानसिकता की तरफ इशारा किया गया है जो धीरे-धीरे अति आत्मकेन्द्रित होती हुई पूरी तरह अमानवीय हो जाती है। कहानी के पात्र 'गोरा` और 'साँवले` ने वेश्या लड़की के साथ शारीरिक सुख पाने के बाद जब पैसे देने की बात आयी तो छुट्टा लगने के नाम पर भाग खड़े हुए। इतना ही नहीं जब उनका पीछा करने वाला व्यक्ति उनके बहुत करीब आ गया तो उसके पेट मे छूरा भोक दिया। यह कहानी एक साथ कई चित्र प्रस्तुत करती है। एक तरफ तो यह शक्तिहीन और अमानवीय समाज का कृरतम देहरा सामने लाती है तो दूसरी तरफ निम्न मध्यवर्गीय समाज की उस वेश्या लड़की की मानसिक अवस्था पर सोचने को मजबूर करती है जो अपना शरीर देने के बाद भी ढगी जाती है। उसकी निरीह स्थिति का आकलन दिमाग को झकझोर के रख देता है।

'निर्वासित` कहानी का गंगू निम्न मध्यवर्गीय समाज का ही प्रतिनिधी है। बनिये के साथ वह पूरी ईमानदारी के साथ काम करता। लेकिन एक दिन जब गंगू ने अपने लिए कुछ पैसे माँग लिए तो बनिया आग बबूला हो गया। उसने गंगू से कहा, ''....इसीलिए कहा गया है कि नीचों के साथ एहसान नहीं करना चाहिए। देख, मैं सब कुछ जानता हूॅ। सच-सच बता, क्या तू सब्जी में पेसे नहीं मारता?.... तू अभी निकल जा यहॉ से।.... अगर तू अधिक टर्र-टर्र करेगा, तो पुलिस बुलाकर तुझे जेल भिजवा दूँगा। भाग यहाँ से....।``32 इस तरह निम्न मध्यवर्गीय समाज का व्यक्ति अपनी पूरी ईमानदारी और निष्ठा के बावजूद आरोप और शोषण का शिकार होता है।

'कुहासा` भी इसी तरह की कहानी है। जहॉ 'दूबर` शहर में आकर अपनी आजीविका चलाना चाहता है। पर शहर के सफेदपोश दलाल ठंडी में ठिकुरकर उसे अपने प्राण त्यागने पड़ते हैं। यहॉ पर भी पात्र के प्रति सहानुभूति और उसकी परिस्थितियों के प्रति लेखक की निर्ममता स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ती है।

'फर्क` कहानी समाज में व्याप्त उस मानसिक फर्क को स्पष्ट करती है जहाँ पर सारी सामाजिक नैतिकता और विचार बदल जाते हैं। यह बदलाव की नई तरह की सामाजिक बुराइयों का कारण भी है। मोहल्ले के एक छोटे-मोटे चोर को पकड़कर लोग बहुत मारते हैं। उसकी सारी सफाई, याचना और दुख मोहल्लेवालों को बनावटी लगता है। उसके कर्म को वे माफी के योग्य नहीं समझते। उसे पकड़कर, मारकर वे पुलिस के हवाले कर देते हैं। पर जब पुलिस थाने में 'मुखई डाकू` को देखते है तो उसकी बहादुरी और चरित्र का गुणगान करने लगते हैं। यदी वह फर्क है जो अमरकांत इस कहानी के माध्यम से दिखाना चाहता हैं।

'लाखो` कहानी की मुख्य पात्र भी लाखों नामक स्त्री है। जिसे उसके घरवाले गंगास्थान के बहाने अनजान जगह छोड़कर चले जाते हैं। लाखो दुबारा अपने घर न जाने का निश्चय करते हुए चुनिया की विवाहिता के रूप में नया जीवन शुरू करती है। पर चुनिया की मृत्यु के बाद वह नौसा और उसकी पत्नी के आग्रह पर उनके साथ रहने लगती है। दोनों पति-पत्नी उसकी खूब सेवा करते हैं। पर जब वह बहकावे में आकर जमीन अपने भतीजे नौसा को लिख देती है तो फिर नौसा व उसकी पत्नी का व्यवहार उसके प्रति पूरी तरह बदल जाता है। उसे मारा-पीटा जाने लगता है और अंत में एक दिन उसकी लाश उन्हीं खतों में मिलती है जिन्हें अपना कहने का अधिकार लाखों खो चुकी थी।

'जाँच और बच्चे` अमरकांत की नवीनत रचना है। अभाव ग्रस्त चनरी और चिरकुट की हालत ऐसी हो गई थी कि उन्हें माँगे भीख भी नहीं मिलती थी। अकाल के दिनों में उनकी हालत बड़ी दयनीय थी। वह खुद कहती है कि, ''....अब लोग लाठी लेकर दौड़ा लेते हैं, गाली देत ेहैं, 'हरामी` मर भुक्खे.... तुम्हारे पास पैसा हो तो ले जाओ.... नहीं तो भाग जाओ।``33 चिरकुट इस भुखमरी को सह नहीं पाता और मर जाता है। सरकारी अधिकारी यह जानना चाहते हैं कि चिरकुट कैसे मरा? चनरी कहती है कि, ''मौउवत आ गई थी, मालिक - काल ले गया।``34 इस तरह निम्न मध्यवर्गीय जीवन में निहित विवशता और निरिहता को अमरकांत चिरकुट और चनरी के माध्यम से सामने लाते हैं।

अमरकांत के उपन्यासों और कुछ कहानियों की उपर्युक्त विवेचना के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से निम्न मध्यवर्गीय समाज का व्यापक, विस्तृत और गहरा चित्रण किया है। अपने निम्न मध्यवर्गीय समाज के साथ अमरकांत की पूरी सहानुभूति दिखायी पड़ती है। पर इनकी परिस्थितियों के चित्रण में अमरकांत एकदम निर्मम दिखायी पड़ते हैं। उनकी परिस्थितियों के प्रति निर्ममता ही पात्रों के प्रति सहानुभूति को और तीव्र कर देती है। अमरकांत के निम्न मध्यवर्गीय समाज के पात्रों की संवेदना और व्यवहार मध्यवर्गीय पात्रों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट और मानवीय है।

3) मूल्य बोध :-

जैसे-जैसे समय बदल रहा है वैसे-वैसे सामाजिक मुल्यों में गिरावट आ रही है। अर्थ केन्द्रित सामाजिक व्यवस्था में नैतिकता का धीरे-धीरे पतन होता जा रहा है। व्यक्ति विशेष के लिए भौतिक सुखों को भोगना ही सबसे महत्वपूर्ण हो गया है। आदमी पूरी तरह से आत्मकेन्द्रित हो गया है। नैतिकता और आदर्श उसे सिर्फ तब याद आता है जब वह खुद घोर परेशानी हो, अन्यथा मौका मिलने पर हर व्यक्ति अपनी यथा स्थिति को सामने रख ही देता है।

आदमी के अंदर का खोखलापन, उसका दोहरा चरित्र, उसकी संवेदनाओं में गिरावट और भौतिकता की अंधी दौड़ में समस्त मानवीय मूल्यों में बिखराव समाज की सबसे बड़ी विडंबना है। अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से समाज के इसी गिरते स्तर को चित्रित किया है। अमरकांत के कथा साहित्य में मूल्यों की जो गिरावट दिखायी पड़ती है उसके र्क कारण हैं। एक वर्ग विशेष के लिए निर्धारित मापदंड, आर्थिक परिस्थितियाँ, मानसिक विकृति, मन के अंदर निहित क्षोभ और घृणा, चरित्र की कायरता और दोगलापन, वर्तमान परिस्थितियों से मोहभंग और आधुनिकता और फैशन के नाम पर परंपराअें से घृणा जैसी कितनी ही बाते हैं जिन्हें अमरकांत सामाजिक मूल्यों में गिरावट का कारण मानते हैं।

'सूख जीवी` उपन्यास का नायक दीपक विवाहित होने के बावजूद रेखा से प्रेम का ढ़ोग करते हुए उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित करता है। जब यह बात उसकी पत्नी जान जाती है तो वह नाटकीय रूप से अपना बचाव करते हुए रेखा को ही बदचलन साबित करने की कोशिश करता है। दीपक नैतिक रूप से गिरा हुआ इंसान है। उसके जीवन में मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है। अगर उसके लिए कुछ महत्वपूर्ण है तो केवल अपना सुख।

'आकाश पक्षी` उपन्यास की हेमा, रवि की बातों से प्रभावित होती है। मेहनत और लगन से अपनी जीवन संबंधी दृष्टि को बदलना चाहती है। पर इन नवीन मानवीय मूल्यों से उसके माता-पिता कोई इत्तफ़ाक नहीं रखते हैं। वे अपनी वर्तमान स्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है और जात-पात, ऊँच-नीच और अमीर-गरीब के अंतर को तर्कसंगत मानते हुए रवि से हेमा के विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा देते है। लेकिन अपने जीवन यापन की चिंता में वे हेमा की बलि देने से भी नहीं कतराते। एक अधेड़ उम्र के रई व्यक्ति से हेमा का विवाह करा देते हैं। इस तरह सामाजिक मान्यताओं की आड़ में हेमा के माता-पिता अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। सड़ी-गली सामाजिक रूढ़ियाँ और आर्थिक विवशता आदमी को कितना संवेदनहीन बना सकता है, इसे हेमा के माता-पिता के माध्यम से समझा जा सकता है।

'सुन्नर पाडे की पतोह` उपन्यास में सास-ससुर मिलकर बहू को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। सास को यह डर रहता है कि विवाह के बाद अगर बेटे-बहू का मेल हो गया तो लड़का उसके हाँथ से निकल जायेगा। अत: वह बेटे-बहू को एक साथ न रहने देती। पर किसी तरह जब दोनों का मिलन हो गया तो वह हर बात में उन्हें ताना मारती। बेटे के घर से भाग जाने के बाद वह अपने पति को प्रेरित करती है कि वह बहू के साथ शारीरिक सुख उठाये। अपनी बहू के प्रति घृणा से भरी सास किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहती है। पवित्र संबंधो के बीच कटुता किस तरह संबंधो के सारे मायने बदल देती है, इसे इस उपन्यास के माध्यम से समझा जा सकता है। मानवीय संवेदनाओं का पतन ही ऐसी मानसिकता का कारण है।

''काले-उजले दिन` का नायक शौतेली माँ द्वारा खूब सताया जाता है। विवाह के बाद उसकी रही सही उम्मीद भी चकना चूर हो जाती है। वो किस तरह की पत्नी चाहता था, उसे वह नहीं मिली थी, यद्यपि पत्नी में समर्पण और प्रेम की निष्ठा थी। वह इसी क्षोभ और घृणा से जूझते हुए रजनी से प्रेम करता है। उसके मन को हमेशा यह बात सालती रहती है कि कहीं वह अपनी पत्नी को धोखा तो नहीं दे रहा? पर नियति के हाँथो वह मजबूर विचित्र मानसिकता में जीता रहता है। बीमारी और मानसिक पीड़ा के चलते पत्नी की मृत्यु के बाद वह रजनी से विवाह कर लेता है पर मन के किसी कोने में पत्नी को लेकर उसकी पीड़ा बनी रहती है।

''सुरंग`` उपन्यास का नायक मोहल्ले की स्त्रियों को देखकर अजीब तरह की भाव-भंगिमा बनाता और उन्हें घूरता। ऐसा करते हुए वह अपनी छवि एक आधुनिक मनचले युवक के रूप में बनाना चाहता है। पत्नी जब उसके अनुरूप ढलने की कोशिश करती है तो वह उस पर आशंका व्यक्त करता है। इस तरह की सोच और दृष्टि व्यक्ति के अंदर निहित कुंठाओं और नैतिक पतन का प्रतीक है।

इसी तरह अमरकांत ने अपने उपन्यास 'इन्हीं हथियारों` के माध्यम से भी सामाजिक जीवन में आयी गिरावट को बड़ी ही गहराई के साथ चित्रित किया है। 'सदाशयव्रत` जैसे पात्रों के माध्यम से लेखक ने चरित्र का उत्कर्ष दिखाया है तो दूसरी तरफ भोलाराम जैसे लोग हैं जो पैसों के लिए सब कुछ करने की हिम्मत रखते हैं। उपन्यास की पात्र ढेला पेशे से वेश्या है। पर उसकी भी कोई पसंद या नापसंद हो या संभव नहीं है। उसके यहॉ जो भी ग्राहक के रूप में आ जाये उसे उसकी सेवा करनी ही है। अगर कभी वह मना करती तो मॉ उसे ऐसा कहने से मना करती है। मॉ के ऊपर चिढ़कर वह अपनी मॉ से कहती है कि, ''तुम हो पक्की लालची। तुम्हें कायदा, अच्छा-बुरा, सेहत-तन्दुरूस्ती, किसी का कुछ भी ख्याल नहीं। तुम किसी को आराम करते देख नहीं सकती। एक ढेबुला के लिए तुम किसी की भी जान ले सकती हो। इसी लालच की वजह से अच्छा खाना-पीना भी नहीं मयस्सर हो रहा है।``35 ढेला की मनोदशा उसके इस संवाद से समझा जा सकता है। मगर मॉ श्यामदासी जीवन की गहरी समझ रखती है। उसे मालूम है कि वैचारिक मूल्यों से कहीं अधिक आवश्यकता एक वेश्या को अपने शरीर की बाजारू 'कीमत` से है। वह 'मूल्यों` और 'किमत` के इस फर्क को समझती है। इसीलिए वह कहती है कि, ''.....यहॉ रंडी के पेशे में कोई फायदा थोड़े ही है, दोनों जून की रोटी-दाल चल जाती है, यही बहुत समझो।.... गँवार, छोटे दिलवालों के इस शहर में गाने-बजाने का खयाल भूलकर भी दिल में न लाना, नहीं तो भूखों मरोगी ही, हम सभी की हालत वैसी ही हो जाएगी।``36 इसी तरह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि व्यक्ति की आर्थिक परिस्थितियों, उसका व्यवसाय और उसकी लालसा किस तरह उसके जीवन में नैतिक पतन का कारण बनता है। लेकिन कई लोग ऐसे भी होते हैं जो विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी अपने आदर्शो से मुँह नहीं मोड़ते। अपने चरित्र की पवित्रता वे बनाये रखते हैं।

अमरकांत के उपन्यासों की ही तरह उनकी कहानियों में की मूल्य बोध से संबंधित अनेकों महत्वपूर्ण प्रसंगों का चित्रण है। 'गले की जंजीर` कहानी के नायक की समस्या पर सभी सलाह देते हैं पर इन सभी सलाहों के केन्द्र में उसकी समस्या का हल किसी भी तरह दिखायी नहीं पड़ता। इसलिए अपनी समस्याओं पर खुद निर्णय लेना ही अधिक श्रेष्ठकर होता है। 'गगन बिहारी` कहानी का नायक सिर्फ योजनाएँ ही बनाते रहता है, कभी कुछ कर नहीं पाता। इसलिए जीवन का लक्ष्य निर्धारित करके उसके अनुरूप ही कर्म करने वाली बात यहाँ इस कहानी के माध्यम से अमरकांत सामने लाते हैं।

         

Friday 30 April 2010

अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध /amerkant

अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध :-




अपने समय के समाज को अमरकांत ने बड़ी ही गहराई के साथ अपने कथा साहित्य में चित्रित किया है। युग विशेष की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिस्थिति को पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ यथार्थ की ठोस भूमि पर चित्रित करना कोई आसान काम नहीं है। समय परिवर्तनशील है। युगीन परिस्थितियाँ हमेशा एक सी नहीं रहती। युग बदलने के साथ-साथ किसी समाज विशेष की परिस्थितियाँ भी बदल जाती है। इसलिए जिस रचनाकार के पास संवेदनाओं को गहराई से समझने और उसे विश्लेषित करने की समझ नहीं होगी, उसका साहित्य कभी भी कालजयी नहीं हो सकता। अमरकांत का कथा साहित्य अपने समय की वास्तविक तस्वीर पेश करता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।



विद्वानों के बीच अमरकांत की रचनाओं को उसकी विश्वसनियता और गहरी संवेदनशीलता के कारण ही सराहा गया है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी अमरकांत के कथा साहित्य के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''अमरकांत का रचना संसार महान रचनाकारों के रचना संसारों जैसा विश्वसनीय है। उस विश्वसनीयता का कारण है स्थितियों का अचूक चित्रण जिससे व्यंग्य और मार्मिकता का जन्म होता है।``1 आज की पूँजीवादी व्यवस्था में आदमी कितना आत्मकेन्द्रित, संवेदनाहीन, मतलबी और स्वयं की इच्छाओं तक सिकुड़कर रह गया है, इसे अमरकांत के कथासाहित्य से आसानी से समझा जा सकता है।
                                                                                                                              


अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में मुख्य रूप से मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया है। पर ऐसा नहीं है कि उच्चवर्ग को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने साहित्य नहीं रचा। यह अवश्य है कि जितने विस्तार और गहराई के साथ अमरकांत ने मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज को चित्रित किया है उतनी गहराई और विस्तार उच्चवर्ग को लेकर उनके साहित्य में नहीं मिलता। 'आकाश पक्षी` जैसा उपन्यास इसी उच्च वर्गीय समाज की मानसिकता को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। ठीक इसी तरह सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित और संपन्न लोगों की मानसिकता और व्यवहार को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने कई कहानियाँ लिखी हैं। पलाश के फूल, दोस्त का गम, आमंत्रण, जन्मकुण्डली और श्वान गाथा जैसी कितनी ही कहानियाँ हैं जहाँ समाज के उच्च वर्ग की मानसिकता तथा विचार और व्यवहार के अंतर को अमरकांत ने चित्रित किया है। साथ ही साथ हमें यह भी समझना होगा कि जब हम यह कहते हैं कि अमरकांत मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज की विसंगतियों, अभावों और शोषण को चित्रित चित्रित करने वले कथाकार हैं तो हमें यह भी समझना चाहिए कि शोषक और शोषित इन दोनों की स्थितियों का चित्रण किये बिना कोई कथाकार शोषण की तस्वीर किस तरह प्रस्तुत कर सकता है। इसलिए यह कहना सही नहीं लगता कि अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से सिर्फ और सिर्फ निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया।



वास्तविकता यह है कि अमरकांत ने उच्चवर्ग की अपेक्षा मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण अपने साहित्य में अधिक किया है। साथ ही साथ उन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि शोषण सिर्फ उच्चवर्ग द्वारा निम्नवर्ग या संपन्न द्वारा विपन्न का ही नहीं अपितु एक विपन्न भी अपने जैसे दूसरे व्यक्ति का शोषण करने में बिलकुल नहीं हिचकता। अमरकांत ने 'मूस` जैसी कहानी के माध्यम से यह दिखाया कि पुरूषप्रधान भारतीय समाज में 'मूस` जैसे पुरूष भी हैं जिनका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। 'सुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने भारतिय समाज के कई ऐसे भद्दे और नग्न यथार्थ को सामने लाया जो परंपरा और संस्कृति तथा आदर्शो के नाम पर हमेशा ही समाज में दबाये जाते रहे है। जिस घर में ससुर खुद अपनी बेटी की उम्रवाली बहू का शीलभंग करना चाहे और उसका मनोबल उसकी ही धर्मपत्नी बढ़ाये तो ऐसे घर की बहू कौन सी परंपरा और संस्कृति के भरोसे अपने आप को सुरक्षित समझ सकती है और कैसे?



स्पष्ट है कि अमरकांत के विचारों का दायरा संकुचित नहीं है अपितु संकुचित मानसिकता के साथ उनके कथा साहित्य पर विचार करना उचित प्रतीत नहीं होता। साथ ही साथ अमरकांत के संबंध में बात करते अथवा लिखते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अमरकांत की लेखनी लगातार साहित्य रचने का कार्य कर रही है। पिछले 50-60 वर्षों से अमरकांत का लेखन कार्य सतत जारी है। इसलिए किसी समीक्षक या विद्वान ने आज से 25-30 वर्ष पूर्व उनके रचना संसार के संबंध में जो कुछ कहा या समझा वह अमरकांत के तब तक के उपलबध साहित्य के आधार पर था। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अमरकांत के पूरे कथा साहित्य को लेकर उस पर नयी समीक्षा दृष्टि प्रस्तुत की जाय।



अमरकांत का कथा साहित्य बड़ा व्यापक और लगातार अपनी वृद्धि कर रहा है। 'सुरंग` और 'इन्हीं हथियारों से` जैसे उपन्यासों में अमरकांत की बदली हुई विचारधारा का स्पष्ट संकेत हमें मिलता है। सन 1977 में 'अमरकांत वर्ष 01` नामक पुस्तक का प्रकाशन अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के उद्देश्य से हुआ। इस संबंध में रवीन्द्र कालिया ने लिखा भी कि, ''अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के पीछे हमारा एक प्रयोेजन रहा है। वास्तव में नयी कहानी की आन्दोलनगत उत्तेजना समाप्त हो जाने के बाद हमें अमरकांत का मूल्यांकन और अध्ययन अधिक प्रासंगिक लगा। विजयमोहन सिंह का यह कथन कुछ लोगों को अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है कि 'अमरकांत की कहानियाँ नयी हिन्दी समीक्षा के लिए एक नया मानदण्ड बनाने की माँग करती हैं, जैसी माँग कभी मुक्तिबोध की कविताओं ने की थी` परन्तु यह सच है कि अमरकांत की चर्चा उस रूप में, उस माहौल में, उन मानदण्डों से संभव ही नहीं थी। ये मानदण्ड वास्तव में तत्कालीन लेखकों-समीक्षकों की महत्वाकांक्षाओं के अन्तर्विरोध के रूप में विकसित हुए थे।``2 अब विचारणीय यह है कि सन् 1977 तक उपलब्ध और लिखे गये अमरकांत के साहित्य के आधार पर जो कुछ बातें सामने आयी वे 2007 तक के अमरकांत के रचे गये साहित्य के आधार पर कहीं-कहीं खटकने लगी है।



उदाहरण के तौर पर 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास के प्रकाशन के बाद कुछ समीक्षक अमरकांत को महाकाव्यात्मक गरिमा वाले उपन्यासकारों की श्रेणी में गिनने लगे है। वेद प्रकाश जी अपने लेख 'स्वाधीनता का जनतान्त्रिक विचार` में प्रश्न करते हैं कि, ''.....व्यास और महाभारत एक युग की देन थे, अमरकांत और उनका यह उपन्यास दूसरे गुक की देन हैं। क्या हमारे युग का महाकाव्य ऐसा ही नहीं होगा?``3 इसलिए अब जब हमारे सामने अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध का प्रश्न उठेगा तो हमें नि:संकोच यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अमरकांत ने अपने समय को उसकी पूरी परिधि में न केवल चित्रित किया है अपितु समाज के सामने कुछ ऐसे प्रश्न भी खडे किये हैं जो मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती हैं।



समग्र रूप से अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध के संदर्भ में हम यही कह सकते है कि पिछले 50-60 वर्षो को तोडा है और विचारों तथा संवेदनाओं के नए स्वरूप को हमारे सामने लाया है। इससे स्पष्ट है कि अमरकांत अपने युग के सामाजिक यथार्थ को प्रगतिशील दृष्टि और आस्था के साथ लगातार चित्रित कर रहे है। यह बात निम्नलिखित बिंदुओं के विवेचन से और अधिक स्पष्ट हो जायेगी।