डॉ. हर्षा त्रिवेदी को उनके काव्य संग्रह लौट के आना के लिए बहुत सारी बधाई । आप की फुटकर कविताओं को पढ़ने का मौका पत्र पत्रिकाओं एवं सोशल मीडिया के माध्यम से लगातार मिलता रहा है लेकिन कविताओं का पूरा संग्रह पढ़ना किसी दावतनामे से कम नहीं। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए लगा कि परिष्कार और परिमार्जन की एक लंबी यात्रा कवयित्री के रूप में आप पहले ही पूरी कर चुकी हैं अतः अपनी ही रचनाधर्मिता को संवेदना के धरातल पर अग्रगामी बनाने का यह नया और महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। एक ऐसा पड़ाव जहां से आप अपनी एक नई सृजनात्मक यात्रा शुरू करें, पूरे विश्वास, लगन और सकारात्मक ऊर्जा के साथ । हमारे साहित्यिक पुरखों की जो थाती हमें मिली है उसमें अपने विनम्र प्रयासों का एक पुष्प अर्पित करने जैसा शुभ भाव ।
लौट के आना कविता संग्रह की कविताओं में बिम्बों, प्रतीकों, यूटोपिया और चित्रात्मकता की कोई कमी नहीं है।
भाषा का सहज,सरल और सपाट भाव हमें इन कविताओं के अर्थ बोध की रोमांचक यात्रा कराने में सहायक सिद्ध होता है। यहां किसी वाद विशेष की चौहद्दी नहीं है अतः कवयित्री के सभी राग विराग बड़े खुले और चटक रंगों की तरह निखर कर हमारे सामने आते हैं। ये कविताएं मन के भावों के इंद्रधनुष जैसे हैं । संकीर्णताओं का दहन एवं मानवीय मूल्यों का वहन करती हुई कवयित्री किसी कुशल रंगरेज की भांति अपने भावों को शब्दों के माध्यम से कुशलता एवं निपुणता के साथ साकार करती हैं। उनके कैनवास पर सबसे चटकीले रंग प्रेम और करुणा के हैं । बिना किसी लाग लगाव के आप लिखती हैं कि -
अभी भी
मन करता है कि
लौटूँ तुम्हारे पास
और छलकी हुई
तुम्हारी आँखों को
अपने ओठों से पी लूँ ।
समीचीन परिस्थितियों का सूक्ष्म आंकलन करते हुए साधारण सी दिखनेवाली बात को भी आप असाधारण तरीके से शब्दबद्ध करती नज़र आती हैं। आक्रोश, आडंबर और अनावश्यक नुक्ताचीनी की जगह सौम्यता, सरलता, प्रतिबद्धता और संकल्पशीलता को आप अधिक महत्व देती हुई दिखाई पड़ती हैं। इतिहास के बियाबान में भी आप खोए हुए रिश्तों का रेशम तलाश कर मौन संवाद की संभावनाओं को साकार करती हैं।
इतिहास के बियावान से
तरह-तरह की
आवाज़ें आती हैं
और जब
लौटती हूँ उनकी तरफ़ तो
घास के तिनके
किसी खोये हुए रिश्ते के
रेशम की तरह लगते हैं
उम्मीदें जगाते हैं
पत्थरों के निशान
बंदिशें तोड़ देते हैं
फ़िर
इनसब की उपस्थिति में
सृष्टि के ताप से
मौन संवाद करती हूँ ।
ये कविताएं मानवीय सपनों का मानो कोई शामियाना हों। प्रकृति, पर्यावरण, पशु, पक्षी, खेती किसानी, गांव, शहर और संसद के गलियारे तक की पूरी यात्रा आप इन कविताओं के माध्यम से कर सकते हैं। हाइकु जैसी विधा को अपनाकर आप ने अपनी आकाशधर्मी एवं प्रयोगवादी सोच का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। हिंदी में हाइकु लिखने वाले लोग बहुत कम हैं । उस कमी को आप की नई साहित्यिक आमद से बल मिलेगा । आप के हाइकु जीवनानुभव में पगे हुए हैं। उदाहरण देखें -
बड़े आदमी
ताड़ के पेड़ जैसे
तने रहते ।
आतंकवाद
कृत्रिम आपदा है
इससे बचो।
उम्मीद की नई उर्वरा भूमि के रूप में मैं आप की कविताओं की लेकर आशान्वित एवं हर्षित हूं । आप की कविताओं को पढ़ते हुए यह यकीन हुआ कि कविता न केवल भाषा में आदमी होने की तमीज है बल्कि आदमी को आदमी बनाए रखने की जद्दोजहद का जीवंत दस्तावेज भी है। इसी बात को कवि कमलेश मिश्र कविता में दर्ज करते हुए लिखते हैं कि -
माना कि आखों में रोशनी नहीं
पर रोशनी का संकल्प तो है
हम भी रोशनीवाली
कोई नई व्यवस्था बनाएंगे
कुछ नहीं तो
कैनवस पर ही सूरज उगायेंगे।
एक बार पुनः डॉ. हर्षा त्रिवेदी को इस काव्य संग्रह के लिए हृदय से बधाई । मुझे पूरा विश्वास है कि आप अपनी काव्य यात्रा की निरंतरता को बरकरार रखते हुए, इन कविताओं तक पाठकों को बार बार लौट के आने के लिए प्रेरित करती रहेंगी ।