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Wednesday, 6 July 2011

संवेदना , शिल्प और अमरकांत


संवेदना , शिल्प  और अमरकांत 

 6. एब्सर्डिटी :-
       'एब्सर्डिटी` यह एक अंग्रेजी भाषा का शब्द है।  वास्तव में जब किसी व्यक्ति की मन:स्थिति ठीक नहीं होती तो वह अपने व्यवहार में भी कुछ ऐसी चेष्टाएँ करता है जिसे हम विसंगत या तर्कहीन कहते हैं। साथ ही साथ हमंें यह भी समझना होगा कि 'मन:स्थिति` ठीक न होने का अर्थ भी कहीं न कहीं उस व्यक्ति विशेष के व्यहारगत चेष्टाओं के आधार पर ही पहले जाना जा सकता है। लेकिन बाहर दिखायी पड़ने वाली ये असंगत या तर्कहीन चेष्टायें अनायास नहीं होती। इन सभी चेष्टाओं या विसंगत व्यवहार के पीछे कोई न कोई मूल कारण अवश्य होता है। निर्मल सिंहल इसी संदर्भ में लिखती हैं कि, ''एब्सर्डिटी के तत्व भी अमरकांत की कहानियों में मिल जाते हैं। विसंगत और तर्कहीन स्थितियाँ विसंगत तथा तर्कहीन मन:स्थिति भी उत्पन्न करती हैं जिसका प्रभाव संबद्ध व्यक्ति की चेष्टाओं और व्यवहार पर भी पड़ता है। अत: बाहरी तौर पर असंबद्ध और न समझ आने वाली चेष्टाएँ और व्यवहार के भी वस्तुगत कारण होते हैं, वे अकारण या निरर्थक नहीं होते, उसका कोई न कोई आधार अवश्य होता है।``55 यद्यपि सिंहल जी ने अमरकांत की कहानियों में एब्सर्डिटी के तत्व मिलने की बात करती हैं, पर वास्तव में अमरकांत के उपन्यासों में भी ये तत्व बिखरे पड़े हैं। अत! यह कहना गलत नहीं होगा कि अमरकांत के कथा साहित्य में एब्सर्डिटी के तत्व बिखरे पड़े हैं। फिर वे चाहे उनके उपन्यास हों या कहानियाँ।
       'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास का पात्र गोबर्धन ''ढेला का ऐसा दीवाना हो गया कि एक दिन गंगा नदी के किनारे जाकर और वहाँ से मिट्टी का एक बड़ा ढेला लाकर उससे अपनी आल्मारी को सुशोभित कर दिया उसने। इससे क्या तृप्ति मिलती थी उसे, यह तो वही जानता है.....।``56 अब यहाँ तर्क की दृष्टि से देखें तो गोबर्धन का यह व्यवहार असंगत या तर्कहीन ही कहा जायेगा। क्योंकि ढेला से प्रेम करने, उससे मिलने, बात करने आदि से उसे सुख मिले या संतुष्टी मिले यह बात तो समझ में आती है, लेकिन ढेला के विरह में गंगा किनारे से मिट्टी के ढेले को लाकर घर में जतन से रखने की बात समझ में नहीं आती है। वास्तव में उसका यह तर्कहीन व्यवहार उसकी तर्कहीन मन:स्थिति का परिणाम है। ढेला के वियोग में वह तँय नहीं कर पा रहा है कि वह क्या करे? ऐसे में गंगा किनारे घूमते हुए वह जब मिट्टी के ढेले को देखता होगा, तो उसे अकस्मात ही अपनी प्रियसी ढेला का खयाल आया होगा। और इसी विसंगत मन:स्थिति में वह उसे उठाकर घर लाता है, ढेला के प्रतीक स्वरूप।
       ठीक इसी तरह गोबर्धन के ''बातें करते समय बीच में 'थू` की आवाज``57 निकालने की आदत भी अनायास नहीं है। इसके पीछे के कारण को बतलाते हुए अमरकांत ही आगे लिखते हैं कि, ''बातचीत के दौरान बीच-बीच में मुँह दाएँ या बाएँ घुमाकर 'थू` कहना उस पिछड़े शहर के कुछ नवयुवक आधुनिकता का लक्षण समझते थे। इसकी शुरुआत उस समय हुई जब दो वर्ष पहले दयाशंकर का एक रिश्तेदार कन्हैया इलाहाबाद से आया था। .....हटर-हटर उसकी बातें बड़ी दिलचस्प होतीं, जिनके बीच वह 'थू` कहता। .....ये आदतें दयाशंकर ने सीख लीं, जिससे गोबर्धन ने ग्रहण कर लीं।``58
       'बिदा की रात` उपन्यास का मुनीर अहमद अपनी बेगम सुल्ताना को हनीमून की रात कहता है, ''आइए, भूजा खाया जाए।``59 अब हनीमून की रात भूजा खाने के पीछे क्या तर्क हो सकता है? उसका यह व्यवहार विसंगत ही कहा जायेगा। लेकिन उसकी यह बात अनायास नहीं है। दरअसल मुनीर हनीमून की पहली रात में अपने और अपनी बेगम के बीच हिचक, दिखावे और बनावटीपन को दूर कर एक सहजता लाना चाहते थे। हुआ भी यही। ''इस वाकया ने धीरे-धीरे सुलताना बेगम की हिचक, लेहाज वगैरह दूर कर दिया और उनके रिश्ते में कोई दिखावा और बनावटीपन नहीं रहा।``60
       'सुन्नर पंाडे की पतोह` उपन्यास में सुन्नर पंाडे की पतोह ''जिसने जिन्दगी भर लहसुन-प्याज तक न हुआ और सदा रूखा-सूखा ही खाया``61 अचानक सुनरी से कहती है, ''दोमित की दुल्हिन......कलिया खाने का बड़ा मन कर रहा है.....।``62 सुन्नर पंाडे की पतोह का अचानक गोश्त खाने की इच्छा बड़ी विसंगत लगती है। पर इसके पीछे भी उसका एक मानसिक द्वंद्व है। वह यह महसूस कर चुकी है कि अब वह जीवित नहीं बचेगी। जीवन भर उसने अपने सतित्व की रक्षा की । पुरूष प्रधान समाज में लगातार संघर्ष करती रही। ईश्वर पर पूरा विश्वास रखा। गोश्त का कभी भी सेवन नहीं किया। लेकिन अब जब उसे यह यकीन हो गया कि उसकी मृत्यु निकट है तो वह अपनी जीवन भर की सीमाओं से निकलकर एक बार आज़ाद होकर जीना चाहती है। वह वो सब कुछ करना चाहती है जो उसने अपने जीवन में पहले नहीं किया। गोश्त खाने की इच्छा व्यक्त करना भी शायद उसकी इसी मन:स्थिति का व्यक्त रूप था।
       अमरकांत के अन्य उपन्यासों में भी एब्सर्डिटी के ऐसे ही तत्व देखने को मिल जायेंगे। उनकी कहानियों में एब्सर्डिटी को लेकर समक्षकों के बीच व्यापक चर्चा हो चुकी है। दरअसल अमरकांत को लंबे समय तक उपन्यासकार के रूप में साहित्यिक प्रतिष्ठा नहीं मिली। ना ही उनके उपन्यासों की व्यापक समीक्षा ही विद्वानों के बीच हुई। यही कारण रहा कि अमरकांत की कहानियों को लेकर जितनी विशद विवेचना और जितने शोध कार्य हुए उतने उनके उपन्यासों को लेकर नहीं हुए। लेकिन इधर परिस्थितियाँ धीरे-धीरे ही सटी पर बदल रही हैं। अमरकांत के नये उपन्यासों की व्यापक चर्चा हो रही है। अमरकांत के नये उपन्यासों की व्यापक चर्चा हो सही है। उन्हें उनके उपन्यास 'इन्हीं हथियारों से` के लिए वर्ष 2007 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्रदान किया गया। आशा है आकाश पक्षी, सुन्नर पांडे की पतोह, सुरंग, बिदा की रात और इन्ही हथियारों से जैसे अमरकांत के नवीन उपन्यासों को केन्द्र में रखकर समीक्षा और शोधकार्य की नयी प्रक्रिया प्रारंभ होगी। जिससे अमरकांत के समग्र कथासाहित्य के आधार पर शिल्प, कथ्य, भाषा और विचारधारा संबंधी नयी बातें सामने आ सकेंगी।
       अमरकांत की कहानियों में एब्सर्डिटी तत्व के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।
1)    'डिप्टी कलक्टरी` कहानी के शकलदीप बाबू का बड़ा लड़का डिप्ली कटलरी के इम्तहान में बैठा हुआ है। वह सफल होगा या नहीं यह प्रश्न शकलदीप बाबू को परेशान किये हुए है। विश्वास और अविश्वास के बीच उनका व्यवहार अजीब हो गया है। वे पहले फीस के पैसे के नाम पर बिफर पड़ते हैं, फिर स्वत: डेढ़ सौ रूपये दे देते हैं। इसके बाद उनकी अपनी दिपचर्या में भी परिवर्तन हो गया। ''उनकी आदत छ: साढे छ: बजे से पहले उठने की नहीं थी लेकिन .....अचानक उनमें न मालूम कहाँ का उत्साह आ गया। उन्होंने उसी समय ही दातौन करना शुरू कर दिया। इन कार्यों से निबटने के बाद भी अँधेरा ही रहा, तो बाल्टी में पानी भरा और उसे गुसलखाने में ले जा कर स्नान करने लगे।``63 उनका इस तरह का 'एब्सर्ड` व्यवहार उनकी 'एब्सर्ड` मन:स्थिति का ही परिणाम था।
2)    'दो चरित्र` कहानी का जनार्दन मेहनत से काम करने वाले लड़के के पास जाते हैं। ''फिर सहसा बिजली की फुर्ती से .....उसे एक लात जमाते हुए मुँह विकृत कर फुसफुसाहट भरी आवाज में बोले, ''भाग साले यहाँ से, चोट्टा कहीं का।``64 दरअसल जनार्दन उस मेहनती बच्चे को उसकी मेहनत का उचित पारिश्रमिक नहीं देना चाहते थे। साथ ही साथ वे अपानी उस बात को भी सही साबित करना चाहते थे जिसके अनुसार भिखमंगे बच्चे काम चोर होते हैं, और उन्हें काम दिया भी जाय तो वे इससे जी चुराकर एक दिन में ही भाग जायेंगे। इस तरह उसे मारकर जनार्दन बाबू मात्र 10 पैसे में अपना काम करा लेते हैं और उसके भाग जाने से उनकी कही हुई बात सच साबित हो गयी। लेकिन उनके इस पूरे व्यवहार को वह मेहनती लड़का बिलकुल नहीं समझ सका होगा।
3)    'लड़की और आदर्श` कहानी का नरेन्द्र मन ही मन कमला से प्यार करता है। उससे प्रेम के इजहार को लेकर बहुत प्रयत्न करता है। सभी से कमला की तारीफ करता था। मगर जब वह समझ जाता है कि कमला उसे नहीं मिलेगी तो दोस्तों में अपनी शाख बनाये रखने के लिए कमला के बारे में यह कहना शुरू कर देता है कि, ''ऐसी लड़कियाँ अच्छे आचरण की थोड़ी होती हैं। हमारे घरों की औरतों में जो शील, संकोच और शरम-लिहाज होता है, वह इनमें कहाँ? खूबसूरती में भी ये हमारे घर की औरतों को क्या खाकर पाएँगी? जो कुछ उनके पास मिलेगा वह है टीप-टाप, नाज-नखरा और लचकना-मटकना...।``65
4)    'हत्यारे` कहानी के दोनों मित्र साँवले और गोरे बारी-बारी से वेश्या के साथ शारीरिक सुख भोगते हैं। पर पैसे देने के नाम पर छुट्टे लाने का बहाना करके जूते हाँथ में उठाकर भाग निकलते हैं। भागते समय उनमें से एक दूसरे से कहता है कि, ''भाग साले! आर्थिक और सामाजिक क्रान्ति करने का समय आ गया है।``66 अब पाठकों को यहॉ यह समझने में मुश्किल हो सकती है कि आखिर किसी वेश्या के हिस्से के पैसे न देकर आर्थिक और सामाजिक, क्रांति कैसे आ सकती है? दरअसल ये दोनों पात्र क्रांति से संबंधित कोई कार्य नहीं कर रहे, पर वे जो कर रहे हैं उसके अव्यवहारिक, असामाजिक और अमानवीय पक्ष से वे भली-भाँति परिचित हैं। फिर ऐसी मत:स्थिति में वे केवल अपने द्वारा किये हुए कार्य को एक तर्क एक 'जस्टीफिकेशन` देना चाहते हैं, फिर वह तर्क कितना भी वाहियात या हास्यास्पद क्यों न हो। फिर संबंधित तर्क के हास्यास्पद होने से वे अपने मन के गंभीर द्वंद्व को ज्यादा आसानी से सहज कर सकते थे। शायद यही कारण होगा जो अपने द्वारा किये गये घृणित कार्य को वे क्रांति कहते हैं।
5)    'रामू की बहन` कहानी का रामू जिस घर में काम करता था, वहाँ सबकी बात मानता था। सबका कहा हुआ सारा काम बड़े मन से खुशी-खुशी कर डालता था। लेकिन ''उसकी एक आदत अजीब थी। वह सबका काम करता, लेकिन जब दीपा कोई काम करने को कहती तो वह गंभीर हो जाता और वहाँ से खिसक जाता``37 दीपा के घर वाले उसकी इस आदत से परेशान थे। उन्हें समझ में नहीं आता था कि आखिर रामू की दीपा से क्या दुश्मनी हो सकती थी? दरअसल रामू को दीपा को देखकर अपनी बहन धीरा की याद आती थी, जिसके कारण उसे अपना घर छोड़कर भागना पड़ा था। इसी कारण वह दीपा का कहा हुआ कार्य न करके एक आंतरिक खुशी और संतुष्टि रामू को मिलती थी। और यही आंतरिक खुशी ही दीपा के प्रति उसके 'एब्सर्ड` व्यवहार का कारण था।
6)    'हंगामा` कहानी की पात्र 'लीला` का पूरा व्यवहार जो की 'असहज` लगता है वह कहीं न कहीं लीला के जीवन से जुड़े सबसे बड़े अभाव के कारण है। वह एक बच्चा चाहती है, पर उसकी यह चाहत पूरी नहीं हो पाती। इस कारण उसके व्यवहार में एक निरर्थक 'प्रतियोगिता का भाव` घर कर जाता है। जैसे कि, ''वह किसी औरत को कभी कोई नई और अच्छी साड़ी पहने देख लेती तो काफी परेशान हो जाती। तब वह उस औरत से बोलना भी बन्द कर देती।  .....जब उसे इत्मीनान हो जाता कि जब वह साड़ी पुरानी पड़ गयी है, तब वह उस औरत से फिर बोलना शुरू कर देती।``68 लीला यह स्वीकार नहीं कर पा रही थी कि दूसरों के पास कुछ ऐसा है, जो उसके पास नहीं है। अथवा उसके पास भी वह सब कुछ है जो दूसरों के पास है।
       इस तरह हम देखते हैं कि अमरकांत के उपन्यासों एवम् कहानियों में एब्सर्डिटी के तत्व समान रूप से मिलते हैं। कथानक में एब्सर्ड व्यवहार के माध्यम से अमरकांत पात्रों के मानसिक चेष्टाओं को भी चित्रित करने का प्रयास करते है। वर्णन तो वे पात्रों के तर्कहीन या असंगत व्यवहार की करते हैं, परंतु उसके माध्यम से उसकी मानसिक दशा को भी बतलाने में पूरी तरह सफल हो जाते हैं।
7. कथा रचना पद्धति:-
       कथाकार अमरकांत के उपन्यासों और कहानियों को देखकर एक बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी ज्यादा तर रचनायें आत्मकथ्य पद्धति और व्यक्ति चित्र पद्धति में ही लिखी गई हैं। उपन्यासों में कई अन्य पद्धतियों का मिश्रित प्रयोग विस्तार से लक्षित होता है, पर कहानियों में ऐसी स्थितियाँ कम ही हैं। राजेन्द्र यादव अमरकांत के संदर्भ में लिखते हैं कि,''वह हिन्दी का सबसे 'अनऐस्यममिंग` कथाकार हैऱ्या मुगालते देने लेने से अलग। मैंने उसके नाम से बहुत वक्तव्य या दावे भी नहीं देखे। और जैसा कि मैंने कहा, अपनी मूल बनावट, रचना-संसार संवेदना में हर बार चैखव की ही याद दिलाता हैैैैै। वह है भी अभाव, अवसाद और अर्थहीनता का कथाकार। मन:स्थितियों के उसके विश्लेषण और प्रयत्नों की हस्यास्पदता किसी बहुत बड़ी तकलीफ से आते हैं।``69
       अमरकांत की कहानियों को रचना पद्धति के आधार पर बाँटते हुए निर्मल सिंहल लिखती हैं कि,''.......गले की जंजीर, निर्वासित, कबड्डी, घुड़सवार, लड़की की शादी, विजेता, अमेरिका की यात्रा आदि अनेक कहानियाँ आत्मालाप या आत्मकथ्य की पद्धति के अंतर्गत रखी जा सकती हैं। जनमार्गी, संत तुलसीदास और सोलहवाँ साल, सवा रूपए, जिंदगी और जोंक, जोकर, दो चरित्र, उनका जाना और आना, स्वामी, गगन बिहारी, छिपकली, देश के लोग, डिप्टी कलेक्टरी, कलाप्रेमी, परमात्मा का प्रेमी, दुर्घटना तथा महान चेहरा आदि कहानियों में रेखाचित्र या व्यक्ति-चित्र की पद्धति अपनाई गई है। लेकिन इस स्थूल वर्गीकरण से अमरकांत की कहानियों को मात्र आत्मकथ्य या रेखाचित्र मान लेना सर्वथा अनुचित है। व्यक्ति को उसके परिवेश के समस्त अंतर्विरोधों के साथ जिस ढंग से अमरकांत चित्रित करते हैं, उससे उनके व्यक्ति-चित्र पूरे एक वर्ग की मानसिकता और व्यवहार के प्रामाणिक दस्तावेज बन जाते हैं।``70
       उपर्युक्त वर्गीकरण में कुछ अन्य कहानियों के नाम भी जोंड़े जा सकते हैं। आत्मालाप या आत्मकथ्य पद्धति के अंतर्गत सहधर्मिणी, मिठास, टिटिहरी, शाम के घिरते-अँधेरे में भटकता नौजवान और रेखाचित्र या व्यक्ति-चित्र पद्धति के अंतर्गत कुहासा, हंगामा, रामू की बहन, मछुआ, मूस, बहादुर और गगनबिहारी जैसी कहानियाँ आ सकती हैं। लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि यह वर्गीकरण बड़ा ही सतही है। अमरकांत की कहानियों में जिस मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज से जुड़े पात्रों का चित्रण है उनकी सामाजिक स्थिति, उनकी आर्थिक परिस्थिति, उनकी चिंताएँ, उनकी मनोदशा, उनका मानसिक टुच्चापन, उनका 'एब्सर्ड` व्यवहार, अभावों के बीच टूटते उनके आदर्श और अर्थ के दबाव में बदलते संबंधों के आयाम को जिस गहराई से अमरकांत प्रस्तुत करतें हैं वह उनकी अपनी एक विशिष्ट रचना पद्धति है।
       अमरकांत के संदर्भ में भगवान सिंह की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि,''अमरकांत किसी भी पक्ष में अतिरिक्त सजगता दिखाए बिना, किसी की उपेक्षा किस बिना, किसी संगठन या चौकड़ी से जुड़े बिना, किसी तरह की बड़बोली किए बिना, सर्जना के किसी एक पक्ष के प्रति अतिरिक्त सजग हुए बिना, और सभी पक्षों में एक संतुलन बनाते हुए लेखन करना है, इस चेतना और संकल्प तक से अनवधान, प्रकृतिस्थ होकर रचना कर रहे थे।``71 ऐसे समर्पित कथाकार अमरकांत की रचना पद्धति भी अपने अंदर पूरी सहजता और सरलता समेटे हुए है। अमरकांत हमेशा आत्मप्रचार और व्यावसायिक तिकड़मों से दूर रहे। यही कारण रहा कि उन्होंने किसी भी तरह से अपने कथा साहित्य को 'विशिष्ट` या दूसरों से भिन्न साबित करने के लिए 'नकल` एवम् 'कल्पना` का सहारा नहीं लिया। जबकि ''इस दौर में कुछ लेखन, अपने को प्रतिष्ठित करने के लिए,आत्ममुग्ध भाव से अपनी पिछली पीढ़ी के रचनाकारों का कुछ यूँ मजाक उड़ा रहे थे जैसे उनके उन्होंने कुछ पाया और लिया ही न हो और बता रहे थे कि उनकी दूकान का सारा माल नया, अलग और चमकदार है।``72
       अमरकांत की कहनियों की तरह अगर उनके उपन्यासों को देखें तो यहाँ पर भी आत्मकथ्य और व्यक्ति चित्र पद्धति के उपन्यास ही अधिक हैं। जैसे की सुखापत्ता, आकाश पक्षी, काले-उजले दिन और कटीली राह के फूल आत्मकथ्यात्मक हैं तो सुन्नर पांडे की पतोह, सुखजीवी, ग्रामसेविका, सुरंग और बिदा की रात जैसे उपन्यासों को हम व्यक्ति चित्र पद्धति के अंदर गिन सकते हैं। लेकिन उपन्यासों के संदर्भ में इस तरह का वर्गीकरण तर्कसंगत नहीं है। क्योंकि उपन्यासों में कई रचना पद्धतियों का मिश्रित स्वरूप होता है। 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास इसका अप्रतिम उदाहरण है। विभिन्न रचना पद्धतियों का अनूठा सामंजस्य इस उपन्यास में दिखायी पड़ता है। ''उपन्यास एक मकान है, जिसमें अनेक खिड़कियाँ को परखना होगा। तभी उसकी पूरी कला का आकलन किया जा सकता है।``73
       इसतरह समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत की कहनियों में विशष रूप से आत्मकथ्य और रेखाचित्र पद्धति का उपयोग हुआ है। लेकिन यह वर्गीकरण बहुत ही सतती है। अमरकांत ने जिस सरलता और सजगता के साथ मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज की स्थिति को अपने कथा साहित्य में व्यक्त किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उपन्यासों के संदर्भ में किसी एक पद्धति विशेष के अंतर्गत उसको रखना तर्कसंगत नहीं है। उपन्यासों में कई रचना पद्धतियों का मिश्रित स्वरूप हमारे सामने आता है। फिर अमरकांत के उपन्यासों के संदर्भ में भी वर्गीकरण करना ही हो तो मोटे तौर पर यहाँ पर भी कहानियों जैसी ही स्थिति शिल्प के स्तर पर नज़र आती है।
8. बिम्ब और प्रतीक:-
       ऐन्द्रिय अनुभवों को कल्पना के द्वारा प्रस्तुत करने का कार्य बिम्ब करता है। 'बिम्ब` मुख्य रूप से काव्य के एक उपकरण के रूप में जाना है। लेकिन अब ये साहित्य की अन्य विधाओं में भी कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में स्वाकार कर लिया गया है। 'नयी कहानी` में यथार्थ बोध क्षमता बोध, अस्तित्व बोध, भारतियता बोध, तटस्थता और सूक्षम इंद्रिय बोध के लिए बिम्बों का जमकर उपयोग कथाकारों द्वारा किया गया। बिम्ब एकल भी हो सकते हैं और संश्लिष्ट भी। ये स्थिर भी हो सकते हैं और गतिशील भी।
       बिम्ब और प्रतीक में बुनियादी फर्क है। प्रतीक वास्तव में पश्चिमी साहित्य में प्रयुक्त होनेवाले 'सिंबल` शब्द का हिंदी रूपांतरण है। प्रतीक का संबंध इन्दियों से नहीं बल्कि बुद्धि से माना जा सकता है। जबकि बिम्ब का संबंध सीधे-सीधे इद्रियों से होता है। प्रतीक रूढ़ भी होते हैं और स्वच्छद भी। अर्थात कुछ प्रतीक परंपरागत रूप से स्वीकार किये जाते हैं तो कुछ नये प्रतीक कथाकार अपनी सजगता, निपुणता और प्रयोगधमिता के आधार पर गढ़ते हैं। इन्हे ' परंपरागत` और 'वैयक्ति` प्रतीक भी कहा जाता है। प्रतीकों के उपयोग से अर्थ को नई गहराई, नया स्वरूप और नई व्यंजकता मिलती है। काव्य में 'प्रयोगवाद` के अंतर्गत वैयक्तिक प्रतीकों का खूब उपयोग हुआ। प्रतीकों को लेकर इस युग में इतने प्रयोग हुए कि कई जगह इन प्रतीकों से हास्यास्पद स्थितियाँ भी उभरने लगीं।
       अमरकांत के कथा साहित्य में भी बिम्बों और प्रतीकों का व्यापक उपयोग हुआ है। अमरकांत के यहाँ प्रतीकात्मकता दो स्तरों पर दिखायी पड़ती है। एक तो कहानियों और उपन्यासों के शीर्षकों में और दूसरी तरफ पात्रों के नामों में भी। विशेष तौर पर उनके निम्न मध्यवर्गीय पात्रों में। 'मूस`, 'बहादुर`, 'चिरकुट`, 'जन्तू`, 'ढेला`, 'झींगुर` 'दूबर` 'पिलपिली` और 'छकौड़ी` अमरकांत के कुछ ऐसे ही पात्रों के नाम हैं, जिनके नाम से ही उनके जीवन में निहित दरिद्रता, हीनता, संघर्ष आदि को समझा जा सकता है। ठीक इसीतरह अमरकांत की कहानियों एवम् उपन्यासों ें शीर्षक भी बड़े प्रतीकात्मक हैं। जैसे की 'इन्हीं हथियारों से`, 'सुरंग`, 'बिदा की रात`, 'सुखजीवी` 'काले उजले दिन` और 'आकाश पक्षी` अमरकांत के कुछ उपन्यासों के नाम हैं। ये शीर्षक उपन्यास में भावों को प्रतीकात्मक रूप में व्यक्त करते हैं।
       'इन्हीं हथियारों से` शीर्षक इस बात का प्रतीक है कि बलिया को स्वतंत्र कराने के लिए हर जाति-धर्म, हर उम्र का व्यक्ति उसे जो भी मिला उसी को हथियार मानकर निकल पड़ा। फिर हाँथ में लाठी हो, लकड़ी हो, पत्थर हो या साइकल की चैन। ये जनता केे वही हथियार हैं जिनके लिए अमरकांत ने 'इन्हीं हथियारों से` शीर्षक को चुना 'सुरंग` उपन्यास की बच्ची देवी अज्ञानता और अपने गवारू पन को त्याग कर मोहल्ले की स्त्रियों के सहयोग और समर्थन के साथ पढ़-लिखकर अपने पति के योग्य बनने का प्रयत्न करती है। लेकिन उसके इस प्रयत्न का परिणाम क्या होगा, इसके प्रति वह आशंकित भी है। वह एक 'सुरंग` से होकर जा तो रही है पर 'उसपार` क्या होगा उसे भी मालूम नहीं है। 'बिदा की रात` उपन्यास की सुल्ताना बेगम अपने शौहर और बेटे के चले जाने के दुख को झेल रही है। खुद शादी के बाद उसके जीवन में बहुत परिवर्तन आ गया था। इस लिए इस उपन्यास के लिए 'बिदा की रात` यह शीर्षक बड़ा प्रतीकात्मक है। 'सुखजीवी` उपन्यास का नायक सिर्फ अपने सुख चैन की बात सोचता है। उसका व्यक्तित्व एक आत्मकेन्द्रित व्यक्ति का है। अत:उसके व्यक्तित्व के प्रतीक के रूप में 'सुखजीवी` शीर्षक भी उचित ही है। 'आकाश पक्षी` उपन्यास की नायिका चाहती तो थी कि वह आज़ाद पक्षी की तरह स्वतंत्र रूप से जीवन जिये। कोई बात उसपर धोपी न जाये। वह अपने व्यक्तित्व का विकास खुद कर, किंतु जीवन भर उसकी यह उम्मीद पूरी नहीं हो पाती है। अत:उसके मन के भावनाओं के अनुरूप इस उपन्यास का शीर्षक भी बड़ा ही प्रतिकात्मक है।
       ठीक इसीतरह अमरकांत की कहानियों के शीर्षक भी बड़े प्रतीकात्मक है। 'जिदगी और जोंक`, 'गगन बिहारी`, 'म्यान की दो तलवारे`, 'अमेरिका यात्रा`, 'लड़की और आदर्श`, 'मूस`, 'हत्यारे`, 'छिपकली`, 'विजेता`, 'मछुआ`, 'फर्क`, 'मकान`, 'हंगामा`, 'कुहासा`, 'कबड्डी`, 'चँाद`, 'बीच की जमीन` 'टिटिहरी`, 'हार`, ठंड और ऊष्मा` तथा 'मिठास` कुछ ऐसे ही शीर्षक हैं। 'जिंदगी औैर जोंक` कहानी का मुख्य पात्र रजुआ के जीवन में निहति निरीहता यह दर्शाती है कि वह जिंदगी से जोंक की तरह लिपटा हुआ है। 'गगन बिहारी` कहानी ऐसे व्यक्ति का चरित्रांकन है जो दीवा स्वप्न अधिक देखता है और मेहनत और श्रम के माध्यम से आगे बढ़ने की राह में देर तक चल नहीं पाता। 'म्यान की दो तलवारे साथ काम करने वाले दो मित्रों की कहानी है जो आपसी अहम् के कारण हमेशा एक-दूसरे का विरोध करते रहते हैं। इसी तरह 'अमेरिका यात्रा` भी एक ऐसे लड़के की कहानी है जो अपने यथार्थ को समझे बिना बड़ी-बड़ी काल्पनिक योजनाएँ बना डालता है। उपर्युक्त विवेचित सभी कहानियों इसीतरह प्रतिकात्मक अर्थ बोध करानेवाले शीर्षक के साथ लिखी गयी हैं। अमरकांत की कहानियों में प्रतिकात्मका अगर कम दिखायी देती है तो इसका यह कदापि कारण नहीं है कि वे शिल्प की इस तरह की बारीकियों के प्रति सजग नहीं है। दरअसल अमरकांत की कहानियों अपने समय के यथार्थ को बतलाने वाले दस्तावेजों की तरह हीं यहाँ जीवन की सच्चाई है, उसमें निहित समस्या और उसका सामाजिक कारण ही अत:ऐसे में कल्पना, बनावटी संवेदना और सप्रयास शिल्प के तथाकथित रूपों को प्रस्तुत करने की न तो आवश्यकता भी और न ही उनका कोई औचित्य।
       अमरकांत ने अपने कथ्य साहित्य में सामान्य बिम्बों का उपयोग किया है। लेकिन अमरकांत के बिम्बों का स्वरूप भी उनके समकालीनों से सवर्था भिन्न है। इस संदर्भ में निर्मल सिंहल लिखती है कि, ''अमरकांत के बिम्ब अन्य कहानीकारों से इस अर्थ में विशिष्ट हैं कि वे अधिकांशत: उनकी कहानियों के पात्रों से संबंधित हैं जैसे उनके रूप-आकार, वेशभूषा, सौंदर्य; विभिन्न चेष्टाएँ जैसे-उसकी चाल, घूरना, मुँह तनना, काँपना, देखना, खाना, बीनना, दौड़ना, झाँकना, सरकना, मुसकराना, हिलना, प्रहार करना, सिर हिलाना, छटपटाना आदि; उनकी आवाजें जैसे-हँसी, चिल्लाना, बोलना, सिसकना, किलकारी, हिचकी, रोना, गरजना तड़पना आदि; पात्रों की ही कार्य-पद्धति, व्यवहार, मुद्रा, जीवन-पद्धति, हालत या स्थिति या पात्रों के ही विभिन्न मनोभावों जैसे दिल बैठना, आक्रोश, आशा, गुस्सा, जोश, दिल जलना, उत्साह, बेचैनी,शरम आदि। अन्य प्रकार के बिंब या उपमा बहुत कम हैं।``74
       अमरकांत के कथा साहित्य में यद्यपि बिम्बों और प्रतीकों का व्यापक उपयोग हुआ है। फिर भी इनकी अपनी एक सीमा रही है। प्रतीकों का उपयोग पात्रों के नामोंे एवम् कथा साहित्य के शीर्षकों के लिए हुआ है तो 'बिम्ब` का सामान्य उपयोग पात्रों की विभिन्न चेष्टाओं को पशुओं की चेष्टाओं के समान बतलाने के लिए किया गया है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी इस संदर्भ में लिखते भी हैं कि, ''अमरकांत के यहाँ पात्रों की विशिष्ट भंगिमाओं को चित्रित करने के लिए उन पर नाना प्रकार के पशुओं पक्षियों की भंगिमाओं को आरोपित किया गया है। अमरकांत की कहानियों में पात्र प्राय:कौवे, चूहे, भेड़, कुत्ते, गीदड़, ऊँट, चील, सुअर, बन्दर, सुग्गे, घोड़े, चमगादड़, खरगोश आदि के रूप में बार-बार चेष्टायें करते चित्रित हैं। लेकिन अमरकांत के यहाँ फैंटेसी शिल्प नहीं है।.......अमरकांत की कहानियों में मनुष्य कभी पशु-पक्षी जैसा आचरण करता है और फिर मनुष्य रूप में आ जाता है। इसलिए उनके यहाँ मनुष्यता और पशुता का द्वंद्व बना रहता है।``75
       इसतरह उपर्युक्त विवेचन के आधार पर समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत के कथा साहित्य ''की वस्तुनिष्ठता भी जब शिथिलता का भ्रम पैदा करती है पर वास्तविकता यह है कि यह प्रक्रिया रूपगत कुशलता का ही ज्ञात-अज्ञात अतिक्रमण है। बौद्धिकता और भावुकता, प्रतिबद्धता और रूपात्मकता के अतिवाद से अलग अमरकांत सहज 'वर्णनात्मक` और 'मुखरता` के भेद से परिचित हैं।``76
9. मिथक योजना:-
       अमरकांत के कथा साहित्य में मिथकीय प्रयोगों की भरमार नहीं है। लेकिन कई जगह ये मिथक हमें दिखायी पड़ते हैं। कथा साहित्य में कथाकार रोचकता लाने के लिए मिथकों का प्रयोग करता है। वह इन मिथकों का वैयक्तिक रूप में सृजन नहीं करता। कथासाहित्य में मिथक सिर्फ रोचकता के लिए ही नहीं अपितु कई बार कथानक की आवश्यकता के रूप में भी सामने आते हैं। पौराणिक कथाओं के वे तत्व जो सम् सामयिक स्थितियों के साथ जुड़कर एक नया अर्थ बतलाते हैं। ये ही मिथक कहलाते हैं। मिथकों का प्रचलन समाज में धर्म और संस्कृति के साथ जुड़ते हुए युगोंऱ्युगों से होता रहा है। मिथकों का ऐतिहासिक महत्व 'इतिहास बोध` के संदर्भ में नहीं माना जा सकता लेकिन सामाजिक इतिहास को समझने में मिथक सहायक अवश्य होते हैं। ये मिथक कभी-कभी साहस और संबल के लिए भी उपयोग में लाये जाते रहे हैं। अमरकांत के ही शब्दों में कहूँ तो, ''आततायी व्यवस्था से लड़ने के लिए विद्रोही जनता अनेक तरीके अपनाती है, जिनमें धार्मिक और पौराणिक ग्रन्यों की मनमानी व्याख्या से निकाले जुज़ से झटपट तैयार अफवाहें भी होती हैं।``77
       अमरकांत के कथा साहित्य में मिथकीय प्रयोग के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।
1)    'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास में बलिया के नामकरण के संदर्भ मेें अमरकांत लिखते हैं कि, ''कोई कहता है राजा बलि के नाम पर बलिया बना, कोई कहता है बाल्मीकि के नाम पर......।``78 इसी उपन्यास में रक्षा बंधन के अवसर पर राखी-बाँधने या न बाँधने के संदर्भ में आनंदी का यह कहना कि, ''हमारे यहाँ यह अशुभ माना जाता है.....।``79 सामाजिक मान्यताओं के मिकथीय स्वरूप को ही व्यक्त करता है।
2)    'जुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास में अमरकांत लिखते हैं कि, ''....फिर भी रोज सवेरे वह नई आशा और नई उमंग से अपने पति के आने की प्रतीक्षा करती। और जब वह रोज माथे में सिन्दूर लगाती तो सिन्दूर की वह रेषा उसके मन को अपार बल प्रदान करती। उसे लगता कि उसका सुहाग अटल है और सती-सावित्री की तरह वह अपने पति  को जरूर अपने पास लौटा लाएगी।``80 इसी उपन्यास में जब सुन्नर पांडे की पतोह कोठरी में किसी साँप के बोलने की आवाज महसूस करती है तो वह दोनों हाँथ जोड़कर कहती है कि, ''हे लछना फुआ, हम जुगुल तिवारी के वंशज हैं, जो भूल-चूक हो गई हो, क्षमा करना.....।``81 आगे अमरकांत 'लछना फुआ` की कथा भी बतलाते हैं। जिससे लछना फूआ संबंंधी मिथक स्पष्ट हो सके लछना, जुगुल तिवारी की इकलौती बहन थी। उसे एक बार जब साँप ने काँटा तब उसे मारने को गाँव के लोग जमा हो गये। पर लछना से सबको मना करते हुए कहा, ''ना, मार%मति। अब हमारा पूजि गया। पँचैया को दूध-लावा चढ़ाकर हमारी पूजा करना। आगे हम इस वंश के मरद-स्त्री-बच्चा, किसी को भी नहीं काटेंगे। हमारा नाम ले लेंगे लोग, किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा.......।``82
3)    इसी तरह ग्रामसेविका उपन्यास की जमुना को जब बच्ची पैदा होती है तो ''कोठरी के भीतर औैैैैर दरवाजे पर बोरसी में आग जला दी गयी। दरवाजे पर एक बन्दर की खोपड़ी तथा दो जूते टाँग दिये गये। जैसा कि इस गाँव के लोंगों में विश्वास था,ऐसा इसलिए किया गया कि बच्चे को भूत-प्रेत और हवा बतास न लगे।``83 इस तरह की बातों का कोई तर्क संगत या वैज्ञानिक आधार नहीं होता। पर सालों-साल ये मिथक, मान्यता या परंपरा के नाम पर निभाये जाते हैं। इसी उपन्यास में 'गड़तुआ बाबा` का भी जिक्र है। जिनके बारे में बताते हुए अमरकांत लिखते हैं कि, ''गाँव के दक्षिण में पासी टोला कुछ चमारों के घर भी थे। वहीं एक छोटा बगीचा भी था, जिसमें मरे हुए छोटे बच्चे गाड़े जाते थे। लोगों का विश्वास था कि बगीचे में तड़तुआ बाबा रहते हैं और वह बच्चों को पकड़ लेते हैं।``84
4)    'सूखा पत्ता` उपन्यास का दीनेश्वर कहता है कि, ''भूत-प्रेत आदि को वश में किया जा सकता है। जो कोई बारह बजे रात के गंगाजी के किनारे श्मशान घाट पर रह जायेगा। उसमें एक दैवी शक्ति आ जायेगी और वह जो काम चाहेगा, प्रेतात्माओं से करा सकेगा। बस उसको एक क्षण के लिए भी डरना नहीं चाहिए। निडर रहने पर उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा और यदि जरा भी डरा तो प्रेत-पिशाच उसका फौरन नाश कर देंगे।``85
5)    'बउरैया कोदो` नामक कहानी में एक साधारण गदहे के संदर्भ में एक सज्जन कहते हैं कि, ''....जब अति हो जाती है तो ईश्वर भी कुपित हो जाता है। यह गधा नहीं, कोई अवतार है। जो जीवात्मा महान होती है, उसी में परमात्मा अवतरित होता है। हमारे पाप कर्म से ये नाराज हैं। इनकी पूजा करो, इनके हाथ जोड़ो, इनको शांत करा....।``86
6)    'जिंदगी और जोंक` कहानी का पात्र रजुआ ने दाढ़ी रख ली और तँय किया कि जब तक बरन की बहू को कोढ़ नहीं फूटेगा वह दाढ़ी नहीं बनायेगा। इसी संदर्भ में उसने शनीचरी देवी को प्रतिदिन जल चढ़ाना भी प्रारंभ कर दिया। अमरकांत आगे शनीचारी के बारे में लिखते हैं कि, ''शनीचरी अपने जमाने की एक प्रचंड डोमिन थी। ....एक बार किसी लड़ाई में एक डोम ने शनीचरी की खोपड़ी पर लट्ठ जमा दिया। जिससे उसका प्राणान्त हो गया। लेकिन एक-डेढ़ हफ्ते बाद ही उस डोम के चेचक निकल आयी और वह मर गया। लोगों ने उसकी मृत्यु का कारण शनीचरी देवी का प्रकोप समझा। डोमों ने श्रद्धा में उसका चबूतरा बना दिया और तब से वह छोटी जातियों में शनीचरी माता या शनीचरी देवी के नाम से प्रसिद्ध हो गयी थी।``87
       इस तरह हम देखते हैं कि अमरकांत के कथा साहित्य में जो मिथकीय संदर्भ आये भी हैं वे अपने कथानक के परिवेश से ही संबद्ध हैं। इसलिए इन्हें पढ़ते हुए बिलकुल भी यह नहीं लगता कि अमरकांत ने रोचकता आदि के लिए सप्रयास इनका जिक्र किया है। अपितु ये संदर्भ भी मुख्य कथा का ही हिस्सा मालूम पड़ते हैं। समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत के कथा साहित्य में मिथकीय संदर्भ कम हैं लेकिन वे जहाँ भी प्रस्तुत हुए हैं वे मुख्य कथानक कसे इस तरह जुड़े हुए हैं कि उनका संदर्भ सहज और महत्वपूर्ण लगता है। वे जानबूझकर कथानक के अंदर आरोपित किये हुए नहीं लगते।
10) शब्द चयन
       अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के लिए जिस तरह शब्दों का चयन किया है, उससे ज्ञात होता है कि उनका शब्द ज्ञान विस्तृत और समृद्ध है। उनके कथा साहित्य में कथानक के अनुरूप तत्सम, तद्भव, स्थानीय और हिंदी के अतिरिक्त अरबी, फारसी और अंगे्रजी के शब्द दिखलायी पड़ते हैं। वैसे तो अमरकांत के कथा साहित्य में तत्सम् शब्दों की भरमार है, पर अन्य भाषा के शब्दों को भी उन्होंने उपयोग में लाया है। अमरकांत द्वारा प्रयुक्त शब्दों को निम्नलिखित शीर्षकों के वर्गीकरण के आधार पर आसानी से समझा जा सकता है।
1) तत्सम शब्द :-
       अमरकांत को तत्सम प्रधान लेखक माना जाता है। अमरकांत के संपूर्ण कथा साहित्य में तत्सम शब्दों की भरमार है। कथा साहित्य में इन शब्दों का प्रयोग अमरकांत ने बड़ी कुशलता के साथ किया है। कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि अमरकांत अपने भाषायी ज्ञान के प्रदर्शन हेतु इन तत्सम शब्दों का उपयोग कर रहे है। इन शब्दों का प्रयोग कथानक के सर्वथा अनुरूप दिखायी पड़ता है। ऐसे ही कुछ तत्सम शब्द इस प्रकार है, ''प्रतीक्षा, आगन्तुक, प्रत्येक, प्रशंसापूर्ण, नेत्र, विश्वासपूर्ण, व्यक्ति, उदारतापूर्वक, सम्मति, प्रकट, मौलिकता, कर्णस्पर्शी, आत्म-संतुष्टि, जिज्ञासा, गोश्त, मुद्रा, करूण, रहस्यपूर्ण, असमंजस, दार्शनिक, क्षण, सम्मति, स्वभाव, संबंधित, योग्य, मानसिक, अनभिज्ञता, प्रलाप, हृदय, व्याप्त, एकत्रित, सम्बोधित, सूचित, व्यर्थ, सभ्यता, तुच्छ, दृष्टिगोचर, विराजमान, अतएव, श्रेणियों, उपस्थित, प्राथमिक, अवकाश, वैद्य, विक्रेता, आर्थिक, विद्यार्थी, भाव-भंगिमा, उत्यंत, तुच्छ, भावना, शरीर, नितम्बों, स्वागत, घोषणा, राष्ट्रपति, खण्डन, गर्व, छात्र, शंकालु, निम्नलिखित, शांतिपूर्वक, आश्वासन, भविष्य, निम्न, मध्य, वर्ग, संगठित, सज्जन, पूर्वघोषित, आमूल, परिवर्तन, उत्तेजित, अत्याचार, सम्भवत:, द्वंद्व, मित्र, सुशोभित, पश्चात्, पूर्णतया, सम्पादक, आश्चर्य, तर्क, दुष्टतापूर्वक, रहस्यमयी, मौखिक, सहानुभूति, अवश्य, विस्तार, उद्घाटन, रूचि, दृष्टि, संबंध, धारणाएँ, संगठित, प्रथम, समुचित, निश्चय, प्रधान, विस्तारपूर्वक, ललाट, निरीक्षण, चेष्टाओं, प्रति, सहानुभूति, उपदेश, अन्तरतम, विचित्र, अनिश्चितकाल, चिंतित, उत्तर, रिश्तेदार, साधिकार, वनमानुष, सुरक्षित, मनोवैज्ञानिक, बाध्य, प्रारभिक, सिद्धांत, युक्तिऱ्युक्त, दृढ़, परिचित, बुद्धि, प्रदर्शित, सशंकित, उत्साह, विश्वविद्यालय, रहस्योद्घाटन, कद्दावर, घोषित, रचयिता, नामकरण, रसिक, उदार, नव, दाम्पत्य, वर्णन, स्वादिष्ट, श्रेणी, साहित्य, राजनीति, प्रलय, विषय, अनुरूप, प्रबलतम, शत्रु, सिद्ध, परिवर्तित, आकर्षित, सौन्दर्य, शिक्षा, प्रखर, अधिकांश, व्यतीत, विलम्ब, क्षण, तत्पश्चात्, व्यंग्य, संक्षेप और विराग।``88
       उपर्युक्त सभी शब्द अमरकांत की तीन कहानियों इंटरव्यू, गले की जंजीर और संत तुलसीदास और सोलहवाँ साल से लिए गये है। इस प्रकार अंदाजा लगाया जा सकता है कि अमरकांत तत्सम शब्दों का कितना अधिक प्रयोग करते है।
2) तद्भव शब्द :-
       अमरकांत ने तत्सम शब्दों के साथ साथ तद्भव शब्दों का भी भरपूर प्रयोग किया है। यही कारण है कि उनकी भाषा सहज और सरल लगती है। भाषा की स्वाभाविकता बनाये रखने के लिए यह जरूरी भी है। संस्कृत के मूल शब्दों में ध्वनि संबंधी विकारों के परिणाम स्वरूप हिंदी भाषा में तद्भव शब्द सामने आते है। अमरकांत के कथा साहित्य में प्रयुक्त कुछ तद्भव शब्द इस प्रकार है, ''बरसाती, मिरचई, कुकुर, बाँदर, चिरई-चुरंग, हँडिया, मुठिया, चरखवा, घास-पात, कौवा, वचवा, लावा, आतमा, गोरू, फतिंगा, दारा, करईल, भात, 'एक जून`, अम्मा, बलुई, मरद, ढेला, गाहकों, माई-बाप, धरम, नटुरी, सेर, पसरकर, जुगाड़, पुरखिन, नसेड़ी, बनिया, बतियाने, दुधारू, पूरब, बूढ़-पुरनिया, सावाँ-कोदो, पूड़ी-सुहारी, अललटप्पू, पट्टीदारों, रोआँ-रोआँ, तिलवा, मलकाइन, चमरौधे, मिठाई, अचानक, चप्पल, गद्दा, ढिबरी, बनियान, बिटिया, भाकुर-भाकुर, बाम्हन, बिसुन, विलायत, बारिश, पसेरी, चापुड-चापुड़, तिलौड़ी, लेंड़ी-बूची, मूरख, छिपुली, फुरगुद्दी, सेल्हा भात, गिड़गिड़ाना, पिट्ठू, बेचल्लू, बुडबक, बकार, संझा, मेहरारू, मरकीलौने इत्यादी``89 उपर्युक्त शब्दों के उदाहरण से स्पष्ट है कि अमरकांत के कथा साहित्य में सत्सम की भी तरह तद्भव शब्दों का व्यापक प्रयोग हुआ है।
3) अरबी फारसी के शब्द :-
       अमरकांत ने अरबी-फारसी के शब्दों का भी प्रयोग यथोचित रूप में किया है। कुछ उदाहरण इस प्रकार है।
       ''बाज़ार, शक्ल, हकीम, बेगम, आवारगी, मरहूम, अब्बा, अश्क, तुताल्लिक, शौहर, ज़बान, खिदमत, वालिदा, इज़हार, रहमदिल, लफ्ज, रोशनखयाली, हिमायत, बगावती, खवातीन, जज्बात, कद्रदानी, आपा, असलियत, संजीदगी, पुख्त़गी, मुख्तसर, तब्दीली, हुकूमत, गुलाम, हुक्मपरस्त, आरामतलबी, फरमाइश, तसल्ली, बगावत, गलतबयानी, इजाजत, इंतकाल, निकाह, रखसती, कौम, मुखालिफ, शबनम, मौहर्रिर, जर्रानवाज, फरिश्ते, लियाकत, मज़हब, कुर्बान, सुलूक, एतबार, सियासती, तजुर्बेकार, बाशिन्दे, उसूल, तकलीफ, फर्क, इशारा, इजहार, फिरकापरस्त, ख्वाब इत्यादी``90
4) अंंग्रेजी के शब्द :-
       अन्य भाषाओं की ही तरह अंग्रेजी भाषा के भी कई शब्द अमरकांत के कथा साहित्य में दिखलायी पड़ते है। कुछ शब्दों के उदाहरण निम्नलिखित हैं।
       ''मास्टर, प्राइवेट ट्याूशन, स्मार्ट, फीस, मॉडल पेपर, प्री-मेडिकल, रैगिंग, कॉलेज, प्रॉविडेंट फंड, ग्रेच्युटी, स्टेशन, प्लीज, प्लेटफार्म, बेंच, होटल, क्रीम, बस-स्टैंड, स्लीवलेस स्वेटर, पार्क, फोर, आर्डर, बैरा, कप, प्लेट, पैंटी, ब्रेसरी, बाथरूम, होस्टल, ड्याूटी, पेंट, कोट, टाई, मिनट, ड्राइंग-रूम, हीरोइन, किचेन, स्ट्राईकर, फुटबाल, क्रिकेट, होमवर्क, कम्प्यूटर, आर्ट, इन्जीनियर, टॉप, म्युन्सिपैलिटी, लैम्प पोस्ट, ऑपरेशन, सिगरेट, किचिन, स्कूल, कॉपी, बैग, पेन्सिल, डॉक्टर, सिविल, बल्ब, सर, कोचिंग, प्रैक्टिकल, कोर्स, कम्पनी, कैम्पस, प्राइमरी, टीचर, रेल, रिपोर्ट, फाइनल, टेरीकॉट, इत्यादि।``91
5) स्थानीय शब्द :-
       अमरकांत स्वयं जिस परिवेश में रहे वहाँ की भाषा के शब्दों को उन्होंने अपने कथा साहित्य में स्थान दिया। ऐसे ही कुछ शब्दों के उदाहरण निम्नलिखित हैं।
       ''बरसाती, मिरचई, मेला, खाजा, चिरई - चुरंग, मुठिया, हँडिया, चुटकी, मठिया, बचवा, बबुआ, गोरू, लत्ता, थुड़ी-थुड़ी, भात, ढेला, बाँगडू, हटर-हटर, धरम, पुरखिन, ढेबुआ, बेड़नी, गहकी, लौंडोें, बेसवा, पिलपिली, धकियाते, गरई मछली, सूखल-संठ, पाटी, रूई, मसहरी, छठी-बरही, छूछी, बेचल्लू, चिरकुट, मुड़ियाते, टिन-फिन, अँकवार, बदफेली, सिट्ठी, पूड़ी-सुहारी, सावाँ-कोदो, अंड-बंड, चिउड़ा, गुड़, सबेरे, चिचियाती, आवाँ, भुरूकनी, लाई-चना, पाई, ठेबुआ, लकड़े, घुघनी, खेसिया, पिपिहरी, धिरनियाँ इत्यादि।``92
6) बाजारू एवम् अपशब्द :-
       कथानक की आवश्यकतानुसार अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में कुछ बाजारू एवम् अपशब्दों का भी प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ - 
       ''रंडी, हरामजादी, जोट्टी, खूसट, वेश्या, कमीने, हरामजादों, झरेला, सूअर, अंग्रेजों का कुत्ता, मरकिलौने, हरामी का पिल्ला, सरऊ, जयदरश साले, गीदड़-सियार, गांडू, आँख में कच्चा बैठे, अंग अंग गले, आँख निकाल लूँगा, कलेजा फाड़ दूँगी, चूतड काटती हूँ, साला, हरजाई, छिनार, करमजले दरिद्दर, इत्यादि।``93 इसी तरह कई अन्य बाजारू अपशब्दों का प्रयोग अमरकांत के कथा साहित्य में दिखायी पड़ता है। ऐसे शब्द मुख्य रूप से निम्नवर्गीय समाज की औरतों के झगड़े में अधिक दिखायी पड़ते हैं।
       कहीं कहीं पूरा का पूरा वाक्यांश ही अपशब्दों से भरा पड़ा है। 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास का यह अंश उल्लेखनीय है। ''अरे दरवाजा खोल रे चोट्टी, छिनार। दूसरे मर्द से गुलछर्रे उड़ावती हटे। तोर शरीर गले। कोढ निकले, कीड़ा पड़े। तैं हराम की कमाई खात हटे। ऐ महल्ला के लोगों, जागीं सभे, आकर देखी, फैसला करीं। अपना मर्द मारके अब हमरे मर्द के पीछे पड़ी हटे.....।``94
7) द्विरूक्त शब्द :-
       द्विरूक्त शब्दों का प्रयाग भाषागत सौंदर्य बढ़ाने की दृष्टि से किया जाता है। ये प्रयोग भाषा के सौंदर्य को बढ़ाने के साथ-साथ कथानक के सहज प्रवाह को भी बनाये रखते हैं। अमरकांत ने भी अपने कथा साहित्य में इन शब्दों का यथोचित उपयोग किया है। कुछ द्विरूक्त शब्द जो अमरकांत के कथा साहित्य में मिलते हैं वे इस प्रकार है। ''धीरे-धीरे, खड़े-खड़े, कभी-कभी, मन्द-मन्द, साफ-साफ, खोये-खोये, सबेरे-सबेरे, फाड़-फाड़, बार-बार, अपने-अपने, चार-चार, घूम-घूम, धक-धक, पूरी-पूरी, शिव-शिव, धीरे-धीरे, डगमग-डगमग, खोद-खोद, अटक-अटक, धक-धक, झाँक-झाँक इत्यादि।``95
9) निरर्थक शब्द :-
       अपने कथा साहित्य की भाषा में सरलता के साथ-साथ स्वाभाविकता और सहजता लाने के लिए अमरकांत कई जगहों पर सार्थक शब्दों के साथ ही कुछ निरर्थक शब्दों का भी प्रयोग करते हैं। सामान्य व्यवहार और बोलचाल मे ंइस तरह के शब्द अक्सर हमंे सुनने को मिल जाते है। जैसे कि, ''चुप-चाप, अटरम-सटरम, समझाते-बुझाते, झाड़ा-बुहारा, ओना-कोना, अंतरा-संतरा, फल-मूल, अम्तहान-विम्तहान, बेईमानी-वेईमानी, भूख-वूख, पन्नालाल-सन्नालाल, नाश्ता-पानी, रोना-पीटना, उलटने-पुलटने इत्यादि।``96
10) ध्वन्यार्थक शब्द :-
       अमरकांत के कथा साहित्य की भाषा में कुछ ध्वन्यार्थक शब्दों का भी सुंदर प्रयोग दिखायी पड़ता है। जैसे कि, ''भनभन, खटपट, खटर-पटर, टनक-टनक, झनझनाहट, सनसनाहट इत्यादि।``97 अमरकांत के इसी तरह के कई अन्य शब्दों का भी प्रयोग किया है। विशेष तौर पर साँसो के लिए वे अक्सर 'हटर-हटर` शब्द का प्रयोग करते है।
10) अन्य विदेशी भाषा के शब्द :-
       भाषा विशेष के अंदर कई शब्द इस तरह प्रचलित हो जाते है कि उनका प्रयोग करते समय अधिकांश बार प्रयोगकर्ता खुद उन शब्दों की मूल भाषा के संदर्भ में अनभिज्ञ रहता है। ऐसे ही कुछ शब्द अमरकांत के कथा साहित्य में भी दिखायी पड़ते हैं। जैसे की उर्दू, कैंची, चाकू, बेगम ये शब्द तुर्की भाषा के है। ठीक इसी तरह पटाखा एवम् भड़ास ये पश्तो भाषा के शब्द हैं। पुर्तगाली भाषा के भी कुछ शब्द अमरकांत के कथा साहित्य में मिलते हैं। जैसे कि, अचार, कमीज, कमरा, गोदाम, पिस्तौल, बाल्टी, संतरा इत्यादि। इसी तरह 'चाय` यह चीनी भाषा का शब्द है। लेकिन हिंदी में इन सभी का उपयोग अब सामान्य हो गया है।
11) समूहवाची शब्द :-
       जिस शब्द विशेष से किसी समूह का बोध होता है, उसे समूहवाची शब्द कहते हैं। अमरकांत के कथा साहित्य में ऐसे शब्दों की भी भरमार हैं। जैसे कि क्लास, कक्षा, दल, झुंड, टोली, छत्ता, भीड़, सभा, जुलूस, गठारी, गुलशन, मोहल्ला, बस्ती, देश इत्यादी।
       इस तरह उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते है कि अमरकांत का शब्द भंडार विपुल है। उन्होंने कथानक के अनुरूप ही भाषा का उपयोग किया है। भाषा के उपयोग को लेकर अमरकांत जितनी सरलता दिखलाते हैं, उतनी ही सजगता भी। अरबी, फारसी, अंग्रेजी भाषाओं के अतिरिकत स्थानीय भाषा के शब्द भी उनके कथा साहित्य में दिखायी पड़ते हैं। हिंदी में बहुप्रचलित, चीनी, तुर्की, पुर्तगाली और पश्तों भाषा के भी कुछ शब्दों का प्रयोग अमरकांत ने बड़ी सहजता के साथ किया है। इसी तरह भाषागत सौंदर्य बढ़ाने के लिए उन्होने द्विरूक्त शब्द, निरर्थक शब्द, ध्वन्यार्थक शब्द के साथ-साथ समूहवाची शब्दों का भी भरपूर प्रयोग किया है।