कथाकार
अमरकांत
उत्तर प्रदेश में जिला बलिया के तहसील ‘रसड़ा’ के सुपरिचित गाँव ‘नगरा’ से सटा हुआ एक छोटा सा गाँव और है - ‘भगमलपुर’। यह गाँव नगरा गाँव का एक टोला/अंश/भाग लगता है।भगमलपुर गाँव तीन टोलों में बँटा
है। उत्तर दिशा में यादवों (अहीरों) का टोला है तो दक्षिण
में दलितों का टोला (चमरटोली)। इन दोनों टोलों के ठीक बीच में कायस्थों के तीन
परिवार थे।अमरकांत के
अनुसार ये तीनों घर एक ही
कायस्थ पूर्वज से संबद्ध रहे
जो कालांतर में तीन
टुकड़ों में विभक्त होकर वहीं रह रहे हैं।
इन्हीं कायस्थ
परिवारों में से एक परिवार था सीताराम वर्मा व अनन्ती देवी का। इन्हीं के पुत्र के
रूप में 1 जुलाई 1925 को अमरकांत का जन्म हुआ। अमरकांत का नाम श्रीराम रखा गया।
इनके खानदान में लोग अपने नाम के साथ ‘लाल’ लगाते
थे। अतः अमरकांत का भी नाम ‘श्रीराम
लाल’ हो गया। बचपन में ही
किसी साधू-महात्मा द्वारा अमरकांत का एक और नाम रखा गया था। वह नाम था - ‘अमरनाथ’। यह नाम अधिक प्रचलित तो ना हो सका,
किंतु स्वयं श्रीराम लाल को इस नाम के
प्रति आसक्ति हो गयी। इसलिए उन्होंने कुछ परिवर्तन करके अपना नाम ‘अमरकांत’ रख लिया। उनकी साहित्यिक कृतियाँ इसी
नाम से प्रसिद्ध हुई।
अमरकांत का जन्म साधारण कायस्थ परिवार में हुआ
था और सभी परंपरागत संस्कारों के साथ-साथ साहित्य व लेखन का संस्कार अमरकांत ने
स्वयं अर्जित किया। उनके घर में किसी तरह का कोई साहित्यिक वातावरण नहीं था। पुस्तकों
को पढ़ते - पढ़ते उन्होंने अनुभव किया की वे लिख सकते हैं; और उन्होनें लेखन कार्य प्रारंभ कर
दिया।अमरकांत जी के परिवार के लोग मध्यम कोटि के काश्तकार थे। आपके बाबा - गोपाल
लाल जी - मुहर्रिर थे। आपके पिताजी - सीताराम वर्मा ने इलाहाबाद में रहकर पढ़ाई की
थी। यहीं की कायस्थ पाठशाला से उन्होंने एफ.ए. (आज का इन्टरमीडिएट) किया। फिर
उन्होंने मुख्तारी की परीक्षा पास की और बलिया कचहरी में प्रैक्टिस करने लगे थे।
आप के पूर्वज जौनपुर के किसी नवाब के सिपहसालार थे। लेकिन किन परिस्थितियों में
उन्हें भगमलपुर आकर बसना पड़ा इस संबंध में स्वयं अमरकांत जी को भी कुछ ज्ञात नहीं।
अमरकांत जी के
पिताजी का सनातन धर्म में गहरा विश्वास था, किन्तु वे कर्मकांडो व धार्मिक रुढ़ियों
में विश्वास नहीं करते थे। उनके आराध्य देव थे राम और शिव। आपका गला भी बड़ा अच्छा
था। संगीत में आपकी रुचि थी। झूठ से आपको घृणा थी। कटु सत्य बोलने में भी आप
हिचकते नहीं थे। शराब और जुए के भी आप विरोधी थे। आपने परिवार के प्रति अपने
दायित्वों को अच्छी तरह से निभाया। सभी बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवायी। जीवन भर
आप बहुत सक्रिय रहे। आप 80 से कुछ अधिक वर्ष तक जीवित रहे।
अमरकांत जी के
पिताजी उर्दू और फारसी के ज्ञाता थे। उन्हें - हिन्दी का कामचलाऊ ज्ञान था। वे शान
- शौकत से रहना पसंद करते थे। अपनी युवा अवस्था में उन्होंने घर पर ही पहलवानों का
प्रबंध करके कसरत और कुश्ती में निपुणता हासिल की थी। अपने बच्चों से उन्हें कोई
खास उम्मीद नहीं थी, सिवाय
इसके कि वे कम से कम हाई स्कूल पास कर लें और फिर उनकी शादी-विवाह की जिम्मेदारी
से भी वे मुक्त हो जायें। और बच्चे अपनी जिम्मेदारी समझते हुए नौकरी-चाकरी का काम
शुरू कर दें। और लड़कियों के संबंध में उनकी राय थी कि लड़कियों की शादी जल्दी करा
देना ही श्रेयस्कर होता है।
अपने पिता
की सच्चाई और ईमानदारी के एक प्रसंग का वर्णन करते हुए अमरकांत ने लिखा है कि एक
बार उनके (अमरकांत के पिता के) छोटे भाई बाजार के फलवाले के यहाँ से कोई फल चोरी
से लेकर घर आ गये थे। यह बात जब अमरकांत के पिताजी को मालूम पड़ी तो उन्हें बहुत
गुस्सा आया। उन्होंने छोटे भाई को हिदायत दी की वे फल वापस देकर आयें। और जब उनके
भाई बाजार जाकर फल वापस कर आये तो वे अपने भाई को गले लगाकर खूब रोये।अमरकांत का
परिवार बड़ा था। आप परिवार में सबसे बड़े थे। अमरकांत की एक बड़ी बहन थी जो अमरकांत
के बचपन में ही बीमारी से मर गई थी। उनका नाम गायत्री था। अमरकांत को लेकर परिवार
में सात भाई और एक बहन (चौथे नंबर पर) थी जिन्हें पिता सीताराम वर्मा ने योग्य
तरीके से पढ़ाया - लिखाया।
भगमलपुर स्थित
अमरकांत का पैतृक मकान मिट्टी का बना हुआ बड़ा मकान था। मकान के अंदर दो आँगन थे।
पहला आँगन दूसरे की अपेक्षा बड़ा था। दूसरा आँगन एक तरह से घर का पिछवाड़ा (पीछे का
हिस्सा) था। इस पिछवाड़े के हिस्से में एक कुआँ और शौचालय था। घर का यह हिस्सा घर
की औरतों की सुविधा के लिए था। घर के पहले आँगन के चारों तरफ कई कमरे बने हुए थे।
कोठिला, पूजाघर, रसोई घर आदि कई कमरे थे। घर से बाहर
निकलते समय एक बड़े से दालान से होकर गुजरना पड़ता था। परिवार के सदस्यों की संख्या
भी अधिक थी। एक बड़े संयुक्त परिवार के लिए इस तरह के मकान आवश्यक भी हैं। भगमलपुर
के संपन्न परिवारों में से अमरकांत का परिवार भी एक था।
अमरकांत का ‘नगरा’ के प्राइमरी स्कूल में नाम लिखाया गया।
इस विद्यालय का भवन छोटा पर पक्का था। उस विद्यालय के हेडमास्टर एक मौलवी जी थे जो
हमेशा हाँथ में छड़ी लेकर घूमते थे। यहीं से अमरकांत की प्रारंभिक शिक्षा आरंभ हुई।
लेकिन यह प्रारंभिक शिक्षा भी अमरकांत के लिए आसान नहीं थी। अमरकांत को अधिक दिनों तक यहाँ नहीं रहना पड़ा। शीग्र ही वे रहने के लिए पिता सीताराम वर्मा
के पास बलिया शहर में परिवार के कुछ लोगों के साथ आ गये। यहाँ पर बलिया शहर के
तहसीली स्कूल में अमरकांत का नाम कक्षा ‘एक’ में
लिखा दिया गया। यहाँ पर अमरकांत कक्षा ‘दो’ तक
ही पढ़ पाये, बाद
में उनका नाम गवर्नमेन्ट हाई स्कूल में, कक्षा ‘तीन’
में लिखाया लिया। यहाँ के प्रधानाध्यापक
श्री महावीर प्रसाद जी थे।
तीसरी कक्षा में
अमरकांत का प्रवेश सन 1933 ई. के जुलाई में, एक प्रवेश-परीक्षा के पश्चात हो पाया
था। उन दिनों बलिया शहर में आर्य समाज की अच्छी पकड़ थी। लोगों के बीच आर्य समाज का
अच्छा प्रभाव था। आर्य समाज के ही एक पदाधिकारी बाबू जानकी प्रसाद जी के सफल
प्रयासों के कारण ही एक ‘चलता
पुस्तकालय’ की स्थापना हो पायी
थी। इस ‘चलता पुस्तकालय’
के लाइब्रेरियन एक गरीब नवयुवक थे। हर
पन्द्रह दिन में दो पुस्तकें वे हर सदस्य के घर पहुँचाते और पढ़ी किताबें वापस ले
जाते। अमरकांत के पिताजी को भी इस ‘चलता
पुस्तकालय’ का सदस्य बनाया गया
था। लेकिन वे अपने काम में इतना व्यस्त रहते थे कि उन्हें इन किताबों की तरफ देखने
का भी मौका नहीं मिलता था। पर इन किताबों ने अमरकांत का ध्यान अपनी तरफ खींचा।
अमरकांत की रुचि इन किताबों में बढ़ने लगी। फिर क्या था, वे बड़े चाव से इन किताबों को पढ़ने लगे।
रात-रात भर जागकर वो इन किताबों को पढ़ते। घर के लोगों से उन्हें डाँट भी पड़ती। पर
वे किसी की बातों पर ध्यान न देकर निरंतर पढ़ते रहते।
पाठ्या-पुस्तकें
पढ़ने में अमरकांत का मन नहीं लगता था। अमरकांत के घर जो मास्टर साहब पढ़ाने आते थे,
वो भी अपने अध्यापन कार्य से अधिक,
आत्मप्रशंसा व गप्पबाजी किया करते थे।
इसकारण भी शायद अमरकांत पाठ्या पुस्तकों की ओर आकर्षित नहीं हो पाये। ‘चलता पुस्तकालय’ से आने वाली पुस्तकों में कहानियाँ,
उपन्यास, हास्य-व्यंग्य की रचनाएँ, योगाभ्यास तथा धार्मिक और ऐतिहासिक
किताबें हुआ करती थीं।
उन दिनों बलिया
शहर में बिजली की व्यवस्था नहीं थी। लालटेन व ढिबरी के रोशनी के सहारे अमरकांत
रात-रात भर इन किताबों को पढ़ते रहते थे। इन किताबों में कई अनूदित किताबें भी होती
थीं। यहीं पर अमरकांत ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर, परशुराम, शरत् व बंकिम के साहित्य का परिचय
प्राप्त किया। इन पुस्तकों ने अमरकांत की भावभूमि और विचार को एक खास दिशा प्रदान
की।
सन 1938-39 ई. में
अमरकांत कक्षा आठ में थे, और
इसी समय उनके विद्यालय में हिंदी के नए शिक्षक के रूप में बाबू गणेश प्रसाद का
आगमन हुआ। वे साहित्य के अच्छे जानकार थे और कभी-कभी निबंध की जगह कहानी लिखने को
कहते थे। बच्चों को हस्तलिखित पत्रिका भी निकालने के लिए प्रेरित किया करते थे।
सन 1946 ई. में
अमरकांत ने बलिया के सतीशचन्द्र इन्टर कॉलेज से इन्टरमीडियेट की पढ़ाई पूरी कर
बी.ए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से करने लगे। बी.ए. पास करने के बाद अमरकांत ने पढ़ाई
बंद कर नौकरी की तलाश शुरू कर दी। बी.ए. पास करने के बाद कोई सरकारी नौकरी करने के
बदले उन्होंने पत्रकार बनने का निश्चय कर लिया था। उनके अंदर यह विश्वास बैठ गया
था कि हिंदी सेवा पर्याय है देश सेवा का। वैसे अमरकांत के मन में राजनीति के प्रति
एक तरह का निराशा का भाव भी आ गया था। यह भी एक कारण था जिसकी वजह से अमरकांत
पत्रकारिता की तरफ मुडे़। अमरकांत के चाचा उन दिनों आगरा में रहते थे। उन्हीं के
प्रयास से दैनिक ‘सैनिक’
में अमरकांत को नौकरी मिल गयी।इस तरह
अमरकांत के शिक्षा ग्रहण करने का क्रम समाप्त हुआ और नौकरी का क्रम प्रारंभ हुआ।
अमरकांत के पिता
अपने गाँव के गिने-चुने संपन्न लोगों में से एक थे। ठाट-बाट से रहना उन्हें पसंद
था। गाँव का पैतृक निवास कच्चा पर बड़ा था। किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। घर में
नौकर चाकर भी थे। अपनी पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में यह परिवार पूरी
तरह सक्षम था।
अमरकांत बचपन में
घर के अंदर अलग तरह का व्यवहार करते और घर के बाहर अलग। इस तरह ‘घर के अंदर’ और ‘घर के बाहर’ अमरकांत के दो रूप थे। घर के बाहर वे
बेहद शर्मीले व चुप्पे किस्म के बालक थे। लेकिन घर के अंदर की स्थिति बिलकुल अलग
थी। उन्हें बचपन में अपने छोटे भाइयों की नाक पकड़कर मलते हुए उसे लाल कर देने में
बड़ा मजा आता था। घर के नौकर छबीला को लंगी लगाकर गिराने में भी अमरकांत पीछे नहीं
रहते थे। उन्हें खेल-कूद का भी बड़ा शौक था। हॉकी - फुटबाल, गुल्ली - डंडा, चिक्का - कबड्डी आदि कई खेलों में वो
भाग लेते थे। अमरकांत को बचपन में लड़कियों के साथ खेलना बड़ा अच्छा लगता था,
पर कई बार लड़कियाँ उन्हे चिढ़ाकर भगा
देती थीं।
अमरकांत बचपन से
ही बड़े संवेदनशील रहे। अपनी बड़ी बहन गायत्री की अर्थी को नम आँखों से चुपचाप मन
मारकर अमरकांत देखते रहे थे। मानो जैसे उन्होंने अपनी छोटी सी उम्र में ही जीवन व
मृत्यु के सत्य को समझने की कोशिश कर रहे हों। बिमार बहन के जिंदा रहने पर उसे
चुपके से अचार खाने को देते थे।
अमरकांत से किसी
का दुख देखा नहीं जाता था। आपस में झगड़ा व मनमुटाव उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था।
बचपन में अमरकांत को मजदूरों की स्थिति को देखकर बड़ा दुख होता था। मजदूरों के
पहनावे, उनके दुबले-पतले शरीर
और दिन भर की जी तोड़ मेहनत के बाद भी मजदूरों का एक आना भी न कमा पाने वाली
स्थितियों को देखकर अमरकांत को बड़ा दुख होता था।
अमरकांत ने लिखा
भी है कि उनका मन सबसे अधिक उस समय लगता जब दिन भर जी तोड़ मेहनत करके मजदूर शाम को
हिसाब - किताब के लिए इकट्ठा होते। उनके शरीर पर जो कपड़ा होता, उसकी हालत देखकर उसे ‘चिरकुट - चिथड़ा’ से जादा कुछ भी नहीं कहा जा सकता था।
मजदूरों के दुबले - पतले शरीर, चेहरे
पर गाल अंदर की तरफ धँसे हुए, चेहरे
की हड्डियाँ बाहर की तरफ निकली हुई होती थी। अमरकांत उस समय तक कुछ - कुछ गिनती और
पहाड़ा सीख चुके थे। उन दिनों मजदूरों को उनकी मजदूरी कौड़ियों के रूप में प्रदान की
जाती थी। पाई छोटा सा ताँबे का सिक्का होता था, जिसे ‘दोकड़ा’ भी कहते थे। बारह पाई के बराबर एक ‘आना’ होता व सोलह आनों का एक ‘रुपया’। पर लेखक को ऐसा कोई दिन याद नहीं जब
कोई मजदूर दिन-भर की मेहनत के बाद एक रुपया भी कमा पाता हो। मजदूरों की इस तरह की
हालत देखकर अमरकांत उदास हो जाया करते थे।
घर के अंदर
अमरकांत एक आज्ञाकारी बालक थे। अपने से बड़ों की हर आज्ञा का वे पालन किया करते थे।
किताबें बड़े चाव से पढ़ते थे। अपने आस-पास के वातावरण के प्रति हमेशा ही सजग रहते।
बचपन से शुरू-शुरू में शरत्चंद्र के उपन्यासों से प्रभावित होकर कोरी भावुकतापूर्ण
रोमांटिक कहानियों से अमरकांत ने अपना लेखन कार्य शुरू किया। लेकिन जैसे-जैसे
अमरकांत बड़े हुए उन्होंने समाज और राष्ट्र की यथार्थ स्थिति को समझा। आगे चलकर
उनका लेखन भी यथार्थ के अधिक करीब हो गया।
धीरे-धीरे अमरकांत
का परिचय स्थानीय क्रांतिकारियों व उनके क्रांतिकारी साहित्य से हुआ। कई स्थानीय
क्रांतिकारी मित्रों ने मिलकर राजनीतिक सतर्कता दिखायी। पर अमरकांत और उनके
मित्रों की यह सतर्कता हास्यास्पद ही कही जायेगी। ऐसी ही कुछ घटनाओं को थोड़े
परिवर्तन के साथ अमरकांत ने अपने उपन्यास ‘सूखा पत्ता’ में
चित्रित किया है। उपन्यास में दिखाया गया है कि किस तरह चीनी और बोरे चुराकर
युवकों का एक दल इसे महान क्रांतिकारी घटना मानता है।
हाई स्कूल पास
करने के बाद अमरकांत अपने कुछ मित्रों के माध्यम से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के
संपर्क में आये। उन दिनों इन पार्टियों की कक्षाएँ चलती थीं। यहीं से अमरकांत को
कई छोटी-छोटी पुस्तकें पढ़ने को मिली। स्वतंत्रता, समाजवाद, समाजवादी देश सोवियत रूस, वैज्ञानिक समाजवाद, आचार्य नरेन्द्र देव और राहुल जी के
विचारों एवम् साहित्य से अमरकांत का परिचय हुआ। गांधी और नेहरू जी की आत्मकथाएँ
अमरकांत ने पढ़ी। नेहरू जी भी समाजवादी हैं, अपने अध्ययन के द्वारा जब अमरकांत को यह
पता चला तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता का अनुभव हुआ।
अब अमरकांत खद्दर
पहनने लगे थे। गाँधीजी की कई बातें अमरकांत को पसंद नहीं आती थी। लेकिन यह समझ
जरूर विकसित हो गई थी कि आजादी के लिए आतंकवादी कारवाइयों की जरूरत नहीं थी बल्कि
देश की आम जनता तक पहुँचकर उन्हें संगठित और संघर्षशील बनाने की जरूरत थी। गांधी
और नेहरू को अमरकांत एक दूसरे का पूरक मानते थे। जयप्रकाश नारायण के प्रति भी
अमरकांत के मन में श्रद्धा थी। उनकी बातें व साहित्य अमरकांत को रोमांचित कर देते
थे। अमरकांत जयप्रकाश नारायण की पार्टी के सदस्य थे अतः पार्टी के सर्वोच्च नेता
के प्रति सम्मान स्वाभाविक भी था।
समाजवाद, स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता जैसी बातों को
आत्मसाथ कर अमरकांत बड़े हो रहे थे। अपनी कल्पनाओं में अमरकांत अपने आप को सबसे आगे
पाते। बड़े-बड़े महान कार्य के लिए तत्पर रहते। अमरकांत की इन कल्पनाओं और स्वपनों
में दो चीजें अनिवार्य रूप से रहती। पहली ‘लड़की’ और
दूसरी ‘रोमान्टिसिज्म’। अमरकांत के ऊपर शरदचन्द्र का काफी
प्रभाव रहा। उन्होंने शरदचन्द्र की ही तर्ज पर प्रेम और करूणा से भरी कहानियाँ
लिखनी प्रारंभ की। इन दिनों अमरकांत की अपनी मानसिक स्थिति बहुत स्पष्ट नहीं थी,
कारण यह था की वे समझ नहीं पा रहे थे की
आखिर उन्हें क्या करना है? मन
कभी निराश से भर जाता तो कभी काल्पनिक प्रेम में डूब जाता। जब ये बातें हास्यास्पद
लगने लगती तो उन्हें देश की चिंता होने लगती। एक अजीब मानसिक द्ंवद्व से अमरकांत
जूझ रहे थे। वो यह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि आखिर उन्हें करना क्या है? उन्हें जाना किस दिशा में है? साहित्य की सेवा की बात थोड़ी स्पष्ट
जरूर थी पर वह भी किस रूप में करनी है इस बात को लेकर अमरकांत उन दिनों असमंजस की
स्थिति में रहे।
सन 1942 में जब
महात्मा गांधी ने ‘करो
या मरो’ का नारा दिया,
तो उसका पूरे देश में बहुत प्रभावशाली
असर देखने को मिला। देश के अनगिनत छात्रों ने पढ़ाई छोड़ देने का निश्चय किया। यह
निश्चय करने वालों में अमरकांत भी एक रहे। गांधी जी का अमरकांत पर बहुत तगड़ा
प्रभाव था। वे अपने आपको पूरी तरह पवित्र रखना चाहते थे। ठीक गांधीजी की तरह। पर
इन सब प्रयासों में कई बार उन्होंने आत्महत्या तक की ठान ली। इन निराशा के दिनों में ही अमरकांत ने डायरी
लिखना शुरू किया। दिन भर जो भी उनके साथ होता वे उसे डायरी में लिखने लगे। निश्चय
तो था ब्रिटिश सरकार से लड़ने का। लेकिन इन दिनों अमरकांत अपने आप से ही लड़ रहे थे।
अपने आप को पूरी तरह अनुपयोगी समझ रहे थे। अपने प्रति हीन भावनाओं से भरे हुए थे।
सन 1946 में जब यह तँय हो गया कि भारत को स्वतंत्रता मिल जायेगी तब उन्होंने अपनी
पढ़ाई पुनः प्रारंभ की। इन्टर किया और अपने विवाह की भी स्वीकृति प्रदान कर दी।
आजादी तो मिली पर वह जिस रूप में मिली उसने कई लोगों को निराश किया। विभाजन और
विभाजन के परिणामस्वरूप जिस कत्ले आम का दौर पूरे देश में चला उसने अमरकांत को
अंदर तक झकझोर के रख दिया।
इसके बाद जब
अमरकांत ने देखा की आजादी के बाद लोग गिरगिट की तरह रंग बदल रहे हैं तो उन्हें और
कष्ट हुआ। भाषावाद, क्षेत्रवाद,
संप्रदायवाद, जातिवाद, अलगाववाद, फिरकापरस्ती, काला बाजारी, गुटबाजी और भ्रष्टाचार जैसी बातों ने
अमरकांत को निराश किया। उनके सामने से रोमांटिसिज्म के रंगीन पर्दे हटने लगे और
अमरकांत का लेखन यथार्थ की तरफ मुड़कर अधिक पैना होने लगा।
अमरकांत का
रचनात्मक जीवन अपनी पूरी गंभीरता के साथ प्रारंभ हुआ। जिन साहित्यकारों को अब तक
वे पढ़ते थे या अपने कल्पना लोक में देखते थे उन्ही के बीच स्वयं को पाकर अत्यंत
प्रसन्न हुए। पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी का क्रम भी प्रारंभ हो गया था। लेकिन सन
1954 में अमरकांत हृदय रोग के कारण बिमार पड़े और नौकरी छोड़कर लखनऊ चले गये। एक बार
फिर निराशा ने उन्हें घेर लिया। अब उन्हें अपने जीवन से कोई उम्मीद नहीं रही। पर
लिखने की आग कहीं न कहीं अंदर दबी हुई थी अतः उन्होनें लिखना प्रारंभ किया और उनका
यह कार्य आज भी जारी है।
उम्र के इस
पड़ाव पर भी अमरकांत का लेखन कार्य जारी है। मई 2006 में मैं इलाहाबाद स्थित उनके
निवास पर जब साक्षात्कार हेतु पहुँचा तो कई नई बातें ज्ञात हुई। जैसे की ‘बहाव’ नामक पत्रिका का अमरकांत के संपादकत्व
में निकलना। पहला अंक निकल चुका था और अमरकांत अपने छोटे पुत्र अरविंद के साथ
मिलकर दूसरे अंक को निकालने की तैयारी में थे। अमरकांत ने बताया कि वे एक नाटक भी
लिखना चाह रहे हैं। एक और पुस्तक ‘खबर
का सूरज आकाश में’ पर
भी उनका कार्य जारी था। इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी अमरकांत
नियमित रूप से लिखते रहते हैं। अभी वे बहुत कुछ लिखना चाहते हैं किंतु अब उनका
स्वास्थ उनका साथ नहीं दे रहा।
प्रयाग
विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद अमरकांत ने निश्चय कर लिया था कि उन्हें हिंदी
साहित्य की सेवा करनी है। मन में पत्रकार बनने की इच्छा थी। और उन्होनें आगरा शहर
से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘सैनिक’
से अपनी नौकरी की शुरूआत की। ‘सैनिक’ के संपादकीय विभाग में अमरकांत को काम
मिला था।
यहीं पर अमरकांत
की मुलाकात श्री विश्वनाथ भटेले से हुई जो अमरकांत के साथ ‘सैनिक’ में ही कार्यरत थे। श्री विश्वनाथ भटेले
अमरकांत को अपने साथ आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में ले जाने लगे। इन्हीं ‘बैठकों’ में अमरकांत की मुलाकात डॉ. रामविलास
शर्मा, राजेन्द्र यादव,
रवी राजेन्द्र व रघुवंशी जैसे
साहित्यकारों से हुई। अमरकांत ने अपनी पहली कहानी ‘इंटरव्यू’ इसी प्रगतिशील लेखक संघ में सुनायी जिसे
सभी लोगों ने सराहा।
आगरे के बाद
अमरकांत इलाहाबाद आ गये और वहाँ से निकलने वाले ‘अमृत पत्रिका’ नामक दैनिक के संपादकीय विभाग में कार्य
करने लगे। अमरकांत यहाँ के भी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े और ओमप्रकाश, मार्कण्डेय, कमलेश्वर व दुष्यंतकुमार जैसे लेखको के
संपर्क में आये। पर यहाँ अमरकांत सुख से नहीं रह पाये। आर्थिक समस्या बड़ी थी। वे
बहुत ही अल्प वेतन पर काम कर रहे थे। उनके प्रेस में आर्थिक लड़ाई शुरू हो गई थी।
उन्हें कई तरह से अपमानित भी किया गया। अमरकांत का जीवन कष्ट में कट रहा था।
सन 1954 में वे
गंभीर रूप से बिमार पड़े। वे हृदय रोग के शिकार हो गये थे। जीवन में निराशा का नया
दौर शुरू हुआ। नौकरी छोड़कर वे लखनऊ चले गए। अमरकांत अपने जीवन को निरर्थक समझने
लगे। कहीं से कोई भी उम्मीद नजर न आती। पर अंत में उन्होंने निश्चय किया कि वे
अपना लेखन कार्य जारी रखेंगे। जितना हो सकेगा उतना वे लेखन करेंगे। लेखन ही उनके
जीवन का आधार रहा। और उन्होंने किया भी यही।
अमरकांत ने बी.ए.
करने के बाद पत्रकार के रूप में अपनी नौकरी की शुरूआत की। किंतु इससे उनकी आर्थिक
दशा में सुधार न हुआ। अमरकांत का समय साहित्यिक और मित्रों के बीच ही बितता था। वे
एक लापरवाही भरी जिंदगी जी रहे थे। उन्हें किसी बात की कोई विशेष चिंता भी नहीं थी।
पर अमरकांत के
चाचा को यह बात पसंद नहीं आयी। और वे अमरकांत के व्यवहार को लेकर के चिंतित रहने
लगे। उन्होंने घर वालों को अपनी चिंता से अवगत भी कराया। और उन्होंने ही अमरकांत
के पिताजी को सलाह दी की वे उसे आगरा से वापस बुला लें। अमरकांत के चाचा जी का नाम
श्री साधुशरण वर्मा था। तीन वर्ष तक आगरा में रहने के बाद अमरकांत इलाहाबाद आ गये।
इलाहाबाद आने के
बाद अमरकांत ने यहाँ से निकलने वाले ‘अमृत पत्रिका’ में
नौकरी पायी। पर यहाँ पर भी तनख्वाह बड़ी मामूली थी। यहाँ आकर के अमरकांत ने गहरी
आर्थिक तंगी को महसूस किया। प्रेस में भी उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं हुआ। प्रेस
की अपनी आर्थिक समस्याएँ और झगड़े थें इसी बीच अमरकांत हृदय रोग के शिकार हुए और
उन्हें लखनऊ जाना पड़ा।
लखनऊ रहते हुए
अमरकांत गहरे मानसिक द्वंद
से ग्रस्त रहे। उन्हें जीवन से एक तरह से निराशा
हो गयी। उन्हें अब यह लगने लगा कि अब वे किसी काम के नहीं रह गये। साथ ही साथ
उन्हें इस बात का पछतावा भी हुआ कि उन्होंने जिंदगी का बहुत सारा समय यूँ ही
बर्बाद कर दिया। अब वे अपना एक मिनट भी बर्बाद नहीं करना चाहते थे और लिखने के
प्रण के साथ वे इस काम में जुट गये।
आय का कोई निश्चित
साधन न होने के कारण उनकी माली हालत कोई बहुत अच्छी नहीं रही। स्वतंत्र लेखन के
द्वारा ही वे जो अर्जित कर सके उसे ही आजीविका का साधन बनाया। अमरकांत ने अपना
जीवन इसी तरह व्यतीत किया। अमरकांत ने अपने भीतर एक तरह का आत्मअनुशासन विकसित कर
लिया था। शायद यही वह प्रेरक शक्ति थी जिसका जिक्र शेखर जोशी जी करते हैं। अमरकांत
का यही आत्मअनुशासन उनकी रचनाओं में भी दिखायी देता है। आर्थिक तंगी और बिमारी के
बीच अमरकांत ने लेखन को अपने जीवन का आधार बनाया। जितना हो सके उतना लिखने का
उन्होंने निश्चय कर लिया।
परिवार की जिम्मेदारियों
के प्रति वे सचेत थे। अपनी क्षमताओं से बढ़कर उन्होंने करने का हमेशा की प्रयत्न
किया। एक सामान्य मध्यम वर्ग का जीवन जीते हुए अमरकांत ने स्वतंत्र लेखक के रूप
में अपना कार्य जारी रखा। ‘सैनिक’
और ‘अमृत पत्रिका’ के अतिरिक्त अमरकांत दैनिक भारत और
कहानी मासिक से भी जुड़े थे। ‘मनोरमा’
पाक्षिक का संपादन कार्य भी अमरकांत ने
किया। अमरकांत खुद भी एक पत्रिका निकालना चाहते थे पर सबसे बड़ी समस्या आर्थिक ही
थी। पर साधनों की समस्या ने उनकी साधना में खलल नहीं पड़ने दिया। हाल ही में
उन्होने ‘बहाव’ नामक पत्रिका का संपादन कार्य प्रारंभ
किया। यह पत्रिका ‘अमर
कृतित्व’ प्रकाशन द्वारा
प्रकाशित होती है। अमरकांत के छोटे पुत्र ‘अरविंद’ इस
प्रकाशन कार्य में मुख्य सहायक हैं। अरविंद जी खुद एक कहानीकार भी हैं।अमरकांत का
जीवन संघर्षों से भरा रहा। और यही संघर्ष उनके साहित्य को अधिक पैना करता रहा।
किसी के भी
व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार, परिवेश
और शिक्षा आदि का महत्वपूर्ण स्थान होता है। कथाकार अमरकांत का पारिवारिक वातावरण
साहित्यिक नहीं था। फिर भी साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बहुत सारी बातें विरासत
में अमरकांत को परिवार से ही मिली। अमरकांत को अपनी कई कहानियों की प्रेरणा परिवार
के सदस्यों के द्वारा ही प्राप्त हुई है।
अमरकांत के
व्यक्तित्व के निर्माण में उनके व्यक्तिगत संघर्ष की अहम भूमिका रही। उन्होंने कभी
भी परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेके। हर हाल में वे एक आम व्यक्ति की तरह संघर्ष
करते रहे, शोषण का शिकार होते
रहे और पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन के लिए हर तरह के कष्ट को गले लगाते रहे।
उनका यही भोगा हुआ यथार्थ उनके कथा साहित्य में अपनी पूरी समग्रता के साथ प्रस्तुत
हुआ है।
अमरकांत के
व्यक्तित्व की महत्वपूर्ण बात थी ‘ईमानदारी’। अमरकांत ने हमेशा अपना काम पूरी
ईमानदारी के साथ किया। वे कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादन कार्य से जुड़े रहे। इसके
बावजूद वे ‘अवसरवादी’ नहीं बने। अमरकांत अपने अंदर एक सीमा के निर्धारण
के साथ जीते रहे। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने स्वयं भी कभी उस सीमा
का उल्लंघन नहीं किया। अमरकांत बाहर से जितने सुलझे व सहज लगते हैं वास्तव में
अंदर से वे उतने ही उलझे और परेशान रहते। कारण यह था कि वे अपनी परेशानियों को
अपने तक रखना पसंद करते थे और बाहर उसकी छाया भी नहीं पड़ने देना चाहते थे। पर यह
प्रायः हो नहीं पाता। उनके मित्र उनकी परिस्थितियों से अच्छी तरह परिचित थे। लेकिन
वे यह भी जानते थे कि यह आदमी मर्यादाओं में रहनेवाला है। अपने लाभ के लिए अमरकांत
दूसरे का नुकसान नहीं कर सकते थे। अमरकांत
सदैव ही एक संकोची व्यक्ति रहे। आम जनता से जुड़ी हुई कोई भी बात उन्हें साधारण
नहीं लगती थी। देश में होनेवाली हर महत्वपूर्ण घटना पर उनकी बारीक नज़र रहती थी। वे
खुद यह कभी भी पसंद नहीं करते थे कि वे चर्चा के केन्द्र में रहें। इन सब बातों
में उन्हें एक अलग तरह का संकोच होता था। सामान्य जनता, उससे जुड़ी हुई परेशानियाँ, जीवन और साहित्य इन सब में अमरकांत की
गहरी संसक्ति थी। अमरकांत न केवल एक अच्छे साहित्यकार हैं बल्कि उतने ही अच्छे
व्यक्ति भी हैं। उनका व्यक्तित्व बिना किसी बनावट के एकदम साफ और सहज है।
अमरकांत
अपने समय और उसमें घटित होने वाले हर महत्वपूर्ण परिवर्तन से जुड़े रहे। उन्होंने
जो देखा, समझा और जो सोचा उसी
को अपनी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनकी कहानियाँ एक तरह से ‘दायित्वबोध’ की कहानियाँ कही जा सकती हैं। यह ‘दायित्वबोध’ ही उन्हें प्रेमचंद की परंपरा से भी
जोड़ता है। अमरकांत ने अपने जीवन और वातावरण को जोड़कर ही अपने कथाकार व्यक्तित्व की
रचना की है। अमरकांत अपने समकालीन कहानीकारों से अलग होते हुए भी प्रतिभा के मामले
में कहीं भी कम नहीं है। उनका व्यक्तित्व किसी भी प्रकार की नकल से नहीं उपजा है।
उन्होंने जिन परिस्थितियों में अपना जीवन जिया उसी से उनका व्यक्तित्व बनता चला
गया। और उन्होंने जीवन में जो भी किया उसी को पूरी ईमानदारी से अपने लेखन के
माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न भी किया। इसलिए अमरकांत के व्यक्तित्व को
निर्मित करने वाले घटक तत्वों पर विचार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि
उनका व्यक्तित्व आरंभ से लेकर अब तक एक उर्धगामी प्रक्रिया का परिणाम है। उन्होंने
अपने व्यक्तित्व को किसी निश्चित योजना अथवा आग्रह के आधार पर विकसित न करके जीवन
के व्यावहारिक अनुभव द्वारा आकारित किया। सारांशतः उनका व्यक्तित्व अनुभव सिद्ध
व्यक्ति का व्यावहारिक संगठन है। यही कारण है कि उनमें आत्मनिर्णय, आत्मविश्वास और आत्मभिमान का चरम
उत्कर्ष दिखायी पड़ता है।
अमरकांत जब बलिया
के गवर्नमेंट हाई स्कूल में नवीं कक्षा में पढ़ते थे, उसी समय श्री गणेश प्रसाद जी हिंदी
शिक्षक के रूप में उस विद्यालय में नियुक्त हुए। गणेश प्रसाद एम.ए. पास नवयुवक थे।
गणेश प्रसाद जी हमेशा अपने विद्यार्थियों को साहित्यिक गतिविधियों में रूचि लेने
के लिए प्रेरित करते रहते थे। अमरकांत गणेश प्रसाद जी से बहुत प्रभावित थे। उन्हीं
से प्रेरणा पाकर अमरकांत व मित्रों ने कहानियाँ लिखनी शुरू की, हस्तलिखित पत्रिकाएँ निकाली और
अन्ताक्षरी टीम में शामिल हुए।
अमरकांत ने
इन्हीं दिनों से कविताएँ याद करनी शुरू की। उन दिनों आजादी का नशा पूरे भारत पर
छाया हुआ था। हर भारतवासी गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद भारत में साँस लेना
चाहता था। अमरकांत भी ऐसे ही आजादी के मतवाले थे। देश प्रेम से भरी कविताएँ गाने से
उन्हें एक तरह की आंतरकि शक्ति मिलती थी। जैसा कि हम पहले उल्लेख कर चुके हैं। बी.ए. पास करने के बाद अमरकांत
ने नौकरी करने का निश्चय किया। नौकरी का यह क्रम सन् 1948 से आगरा से शुरू हुआ।
उन्होंने आगरा से निकलने वाले ‘सैनिक’
दैनिक पत्र के संपादकीय विभाग में नौकरी
शुरू की। यहीं पर उनकी मुलाकात विश्वनाथ भटेले जी से हुई। भटेले जी ही उन्हें
प्रगतिशील लेखक संघ की मीटिंग में ले गये। यहीं पर अमरकांत की मुलाकात डॉ.
रामविलास शर्मा जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों से हुई।
प्रगतिशील लेखक
संघ की मीटिंग में अमरकांत का परिचय अच्छे गज़ल गायक के रूप में कराया गया। अमरकांत
इससे खुश नहीं थे। वास्तव में उन्हें गज़ल व कविताएँ पसंद थी, वे उसे अकेले में या दोस्तों के आग्रह
पर सुना भी देते थे पर उन्होंने स्वयं कोई कविता या गज़ल लिखकर कभी कोई प्रतिष्ठा
पाने की कोशिश नहीं की थी। उर्दू के कुछ मित्रों का संग-साथ, अंताक्षरी टीम का सदस्य व कविताओं गज़लों
में रूचि के कारण उन्हें बहुत सारी पंक्तियाँ याद जरूर हो गयीं थी पर इन सब के
कारण वे अपने आप को कवि मानने के लिए तैयार नहीं थे।
पर डॉ. रामविलास
शर्मा जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार का आग्रह वे ठुकरा नहीं सकते थे। पर अब ये हर बार
का किस्सा हो गया था। इससे छुटकारा पाने के लिए अमरकांत ने कहानी लिखने का निश्चय
किया। अगली मीटिंग में इसके पहले कि कोई गज़ल या कविता सुनाने के लिए कहे, उन्होंने खुद यह घोषणा कर दी कि वे
कहानी सुनायेंगे।
इस तरह उन्होंने ‘इंटरव्यू’ नामक अपनी पहली कहानी लिखी और आगरा के
प्रगतिशील लेखक संघ की मीटिंग में उसे डॉ. रामविलास शर्मा एवम् अन्य सदस्यों को
सुनाया। सभी लोगों ने यह कहानी सुनकर उसकी भरपूर प्रशंसा की। इस कहानी ने अमरकांत
को एक नई पहचान दी। अब वे कहानीकार के रूप में पहचाने जाने लगे। अब उनसे कोई कविता
या गज़ल सुनाने का आग्रह नहीं करता था। अमरकांत अपनी नई पहचान से खुश थे।
कविताएँ व गज़ल
उन्हें अभी भी पसंद हैं। वे कई कंठस्थ कविताएँ गुनगुनाना भी पसंद करते हैं। पर वे
स्वयं कविता नहीं लिखते। इसलिए खुद को कवि कहलवाना भी पसंद नहीं करते।यह संकेत
दिया जा चुका है कि अमरकांत के घर में कोई साहित्यिक वातावरण नहीं था। स्कूल के
अध्यापक श्री गणेश प्रसाद जी ने जरूर लिखने के लिए अमरकांत को प्रेरित किया। बी.ए.
अमरकांत ने इलाहाबाद के हिन्दू बोर्डिंग हाऊस में रहकर पूरा किया। उन दिनों डॉ.
रघुवंश भी वही छात्रावास में रहकर शोध कर रहे थे। पर इस समय तक अमरकांत हिन्दी
साहित्य जगत से परिचित नहीं थे। अमरकांत का विषय भी हिन्दी नहीं था।
स्कूल के दिनों के
ही कई मित्र अमरकांत को फिर हिन्दू बोर्डिंग हाऊस में मिले। इन्हीं मित्रों के साथ
मिलकर अमरकांत ने फिर एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली। इस तरह की एक-दो और पत्रिकाएँ
अमरकांत व मित्रगण अपने प्रिय अध्यापक श्री गणेश प्रसाद जी की प्रेरणा से पहले भी
निकाल चुके थे।औपचारिक रूप से हिंदी भाषा अथवा साहित्य अध्ययन का विषय न होने पर
भी साहित्य में अमरकांत की गहरी रूचि थी। माध्यमिक कक्षा में उनके प्रेरणा पुरूष
गणेश प्रसाद ने साहित्य निष्ठा का जो बीजारोपण किया था वह सदैव ही सचेतन व सक्रिय
बना रहा। इसलिए इलाहाबाद के हिंदू हॉस्टल में जब पुराने मित्रों का साहचर्य मिला
तो उन्होंने पत्रिकाएँ निकालकर अपनी साहित्यिक अभिरूचि का परिचय दिया।
आगरा के प्रगतिशील
लेखक संघ में कविताओं, गीतों
व गज़लों का आकर्षक पाठ भी उनके साहित्यिक संस्कार का ही अंग था। यह बीजांकुर उनके
साहित्यिक होता गया और ‘इंटरव्यु’
नामक कहानी के रूप में उसका सुफल सामने
आया। ध्यातव्य है कि उनकी पहली ही कहानी ‘इंटरव्यु’ डॉ.
रामविलास शर्मा जैसे दिग्गज समीक्षकों द्वारा प्रशंसित हुई। यहीं से अमरकांत के
सशक्त रचनाकार का स्वरूप स्पष्ट होता है।
तीन साल आगरा रहने
के बाद अमरकांत वापस इलाहाबाद आ गये। यहाँ पर अमरकांत की पहचान भैरव प्रसाद गुप्त
जी जैसे साहित्यकारों से हुई। यहाँ ‘परिमल’ और
‘प्रगतिशीलों’ की आपसी नोक-झोक से अमरकांत अवगत हुए।
मार्कण्डेय व शेखर जोशी जैसे मित्र अमरकांत को यहीं पर मिले। इलाहाबाद के
साहित्यिक परिवेश से अमरकांत अच्छी तरह जुड़ गये थे। शमशेर, अमृतराय, श्रीकृष्णदास, नेमिचन्द्र जैन, पहाड़ी और डॉ. एजाज हुसेन जैसे अनेक
उर्दू व हिन्दी के लेखकों से परिचित होने का अवसर मिला। हृदय रोग के कारण अमरकांत को इलाहाबाद छोड़ना पड़ा। वे लखनऊ चले आये।
यहाँ पर आकर के वे गहरे मानसिक द्ंवद्व से लड़ते रहे। वे अपने जीवन से निराश हो गये
थे। वहाँ से फिर वे अपने घर आ गये और बेकार बैठे रहे। ‘दोपहर का भोजन’ कहानी लिखकर अमरकांत ने अपनी शक्ति को
संचित किया इस तरह अमरकांत फिर अपने आपको लेखन
कार्य की तरफ मोड़ पाये। आर्थिक तंगी को दूर करने के लिए भी उन्होंने लेखन का ही
सहारा लिया। अब तक अमरकांत साहित्य जगत में अच्छी तरह पहचाने जाने लगे थे। स्वास्थ
के कारणों से अब दौड़-भाग उनसे संभव नहीं थी। पर वे अपने लेखन के माध्यम से साहित्य
जगत से जुड़े रहे।
अमरकांत अपने समय
के सामाजिक, राजनीतिक
एवम् साहित्यिक परिवेश से हमेशा जुड़े रहे और इन सबका मिला जुला प्रभाव उनके
व्यक्तित्व एवम् साहित्य पर पड़ा।
5. कथा लेखन
अमरकांत के
संपूर्ण कथा साहित्य को निम्नलिखित रूपों में बाटा जा सकता है।
1. अमरकांत के
कहानी संग्रह
1. जिंदगी
और जोक
2. देश के
लोग
3. मौत का
नगर
4. मित्र
मिलन
5. कुहासा
6. तूफान
7. कला
प्रेमी
8.
प्रतिनिधि कहानियाँ
इधर अमरकांत की
संपूर्ण कहानियाँ दो भागों में प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘जाँच और बच्चे’ कहानी संग्रह में उनकी नवीनत रचनाये
हैं।
1. अमरकांत की
सम्पूर्ण कहानियाँ
खण्ड एक - अमर कृतित्व प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2002)
2. अमरकांत की
सम्पूर्ण कहानियाँ
खण्ड दो - अमर कृतित्व प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2002)
3. जाँच और बच्चे
-
अमर कृतित्व प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2005)
इस तरह अमरकांत की
संपूर्ण कहानियाँ उपर्युक्त तीन संग्रहों के माध्यम से उपलब्ध हैं। खण्ड एक और दो
की कहानियों को उनके रचना कालक्रम के 5 दशकों में विभाजित किया गया है। ‘1950 का दशक’ से लेकर ‘1990 का दशक’ तक। इस तरह इन दोनों खण्डों में अमरकांत
की कुल 82 कहानियाँ संग्रहित हैं। नवीनतम कहानी संग्रह ‘जाँच और बच्चे’ में 11 कहानियाँ संग्रहित हैं। इस तरह
अमरकांत की कुल 93 कहानियाँ इन तीनों कहानी संग्रहों के माध्यम से उपलब्ध हैं। अब
तक अमरकांत द्वारा लिखित इतनी ही कहानियों का प्रकाशन हुआ है।
2. अमरकांत के
उपन्यास
अमरकांत के
प्रकाशित अब तक के कुल उपन्यास निम्नलिखित हैं।
1. सूखा पत्ता -
राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 1984)
2. आकाश पक्षी -
राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2003)
3. काले उजले दिन
- राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2003)
4. कँटीली राह के
फूल - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 1963)
5. ग्राम सेविका -
लोकभारती (प्रथम संस्करण 1973)
6. सुखजीवी -
संभावना प्रकाशन, हापुड़
(प्रथम संस्करण 1982)
7. बीच की दीवार -
अभिव्यक्ति प्रकाशन (1969 में
‘दिवार’ और ‘आंगन’ नाम से प्रकाशित)
8. सुन्नर पांडे
की पतोह - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2005)
9. इन्ही हथियारों
से। - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2003)
इनके अतिरिक्त भी
अमरकांत द्वारा समय-समय पर कुछ अन्य साहित्य भी लिखा जाता रहा। कादंबिनी और बया पत्रिका में भी
उनके दो उपन्यास छप चुकें हैं । अमरकांत की अन्य जो किताबें प्रकाशित हुईं हैं वे
इस प्रकार हैं -
1. कुछ
यादें कुछ बातें - संस्मरण
राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2005)
2. नेउर भाई
- बाल साहित्य, प्रकाशक
कृतिकार, इलाहाबाद
3. बानर
सेना - बाल साहित्य, प्रकाशक
कृतिकार, इलाहाबाद
4. खूँटा
में दाल है - बाल साहित्य, प्रकाशक
कृतिकार, इलाहाबाद
5. सुग्गी
चाची का गाँव - बाल साहित्य, प्रकाशक
कृतिकार, इलाहाबाद
6. झगरूलाल
का फैसला - बाल साहित्य, प्रकाशक
कृतिकार, इलाहाबाद
7. एक
स्त्री का सफर - बाल साहित्य, प्रकाशक
कृतिकार, इलाहाबाद
इस तरह हम देखते
हैं कि अमरकांत ने लगातार अपना लेखन कार्य जारी रखा। सारी कहानियाँ दो खण्डों में
आ जाने से उनका अध्ययन सुविधा जनक हो गया है। अमरकांत के अधिकांश उपन्यास ‘राजकमल प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित किये गये हैं। इसमें से
कुछ उपन्यास अब ‘आउट
ऑफ प्रिंट’ भी हैं। जैसे कि ‘ग्राम सेविका’ व ‘कँटीली राह के फूल’। ये प्रायः दुर्लभ हैं। इनकी संभावना
कुछ प्रतिष्ठित ग्रंथालयों में ही की जा सकती है।
बाल साहित्य भी
अमरकांत ने पर्याप्त लिखा है। ये पुस्तकें इलाहाबाद के ही प्रकाशकों द्वारा
प्रकाशित की गयी हैं। जैसे कि ‘कृतिकार’। अमरकांत द्वारा लिखित अधिकतर बाल
साहित्य ‘कृतिकार’ द्वारा ही प्रकाशित हैं। लेकिन इन
पुस्तकों का कोई नियमित संस्करण नहीं निकला, अतः इन सभी को ‘आउट ऑफ प्रिंट’ की श्रेणी में रखा जा सकता है।
‘अमर कृतित्व’ प्रकाशन के पास इन पुस्तकों की कुछ
प्रतियाँ सुरक्षित रखी गयी हैं। शोध कार्य की दृष्टि से इन पुस्तकों का भी अपना
महत्व है।
अमरकांत का
संपूर्ण कथा साहित्य बड़ा ही व्यापक है। आर्थिक तंगी और बीमारी के बाद भी अमरकांत
की कलम सतत चलती रही। यह उनके परिश्रम का ही फल है कि उन्होंने अपने कथा संसार को
इतना बृहत् रूप दिया।
प्रारंभ में
अमरकांत का जुड़ाव रोमांटिक कहानियों से हुआ। वह समय भी ‘रोमांटिक बोध’ का था। इन दिनों अमरकांत शरतचन्द्र से
बहुत प्रभावित रहे। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि अमरकांत बलिया जैसे छोटे
कस्बे में रहते थे। घर में ‘चलता
पुस्तकालय’ के माध्यम से जो
पुस्तकें उन्हें उपलब्ध होती वही वे पढ़ते थे। विद्यालय की किताबों में प्रेमचंद की
कुछ एक कहानियाँ उन्होंने पढ़ी थी। पर विश्व साहित्य से उनका कोई संपर्क नहीं हो
पया था।
जैसे-जैसे आगे
चलकर उनका परिचय विश्व साहित्य से हुआ, वैसे-वैसे उनकी साहित्यिक दृष्टि भी बदलने लगी। प्रेमचंद के साहित्य को पढ़कर अमरकांत समाज के एक
नए स्वरूप से परिचित हुए। समाज में व्याप्त अंधविश्वास, शोषण, कुरीतियाँ आदि को देखने की उनकी एक नई
दृष्टि विकसित हुई। अमरकांत के विचारों का सार यही है कि व्यक्ति विशेष यथार्थ
जीवन में जो संघर्ष करता है, उसके
लिए उसके अंदर कुछ आदर्शों का होना जरूरी है। यथार्थ से संघर्ष करते हुए ही
व्यक्ति आदर्शों का निर्माण कर सकता है। इसके बिना आदर्श के अस्तित्व की
व्यावहारिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। और जो चीज व्यावहारिक न हो उसका जीवन
से क्या प्रयोजन हो सकता है?
साहित्यिक रचनाओं
की सफलता अमरकांत के अनुसार रचना विशेष में निहित संवेदनात्मक ज्ञान पर आधारित
होती हैं। साहित्य सृजन के पीछे अमरकांत जो आधारभूत तत्त्व मानते हैं, वे हैं - गहरी संवेदना, सामाजिक यथार्थ की समझदारी और ऐतिहासिक
एवं प्रगतिशील जीवन दृष्टि।अमरकांत साहित्य को ‘स्वतंत्र व्यक्ति की स्वतंत्र व्यक्ति
से बातचीत’ वाली विचारधारा का
समर्थन नहीं करते। अमरकांत मानते हैं कि साहित्य का उद्देश्य व्यापक होता है। समाज
की यथार्थ और वास्तविक स्थितियों से विमुख होकर साहित्य कभी भी अपने व्यापक
उद्देश्य में सफल नहीं हो पायेगा। जो साहित्यकार या बुद्धिजिवी इस बात को नहीं
मानते उन्हें ‘स्वतंत्र
व्यक्ति’ की नई परिभाषा को
बताना पड़ेगा। साथ ही साथ इस तरह की स्वतंत्रता का सामाजिक यथार्थ बोध से संबंध
स्थापित करते हुए यह भी सिद्ध करना पड़ेगा कि वह किस तरह साहित्य के व्यापक
उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो सकेगा।
अमरकांत मानते हैं
कि सत्य की खोज का कार्य अपने आप में बड़ा ही कष्टकारी होता है। एक साहित्यकार अपने
समाज के साथ होता है। समय विशेष की सामाजिक व्यवस्था को वह पैनी नजरों से परखता
है। विचारों की कसौटी पर उसे कसता है। अगर उसे कुछ गलत लगता है तो वह उस गलत
व्यवस्था से टकराने का भी माद्दा रखता है। शासन व्यवस्था अत्याचारी लोगों के हाँथ
में होने से न्याय संगत निर्णयों की संभावना नहीं रह जाती।अमरकांत अपने आप को
कम्युनिस्ट नहीं मानते। वे विचारधाराओं से प्रभावित होने की बात तो स्वीकार करते
हैं पर किसी ‘वाद
विशेष’ की चार दिवारी में
अपने आप को कैद करना पसंद नहीं करते। साहित्यकारों की अवसरवादिता से वे काफी दुखी
होते हैं। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के समर्थक हैं अमरकांत। अपने ऊपर वे राजनीति का भी
प्रभाव स्वीकार करते हैं। वे स्वयं राजनीति की राह पर चलकर फिर लेखक बने थे।
अमरकांत मानते हैं कि विचारधाराओं से प्रभावित होना गलत नहीं है। पर यथार्थ की
भावभूमि पर अगर वे विचारधाराएँ अपनी उपयोगिता साबित न कर पायें, समाज में प्रगति का कारण न बन सकें तो
फिर उनसे चिपके रहना ठीक नहीं है।
अमरकांत एक लेखक
से पूरी ईमानदारी के साथ सृजन की आशा करते हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी
अन्यायी शासन के आगे बिना घुटने टेके उसका सामना करने के अमरकांत हिमायती हैं।
अवसरवादी होकर लेखनी से समझौता करने वालों के प्रति उनके मन में दुख है। किसी ‘वाद’ की चार दीवारी उन्हें स्वीकार नहीं है।
हर वो विचारधारा जो समाज, जनता
और देश के हित में है उसे स्वीकार करने में उन्हें परहेज नहीं है। अमरकांत का
सहित्यिक दृष्टिकोण बड़ा ही व्यापक एवम् उदार है।
उपर्युक्त विमर्श
से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि अमरकांत में बाल्य काल से ही सृजनधर्मी ऊर्जा
विद्यमान थी। अनुकूल साधनों और सुविधाओं के अभाव में भी साहित्य के प्रति जो
अभिरूचि उनमें बीज रूप में वपित हुई थी वह कभी कुंठित नहीं हुई। अध्ययनकाल में
साहित्य के विद्यार्थी न होने पर भी, साहित्यिक गतिविधियाँ उन्हें नित्य आकर्षित करती रहीं।
सुयोग्य अध्यापक
गणेश प्रसाद के साहचर्य में उनकी अंर्तनिहित साहित्यिक अभिरूचि दीप्त हो उठी।
कविताओं के प्रति वाहन रूचि होने पर भी उन्हें यह अनुभव हो गया था कि काव्य रचना
उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं है। इसलिए कविताओं का सुंदर पाठ करने में सिद्ध होने
पर भी उन्होंने अपने लेखकीय कर्म के लिए कथा की विधा का वरण किया। और यह सुखद
आश्चर्य था कि उनकी पहली ही कहानी ‘इंटरव्यु’
प्रबद्ध विद्वानों और आत्मीय मित्रों
द्वारा मुक्त कंठ से सराही गयी।‘इंटरव्यु’
से आरंभ होकर उनके कथा लेखन का क्रम आज
तक अविराम गति से चलता रहा है।अनेक घटनाओं और इनकी आत्मस्वीकृतियों के साक्ष्य पर
हम देख चुके हैं कि जीवन के अनेक उतार - चढाव, आर्थिक संकोच, पारिवारिक दायित्व और स्वास्थ्य का
असहयोग बार-बार उनके सामने आया किंतु उनकी रचनाधर्मिता न तो कभी कुंठित हुई और न
ही शिथिल। इससे स्पष्ट होता है कि साहित्य लेखन ही उनके जीवन का आत्यंतिक व्रत रहा
है।
साहित्य सृजन
अमरकांत के लिए बैठे-ढाले अथवा मनोरंजन का उपक्रम कभी नहीं रहा। वे रचना कर्म को
सामाजिक दायित्व और संसक्ति से जोडकर देखते हैं। इसलिए वैयक्तिक अनुभूति अथवा
चेतना को रचना के धरातल पर सार्वभौमिक बनाकर ही देखना चाहते हैं। अमरकांत का संपूर्ण व्यक्तित्व जीवन के कठोर
तपा से तपकर कंचन से कुंदन बनता रहा है। उन्होंने अपनी मूल्यनिष्ठा समाज संपृक्ति
दायित्व चेतना और मानवीय संवेदना के आधार पर लेखकीय धर्म का निर्वाह किया है और आज
भी उसी के प्रति निष्ठावान हैं। अमरकांत का संपूर्ण साहित्य उनकी इसी समर्पित और
संकल्पित मूल्य चेतना का प्रमाण है।
अमरकांत का कथा साहित्य
: एक
परिचय
कहानी:
1) अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ खण्ड 1
2) अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ खण्ड 2
3) जाँच और बच्चे
उपन्यास
1) सूखा पत्ता
2) आकाश पक्षी
3) काले उजले दिन
4) कँटीली राह के फूल
5) ग्राम सेविका
6) सुख जीवी
7) बीच की दीवार
8) सुन्नर पांडे की पतोह
9) इन्हीं हथियारों से
10) लहरें
11) बिदा की रात
ग) प्रकीर्ण साहित्य:
1) कुछ यादें कुछ बातें
2) नेउर भाई
3) बानर सेना
4) खूँटा में दाल है
5) सुग्गी चाची का गाँव
6) झगरूलाल का फैसला
7) एक स्त्री का सफर
अमरकांत का कथा साहित्य: संक्षिप्त परिचय
अमरकांत ‘नई कहानी’ आंदोलन के प्रमुख कहानीकारों में से एक
हैं। ‘नई कहानी’ के नाम को लेकर अवश्य विवाद रहा पर इस
दौर की कहानियों ने कहानी विधा को एक नया मोड़ दिया। अब कहानी में ‘शिल्प’ नहीं ‘कथ्य’ महत्वपूर्ण हो गया। कहानियों का लेखन
कार्य यथार्थ की भावभूमि से जुड़ा। ‘नई
कहानी’ अपने आप को ‘वैचारिक दृष्टि’ से बदल रही थी। कहानी के लिए शाश्वत
मूल्य बन चुके आग्रहों से ‘नई
कहानी’ लड़ रही थी। ‘नई कहानी’ ‘कहानी’ होने से पहले ‘जीवनानुभव’ का आग्रह करने लगी थी। नई कहानी के
संदर्भ ऐसी ही अनेकों बातों की चर्चा कमलेश्वर अपनी पुस्तक ‘नयी कहानी की भूमिका’ में करते है।
देश की स्वतंत्रता
के साथ ही साथ देश का विभाजन हो गया। देश के बँटवारे के साथ भीषण साम्प्रदायिक
दंगो ने हमारी राष्ट्रीयता की जड़े हिला दी। भुखमरी और अकाल की परिस्थितियों ने
मानव मूल्यों को झकझोर दिया। इन समस्याओं के साथ कुछ नई समस्याएँ भी देश के सामने
आयीं। ये समस्याएँ शरणार्थियों की व्यवस्था, आर्थिक विकास और सुचारू प्रशासन की थी।
इन परिस्थितियों ने सामान्य जन को यथार्थ के प्रति अधिक जागरूक बनाया। नई कहानी
में जटिल जीवन-यथार्थ की व्यापक स्वीकृति अभिव्यक्त हुई। इसके माध्यम से ‘व्यक्ति-चेतना’ को महत्व मिला। कोरी भावुकता धीरे-धीरे
कहानियों से हटने लगी। नई कहानी के माध्यम से सांकेतिकता वस्तु और शिल्प दोनों में
आयी। मध्यमवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज की पीड़ा, दुख, दर्द, क्षोभ, विवशता और हीनता का सबसे अधिक चित्रण नई
कहानी में हुआ।
निश्चित तारीखों
के आधार पर ‘नयी
कहानी’ का काल खण्ड
निर्धारित करना मुश्किल है। फिर भी अध्ययन की सुविधानुसार सन् 1954 से सन् 1963 तक
के पूरे काल खण्ड को नयी कहानी का समय कहा जा सकता है। नयी कहानी की प्रतिष्ठा के
साथ-साथ अमरकांत को भी एक साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। अमरकांत
अपने कथा साहित्य के माध्यम से आम आदमी की संवेदनाओं को बड़ी ही कुशलता से अभिव्यक्त
करते रहे हैं। अमरकांत के पात्रों की चारित्रिक जटिलता काल्पनिक नहीं है।
बहुस्तरीय शोषण, मूल्य
हीनता और मोहभंग जैसी जटिल स्थितियों का मनोवैज्ञानिक स्तर पर प्रहारधर्मी व्यंगों
के माध्यम से चित्रण अमरकांत ने किया है। संवेदना के साथ-साथ अमरकांत के साहित्य
के शिल्प की भी अपनी विशेषता है। उनकी भाषा सहज और सरल है। अमरकांत ने मुहावरों व
लोकोक्तियों का भी सार्थक प्रयोग किया। अमरकांत ने अपने व्यंग्य के माध्यम से उन
सफेदपोश लोगों को भी नंगा किया जो दोहरा जीवन जीने के आदी थे। अमरकांत - प्रेमचंद
की साहित्यिक परंपरा को आगे बढ़ाने वाले कथाकारों में से एक हैं।
अमरकांत के कई
कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ये सभी प्रकाशित संग्रह इधर ‘अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड एक
और दो’ नाम से अमरकृतित्व
प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं। अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से यह संग्रह बहुत
उपयोगी है। इन दो पुस्तकों के अतिरिक्त अमरकांत ने जो नई कहानियाँ लिखीं वे भी ‘जाँच और बच्चे’ नामक शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। इस
तरह अमरकांत की अब तक की लिखी सारी कहानियाँ इन तीनों पुस्तकों के माध्यम से
प्रकाशित हो चुकी हैं। ये तीनों कहानी संग्रह इस प्रकार से हैं -
(1) अमरकांत की
संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड एक
प्रथम
संस्करण - सन् 2002
प्रकाशन - अमर कृतित्व प्रकाशन
करेली,
इलाहाबाद (उ.प्र.)
(2) अमरकांत की
संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड दो
प्रथम
संस्करण - सन् 2002
प्रकाशन - अमर कृतित्व प्रकाशन
करेली,
इलाहाबाद (उ.प्र.)
(3) जाँच और बच्चे
प्रथम
संस्करण - सन 2005
प्रकाशन - अमर कृतित्व प्रकाशन
गोविंदपुर,
इलाहाबाद (उ.प्र.)
कहानियों के
अतिरिक्त अमरकांत ने कई उपन्यास भी लिखे हैं। अमरकांत के अब तक के प्रकाशित
उपन्यास निम्नलिखित हैं।
(1) सूखा पत्ता
प्रथम
संस्करण - सन् 1984
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन
(2) ग्राम सेविका
प्रथम
संस्करण - अप्रैल 1962
प्रकाशन - लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद
(3) कँटीली राह के
फूल
प्रथम
संस्करण - सन् 1963
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन
(4) बीच की दीवार
/ दीवार और आंगन
प्रथम
संस्करण - सन् 1969
प्रकाशन - अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद
(5) सुखजीवी
प्रथम
संस्करण - सन् 1982
प्रकाशन - संभावना प्रकाशन, हापुड़
(6) आकाश पक्षी
प्रथम
संस्करण - सन् 2003
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन
(7) काले उजले दिन
प्रथम
संस्करण - सन् 2003
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन
(8) इन्ही
हथियारों से
प्रथम
संस्करण - सन् 2003
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन
(9) सुन्नर पांडे
की पतोह
प्रथम
संस्करण - सन् 2005
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन
(10) लहरें (कादम्बिनी पत्रिका के उपहार अंक के रूप में
प्रकाशित)
प्रथम
संस्करण - अक्टूबर 2005
प्रकाशन - कादम्बिनी पत्रिका
(11) बिदा की रात -
बया पत्रिका के प्रथम अंक में
दिसंबर 2006 में प्रकाशित
कहानियों एवम्
उपन्यासों के अतिरिक्त अमरकांत ने एक पुस्तक संस्मरण के रूप में लिखी। इस पुस्तक
में अमरकांत ने अपने बचपन से लेकर अपने लेखक बनने की पूरी कथा को विस्तार से
बतलाते हैं। अमरकांत को समझने में यह पुस्तक बहुत ही सहायक है। इस पुस्तक का
शीर्षक व प्रकाशन वर्ष निम्न प्रकार है।
(1) कुछ यादें कुछ
बातें
प्रथम
संस्करण - सन् 2005
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन
अमरकांत ने बाल
साहित्य भी भरपूर लिखा है। उनके द्वारा लिखित बाल साहित्य की कुल पुस्तकें
निम्नलिखित हैं।
(1) नेउर भाई
(2) बानर सेना
(3) खूँटा में दाल
है
(4) सुग्गी चाची
का गाँव
(5) झगरूलाल का
फैसला
(6) एक स्त्री का
सफर
इन सभी पुस्तकों
का प्रकाशन ‘कृतिकार’
प्रकाशन के माध्यम से इलाहाबाद से हुआ
है। अमरकांत का कथा साहित्य बड़ा व्यापक है। अमरकांत के उपन्यासों की चर्चा उतनी
नहीं हुई जितनी की उनकी कहानियों की हुई है। इस पर स्वयं अमरकांत का कहना है कि,
‘‘...... चर्चा तो हुई है।
लेकिन उपन्यास ‘सूखा
पत्ता’ छोड़ दे तो बाकी
मैंनें बहुत जल्दी-जल्दी लिखे। उनमें ‘पूरी एनर्जी’ नहीं
लगी। इनमें से बहुत पैसों की जरूरत पर लिखे। जीवन से संघर्ष और फिर संघर्ष के
निचोड़ के तौर पर ये कृतियाँ नहीं लिखी। पहले तो लोग स्वीकार नहीं करते थे लेकिन अब
लोग मानते हैं कि ये उपन्यासकार भी हैं। वैसे चर्चा न होने का एक कारण यह भी रहा
कि इनमें से कुछ हमनें प्रकाशित किया जिससे ‘डिस्ट्रिब्युशन’ बराबर हो नहीं पाया। एक कारण यह भी है
कि आलोचकों ने अपना एक ढर्रा बना लिया है। बहुत से उपन्यास वे समझ नहीं पाते हैं।
उपन्यास आलोचना की समीक्षा दृष्टि उतनी विकसित नहीं हुई। उपन्यासों की आलोचना
व्यापक तरीके से जीवन को देखते हुए होनी चाहिए। वैसे इधर उपन्यासों की भी चर्चा हो
रही है।.......।’’1
बात सच भी है।
अमरकांत के उपन्यासों की इधर काफी चर्चा हुई है। अमरकांत के कथा साहित्य का एक
समग्रावलोकन जरूरी है। कहानियों, उपन्यासों
के साथ-साथ उनके द्वारा लिखित बाल-साहित्य का भी। इससे कथाकार के रूप में अमरकांत
के संपूर्ण व्यक्तित्व को समझना आसान हो जायेगा।
कहानी:
क) अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 1
इस खण्ड में
संग्रहित कहानियों को ‘1950
का दशक’ और ‘1960 का दशक’ नामक दो भागों में मुख्य रूप से विभक्त
किया गया है। ‘1950
का दशक’ के अंतर्गत कुल 19
कहानियाँ हैं तो ‘1960
का दशक’ में कुल 20 कहानियाँ
संग्रहित हैं। 333 पृष्ठों की इस पुस्तक में अमरकांत द्वारा दो दशकों में लिखी गयी
कुल 39 कहानियाँ हैं। इन कहानियों में से कुछ का हम संक्षेप में परिचय प्राप्त
करेंगे।
1) इंटरव्यू:
‘इंटरव्यू’ अमरकांत द्वारा लिखी वह पहली कहानी है
जिससे उन्हें ‘कहानीकार’
कहलाने का सौभाग्य मिला। आगरा के
प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में अमरकांत ने डॉ. रामविलास शर्मा और अन्य मित्रों के
सम्मुख यह कहानी सुनायी। अमरकांत खुद एक इंटरव्यू में सम्मिलित हुए थे, उसी घटना का विस्तार से वर्णन करके
उन्होंने यह कहानी लिखी थी। इस कहानी के छपने के पहले अमरकांत श्रीराम वर्मा के
नाम से ही जाने जाते थे। स्वयं अमरकांत कहते हैं कि, ‘‘मैं तब श्रीराम वर्मा था। अमरकांत मेरा
पेननेम है। 1953 में बदला। मेरी पहली साहित्यिक कहानी ‘इंटरव्यू’ 1953 में ‘कल्पना’ में छपी थी। तभी पेननेम अमरकांत कर
लिया।.........।’’2
इस कहानी में
राशनिंग विभाग में 60 रूपये की क्लर्की के एक रिक्त पद के लिए आये उम्मीदवारों की
बेचैनी, दिखावा, अपने को अधिक योग्य सिद्ध करने का
प्रयास आदि का बड़ा ही रोचक एवम् व्यंग्यात्मक वर्णन अमरकांत ने किया है। कहानी में
किसी भी पात्र को कोई भी नाम नहीं दिया गया है। जो कि कथावस्तु के अनुरूप ही है।
इस कहानी के संदर्भ
में अजित कुमार लिखते हैं कि, ‘‘इंटरव्यू’
एक छोटी-सी कहानी है जो अपने देश में
इंटरव्यू के नाम से चलते जा रहे एक बहुत बड़े ढोंग या मखौल का हल्का-फुल्का बल्कि
सीधा-सपाट बयान करती है। खुलासा या पर्दाफाश नहीं, महज एक दिलचस्प और पठनीय ब्यौरा। अपनी
इस प्रकृति में ‘इंटरव्यू’
कहीं-कहीं प्रेमचंद की याद भी दिलाती है,
जिनके यहाँ कहानी रोजमर्रा की जिंदगी
में मौजूद रहती है, वह
विचित्र या असामान्य स्थितियों को तलाशना जरूरी नहीं समझती। ....... निश्चय ही
अमरकांत की यह आरंभिक कहानी न तो समस्या का कोई सरलीकरण करती है न एक विशेष अर्थ
में वह कोई सपाट कहानी है। मेरे लिए उस कहानी का महत्व जिन कारणों से है, उनमें यह भी उल्लेखनीय है कि वृत्ति से
पत्रकार पर मनोवृत्ति से लेखक अमरकांत की यात्रा का यह प्रस्थान बिंदु है, जहाँ से उनकी प्रतिबद्धता क्रमशः मुखर
और सुदृढ़ होती चली गई।’’3
2) गले की जंजीर:
इस कहानी के
संदर्भ में श्रीपतराय जी लिखते हैं कि, ‘‘ ‘गले की जंजीर’ का मुखर व्यंग्य इतना प्रिय है कि चित्त
में एक स्फूर्ति का संचार होता है। इसमें वर्णित घटना हम सबके साथ कभी न कभी अवश्य
घटी होगी पर इसको इतने सहज, आयासहीन,
विनोदी ढंग से वर्णन करने की क्षमता
कितने लोगों में होगी?’’4
‘गले की जंजीर’ अमरकांत द्वारा लिखी ऐसी कहानी है
जिसमें वे एक ही समस्या पर अलग-अलग लोगों की विचार दृष्टि को बड़े ही व्यंग्यात्मक
एवम् हास्य के पुट के साथ प्रस्तुत करते हैं। लेखक अपने मित्र जगदीश के गले की
सोने की जंजीर देखकर मोहित हो जाते हैं। उसे वे बेशर्मी से पहनने के लिए माँग भी
लेते हैं। लेकिन सुबह जब लेखक सो कर उठे तो, जंजीर गले में नहीं थी।
इसके बाद यह खबर
पूरे प्रेस में फैल गयी। मिश्र दादा, प्रेस-मैनेजर गुलजारी लालजी, रामविलास, प्रधान संपादक, जोसफ, परेश बनर्जी और ठाकुर साहब सभी ने जंजीर
खोने के विषय में बनावटी चिंता व्यक्त करते हुए अपने-अपने तरीके से उसे बचाने का
उपाय बताने लगे। कोई कहता कि उसे ट्रंक में रखना चाहिए था, कोई दराज में रखने की सलाह देता। कोई
कहता कि किताबों के बीच रखना अधिक युक्ति संगत है।
अलग-अलग लोगों की
सलाह सुनते हुए, लेखक
अपनी मूल समस्या को तो जैसे भूल ही गये और अंत तक यह तँय नहीं कर पाये कि वे किसकी
सलाह माने। समस्या का समाधान तो नही मिला अपितु खीझ और निराशा बढ़ ही गयी।
3) दोपहर का भोजन:
‘दोपहर का भोजन’ अमरकांत द्वारा लिखित एक छोटी परंतु महत्वपूर्ण
कहानी है। यह कहानी विडम्बना और करूणा की कहानी है। सिद्धेश्वरी नामक स्त्री अपने
पति मुंशी चंन्द्रिका प्रसाद और तीन लड़कों (रामचन्द्र, मोहन और प्रमोद) के साथ आर्थिक तंगी में
जीवन व्यतीत कर रही होती है। तंगी इतनी कि हर कोई भरपेट खाना भी ना खा सके। पर इस
विडंबना को घर का हर सदस्य एक दूसरे से छुपाता रहता है। दोपहर के भोजन को खाते समय
जब माँ सिद्धेश्वरी बच्चों से अधिक रोटी खाने को कहती है तो वे बिगड़ जाते हैं।
क्योंकि उन्हें भी पता है कि उनके अधिक खाने पर घर का कोई न कोई सदस्य भूखा ही रह
जायेगा। शायद अंत में खानेवाली सिद्धेश्वरी ही। इसलिए कोई भी भर पेट नहीं खाता,
पर भरपेट न खाने का कारण कोई भी स्पष्ट
नहीं करना चाहता। इन सब के चलते अंत में सिद्धेश्वरी के हिस्से में एक रोटी बचती
है। जिसमें से भी आधी को छोटे बेटे प्रमोद के लिए रखकर आधी ही खाती है।
इस तरह अपने जीवन
के अभाव की विडम्बना को यह परिवार अपने में ही समेटे जिये जा रहा था। अमरकांत की
इस कहानी के संदर्भ में यदुनाथ सिंह ने लिखा है कि, ‘‘ ‘दोपहर का भोजन’ के सीधे-सपाट घटनाक्रम में एक
गृहस्वामिनी, सिद्धेश्वरी
के भय और दुख की जो अन्तर्धारा प्रवाहित होती है वह आज के निम्न मध्यमवर्गीय
परिवार की जीवनचर्या के मूल में प्रवाहित भय और दुःख की वह अन्तर्धारा है जिसमें
बहते हुए अनगिनत, परिवारों
के असंख्य प्राणी, एक
दूसरे से अपरिचित, आशंकित,
वर्तमान के अभावों से पूरी तरह टूटे,
भविष्य को लेकर दहशत से भरे न केवल
पारिवारिक स्तर पर बिखरते बल्कि सामाजिक स्तर पर भावात्मक दृष्टि से टूटते सम्बन्ध
सूत्रों को संदर्भित करते हैं। परंपरा प्राप्त भावात्मक संबंध सूत्रों और उनके
माध्यम से बिखरने को आ रहे ढाँचे को कायम रखने की एक निष्फल दयनीय चेष्टा पूरे
संदर्भ को बेहद कारूणिक बना जाती है।’’5 यहाँ पर एक बात और समझनी होगी कि अभाव की यह स्थिति
मध्यवर्गीय परिवारों में भी दिखायी पड़ती है। और जिस तरह कहानी में घर के सभी पात्र
अपने अभावों को पहचानते हुए भी उसे अपने लोगों से ही छुपाने की कोशिश करते हैं,
यह मानसिकता मध्यवर्गीय परिवार के अधिक
निकट की लगती है। अतः उपर्युक्त कहानी में मध्यवर्ग या निम्नमध्यवर्ग में से किसे
केन्द्र में रखकर चित्रित किया गया है, यह कह पाना मुश्किल है, लेकिन आर्थिक विपन्नता जीवन की रागात्मक
भावों को किस तरह विडम्बनाओं में बाँध देती हैं, इस बात को विवेच्य कहानी के माध्यम से
समझा जा सकता है।
अमरकांत की यह
कहानी बहुत प्रसिद्ध हुई। स्वयं अमरकांत भी यह माने हैं कि यह कहानी उन्होंने पूरे
मनोयोग से लिखी है। कहानी छोटी है। इस पर भी अमरकांत जी का कहना है कि, ‘‘इस कहानी में जितनी मौन की जरूरत थी
उतनी भाषा की नहीं।’’6
हिंदी के अन्य समीक्षकों ने भी अमरकांत की इस कहानी की बड़ी प्रशंसा की है।
4) जिन्दगी और जोक:
‘जिंदगी और जोक’ रजुआ नामक एक भिखमंगे व्यक्ति की कहानी
है। जिसे लेखक ने मुहल्ले में आते-जाते एवम् लोगों के घर चक्कर लगाते देखा था। एक
दिन अचानक शिवनाथ बाबू के घर के लोग रजुआ को बुरी तरह से पीट रहे थे। लेखक ने जब
इसका कारण जानना चाहा तो उन्हें पता चला कि रजुआ पर साड़ी चुराने का आरोप है। पर
बाद में पता चलता है कि साड़ी घर पर ही है। लेकिन रजुआ को उस गलती की सजा मिल चुकी
थी, जो उसने कभी की ही
नहीं थी।
परिणाम स्वरूप अब
मुहल्ले वाले उसके प्रति सहानुभूति रखने लगे और बचा हुआ या जूठा खाना उसे खाने को
दे देते। वह सबके दरवाजे पर जाता था, लेकिन शिवनाथ बाबू के यहाँ जाने की उसकी हिम्मत ना होती। पर एक
दिन शिवनाथ बाबू ने ही उसे बुलाकर घर पर रहने की हिदायत दे दी। अब वह शिवनाथ बाबू
के यहाँ स्थायी रूप से रहने लगा। यहीं पर उसका नाम ‘गोपाल’ की जगह ‘रजुआ’ रखा गया। क्योंकि गोपाल सिंह शिवनाथ
बाबू के दादा का नाम था।
लेकिन मुहल्ले के
सभी लोग रजुआ पर अपना बराबर का हक समझते। वह पूरे मुहल्ले का नौकर बन गया था। अब
रजुआ भी थोड़ा ढीठ हो गया था। मुहल्ले की औरतों से हँसी-मजाक भी करने लगा था। इसी
कारण मुहल्ले के लोग उसे ‘रजुआ
साला’ कहने लगे थे। शहर की
एक पगली औरत के चक्कर में पड़ने के बाद उसे काफी मार पड़ी। ‘बरन की बहू’ ने उसके दस रूपये नहीं लौटाये तो वह भगत
बन गया।
इधर उसे हैजा फिर
खुजली की बिमारी भी हो गई। अब वह किसी के काम का नहीं रह गया था। अब कोई उसे अपने
दरवाजे पर खड़ा नहीं रहने देता था। इसी बीच एक लड़का लेखक को सूचना देता है कि रजुआ
मर गया। अतः वह एक पोस्टकार्ड पर रजुआ के घर यह सूचना लिख दे। पर दो-चार दिन बाद
रजुआ लेखक के समक्ष एक और पोस्टकार्ड लेकर आता है और लेखक से अपने गाँव यह संदेश
लिखने को कहता है कि, ‘‘गोपाल
जिंदा है।’’
लेखक ऐसा ही करते
हैं। पर यह समझ नहीं पाते हैं कि जिंदगी से जोंक की तरह वह लिपटा है या फिर खुद
जिंदगी। वह जिंदगी का खून चूस रहा था या जिंदगी उसका? अपनी जिजीविषा के कारण ही रजुआ जैसे
उपेक्षित पात्र नई कहानी में ‘मुख्य
पात्र’ के रूप में सामने
आये।
अमरकांत की इस
कहानी के संदर्भ में राजेंद्र यादव ने लिखा है कि, ‘‘अमरकांत का शायद ही कोई पात्र अपनी
नियति या स्थिति को बदलने की बात सोचता या करता हो। जहाँ-जहाँ ऐसा है वहाँ उठे
उबाल की तरह फौरन ही ठण्डा हो गया है। मैं आज तक तँय नहीं कर पाया कि ‘जिंदगी और जोंक’ जीवन के प्रति आस्था की कहानी है या
जुगुप्सा, आस्थाहीनता और
डिसगस्ट की।’’7
दरअसल अमरकांत की आस्था किसी के प्रति है तो बस जिंदगी को उसकी समग्रता में
चित्रित करने के संदर्भ में ही है। ‘रजुआ’ एक
निम्नमध्यवर्गीय पात्र है जो आर्थिक विपन्नता के कारण पशुओं की तरह जीवन जीने के
लिए अभिशप्त है। समाज की आत्मकेन्द्रियता और सार्थकता के बीच ‘रजुआ’ जैसे लोगों के लिए सहानुभूति भी स्वार्थ
से ही संबद्ध है। रजुआ की आस्था जीवन के प्रति है फिर वह जीवन भले ही जोंक की
भाँति उसका दोहन ही क्यों न करते हुए दिखायी पड़े। यह कहानी अर्थ केन्द्रित हो रही
समाज की संवेदन हीनता और स्वार्थपरकता के बीच अभाव ग्रस्त जीवन के जीवित रहने की ‘ट्रेजडी’ को बड़ी मार्मिकता से प्रस्तुत करती है।
अमरकांत की यह
कहानी भी बहुत प्रसिद्ध हुई। आर्थिक अभाव के कारण कोई व्यक्ति कितना टूटता है इसे ‘जिंदगी और जोंक’ के ‘रजुआ’ के माध्यम से समझा जा सकता है।
5) डिप्टी कलक्टरी
‘डिप्टी कलक्टरी’ अमरकांत की प्रमुख कहानियों में से एक
है। अमरकांत स्वयं इस कहानी के बारे में कहते हैं कि, ‘‘ये भी हमारे परिवार की थी। भाई लॉ करके
बलिया आ गये थे। बलिया जैसे छोटे शहर में रहकर उनका बिन सुविधा, अपने बूते आई.ए.एस. में बैठना। सिम्पिली
सिटी के मास्टर थे वे। जटिल से जटिल चीजों को सिम्पिलीफाई कर देना ये चीज हमने
उनसे सीखी। कुछ विषयों में टॉपर! लिखित में नम्बर अच्छे आते, पर इन्टरव्यू.......! इंन्टरव्यू का जब
कॉल आता था तो जैसे ताजी हवा का आना, स्वप्न, आषा
का वह उत्साह, पिता
की आषाएँ, प्रतीक्षा.... आप ‘डिप्टी कलक्टरी’ में देख सकते हैं। उसकी आलोचना में कहा
भी गया है - एक आषा भरी प्रतीक्षा।’’8
अमरकांत की बातों
से साफ है कि यह कहानी उन्होंने अपने पारिवारिक परिवेष पर ही लिखी है। शकलदीप बाबू
और जमुना देवी अपने बड़े लड़के ‘नारायण’
से काफी उम्मीदे लगाये रहते हैं। नारायण
डिप्टी कलक्टरी के इम्तहान में बैठना चाहता है। फीस भरनी है। लेकिन शकलदीप बाबू
गुस्सा करते हैं कि यह लड़का (नारायण) अगर कुछ बनने लायक होता तो अब तक बन गया
होता। पर मन ही मन उनके अंदर भी यह उम्मीद थी कि उनका लड़का कलेक्टर बन सकता है।
अतः वे न केवल फीस
के पैसे देते हैं बल्कि इस बात का पूरा खयाल भी रखते थे कि उनके बेटे को किसी तरह
की कोई परेशानी न हो। नारायण परीक्षा में पास भी हुए, लेकिन इन्टरव्यू अभी बाकी था। परिवार के
सभी लोगों की आशाएँ बढ़ गयी हैं। और इसी आशा भरी प्रतीक्षा के साथ कहानी समाप्त हो
जाती है।
6) लड़की की शादी
‘लड़की की शादी’ कहानी में एक बाप की चिंता और लड़की का
विवाह संपन्न कराने हेतु किये जानेवाले सही-गलत प्रयासों का मार्मिक चित्रण है।
बड़े-बड़े घरों में
अपनी लड़की का रिश्ता ना करवा पाने पर अचानक चिंतित पिता का ध्यान कृष्णमोहन नामक
युवक पर जाता है। वे कृष्णमोहन से मिलते हैं और उसकी नौकरी लगवाने में अहम् भूमिका
निभाते हैं। इन सब के बाद वे बड़ी ही चालाकी से अपनी लड़की की शादी कृष्णमोहन से
करवा देते हैं।
इस तरह वे बेटी की
शादी करवा कर चिंता मुक्त होते हैं। उन्हें यह विश्वास भी है कि कृष्णमोहन जिन्दगी
भर उनकी बेटी का आज्ञाकारी पति बना रहेगा।
7) लड़की और आदर्श
‘लड़की और आदर्श’ अमरकांत की बहुत चर्चित तो नहीं परंतु
अच्छी कहानी है। कहानी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले नरेन्द्र की है। जिन्हें कमला
नामक विश्वविद्यालय की छात्रा से प्यार हो जाता है। लेकिन कमला एक नेपाली छात्र को
प्यार करती थी। अतः नरेन्द्र विश्वविद्यालय यूनियन के पदाधिकारी श्याम से मदद
माँगने पहुँचते हैं।
नरेन्द्र खुद
शर्मीले स्वभाव के थे। श्याम ने कई बार उन्हें प्रोत्साहित किया कि वे कमला से बात
करें। पर नरेन्द्र कभी इतनी हिम्मत जुटा ही नहीं पाये। बड़ी-बड़ी बातें करते पर जब
कुछ करने का समय आता तो वे पीछे हट जाते। इसी तरह पूरा साल बीत जाता है पर
नरेन्द्र कभी भी कमला से आमने-सामने बात नहीं कर पाये। अंत में इम्तहान खत्म होते
हैं और छुट्टियाँ लग जाती हैं।
छुट्टियों के बाद
जब श्याम नरेन्द्र से मिलकर कमला की बात छेड़ते हैं तो नरेन्द्र बेरूखी से उसकी
बुराई करते हैं। इस तरह प्रेम में असफल होने पर वे आदर्श की चादर ओढ़कर अपने यथार्थ
से मुँह चुराते हैं।
8) मूस
अमरकांत द्वारा
1960 के दशक में लिखी गई कहानियों में ‘मूस’ एक
प्रमुख कहानी है। ‘मूस’
एक निम्नवर्गीय समाज का पात्र है,
जो गाँव से बाहर अपनी पत्नी परबतिया और
बच्ची जिलेबिया के साथ रहता था। जीवन अभावों से भरा हुआ था। वह आस- पास के घरों
में पानी भरने का काम करके किसी तरह अपनी गुजर-बसर करता था। परबतिया घरों में
बर्तन माँजने का काम करती। पर वह झगड़ालू प्रवृत्ति की थी। मूस को भी ‘दो बित्ते का मर्द’ कहकर अपनी उच्चता और प्रभुत्व की पुष्टि
करती रहती।
इधर मूस की लड़की
का गवना हुआ और शहर में बिजली पानी की व्यवस्था हो जाने से मूस अब बेकार हो गया।
घर-घर नल लग गये थे। अतः मूस इधर-उधर के दूसरे काम करने लगा।
़ इधर परबतिया अपने
नैहर गई तो लल्लू गोंड की लुगाई मुनरी को अपने साथ ले आयी। वह बहुत दुखी थी। उसके
आदमी ने दूसरी औरत रख ली थी। परबतिया ने मूस और मुनरी की शादी करा दी। वह जानती थी
कि मूस सीधा-सादा है। और अब बूढ़ापे में वह काम भी नहीं कर सकता। परबतिया का स्वभाव
ऐसा नहीं था कि वह कहीं काम पर ज्यादा दिन टिकती। मुनरी जवान थी। उसका कोई और
सहारा भी नहीं था। वह दस-बारह घरों का काम करने लगी जिससे मूस और परबतिया के दिन भी
आराम से कटने लगे।
लेकिन कुछ ही समय
बाद मुनरी चौराहे पर फुलौड़ी बेचनेवाले बिसुन के साथ चली गयी। मूस ने उसे वापस लाने
के लिए बिसुन से लड़ाई भी की, पर
कोई फायदा नहीं हुआ। अब मूस और परबतिया पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा। आर्थिक तंगी
में जीवन यापन करना कठिन हो गया। इसी बीच मूस बिमार पड़ा और मु़सीबत बढ़ गयी।
एक दिन अचानक मूस
देखता है कि उसके घर मुनरी आयी है। वह परबतिया को मूस के इलाज के लिए पैसे और कुछ
अनाज देती है। साथ ही साथ यह कहकर चली जाती है कि जब भी उन्हें किसी चीज की जरूरत
हो वे उसे जरूर बता दे।
अमरकांत की यह
कहानी घोर यथार्थवादी धरातल पर रची गयी हैं। ‘मूस’ की आर्थिक विपन्नता से उसका पूऱा परिवार
प्रभावित होता है। न केवल परिवार अपितु़ पारिवारिक संबंध भी। उसकी पत्नी परबतियाँ
अभाव ग्रस्त जीवन में केवल ‘अर्थ’
को प्रमुख़ मानती है। अतः वह अपने ही पति
के लिए नई जवान स्त्री ‘मु़नरी’
को घर में लाती है और मस से उसका विवाह
भी संपन्न करा देती है। पति के साथ अपने रागात्मक संबंधों को वह महत्वपूर्ण नहीं
मानती, क्योंकि अभावपूर्ण
जीवन की चिलचिलाती धप में प्रेम का भाव बहु़त पहले ही झु़लस चु़का था। शारीरिक
वासनाओं की तृप्ति में मस के अतिरिक्त विकल्प उसे ‘चरित्रहीनता’ के दम पर मिल गये थे। मु़नरी के संबंध
में भी उसकी यह सोच थी कि भले वह कहीं भी ‘खाये-कदे’ पर
बँध कर रहे ‘मूस’
के खटे से, जिससे उसकी कमाई भी बढ़े और उस कमाई से
मूस और परबतिया का जीवन सुख़ से कटे।
9) हत्यारे
‘हत्यारे’ कहानी दो युवकों के मित्रवत बात-चीत से
शुरू होती है। दोनों अपनी आपनी हाँक रहे थे और आनंदित हो रहे थे। दिन भर वे इसी
तरह गप-शप और मस्ती करते हुए घूमते रहे।
जब शाम हुई तो वे
शराब पीने बैठ गये और जमकर शराब पी। शराब पी कर जब वे बाहर निकले तो जान-पहचान
वाली किसी वेश्या के घर पहुँच गये। उस वेश्या से शरीरिक सुख लेने के बाद जब उसे
पैसे देने की बात आयी तो वे पैसे छुट्टे कराने के बहाने बाहर निकले और जूते हाँथ
में लेकर भाग निकले।
लड़की के शोर मचाने
पर जब एक आदमी उनका पीछा करते हुए उनके करीब आ गया तो एक युवक ने चाकू निकालकर उस
व्यक्ति के पेट में घोप दिया और अँधेरे में गायब हो गये।
अमरकांत की यह
कहानी बहु़त चर्चित रही। आर्थिक तंगी से परेशान होकर ही काई स्त्री ‘वेश्या’ बनती होगी, ऐसी वेश्या का भी शोषण करनेवाले कहानी
केपात्र कितने संवेदना शून्य होंगे इसका अंदाजा लगाना मु़श्किल है।
10) देश के लोग
‘देश के लोग’ कहानी अखिल नामक युवक के विचारों के
आस-पास घूमती है। रात को रिक्शे पर से घर की तरफ आते समय उसके बगल में जो व्यक्ति
बैठा है उसे अखिल हीन भाव से देखता है। वह सहयात्री से सीधे मुँह बात तक नहीं
करता। अपने ही खयालों में डूबा रहात है। उसे बार-बार मोहन से हुई वार्तालाप याद आ
रही थी। उसे यह बात बहुत संतोष प्रदान कर रही थी कि उसने मोहन से मनवा ही लिया कि
इस देश के लोग कामचोर है। इसी कारण इस देश में न कोई अच्छा कलाकार है, न कोई अच्छा वैज्ञानिक है, न अच्छी शासन व्यवस्था है और न ही अच्छे
नागरिक हैं।
वह यह सब सोच रहा
था कि चौराहा आ गया। उसने पैसे दिये और कुछ आगे बढ़ा ही था कि उसका सहयात्री सड़क पर
गिर पड़ा। लोगों की भीड़ उसके आस-पास जमा हो गई। वह खून की कै कर रहा था। इसी बीच वह
बेहोश होकर एक तरह लुढ़क गया।
अखिल यह सब देखकर
पलभर पश्चाताप करने लगा। फिर सोचा कि अगर वह उस सहयात्री से अच्छे से बात कर भी
लेता तो इसके उसके (सहयात्री के) स्वास्थ पर क्या फरक पड़ता? मौत सबकी होती है? इसमें खास क्या है? सबकी अपनी-अपनी किस्मत है।
वह पुनः अपने
विचारों में खोता हुआ वहाँ से चला जाता है।
11) जोकर
जोकर कहानी ‘नलिन’ नामक व्यक्ति की मानसिक दशाओं का चित्रण
मात्र है। जिनके आधार पर नलिन के बारे में कोई निश्चित राय कायम नहीं की जा सकती।
शायद इसीलिए अमरकांत ने इस कहानी का शीर्षक ‘जोकर’ रखा।
नलिन भाई पहले तो
शादी के विरोधी थे, पर
अचानक उनके मित्रों को पता चलता है कि उन्होंने शादी कर ली। शादी के बाद उनके
बात-व्यवहार में मित्रों ने बड़ा परिवर्तन महसूस किया। पहली पत्नी के बिमारी और फिर
उसकी मृत्यु के बाद उनका व्यवहार पुनः बदल गया। दुबारा शादी न करने की बात वे हर
किसी से मिलने पर स्वतः करते थे। लेकिन वे दूसरी शादी कर लेते हैं। अब अधिक गंभीर
रहने लगे थे नलिन भाई।
एक दिन वे लेखक के
घर आते हैं और उनकी पत्नी तथा सुंदर साली को देखकर लेखक को बहुत भाग्यशाली कहते
हैं। परंतु दूसरे दिन से लेखक से बात ही करना छोड़ देते हैं। लेखक उनके व्यवहार को
समझ नहीं पाते है। पर नलिन भाई ऐसे ही विचित्र जीव थे। उनका व्यवहार किस बात पर
बदल जायेगा यह कोई बता नहीं पाता।
12) मछुआ
‘मछुआ’ कहानी अनिलेश नाम पात्र के आस-पास घूमती
है। वह एक सरकारी दफ्तर में काम करता था और अपनी पत्नी को हमेशा गाँव में रखता था।
उसके जीवन का दर्शन यह था कि इस संसार रूपी भवसागर में स्त्री मछली के समान है और
वह मछुआ है। उसके पड़ोस में नीरजा नामक युवती रहती थी। अनिलेश उसके रूप सौंदर्य पर
मोहित हो चुका था।
नीरजा अपनी विधवा
माँ के साथ रहती थी। नीरजा की माँ अनिलेश पर स्नेह रखती, उसे पुत्रवत प्यार करती। अनिलेश कुछ ही
दिनों में उनके घर के सदस्य जैसा हो गया था। इस तरह उसे नीरजा के नजदीक जाने का
अच्छा मौका मिल गया था। धीरे-धीरे नीरजा भी उसे चाहने लगी और उससे प्रेम की लालसा
रखने लगी।
पर अनिलेश को इस
बात से बड़ी आत्मग्लानि होती है कि वह उसी परिवार पर बुरी दृष्टि रखता है जो उस पर
इतना भरोसा करते हैं। अतः एक दिन वह नीरजा के पास जाकर उसे यह कहता है कि वह जो
सोचती है वह गलत है। उसे अपनी माँ के दुख दूर करने हैं। उस पर गंभीर जिम्मेदारियाँ
हैं। अनिलेश की बातें सुनकर नीरजा स्तबद्ध होकर क्रोध से अनिलेश को चले जाने के
लिए कहती है।
यहीं पर यह कहानी
खत्म हो जाती है। अमरकांत अनिलेश के चरित्र के माध्यम से यहाँ अधिक आदर्शवादी
दिखायी देते हैं। ‘मूस’
और ‘हत्यारे’ जैसी कहानियों में यथार्थ का जो सशक्त
भाव बोध दिखायी पड़ता है वह यहाँ नजर नहीं आता।
2) अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 2
अमरकांत की
संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 2 में ‘1960
का दशक’, ‘1980 का दशक’ और ‘1990 का दशक’ के शीर्षक से तीन दशकों में लिखी कुल 43
कहानियाँ संग्रहित की गयी हैं। इस खण्ड के प्रारंभ में ‘आप क्यों लिखते हैं?’ नाम से अमरकांत का एक लेख भी है। इस लेख
के माध्यम से वे इस प्रश्न का खुद से जवाब माँगते से नजर आते हैं कि आखिर वे लिखते
क्यों है? इस प्रश्न के उत्तर
में तरह-तरह के विचार उनके मन में आते हैं। अंत में वे इसी नतीजे पर पहुँचते हैं
कि, ‘‘समय परिवर्तनशील है।
वह अपने अंदर अनेक विरोधाभासों, अंतर्द्वंद्वों,
संघर्षो और संभावनाओं को लिए आगे बढ़ रहा
है। जो रचनाकार इस समय की प्रगतिशील सच्चाई को पहचानता है, वही उसे शब्दों में उतार सकता है,
जिससे उसकी कृतियाँ उस समय की पहचान बन
जाती हैं। यह काम बहुत कठिन है, शायद
उतना ही कठिन, जितना
तलवार की धार पर चलना।’’9
अमरकांत इस तलवार
की धार पर चलने का साहस रखते हैैं। यह उनकी कहानियों से स्पष्ट है। 1960 से 1990
तक के समय में उनके द्वारा लिखी गई कुछ कहानियों का हम यहाँ संक्षिप्त परिचय
प्राप्त करेंगे।
1) मौत का नगर
‘मौत का नगर’ सांप्रदायिक दंगों में जलते हुए एक शहर
की कहानी है। राम इसी शहर में रहता है। कर्फ्यू की वजह से वह कई दिनों से घर में
ही था। बाहर हालात भी इस तरह के नहीं थे कि कोई अपने घर से निकलने की हिम्मत करे।
लेकिन बिना कुछ कमाये घर नहीं चलाया जा सकता था। जान का डर तो था पर अपनों को भूखा
भी तो नहीं रखा जा सकता था। अतः राम जिस दुकान पर काम करता था वहाँ जाने के लिए घर
से बाहर निकलता है।
पूरे शहर का माहौल
उसे बदला-बदला नजर आ रहा था। सड़कंे सुनसान थी। कुछ लोगों को साथ लेकर वह अपनी
दुकान की तरफ बढ़ता जा रहा था। हर आदमी एक दूसरे को आशंका भरी दृष्टि से देख रहा
था। राम की हालत तब और खराब हो जाती है जब वह यह देखता है कि वह जिस रिक्शे में
बैठा है उसमें पहले से ही एक व्यक्ति है और वह एक मुसलमान है। राम डर जाता है,
पर वह यह देखकर संतुष्ट होता है कि
दूसरा व्यक्ति भी डरा हुआ है।
राम किसी तरह अपनी
तँय जगह पहुँच जाता है। पर यह सोचकर उसे वापस डर लगने लगता है कि उसे शाम को लौटना
भी है।
2) कलाप्रेमी
‘कलाप्रेमी’ कहानी सुमेर और सुबोध नामक दो पात्रों
के आपसी संवाद के आस-पास घूमती है। दोनों ही कलाकार हैं। सुमेर कुछ अधिक ‘प्रेक्टिकल’ है। वह अवसर का लाभ उठाने में विश्वास
रखता है। जब कि सुबोध अवसर विहीन स्थितियों में गुस्से से भरा हुआ था। लोगों के
व्यवहार का दोहरापन उसे सालता था। सुमेर जब उससे मिलने उसके घर आता है तो वह बड़े
नाटकीय ढंग से अपने मन की सारी बात बता देता है। सुमेर को उसकी बातें अच्छी नहीं
लगती। वह यह सोचता है कि जब सारी दुनियाँ अवसरवादी बनी हुई है तो आदर्शो की बातें
करनेवाला एक कमजोर व्यक्ति ही माना जायेगा।
सुमेर मिसेज रंजन
की मदद से प्रादेशिक कला संघ का सदस्य बन गया था। वह पहली मीटिंग में भाग लेने आया
था। पूरी प्रक्रिया उबाऊ और हंगामे भरी थी। जो प्रस्ताव पास होनेवाले थे वे पास ना
हो सके। मीटिंग में आकर सुमेर ने कुछ नए दोस्त बनाये। कई लोगों से उसे लुभावने
आस्वाशन दिये। इन सभी के बीच वह वापस ट्रेन पकड़कर घर की तरफ लौट पड़ा। उसे यह समझ आ
गया था कि वह दुनियाँ के साथ चल रहा है।
3) मुलाकात
‘मुलाकात’ कहानी में अमरकांत ने कुसुमाकर नामक
साहित्यकार के माध्यम से लेखकों - साहित्यकारों की दयनीय स्थिति और इसका उनके
व्यवहार पर होनेवाले प्रभाव का सक्ष्म चित्रण प्रस्तुत किया है।
साहित्यकार
कुसुमाकर से मिलने प्रथमेश सिन्हा उनके घर जाते हैं। बातों ही बातों में वे
कुसुमाकर को यह बताते हैं कि उन्होेंने अपने कॉलेज के फंक्शन में ‘मिरजई’ नामक कहानी पर नाटक रखवाया था। ‘मिरजई’ कुसुमाकर की लिखी कहानी थी।
यह सुनकर कुसुमाकर
पहले यह पता लगाने का प्रयत्न करते हैं कि उस नाटक के लिए टिकट कितने का रखा गया
था। फिर वे प्रथमेश से रायल्टी की बात करते हैं। जब अपनी असमर्थता प्रथमेश उन लेखक
महोदय के सामने रखते हैं तो वे दो-पाँच रूपये पर आ जाते हैं। वे कहते हैं कि
रायल्टी लेना उनका अधिकार है और वे इसी सिद्धांत पर कायम रहना चाहते हैं। फिर भले
ही उन्हें एक ही रूपया क्यों न मिले।
लेखक की इस तरह की
बातें सुनकर प्रथमेश संकोच करते हुए भी दस रूपये निकालकर लेखक को देते हैं और जाने
के लिए अनुमति मांगने लगते हैं। लेखक लापरवाही से नोट जेब के हवाले करते हैं और
प्रथमेश को याद दिलाते हैं कि उनकी किताबों के लिए कोई आर्डर हो सके तो वे प्रयास
करें।
यहीं पर कहानी
समाप्त हो जाती है। लेखक का इतना असहज व्यवहार जीवन यापन की कठिन सच्चाई और लेखकों
की हालत को हमारे सामने प्रस्तुत कर देती है।
4) मकान
‘मकान’ कहानी मनोहर नामक व्यक्ति की नये मकान
को लेने की परेशानी के साथ शुरू होती है। वह शहर के एक पुराने मकान में कई सालों
से रह रहा था। पर आर्थिक परेशानियों के चलते अब उसे और उसकी पत्नी को यह लगने लगा
था कि इस मकान में ही कोई दोष है। अतः उन्हें किराये पर ही कोई दूसरा मकान ले लेना
चाहिए। दूसरे मकानों का किराया उसके बजट में नहीं है अतः वह नया मकान दिलवाने में
लेखक की मदद चाहता है।
वह यह भी लेखक को
बताता है कि वह एक ज्योतिषी से मिला है और उन्होंने भी भूत-प्रेत के साये की बात
कहकर मकान बदलने की ही सलाह दी है। लेखक मनोहर को आस्वाशन देकर वापस भेज देते हैं।
पर वे खुद नहीं समझ पाते कि इस बारे में वे क्या करें?
परेशानियों के बीच
उनसे निकलने के लिए व्यक्ति हर तरह का प्रयास करता है। ऐसे विचार संगत-असंगत या
वैज्ञानिक-अवैज्ञानिक हों ये बातें महत्वपूर्ण नहीं रह जाती हैं। महत्वपूर्ण विर्फ
एक बात दिखायी पड़ती है, वह
यह कि संबंधित परेशानी का शीग्र ही हल निकले।
5) हंगामा
‘हंगामा’ लीला का वह नाम था जो मोहल्ले वालों ने
उसे दिया था। लीला मोहल्ले के घरों में जाकर कुछ न कुछ माँगने के लिए बदनाम हो गयी
थी। इसलिए लोगों ने उनका नाम ही ‘हंगामा’
रख दिया था।
लीला की उम्र
चालीस की थी। उनके जीवन का सबसे बड़ा अभाव यहीं था कि उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी।
डॉक्टरों ने भी उन्हें निराश ही किया। लीली जी की अजीब मानसिक स्थिति थी। वे सब के
यहाँ जाती। किसी के घर कोई नयी या अच्छी बात होती तो वे उससे नाराज हो जाती। कई
दिनों तक उनसे बात ही न करती। पर कुछ ही दिनों में सब भूल कर फिर आना-जाना शुरू कर
देती।
इधर बच्चे न होने
से वो बहुत चुपचाप सी रहती थीं। इसी बीच उनके घर के बाहर एक कुतिया ने कुछ बच्चे
दिये। लीला अब उनकी सुरक्षा में ही लगी रहती। क्या मजाल था कि कोई उन्हें छू भी
दे। लीला मामूली सी बात पर ‘हंगामा’
खड़ा कर देती। ‘एब्सर्ड’ मनःस्थिति के बीच लीला का व्यवहार कहीं
न कहीं उनके जीवन के सबसे बड़े अभाव (बच्चे ना होना) के कारण ही था।
6) कुहासा
‘कुहासा’ 1980 के दशक में लिखी गयी अमरकांत की
प्रमुख कहानियों में से एक है। इस कहानी में उन्होंने झींगुर नामक 17 वर्ष के
बच्चे के जीवन संघर्ष को चित्रित किया है। एक ऐसा संघर्ष जो झींगुर की मृत्यु के
साथ ही समाप्त होता है।
झींगुर का पिता घर
की दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण बेटे को घर से शहर भगा देता है। शहर आकर झींगुर
रोजही पर मेहनत करने लगता है। पर जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी उसे सिर्फ दो वक्त
खाने भर का ही पैसा मिल पाता। कभी- कभी तो वह भी नसीब न होता। ऐसे में उसे पानी पी
कर ही गुजारा करना पड़ता।
ठंडी के दिनों में
सरकार की तरफ से उसे एक कंबल मिला था। पर एक दलाल 25 रूपये देकर वह भी ले लेता है।
पैसों से वह दो वक्त भरपेट खाना खाता है। पर ठंडी बहुत बढ़ गयी थी। सर्द रात में
उसके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं था। पहनने-बिछाने के कपड़े नहीं थे। वह ठंड की एक
रात में सर घुटनों में डाले बैठा हुआ था। रात को वह एक तरफ लुढ़क गया। सुबह जब
जमादार आया तो उसने उसे मरा हुआ पाया। उसकी लाश लावारिश पायी गयी थी। कुछ देर बाद
उसे पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया गया। सरकार के लिए यह पता लगाना बहुत जरूरी था कि
झींगुर की मौत स्वाभाविक थी या किसी ने उसको जहर-वहर तो नहीं दिया।
उसकी मृत्यु पर
कुहासे की चादर थी। कुहासा व्यवस्था, गरीबी और ठंड का? अब इनमें से मृत्यु का जिम्मेदार किसे माना जा सकता था?
अमरकांत पाठक के लिए यह प्रश्न छोड़ देते
हैं।
7) पहलवानी
‘पहलवानी’ कहानी ऐसे लोगों को केन्द्र में रखकर
लिखी गयी है जो यह नहीं समझ पाते कि वे कितने महान हैं? अपने आगे उन्हें सभी फीके लगते हैं। पर
यथार्थ की जमीन पर बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उन्हें झुकना ही पड़ता है।
पर इस हेतु भी वो अपनी गौरवगाथा को खुद बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं और बदले में सामने
वाले से कुछ हथियाने को ही अपनी पहलवानी की जीत मानते हैं।
लेखक के घर ऐसे ही
एक व्यक्ति आ पहुँचते हैं। वे अपने आप को बहुत बड़ा साहित्यकार और लेखक के भाई का
मित्र बताते हैं। वे सभी साहित्यकारों को जानते हैं। 150 से अधिक उपन्यास लिख चुके
हैं। सरकारी नौकरी को तुच्छ मानते हैं। बड़े-बड़े अधिकारी तो उनसे अनुरोध करते हैं
पर वे किसी से भी मिलने नहीं जाते। बड़े भाई का काफी इंतजार करने बाद जब वे नहीं
आते तो लेखक महोदय आने का आशय स्पष्ट करते हुए 50 रूपये उधार माँगते हैं जिसे लेखक
देकर उन्हें बिदा करते हैं।
8) लोक परलोक
‘लोक परलोक’ कहानी के केन्द्र में व्यक्ति का अपना
स्वार्थ और इस स्वार्थ सिद्धी के लिए दूसरों का शोषण करने की बात है। कहानी का शोष
पात्र इसके लिए कुछ आदर्शवादी तर्क भी सामने प्रस्तुत कर देता है।
लेखक के घर एक दिन
उनके पुराने मित्र दिनेश किसी साथी के साथ पहुँचे। बात-चीत में पता चला कि वे
पिछले कई सालों से चुनाव लड़ते और हारते आये हैं। पर देश और जाति के कल्याण के लिए
अभी भविष्य में चुनाव जीतने की इच्छा बरकरार है।
अपने इस महान
उद्देश्य के लिए वे ‘अकबर’
नामक अपने नौकर को बहला फुसलाकर ‘बालचन्द आर्य’ बना देते हैं। वे अपने देश और जाति का
गौरव इसी तरह बढ़ाने में विश्वास रखते हैं। यही उनके जीवन का सिद्धांत भी है।
बालचन्द्र आर्य बाद में अधिक तनख्वाह न मिलने के कारण उनके यहाँ से काम छोड़ देता
है। उसे दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। पर जब उसकी मृत्यु हो जाती है तो यही महोदय
पूरे विधि विधान से उसकी अंत्येष्टी करवा देते हैं। इस तरह वे उसके लोक और परलोक
दोनों को सँवारने की बात करते हैं।
अंत में चलते समय
आने वाले चुनाव में लेखक से अनुरोध करते हैं कि वे देश व जाति की भलाई के लिए
उन्हें चु़नाव में जितायें।
9) चाँद
‘चाँद’ कहानी उस व्यक्ति की तरक्की की कहानी है
जो इस अवसरवादी समाज में चापलूसी, झूठ
और संबंधों को सीढ़ी के रूप में इस्तमाल करता है। और उसे एकाएक इस बात का आश्चर्य
भी होता है कि वह एक साधारण व्यक्ति से शहर का महŸवपूर्ण व्यक्ति कैसे बन जाता है?
इसी सवाल का जवाब
जानने के लिए वह अपने मित्र प्रमोद से मिलता है। प्रमोद बातों ही बातों में उसे ‘चाँद’ कहता है तो वह इसका अभिप्राय समझ नहीं
पाता। इस पर प्रमोद उसे समझाता है कि अब शहर के बड़े-बड़े लोगों के साथ उसका उठना
बैठना है। अफसरों की बीबियों की वह चापलूसी करता है। प्रमोद इसे बुरा नहीं मानता
पर उसके अनुसार यह साहित्य का रास्ता नहीं था। प्रमोद फिर कहता है कि साधारण लोग
प्रभावशाली लोगों के दफ्तरों के छोटे-छोटे कर्मचारी हैं। तुम उनके मालिकों के साथ
घूमते फिरते हो इसलिए ये तुम्हें भी बड़ा आदमी समझते हैं और तुम्हारा सम्मान करते
हैं। उनके लिए तुम चाँद ही हो गए हो।
प्रमोद की बातें
सुनकर उनके मित्र गुस्से से फूल जाते हैं और सभी बातों को झूठा कहकर शांत हो जाते
हैं।
10) एक धनी व्यक्ति का बयान
‘एक धनी व्यक्ति का बयान’ विमल नामक एक युवक के जीवन संघर्ष की
कहानी है। जिसकी बुद्धि धैर्य, प्यार
व समझदारी से पोषित है। वह परिणाम की परवाह किए बिना अपने काम में लगा रहता है,
इसीलिए वह जीवन में सफल भी होता है।
विमल ने जैसे ही
इंटर पास किया, तो
उसके पिताजी ने उसकी जिम्मेदारी उठाने से मना कर दिया। उसे मजबूरी में शहर आकर
रहना पड़ा। शहर में वह एक-दो ट्याूशन करने लगा था। जो पैसे मिलते उनसे किसी तरह दो
वक्त का खर्चा निकल पाता था।
इसी बीच शहर के एक
बूढ़े उपेक्षित रईस से विमल का मेल जोल बढ़ता है। विमल चोरी-छुपे उन्हें सिगरेट के
पैकेट लाकर दे देता था। वे सज्जन रईस तो थे पर पारिवारिक उपेक्षा के शिकार थे।
उन्हें जब विमल ने अपनी परेशानी बतायी तो उन्होंने विमल की सिफारिश कर के ज्यूनियर
क्लर्क की नौकरी दिला दी।
लेकिन ऑफिस के लोग
भी विमल को परेशान किया करते थे। फिर विमल ने रामदत्त सिंह से जान-पहचान बनायी,
जो कि कार्यालय परिषद के महामंत्री भी
थे। इससे धीरे-धीरे विमल का ऑफिस में काम करना सहज हो गया। रामदत्त जी ने विमल के
नाम से गेहूँ की बोरियों पर ‘फटका’
लगाते रहे। और लाभ स्वरूप विमल बीस हजार
के मालिक बन गए थे। जब विमल को यह पता चला तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
क्योंकि उसे इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। इस तरह विमल अपने धैर्य, प्रेम व समझदारी से धनी बनता है।
11) बीच की जमीन
‘बीच की जमीन’ सांप्रदायिक दंगों की त्रासदी को
रेखांकित करने वाली कहानी है। यहाँ बीच की जमीन से तात्पर्य हमारे अपने भारत देश
से है। लेखक के अनुसार ‘‘हमारे
देश की कल्पना सदा एक ऐसी बीच की जमीन के रूप में की जाती रही है, जिसमें विभिन्न वर्ग और समुदाय के लोग
सम्मानपूर्वक मिल-जुलकर रहें। हमारे इतिहास में, हमरी संस्कृति में और हमारे वर्तमान
हिन्दुस्तान में वह बीच की जमीन अब भी बची है।’’10
कहानी की शुरूआत
दंगों के बाद शहर के हालात पे विस्तार से चर्चा के साथ होती है। शांति प्रयासों के
लिए सभाएँ व जुलूस निकाले जा रहे थे। कुछ लोग इन प्रयासों से खुश थे तो कुछ लोग
नाराज हो रहे थे। इन्हीं प्रयासों के चलते मोहल्ले के नौजवान एडवोकेट श्री नईम के
घर पर सभा बुलायी गयी।
इस सभा में ही वे
अपने भाषण में अपने कुछ अनुभव बताते हैं। वे दंगों के दौरान एक बूढ़े व्यक्ति से
मिले थे जिसने कई दिनों से कुछ खाया नहीं था। उसकी जावन बेटी बिमार थी। उसकी मदद
करते हुए उन्होंने कभी भी यह नहीं जानना चाहा कि उसकी जाति क्या है? हाँ, वह था ‘बीच की जमीन’ का ही।
12) मनोबल
‘मनोबल’ कहानी के माध्यम से अमरकांत ने समाज के
सुविधासंपन्न लोगों के मनोविज्ञान का सुंदर चित्रण प्रस्तुत करते हुए समाज के
अभावग्रस्त लोगों द्वारा कुछ भी कर जाने की मजबूरी को दिखलाते हैं।
ट्रेन यार्ड से जब
प्लेटफार्म पर आती है तो सब यात्री उसमें सवार होने लगते हैं। किंतु एसी सेकण्ड
क्लास का एक डिब्बा बंद रहता है। इस डिब्बे के यात्री खूब शोर मचाते हैं, पर अंत में दरवाजे को तोड़ने का निर्णय
लिया जाता है। लेकिन दो- चार प्रहार के बाद ही वह दरवाजा अपने आप अंदर से ही खुल
जाता है। दरवाजा खुलने पर किसी की हिम्मत नहीं होती कि वह अंदर जाकर देखे कि कौन
है? हिम्मत करके एक
पुलिसवाला अंदर जाता है। उसे गठरीनुमा एक चीज दिखायी पड़ती है। सबको आशंका होती है
कि उसमें विस्फोटक है। उसे खोलकर देखने की हिम्मत किसी की नहीं होती।
अतः इस समस्या को
हल करने के लिए पुलिसवाला एक गरीब भिखारी लड़के को लालच देकर बुला लाता है। वह उसे
गठरी लाने को कहता हैं। लड़का आराम से डिब्बे में घुस जाता है और गठरी को बाहर लेकर
चला आता है। पुलिसवाले के कहने पर वह उसे खोल भी देता है। उस गठरी में सत्तू,
प्याज, मिर्च और पुड़िया नमक रहता है। गठरी खुल
जाने पर सब इत्मिनान की साँस लेते हैं।
उस गरीब लड़के को
वही गठरी ईनाम के तौर पर दे दी जाती है। यात्रियों में एक नेता जी भी रहते हैं। वे
पुलिसवाले की प्रशंसा करते हैं और उन्हें मिलने की लिए वक्त देते हैं। सारे यात्री
डिब्बे में बैठ जाते हैं और ट्रेन धीरे-धीरे प्लेटफार्म छोड़ने लगती है।
3) जाँच और बच्चे
‘जाँच और बच्चे’ अमरकांत का नवीनत कहानी संग्रह। इसका
प्रथम संस्करण 2005 में अमर कृतित्व प्रकाशन की तरफ से प्रकाशित हुआ। 93 पृष्ठों
की इस पुस्तक में कुल 11 कहानियाँ संग्रहित की गयी हैं। इन्हीं में से कुछ
कहानियों की हम संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करेंगे।
1) एक निर्णायक पत्र
‘एक निर्णायक पत्र’ कुमार विनय नाम आदर्शवादी मास्टर के
प्रेम भावनाओं के आस-पास बुनी हुई कहानी है। व्यवस्था के भ्रष्टाचार को चुनौती
देने के लिए नौकरी न करते हुए स्वावलम्बन का मार्ग अपनाना और अनिश्चित एवम्
अव्यवस्थित जीवन के कारण नारी से दूर रहना; यही उसका दृढ़ निश्चय था।
लेकिन ‘नीति’ को ट्याूशन पढ़ाते हुए और बाद में उसके
प्री-मेडिकल परीक्षा में सफल हो जाने के बाद विनय का नारी से दूर रहने का दृढ़
निश्चय टूट गया। ‘नीति’
भी उनके प्रेम को स्वीकार कर लेती है।
पर जल्द ही वह पढ़ाई करने लखनऊ चली जाती है और कतिपय कारणों से विनय को पत्र लिखना
भूल जाती है।
उसके इस व्यवहार
से विनय के मन में कई प्रश्न उठते हैं। उसे लगता है कि नीति उसके उपकार को भूल
गयी। वह उसके प्रेम को भी भुलाकर शहर में मजे कर रही है। अंततः परेशान होकर विनय
लखनऊ आता है और एक होटल में रूककर ‘नीति’
से मिलने का प्रयत्न करता है।
नीति से मिलने पर
वह उसे अपने साथ होटल लाता है। बातों ही बातों में वह नीति को फटकारते हुए उसे चोट
पहुँचाने वाली कई बातें कहता है। वह उसकी इज्जत-आबरू चौपट करने के इरादे से उसे
पूरी तरह निर्वस्त्र कर देता है। नीति रोती जाती है और अपनी इज्जत-आबरू, प्राण सब कुछ सहर्ष गुरू-दक्षिणा के रूप
में विनय को देने की बात करती है। इससे विनय शर्मिन्दा होता है। उसे लेकर वह कॉलेज
जाता है। वह नीति को जो हुआ वह सब भूलने और बाद में पत्र लिखने का वादा करके वहाँ
से लौट आता है।
कई दिनों के
इंतजार के बाद नीति को विनय का एक पत्र मिलता है। उस पत्र में नीति की तारीफ के
साथ उसके शरीर की भी तारीफ लिखी थी। वह पत्र पढ़कर नीति चुपचाप खड़ी हो जाती है।
पत्र उसके हाँथों से छूटकर रद्दी की टोकरी में जा गिरता है।
अमरकांत की यह
कहानी यहीं पर खत्म हो जाती है। पर पाठक के मन में यह सवाल बना रह जाता है कि उस
पत्र के आधार पर नीति क्या निर्णय ले?
2) हार
‘हार’ कहानी आदर्श और व्यवहार के बीच फँसे
वकील बृजबिहारी बाबू की कहानी है। अंकिता उनकी पाँचवी लड़की है, जिसकी शादी की चिंता अब हमेशा उन्हें
सताती रहती है। यही सब कारण है कि वे हमेशा चिढे-चिढे रहते। हर किसी से छोटी सी
बात पर बहस करने के लिए तैयार हो जाते।
बार रूम में
सरकारी वकील निर्मल बाबू से अक्सर ही उनकी गरम-गरम बहस होती रहती। वे प्रायः हर
मुद्दे की बहस में निर्मल बाबू को परास्तर कर देते। एक दिन ऐसे ही बहस के दौरान
दहेज की बात को लेकर दोनों में बहस होने लगी। निर्मल बाबू ने कहा कि इस प्रथा का
कड़ाई से उन्मूलन करना चाहिए। इस पर बृजबिहारी बाबू ने उनकी बातों को पाखण्ड भरा
बताते हुए कहते है कि यही निर्मल बाबू अपने लड़के की शादी में चुपके से लाखों रूपये
दहेज लेंगे।
इस पर निर्मल बाबू
ने अपने लड़के और बृजबिहारी बाबू की बेटी अंकिता की शादी बिना लेन-देन के करना कबूल
कर लेते हैं। शादी के दिन बृजबिहारी बाबू अपनी खुशी से लड़की वालों का फर्ज निभाते
हुए कुछ मिठाई और खाने-पीने का इंतजाम करते हैं। पर निर्मल बाबू यह भी नहीं चाहते
थे। निर्मल बाबू के इस व्यवहार को देखकर बृजबिहारी बाबू की आँखे डबडबा जाती हैं।
वे हमेशा बहस में निर्मल बाबू को हरा देते थे, पर आज वे निर्मल बाबू के व्यवहार के आगे
हार जाते हैं। पर इस हार में जीत से अधिक खुशी थी।
3) जॉच और बच्चे
‘जाँच और बच्चे’ इस संग्रह की अंतिम कहानी है। इस कहानी
के केन्द्र चनरी के पति के मृत्यु की जाँच पड़ताल है। जॉच भी यह जानने के लिए कि
मौत बिमारी से हुई या भूख से?
जाँच अधिकारी पूरे
दल-बल के साथ चनरी के घर पहुँचते हैं। चनरी उन्हें बताती है कि सूखे के दिनों में
उन्हें कोई काम नहीं देता। वे माँग कर अपना गुजारा कर रहे थे। लेकिन इधर कोई
उन्हें कुछ नहीं देता था। इस कारण चनरी का पति एक बाटी का टुकड़ा और पानी पीकर लेटा
हुआ था। रात भर उसे पेट मे दर्द रहा और उल्टी भी हुई। गाँव के डॉक्टर को देने के
लिए फीस के 20 रूपये भी नहीं थे चनरी के पास। और इस तरह उसके आदमी की मौत हो गई।
अब उसके लिए यह
बताना बड़ा मुश्किल था कि मौत भूख से हुई या बिमारी से? जाँच अधिकारी भी अपना काम खत्म कर जाने
को हुए। उन्होंने गाँव के कुछ बच्चों को बातें करते हुए सुना। उन्होंने क्या बातें
की इसका जिक्र कहानी में नहीं है। पर जाँच अधिकारी घर आकर पत्नी को अपने मोटे होने
की बात बताते हुए कम खाना परोसने के लिए कहते हैं।
अमरकांत की
कहानियों के संदर्भ में डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने लिखा है कि, ‘‘अमरकांत की कहानियाँ द्वन्द्वात्मक
दृष्टि से परस्पर विरोधी स्थितियों का समहार कर पाने की शक्ति से रचित हैं। इसी
अर्थ में वे ‘कफन’
की परम्परा में हैं। यह दृष्टि और शक्ति
अमरकांत की अधिकांश कहानियों में सुलभ हैं।’’11 डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी की
उपर्युक्त बात एकदम सही है। अमरकांत की कहानियों का अध्ययन करके इसे आसानी से समझा
भी जा सकता है।
अमरकांत मोह भंग
की स्थिति के रचनाकार हैं। आजादी के बाद इस देश की प्रधान स्थिति मोहभंग की ही रही
है। देश की इस स्थिति की सबसे बड़ी विडम्बना यही थी कि यह दिखती कुछ और थी, और होती कुछ और। तर्कहीनता की सारी
स्थितियाँ समाज में उपस्थित थी। इन परिस्थितियों मंे अपनी रचनाओं के माध्यम से
पात्रों को नैतिक बोध के बिन्दु पर ले जाना रचनाकार की जिम्मेदारी भी है और बहुत
बड़ी शक्ति थी। लेकिन यथार्थ को आदर्श के नाम पर झु़ठलाना सामाजिक दृष्टि से उचित
नहीं है।
अमरकांत अपनी इस
जिम्मेदारी से अवगत थे। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ हमेशा चर्चा के केन्द्र में
रहीं। इसमें कोई आशंका नहीं है कि अमरकांत आम आदमी की प्रतिबद्धता से जुड़े हुए
बेजोड़ रचनाकार हैं।
उपन्यास
अमरकांत ने
कहानियों के अतिरिक्त कई उपन्यास भी लिखे। एक उपन्यासकार के रूप में अमरकांत को
उतनी प्रतिष्ठा नहीं मिली जितना की एक कहानीकार के रूप में। अब इसका कारण तय कर
पाना बड़ा मुश्किल है। कहानियों के संदर्भ में एक ही लेखक को अच्छा और उपन्यासों के
संदर्भ में उसे बुरा कह देना तर्कसंगत नहीं लगता। फिर भी कारणों की पड़ताल आवश्यक
है। अतः जब मैंने अमरकांत से साक्षात्कार के दौरान यह प्रश्न किया कि आखिर उनकी
कहानियों की तुलना में उनके उपन्यास चर्चित क्यों नही हुए तो अमरकांत ने स्वयं कहा
कि, ‘‘उपन्यास ‘सूखा पत्ता’ छोड दे तो, बाकी सभी उपन्यास जल्दी जल्दी में लिखे।
उन्हें लिखने में पूरी एनर्जी नहीं लगी। पूरी एनर्जी कहानियों में लगी। उपन्यास
पैसों के लिए लिखे। जीवन से संघर्ष के निचोड़ के तौर पर कोई उपन्यास नहीं लिखा।
पहले तो लोग स्वीकार ही नहीं करते थे उपन्यासकार के रूप में। लेकिन अब काफी चर्चा
हो रही है। एक कारण उपन्यासों के चर्चित न होने का यह रहा कि कुछ हमनें खुद
प्रकाशित की। उनका डिस्ट्रीब्युशन नहीं हो पाया। वैसे भी उपन्यासों की समीक्षा
दृष्टि उतनी विकसित नहीं हुई है। चर्चा हो रही है। यह कोई टेम्पररी फेज नही है।
चर्चाएँ होती रहती हैं। आगे भी होंगी.....।’’12
अमरकांत का यह
विश्वास सम् सामायिक परिस्थितियों में सही भी साबित हो रहा है। इधर अमरकांत के उपन्यासों
की भी चर्चाएँ हो रही हैं। ‘इन्ही
हथियारों से’ जैसे
उपन्यास इसका प्रमाण हैं। उपन्यासकार के रूप में अमरकांत के साहित्यिक योगदान की
जाँच पड़ताल के लिए यह आवश्यक है कि हम उनके उपन्यासों का गहन अध्ययन करें। यहाँ पर
हम अमरकांत के सभी उपन्यासों का संक्षेप में परिचय प्राप्त करेंगे। उन उपन्यासों
का भी जो किसी पत्रिका विशेष में ‘उपहार
अंक’ के रूप में प्रकाशित
हुए। ‘सुरंग’ उनका ऐसा ही एक उपन्यास है। यह अभी तक
स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हुआ है। किंतु कादम्बिनी पत्रिका के
उपहार अंक (अक्टूबर 2005) में यह प्रकाशित हो चुका है। इसी तरह ‘बिदा की रात’ नामक उपन्यास भी स्वतंत्र रूप से
प्रकाशित न होकर ‘बया’
पत्रिका के प्रथम अंक दिसंबर 2006 में
प्रकाशित हु़आ है।
इस तरह अमरकांत के
अब तक प्रकाशित कुल 11 उपन्यासों का हम यहाँ संक्षेप में परिचय प्राप्त करेंगे।
1) ग्राम सेविका
‘ग्राम सेविका’ उपन्यास का प्रथम संस्करण अप्रैल 1962
में लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
से प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के संदर्भ में अमरकांत ने लिखा है कि, ‘‘कुछ ग्राम सेविकाओं से इन्टरव्यू के
आधार पर लिखे गये इस उपन्यास का आकार शुरू में काफी छोटा था। इसी रूप में यह ‘नयी हवा नयी रोशनी’ के नाम से उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना
विभाग के साप्ताहिक पत्र ‘ग्राम्या’
में धारावाहिक रूप में छपा था।’’13
कमला प्रसाद
पाण्डेय जी ने अमरकांत के इस उपन्यास के संदर्भ में लिखा है, ‘‘ ‘ग्राम सेविका’ में कथा स्त्री की ओर से आरंभ होती है।
दमयन्ती को अपनी किशोरावस्था में अतुल से मोह हुआ जिसे दोनों ने प्यार कहा।
रूढ़िवादी मजबूरियों के कारण मोह भंग हुआ, विवाह न हो सका, दमयन्ती ग्रामसेविका बनी। बाद के जीवन में उसे एक बार मोह से
निवृत्त हो चुकने का लाभ मिला; अतुल
से छूटने की शिक्षा ने उसके जीवन को साहस, समझ और प्रेम की व्याख्या दी। अंततः वह गांव के जीवन में
सामाजिक रूपान्तरण का कार्य करती बीच से अपनी भाँति मोह के कीचड़ से हरचरण को निकाल
लाई। दोनों का विवाह हो गया।’’14
‘ग्राम सेविका’ उपन्यास की यही वस्तु कथा है। जिसे
अमरकांत ने लगभग 186 पृष्ठों में लिखा है। इस उपन्यास में ‘‘अमरकांत का समाजवादी आधार गाँधीवादी
आधार से पराजित दिखाई देता है।’’15
अमरकांत के इस उपन्यास को पढ़ते हुए प्रेमचंद के ‘सेवासदन’ की याद आ जाती है। हालांकि सेवासदन के
रचनात्मक स्तर पर ‘ग्रामसेविका’
की बराबरी नहीं हो सकती पर ‘सुधारवाद’ का स्वर दोनों ही उपन्यासों में एक सा
प्रतीत होता है।
‘सेवासदन’ प्रेमचंद का पहला उपन्यास है तो ‘ग्राम सेविका’ अमरकांत के शुरूआती उपन्यासों में से एक
है। ‘सेवासदन’ की मुख्य समस्या ‘वेश्या-जीवन में सुधार’ का हल प्रेमचंद सेवासदन की स्थापना में
ढूँढते हैं। आर्य समाज का प्रभाव यहाँ पर प्रेमचंद पर स्पष्ट दिखायी पड़ता है। पर
वास्तविक धरातल पर यह उपाय किसी काम का नहीं है। जबकि ‘ग्रामसेविका’ उपन्यास में समाधान प्रस्तुत करने की
अपनी तरफ से कोई आदर्शवादी चेष्टा अमरकांत नहीं करते। उनकी पात्र ‘दमयन्ती’ अपने संघर्ष को उतने ही सहज-सरल तरीके
से लड़ती है जितना कि उन परिस्थितियों में घिरी कोई भी स्त्री लड़ सकती है। निश्चित
तौर पर उनकी नायिका ग्रामसेविका बनकर आदर्श की नई स्थितियों को छूती है। पर उसमें
असंभव जैसी कोई बात नहीं दिखती। अमरकांत प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ानेवाले
कथाकारों में से एक है।
अतः अमरकांत के इस
उपन्यास के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यह उपन्यास अमरकांत की सुंदर कृति है। इस
उपन्यास के माध्यम से अपने समय, परिवेश,
समाज और सामाजिक परिवर्तनों को अमरकांत
ने बखूबी प्रस्तुत किया है। ‘दमयन्ती’
का जवीन संघर्ष उसके जैसी हजारों
स्त्रियों के जीवन संघर्ष का आईना है।
2) कँटीली राह के फूल
यह उपन्यास राजकमल
प्रकाशन द्वारा दिसम्बर 1963 में प्रकाशित हुआ। लगभग 150 पृष्ठों के इस उपन्यास
में अनूप नामक युवक का मधु और कामिनी नामक दो स्त्रियों को लेकर प्रेम संघर्ष चित्रित
है। दोनों स्त्रियों के स्वभाव में बहुत अंतर है। एक के लिए जीवन भोग, विलास और मस्ती का नाम है तो दूसरी
प्रेम को भोग से कहीं ऊँचा मानती है।
कमला प्रसाद
पाण्डेय जी इस उपन्यास के संबंध में लिखते हैं कि, ‘‘ ‘कँटीली राह के फूल’ के अनुप के सामने मधु और कामिनी लगभग
आसपास ही आती हैं। अनूप शर्मीला खिलाड़ी, पढ़ने में शिथिल, प्यार करने के मामले में झिझकने वाला किन्तु दूसरों से
ईर्ष्यालु के रूप में प्रकट होता है। यह एक स्थिति है जहाँ इसे रूढ़िवादी
व्यक्तिवादी व्यवस्था ने मनुष्य को पैदा किया है। अनूप में सबसे बड़ी कमजोरी है
शर्म के कारण, सोच
और अभिव्यक्ति का फर्क। वह जो कहना चाहता है वह नहीं कह पाता। शब्द उसका साथ नहीं
देते। वह झूठ नहीं बोलता, क्योंकि
अभिव्यक्ति के एक स्तर में लाने का ही काम यह उपन्यास करता है। उसके सामने मधु है
जिसके लिए जिंदगी मस्ती, रोमांस,
शान-शौकत तथा शरीर भोग है। अनूप उसके
साथ घूमता है, उसे
खुली किताब के रूप में एकान्त में देखता है पर उसके दिमाग में कामिनी का गंभीर
समझदार सम्मानपूर्ण चेहरा है, जिसमें
प्रेम भीतरी तह से निकलता है। वासना उसका हल्का संस्पर्श है। वह अनूप से प्यार
करती है और अनूप भी उसे प्यार करता है। अनूप को शब्द धोखा देते हैं और अधिकार
जताने में उसका स्वभाव आडे़ आता है। मधु और कामिनी के बीच अनूप का विकास कथा का
कार्यक्रम है।’’16
‘कँटीली राह के फूल’ उपन्यास के संबंध में कमला प्रसाद जी का
उपर्युक्त विवेचन एकदम सटीक है। इस उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने उस व्यक्ति की
मानसिक दशाओं का सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया है जो अपने सोचे हुए को कभी भी
वास्तविक जीवन में करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। अनूप के विचारों एवम् व्यवहार
से यही बात सामने आती है। उसका अपना मानसिक द्वंद्व ही उसे परेशान किये रहता है।
अमरकांत एक सजग और
जागरूक लेखक माने जाते हैं। कथा कहने का उनका अपना तरीका है। वे एक भारतीय व्यक्ति
की भावनाओं, संस्कारों,
भावुकता और संकोच से अच्छी तरह परिचित
हैं। समाज का पिछड़ापन, अंधविश्वास,
पाखंड और अन्य सामाजिक बुराईयाँ उन्हें
सालती हैं। पर इन सब से परेशान होकर वे किसी आदर्श स्थिति की कल्पना के साथ समाधान
खोजने का प्रयास नहीं करते। बल्कि यथार्थ की ठोस जीवन पर ही उनका व्यवहारिक हल
अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। हल ना भी निकले तो भी यथार्थ के
चित्रण से सामाजिक परिस्थितियों को पाठकों के सामने लाने में वे परी तरह सफल रहते
हैं।
उनकी यही विशेषता
उनके इस उपन्यास ‘कँटीली
राह के फूूल’ में
दिखायी पड़ती हैं।
3) दीवार और आंगन
253 पृष्ठों का यह
उपन्यास मई 1969 में अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। यही उपन्यास बाद में ‘बीच की दीवार’ नामक शीर्षक से भी प्रकाशित हुआ। इस
उपन्यास के केन्द्र में ‘दीप्ति’
है। अशोक को लेकर उसमें शारीरिक वासना
जागृत होती है। पूरे उपन्यास में प्रेम, वासना और अंत में विवाह के रूप में इसकी परिणति को चित्रित
किया गया है।
‘‘दीवार और आंगन में रचनाकार की निगाह
दिप्ति में है किशोर वृत्तियाँ दीप्ति और अशोक को पास ला कर शारीरिक भोग की
आकांक्षा पैदा करती हैं। अशोक की आकांक्षा दीप्ति से कुंती की ओर चली जाती है।
मनफूल और दीप्ति की निकटता मंे दीप्ति का अहं तुष्ट होता है। मनफूल उसकी प्रशंसा
करता है। उसमें नई ग्रंथि बनती है, देश
में नाम कमाने की वह भी संगीत और पहलवानी में। मनफूल केवल दीप्ति का शरीर सुख
चाहता है और इसी के लिए जाल रचता है। यह सम्बन्ध भी टूट जाता है। सम्बन्धों के
टूटने से दीप्ति निराश होती है किन्तु अब वह प्रेम की परिभाषा को शरीर सुख से
हटाकर मन तक ले जाती है। मोहन और दीप्ति का संबंध अंतर्जातीय प्रेम विवाह तक
पहुँचता है। इस तरह दीप्ति की उन्मादी भावनाएँ प्रेम के विचारवान क्षेत्र में
परिणति प्राप्त करती हैं।’’17
अमरकांत द्वारा
लिखा गया यह उपन्यास ‘रोमान्टिक
ऐटीट्याूड’ को अधिक व्यक्त करता
है। अमरकांत के इस उपन्यास के पात्र प्रेम, घृणा, करूणा और शारीरिक वासना में जब लिप्त
रहते हैं तब भी उनके विचारों में आदर्श के प्रति एक सजग भाव बना रहता है। यहाँ यह
स्पष्ट हो जाता है कि लेखक अपने पात्रों से जो चाहता है वही करवाने का प्रयास करता
है। फिर चाहे इसके लिए कहानी या उपन्यास के मूल कथानक और शिल्प में घटित परिवर्तन
अविस्वशनीय ही क्यों न हो जाये। इस संदर्भ में हम अमरकांत के दूसरे उपन्यास ‘सुन्नर पांडे की पतोह’ का उदाहरण ले सकते हैं। एक स्त्री जो
जवान है वह अपने ससुर की बुरी नीयत ताड़ कर घर से निकल जाती है। सारा जीवन वह बाहर
दूसरों के यहाँ काम करके जैसे-तैसे बिता देती है। पर उसके चरित्र पर कभी कोई दाग
नहीं लग पाता। आश्चर्य होता है कि ‘मूस’
जैसी कहानी लिखनेवाले अमरकांत उपन्यास
के कथानक में इतने सीमित कैसे हो जाते हैं? इसी संदर्भ में कमला प्रसाद पाण्डेय जी
लिखते हैं कि, ‘‘......तँय
है कि परिस्थितियाँ एक सुसंगठित वस्तु की तरह उनके अंदर प्रवेश करती हैं और
रचनात्मक संदर्भ के साथ बाहर आ जाती हैं। भीतर जाने और बाहर आने के क्रम में पूरी
आत्मीय तटस्थता निभाने की संभावनायें उनमें हैं लेकिन संभावनाओं का उपयोग
कहीं-कहीं नहीं कर पाते। असमर्थता के कारण उपन्यासों में कई जगह कथात्मक विराम
लगने लगता है।’’18
इन सब के बावजूद
अमरकांत के उपन्यासों में पात्रों का संघर्ष, संघर्ष की मौलिकता, सामाजिक परिवेश का गहरा विवेचन, और उपन्यास लेखन की प्रक्रिया में अपनी
बौद्धिक उपस्थिति अमरकांत बखूबी दर्ज करते है। ‘दीवार और आंगन’ रोमान्टिक ऐटीट्याूड में लिखा गया एक
सफल उपन्यास है। यह उपन्यास किसी बड़े प्रकाशक के द्वारा प्रकाशित नहीं हुआ था। अतः
प्रारंभ में इसके डिस्ट्रीब्युशन में भी समस्या आयी। इस बात को स्वयं अमरकांत भी
स्वीकार करते हैं।
4) सुखजीवी
228 पृष्ठों का यह
उपन्यास ‘संभावना प्रकाशन’
हापुड़ से 1982 में प्रकाशित हुआ। यह
उपन्यास भी रोमान्टिक ऐटीट्याूड को ही व्यक्त करता है। यह उपन्यास दीपक नामक ऐसे
व्यक्ति की कहानी है, जिसके
संदर्भ में उपन्यास का ही यह वाक्यांश सही लगता है कि, ‘‘दुनिया में ऐसे किस्म के भी व्यक्ति हैं,
जिनमें बुद्धि और मौलिकता नहीं होती,
जो हर संभावनाओं से हीन होते हैं,
जो मन से सर्वथा कमजोर होते हैं,
परन्तु उनके मन के भीतर एक ऐसी स्वार्थ
परकता, दुष्टता और हीनता
होती है, जिसको वे अपनी बातों
अस्वीकार करने की चेष्टा करते हुए मालूम होते हैं।’’19
उपन्यास के नायक
दीपक का यही हाल है। वह अपनी सीधी-सादी पत्नी से बात-बात में झूठ बोलता। उसके घर
देर पहुँचने पर जब पत्नी अहल्या कारण पूछती तो वह यह बताता कि उसका एक्सीडेन्ट हो
गया था। इसी तरह के झूठ वह हर बात में कहता। ‘‘अहल्या को चिन्तित, दुखित और रोते देखकर उसे सदा यह सन्तोष
होता था कि वह एक ऐसी स्त्री का पति है जो उसको अपनी समस्त शक्ति से प्यार करती है
और उसके लिए कोई भी कुरबानी कर सकती है। वह यह अपना अधिकार समझता था कि अहल्या
जैसी पतिव्रता स्त्री उसके कष्ट और मजबूरी की बात सुनकर अपना समस्त अभिमान,
शिकवा-शिकायत और तकलीफ भूल जाय। और
चूंकि अहल्या ऐसा ही करती थी इसलिये वह अपने दुःख, पीड़ा और लाचारी की बात करके पत्नी को
निरस्त्र करने में सदा सफल होता था।’’20
पत्नी के इसी
स्वभाव का फायदा उठाकर दीपक पड़ोस में रहनेवाली लड़की रेखा से झूठा प्रेम करने लगता
है। वास्तव में उसकी दिलचस्पी सिर्फ रेखा की जवान देह में ही थी। रेखा भी उसके
प्रेम जाल में आसानी से फँस जाती है। वह रेखा को यह बताकर सहानुभूति हाँसिल करता
है कि वह अपनी पत्नी अहल्या से दुखी है। अहल्या के अंदर कोई गुण नहीं है। वह अपने
जीवन में प्रेम के लिए तरस गया है। रेखा दीपक की इन बातों में फँस गयी। उसने अपने
आप को पूरी तरह समर्पित कर दिया। दीपक ने उसके शरीर से पूरा सु़ख उठाया। जैसे चाहा
वैसे प्रेम किया। पर जब रेखा ने दीपक को पूरी तरह अधिकार के साथ पाना चाहा तो वह
डर गया।
इधर जब धीरे-धीरे
अहल्या को दीपक और रेखा के संबंधों के बारे में पता चल गया तो दीपक डर के अहल्या
के पैरों पर गिर पड़ता है। उसे समझाते हुए दीपक कहता है कि, ‘‘मैं अपनी गलती मान लेता हूँ। मैंने
तुम्हारे साथ धोखा किया। आज मेरी आँखे खुल गई हैं। मैं उस आवारा लड़की से बहुत
दिनों से पिंड छुड़ाना चाहता था, लेकिन
वह मेरे पीछे पड़ गई है। जानती हो, बुरी
औरतें किस तरह मर्दो को फंसा लेती हैं? मुझमें बहुत-सी कमजोरियाँ हैं, लेकिन कम-से-कम यह कमजोरी मुझमें नहीं
थी। मैं पराई औरतों से कोसों दूर रहता था। फिर यह लड़की आई। यह जान-बूझकर मेरे पास
आती, मुझसे छेड़-खानी करती,
आंखों से कटाक्ष करती। ..... यह लड़की तो यूनिवर्सिटी की बहुत
चालू लड़की है। इसका काम ही है। एक मर्द को फांसना, फिर उसको छोड़कर दूसरे मर्द को पकड़ना।
तुमने आज बचा लिया, अहल्या,
तुमसे और बच्चों से बढ़कर मेरे लिए कोई
नहीं। भगवान का शुक्र है कि तुम्हारी-जैसी स्त्री मुझको मिली.... मैं तुम्हारी और
बच्चों की कसम खाता हूँ कि मैं आगे से उस आवारा लड़की से कोई मतलब नहीं रखूंगा।’’21
इस तरह वह अहल्या
को मनाता है। कुछ दिनों तक उसका खयाल भी रखता है। पर वह यह नहीं चाहता था कि रेखा
के जवान शरीर का सुख उससे छूट जाये। अतः वह एक दिन रेखा से मिलता है। पर रेखा उसकी
वह बातें चुपके से सुन चुकी रहती है जो वह अहल्या से रेखा के संबंध में कहता है।
रेखा उसे झिड़क देती है। दीपक को रेखा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगता। वह मन ही मन
उसे कोसता है। दीपक फिर यह निर्णय लेता है कि वह अपनी पत्नी और बच्चों का खयाल रखेगा
और कानून की पढ़ाई करेगा व वकील बन कर देश की सेवा करेगा।
दीपक के इस संकल्प
के साथ उपन्यास खत्म हो जाता है। लेकिन दीपक जैसे लोगों के संकल्प कभी भी बदल सकते
हैं। अपने सुख और आराम के लिए दीपक हर स्तर पर गिरने के लिए तैयार रहता था। हर बात
में वह अपने सुख और लाभ का हिसाब लगाता था। उसका सारा आदर्श, सारी नैतिकता उसके अपने शरीर सुख तक
केन्द्रित रहती थी। वह सही मायनों में ‘सुखजीवी’ था।
इस तरह उपन्यास के कथानक के आधार पर इसका शीर्षक एकदम उचित प्रतीत होता है।
5) सूखा पत्ता
सन 1984 में
राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 202 पृष्ठों का यह उपन्यास खूब चर्चित हुआ। इस
उपन्यास की कहानी अमरकांत के एक मित्र की कहानी है। इस उपन्यास को लिखने की
प्रेरणा का खुलासा करते हुए अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ‘‘यह मेरे एक मित्र की कहानी है। बीते
दिनों के संस्मरणों से भी युक्त उनकी मोटी डायरी पढ़ने के बाद यह उपन्यास लिखने की
इच्छा उत्पन्न हुई, जो
शीघ्र ही इतनी तीव्र हो गयी कि मेरे दिमाग में स्वतः ही एक खाका उभरता गया और कुछ
ही महीनों में मैने इसे लिख लिया।’’22
अमरकांत की
उपर्युक्त बात से स्पष्ट है कि यह उपन्यास अमरकांत ने पैसों के लिए नहीं लिखा। साथ
ही साथ इसे लिखने में उनकी पूरी एनर्जी भी लगी। यह बात इसलिए स्पष्ट कर रहा हूँ
क्योंकि अमरकांत यह कह चुके हैं कि उन्होंने अधिकतर उपन्यास आर्थिक अभाव में
दूसरों के आग्रह पर सप्रयास लिखा है। ‘सूखा पत्ता’ अमरकांत
के ऐसे उपन्यासों से अलग है। अतः इसकी प्रतिष्ठा भी उनके अन्य उपन्यासों की तुलना
में अलग रही।
चन्द्रगुप्त
विद्यालंकार जी अमरकांत के इस उपन्यास को शरत के श्रीकांत से प्रेरित मानते हैं।
इस उपन्यास पर अपनी लंबी प्रतिक्रिया देते हुए वे लिखते हैं कि, ‘‘उपन्यास की दृष्टि से ‘सूखा पत्ता’ सबल रचना है। अमरकांत का यह पहला
उपन्यास मैंने पढ़ा और इस रचना के लिए मैं उन्हें बधाई देना चाहता हूँ। यों ‘सूखा पत्ता’ भी निर्दोष रचना नहीं है। कच्चापन उसमें
भी स्पष्ट झलकता है। प्रेरणा-स्त्रोत स्पष्टतः शरत बाबू का ‘श्रीकांत’ है। उपन्यास का किशोर नायक, कृष्ण कुमार दसवीं जमात में पढ़ते हुए
क्रांतिकारी दल की स्थापना करता है और साहस संचय की इच्छा से अपने साथी दीनेश्वर
के साथ सरदियों की एक रात गंगा तट पर श्मशान में बिताता है। इस अंश की पूरी
प्रेरणा शरत बाबू के ‘श्रीकांत’
के इंद्रनाथ से ली गई प्रतीत होती है,
यद्यपि लेखक ने इस सब में भी मौलिक
प्रतीत होने का भरसक प्रयत्न किया है।’’23
इस तरह इस उपन्यास
को सबल रचना मानते हुए भी विद्यालंकार जी इसके कच्चेपन की चर्चा करना नहीं भूलते।
वैसे उपन्यास के पहले अंश को लेकर कही गयी उनकी यह बात सही भी लगती है। अपने
वास्तविक जीवन में भी अमरकांत का बचपन ऐसी ही कुछ सच्ची घटनाओं से युक्त रहा। बचपन
में अमरकांत का परिचय जब अपने मोहल्ले के स्थानीय क्रांतिकारियों व उनके
क्रांतिकारी साहित्य से हुआ तो कुछ स्थानीय क्रांतिकारी मित्रों के साथ मिलकर
उन्होंने राजनीतिक सतर्कता दिखायी थी। पर उनकी वह सतर्कता हास्यास्पद की कही
जायेगी। ऐसी ही कुछ घटनाओं को थोड़े परिवर्तन के साथ अमरकांत ने अपने इस उपन्यास ‘सूखा पत्ता’ में चित्रित किया है। उपन्यास में यह
दिखाया गया है कि किस तरह चीनी और बोरे चुराकर युवकोें का एक दल उसे महान
क्रांतिकारी घटना मानता है।
चंद्रगुप्त विद्यालंकार
जी इस उपन्यास की एक और कमजोरी का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि, ‘‘ ‘सूखा पत्ता’ की एक कमजोरी यह भी है कि उपन्यास का
नायक कृष्ण कुमार उर्मिला से प्रेम के संबंध में बहुत बड़ी दुर्बलता दिखाता है।
मेरी राय में उसे माँ-बाप के विरूद्ध और समाज की जातपातीय व्यवस्था के विरूद्ध
विद्रोह करना चाहिए था। ........क्रांति का बार-बार नाम लेने वाले अमरकांत जातपात
तोड़ने तक से जैसे घबराते हैं। आखिर वह कोई जीवन चरित्र तो लिख नहीं रहे थे।’’24
चंद्रगुप्त
विद्यालंकार जी की यह बात हमें भी खटकती है। ‘मूस’, ‘हत्यारे’, ‘दोपहर का भोजन’ और ‘जिंदगी और जोंक’ जैसी सशक्त कहानियों को लिखने वाला लेखक
उपन्यासों में इतना संकोच क्यों करता है? यह बात स्पष्ट नहीं हो पाती। ‘‘फिर भी ‘सूखा पत्ता’ एक शक्तिशाली रचना है। लिखने का ढंग,
कहानी का उत्थान और शैली - तीनों प्रथम
श्रेणी के हैं और यह इस उपन्यास की बहुत बड़ी विशेषता है।’’25
लेकिन इसी उपन्यास
में समलैंगिक प्रेम के वर्णन का अमरकांत के एक नए स्वरूप को हमारे सामने रखता है।
राजेन्द्र किशोर जी तो अमरकांत को ‘निराला’
की टक्कर का संयमित साहस रखनेवाला
उपन्यासकार मानते हैं। इस उपन्यास की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं कि, ‘‘कथा के प्रथम खण्ड में नायक के मित्र
तथा आदर्श मनमोहन के चरित्र को बड़े प्रभावशाली ढंग से उभारा गया है। इस चरित्र की
कल्पना का साहर और इसकी इतनी प्रभावशाली रचना बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसके संबंध के
सारे विवरण औपन्यासिक होते हुए भी अपनी प्रामाणिकता से हमंे प्रभावित करते हैं। यह
न केवल ‘साहसिक’ है, बल्कि यह नायक से समलिंगी प्रेम भी करता
हैै। इसके चरित्र के इस पक्ष को उभारने के लिए लेखक ने वातावरण का बड़ी बारीकी से
चित्रण किया है और सबसे बड़ी बात यह है कि लेखक इसके वर्णन में स्वयं पतित नहीं
हुआ। निराला के बाद शायद ऐसा संयमित साहस अमरकान्त ने ही किया है।’’26
परमानंद
श्रीवास्तव जी इस उपन्यास के संबंध में लिखते हैं कि, ‘‘अमरकांत के इस उपन्यास में कृष्णकुमार
के जरिये इसकी कैशोर मानसिक विकृतियों और किसी हद तक इसी के ब्याज से अपरिपक्व
राष्ट्रीय मानस की कमजोरियों का आकलन प्रस्तुत किय है। सम्भव है इस सजग
आत्म-विश्लेषण से कृष्णकुमार की ‘गति’
बदले - पर ऐसा कोई सुधारवादी आग्रह लेखक
के उद्देश्य पर हावी नहीं है और यह शुभ है।’’27
‘सूखा पत्ता’ उपन्यास के संदर्भ में यह जान लेना भी
आवश्यक है कि अमरकांत ने इसे 1956 में ही लिख लिया था। और इसका एकाध संस्करण 1959
में छप भी गया था। पर इसका सही मूल्यांकन 1984 में राजकमल द्वारा प्रकाशित होने के
बाद ही हो सका। इसके बाद ही इसका व्यापक डिस्ट्रीब्युशन हुआ और समीक्षकों तक यह
उपन्यास पहुँच पाया। स्वयं अमरकांत इस संदर्भ में लिखते हैं कि, ‘‘सन 1959 में ‘सूखा पत्ता’ का पहला संस्करण हुआ था। उसी समय कई
पत्र-पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा छपी, बहुत से लेखकों ने इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रियाएँ भी दी।
पर्याप्त स्वागत हुआ था इस उपन्यास का। लेकिन जिस प्रकाशक ने इसे छापा था, उसकी बिक्री व्यवस्था ठीक नहीं थी। फिर
भी, 1969 में दूसरा
संस्करण छपा, 1984
में राजकमल प्रकाशन ने पेपर बैंक में भी इसे छाप दिया। ..... अपने उपन्यासों में ‘सूखा पत्ता’ को ही मैं विशिष्ट मानता हूँ, कहानियाँ जरूर कुछ ऐसी हैं जो इससे हटकर
हैं और उन्हें कुछ लोग ‘सूखा
पत्ता’ से अधिक प्रौढ़ एवम्
सशक्त भी कह सकते हैं।’’28
इस तरह स्पष्ट है
कि अपने उपन्यासों में अमरकांत ‘सूखा
पत्ता’ को विशिष्ट मानते
हैं। समीक्षकों ने इस पर पर्याप्त समीक्षाएँ भी लिखी। हम कह सकतें हैं कि अमरकांत
द्वारा लिखा गया यह उपन्यास ही सही मायनों में उपन्यासकार के रूप में उन्हें हिंदी
साहित्य जगत में सर्वप्रथम प्रतिष्ठित करता है।
6) आकाश पक्षी
राजकमल प्रकाशन
द्वारा ही इस उपन्यास का प्रथम संस्करण 2003 में प्रकाशित हुआ। 219 पृष्ठों का यह
उपन्यास अमरकांत की एक महत्वपूर्ण कृति है।
आत्मकथात्मक शैली
में लिखा गया यह उपन्यास हेमा (हेमवती) नामक लड़की की कहानी है। जो एक बड़े रियासत
के ‘बड़े सरकार’ की बेटी है। पर देश आजाद होने के साथ ही
साथ काँग्रेस ने रियासतों का राज खत्म कर दिया। इसका प्रभाव हेमा के परिवार पर भी
हुआ। वे अपनी रियासत छोड़कर लखनऊ की अपनी कोठी में रहने के लिए आ जाते हैं। पर हेमा
के पिताजी की आदतों के कारण जल्द ही उनकी माली हालत बहुत ही बुरी हो जाती है। हेमा
के पिताजी को अपने बड़े भाई ‘राजा
साहब’ से बड़ी उम्मीदें थी,
जो कि रियासत खत्म होने के बाद दिल्ली
रहने चले गये थे। शुरू में राजा साहब ने हेमा के पिताजी को भरोसा दिलाया था कि घर
खर्च के लिए पैसे भेजते रहेंगे। पर बाद में उन्होंने पैसे भेजने बंद कर दिये। हेमा
के पिताजी ठेके का काम करना चाहते थे, पर उनकी आदतों ने जल्द ही उन्हें कंगाल बना दिया।
इसी बीच हेमा को
पड़ोस मंे रहनेवाले ‘रवि’
से प्यार हो जाता है। रवि उसे पढ़ाने
उसके घर पर आता था। दोनों एक दूसरे को बहुत चाहने लगे थे। पर हेमा की माँ को यह
पसंद नहीं आता। अपने ऊँचे कुल-खानदान और रियासती दिनों की शानो-शौकत के आगे वे रवि
को अपनी बेटी के लायक नहीं समझती थीं। रवि के पिता इंजीनियर थे। वे रवि और हेमा की
शादी का प्रस्ताव हेमा के पिता के सामने रखते हैं। पर हेमा के पिता इस प्रस्ताव को
अस्वीकार कर देते हैं। साथ ही साथ वे इंजीनियर साहब को मकान छोड़कर चले जाने की
हिदायत भी दे देते हैं।
इंजीनियर साहब ऐसा
ही करते हैं। रवि के चले जाने के बाद हेमा उदास रहने लगी। पर हेमा पर उसके घरवालों
को बिलकुल भी तरस नहीं आया। उन्होंने कुँअर युवराज सिंह नामक उधेड रईस के साथ हेमा
का विवाह करने का निश्चय कर लिया। कँुअर साहब भी किसी पुरानी रियासत के मालिक रह
चुके थे। उम्र में हेमा से बहुत बड़े थे। हेमा उन्हें बिलकुल पसंद नहीं करती थी,
पर माँ-बाप और अपनी पारिवारिक
परिस्थितियों के कारण वह मजबूर थी। और अंततः वह अपने माँ-बाप और परिवार के लिए खुद
की बलि देने के लिए तैयार हो जाती है।
इस तरह अपना शरीर
वह कुँअर साहब को समर्पित कर देती है। कुँअर साहब से उसकी शादी हो जाती है। परिवार
का झूठा अहंकार और सम्मान बच जाता है। कुँअर साहब से रिश्ता जुड़ जाने के कारण हेमा
के परिवार को भी आर्थिक सहायता मिल जाती है। हेमा के माँ-बाप चाहते भी यही थे।
अमरकांत का यह
उपन्यास भारतीय सामंतवाद की हताशा, निराशा,
कुंठा और उनके झूठे अहम के बीच
पिसनेवाली एक निर्दोष लड़की हेमा की बड़ी ही मार्मिक कहानी है। होने वाले सामाजिक
परिवर्तन को अपने झूठे अहम के दम पर कोई कब तक दबा सकता है। और इसकी कीमत क्या वह
अपने ही बच्चों की खुशियों में आग लगा कर वसल करेगा? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो यह उपन्यास
पाठकों के मन में पैदा करता है।
हेमा बदलती हुई
परिस्थितियों को समझ रही थी। वह समय के साथ बदलना भी चाहती है, पर उसके माँ-बाप ऐसा नहीं चाहते। खुद
हेमा के शब्दों में, ‘‘यह
कहना गलत होगा कि हम लोगों के पतन का दायित्व कांग्रेस या देश की स्वतन्त्रता को
है, जैसा कि बड़े सरकार
कहा करते थे। मैं अब अच्छी तरह समझ गयी थी कि यह धारणा अत्याधिक गलत है। हम लोगों
में जो गिरावट आ गयी है वह केवल हमारी ही वजह से। हम न मालूम कितने वर्षो से इस
देश के शरीर पर फोड़े की तरह विद्यमान थे जिसको काटकर निकाल फेंकने में ही सारे देश
की तरक्की हो सकती थी। परंतु अफसोस की बात तो यह थी कि रियासतें खत्म हो जाने पर
भी बहुत से राजा-महाराजा अपनी खोखली उँचाई से नीचे उतरकर जनता में मिलते-जुलते
नहीं थे।’’29
अमरकांत ने इस
उपन्यास के लिए जो कथानक चुना वह सचमुच बड़ा ही संवेदनशील है। रवि और हेमा के प्रेम
के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज में हो रहे बहुत बड़े परिवर्तन को रेखांकित करने
का प्रयास किया है। कहा जा सकता है कि एक सजग रचनाकार के तौर पर अमरकांत ने इस
उपन्यास के माध्यम से समाज में घटित हो रही एक पूरी की पूरी परिवर्तन श्रृंखला को
बड़े ही सुंदर तरीके से उपन्यास में पिरोया।
7) काले उजले दिन
163 पृष्ठों के इस
उपन्यास का प्रकाशन सन् 2003 से ‘राजकमल
प्रकाशन’ द्वारा हुआ। इस
उपन्यास पर अपनी समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कमलाप्रसाद पाण्डेय जी लिखते हैं कि,
‘‘ ‘काले उजले दिन’
आत्मकथात्मक कहानी है। उसका नायक खुद
अपने विकास को दुहराता है। वह विमाता की ईर्ष्या और पिता की विमाता द्वारा संचालित
कुटिलता के बीच में पलता है। वह देखता है कि विमाता का पुत्र अशोक सम्पन्नता में
जीता है और वह दीनता में। प्यार का अभाव उसकी कुण्ठा बनती है। वह अपने पारिवारिक
ममताहीन जीवन से छूटना चाहता है और इसी क्रम मंे उसे क्रान्तिकारी वासुदेव सिंह
अच्छे लगे। बाद में मामा के घर की याद आई, विवाह में स्त्री से प्यार की आकांक्षा की - पर सब कुछ परम्परा
के भीतर होने से औपचारिक बना रहा। सामन्ती आचार में जिंदगी पिसती रही। नायक प्यार
के लिए तड़पता रहा, कान्ति
पत्नी ने उसे आदर श्रद्धा और यहाँ तक कि जिन्दगी का उत्सर्ग उसके लिये किया,
पर उसमें प्यार की क्षमता नहीं थी।
प्यार मिला समानधर्मी रजनी में। अतः पत्नी कांति और प्रेयसी रजनी के बीच
व्यक्तित्व का अनुभवाधीन सहज विकास होता रहा। मानसिक धरातल में ही नहीं, संघर्ष यथार्थ की जमीन में झेला गया।’’30
कमलाप्रसाद जी का
उपर्युक्त मंतव्य इस उपन्यास के संदर्भ में एकदम सटीक है। हमारे समाज में जो
परिवर्तन होते हैं, जो
असंगतियाँ रह जाती हैं, वे
किसी न किसी रूप में समाज के हर व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। सामाजिक मान्यताओं
और आदर्शों के बीच यथार्थ की जमीन अलग होती है। इस भूमि पर संघर्षरत व्यक्ति अपनी
इच्छाओं के अनुरूप चाह कर भी नहीं जी पाता। ऐसे में वह सही-गलत की परिभाषा को अपने
तरीके से व्याख्यायित करने का प्रयत्न करता है। किन्तु व्यक्ति और समाज के बीच
संघर्ष निरंतर होते हुए भी ‘व्यक्ति’
की उम्र समाज की तुलना में बहुत कम होती
है। अमरकांत ने इस उपन्यास के माध्यम से व्यक्ति, समाज और परिवर्तन के त्रिकोण में निहित
द्वंद्व की वेदना को बड़े ही कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास की
समस्या किसी काल विशेष की न होकर शाश्वत रूप में व्यक्ति और समाज के बीच होने वाले
संघर्ष की समस्या है।
हम अपने जीवनम में
जो भी पाते हैं, जो
भी अनुभव करते हैं, उन्हीं
से हमारा व्यक्तित्व बनता है। फिर यही व्यक्तित्व समाज में अपनी सशक्तता के आधार
पर उन मूल्यों को उखाड़ फेकना चहता है जो उसके अपने अनुभव से समाज के लिए घातक हैं।
पर व्यक्ति-व्यक्ति का अपना अलग दायरा होता है। यही अलगाव अलग सोच को भी जन्म देती
है। अतः समाज इन अलग सोच से होनेवाले खतरों को टालने के लिए कुछ सामाजिक नियम
बनाता है। इन नियमों की अवहेलना समाज में रहकर करना मुश्किल है। पर इनके बीच
छटपटाहट हर व्यक्ति के अंदर होती है। पुनः इन्ही का संयुक्त प्रयास ही मान्य
परम्पराओं को तोड़कर नई परम्परा बनाते हैं। पर हर नई स्थिति के साथ हमेशा संघर्ष की
एक नई स्थिति बनी रहती है।
समग्र रूप से हम
कह सकते हैं कि अमरकांत का उपन्यास काले उजले दिन वास्तव में व्यक्ति के जीवन चक्र
में निहित दुख और सुख के क्षणों के प्रतिफल में निर्मित उसके व्यक्तित्व की पड़ताल
का अनुपम प्रयोग है। जीवन का पूरा दर्शन कई खंडों में बिखरे व्यक्तिगत अनुभवों का
निचोड़ होता है। ऐसे में किसी के द्वारा किया हुआ कोई कार्य सही है या गलत? इसका निर्णय करना बहुत मुश्किल होता है।
अमरकांत निश्चित तौर पर इस उपन्यास के माध्यम से जिन प्रश्नों को उठाने का प्रयत्न
करते हैं, वे इस बात को झुठला
देते हैं कि अमरकांत एक सीमित दृष्टि फलक के साथ साहित्य रचते हैं।
8) इन्हीं हथियारों से
‘राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.’ द्वारा सन् 2003 में प्रकाशित 536
पृष्ठों का यह उपन्यास, अमरकांत
द्वारा लिखे गए अब तक के उपन्यासों में सबसे बड़ा है। साथ ही साथ इसका कथानक भी
बाकी उपन्यासों से बिलकुल अलग है। ‘सूखा
पत्ता’ के बाद अमरकांत के
जिस उपन्यास की चर्चा सबसे ज्यादा हुई वह ‘इन्हीं हथियारों से’ है।
उपन्यास के आरंभ
में उपन्यास के बारे में बताते हुए अमरकांत लिखते हैं कि, ‘‘यह रचना उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से
जनपद पर केंन्द्रित स्वाधीनता आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। सन् 1942 ई.
में ‘भारत छोड़ो’ जनक्रान्ति के दौरान कुछ दिनों के लिए
बलिया में ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया था। गाँवों में पंचायत सरकारें कायम हुई थी।
परन्तु, यह ऐतिहासिक उपन्यास
नहीं है, बल्कि उस आन्दोलन से
जुड़े व्यक्तियों के निजी अनुभवों, ऐतिहासिक
घटनाओं तथा बयालिस से लेकर स्वतंत्रता- प्राप्ति तक के समय की एक यथार्थवादी
परिकल्पना है। वस्तुतः बलिया के बहाने, एक कल्पित कथा द्वारा इस ऐतिहासिक जमाने का स्मरण किया गया है,
जब देश की जनता ने स्वाधीनता के लिए
विदेशी हुकूमत के विरूद्ध बगावत का झंडा उठाते हुए जबरदस्त संघर्ष किया, अनगिनत कुर्बानियाँ दीं और भयंकर दमन का
सामना किया।’’31
अमरकांत का यह
उपन्यास ‘साक्षात्कार’ नामक पत्रिका में ‘आँधी’ शीर्षक से धारावाहिक रूप मंे छप चुका
है। बाद में अपने मित्र कवि अमरनाथ श्रीवास्तव के आग्रह एवम् सहयोग से अमरकांत ने
इसका शीर्षक बदल कर ‘इन्हीं
हथियारों से’ करने
के साथ इसे उपन्यास रूप में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित करवाने का निर्णय लिया। इस
तरह यह उपन्यास 2003 में पाठकों के लिए पुस्तकाकार रूप में सामने आ सका।
इस उपन्यास के
प्रकाशित होने के बाद समीक्षकों के बीच यह चर्चा का विषय बना रहा। वेदप्रकाश जी इस
उपन्यास के संदर्भ में लिखते हैं कि, ‘‘पिछले दिनों इतिहास और निकट अतीत को आधार बनाकर अनेक उपन्यास
लिखे गए हैं। अमरकांत का नया उपन्यास ‘इन्ही हथियारों से’ सन 42 के भारत छोड़ो आन्दोलन पर केन्द्रित है। लेकिन इस केन्द्र
के समानान्तर और भी कई उपकेन्द्र हैं जो इस उपन्यास को बहुआयामी, बहुरसात्मक और स्वाधीनता की कामना को
ठोस तथा जीवन्त बनाते हैं। इसमें स्वतंत्रता आन्दोलन और स्वतंत्रता, जीवन के विविध हिस्सों से अलग-ओढ़ी हुई
नहीं है, साक्षात परिदृश्य है,.....।’’32
निश्चित तौर पर
वेद प्रकाश जी की उपर्युक्त बात एकदम सही है क्योंकि इस उपन्यास को पढ़ते हुए इसके
बहुआयामी स्वरूप और इसके विशाल परिदृश्य से पाठक अवगत हो जाता है। सामान्य तौर पर
इतने बड़े उपन्यास के केन्द्र मंे कोई बड़ा नायक होता है और बाकी सभी पात्र, घटनाएँ एवम् उपकथाएँ मुख्य कथा के साथ
नाटकीय रूप में जुड़ती चली जाती हैं। लेकिन इस उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने
बलिया जिले का एक ‘कोलाज़’
प्रस्तुत करने का सफल प्रयत्न किया है।
वहाँ के लोग, उनकी
सोच, उनका रहन-सहन ये सब
इस उपन्यास का हिस्सा है। बलिया का प्राकृतिक वर्णन करने में भी अमरकांत पीछे नहीं
रहे हैं। अमरकांत खुद बलिया जिले के हैं। इसलिए यहाँ से उनका आत्मीय लगाव होना
स्वाभाविक भी है। अपने और बलिया के संबंधों को अमरकांत ने इस उपन्यास में बड़े ही
कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है। निश्चित तौर पर यह उनके रूचि का विषय रहा
इसलिए इसके वर्णन में उन्होंने कोई कमी नहीं रखी।
इस उपन्यास के
बडे़ हो जाने के कारणों में शायद एक कारण यह भी रहा हो। वैसे इतना मोटा उपन्यास
लिखने के पीछे एक और सच्चाई भी है, जिसे
अमरकांत बड़ी सहजता से बतलाते हैं। साक्षात्कार के दौरान उन्होंने बतलाया कि जब यह ‘साक्षात्कार’ में धारावाहिक रूप में छप रहा था तो हर
अंक के लिए एक निश्चित धन राशि अमरकांत को मिल जाया करती थी। आर्थिक परेशानियों के
बीच यह मदद अमरकांत के लिए बड़ी बात थी। कुछ यह भी कारण रहा कि यह उपन्यास इतना
मोटा बना। इस तरह लेखक की रूचि और ‘जरूरत’
दोनों कारणों के एक साथ मिल जाने के
कारण यह उपन्यास इतना मोटा हो गया। अन्यथा अमरकांत के इसके पहले लिखा गया कोई भी
उपन्यास 200-250 पृष्ठों से अधिक का नहीं है।
इस उपन्यास की
खूबियों की चर्चा करते हुए वेद प्रकाश जी लिखते हैं कि, ‘‘.... ‘इन्हीं हथियारों से’ एक महाकाव्यात्मक उपन्यास है। प्रेमचंद
के बाद इस तरह के उपन्यास कम ही लिखे गए हैं। जीवन की भव्यता को कोई एक पुस्तक
जितना समेट सकती है, उतना
यह उपन्यास समेटता है।..... इस उपन्यास में भी सम्पूर्ण युग का व्यक्तित्व स्पष्ट
रूप से अभिव्यक्त हुआ है। व्यास और महाभारत एक युग की देन थे, अमरकांत और उनका यह उपन्यास दूसरे युग
की देन है। क्या हमारे युग का महाकाव्य ऐसा ही नहीं होगा?’’33 वेद प्रकाश जी ने इस उपन्यास को
महाकाव्यात्मक गौरव वाला माना है। साथ ही साथ उन्होंने एक प्रश्न भी किया है कि
आखिर हमारे युग का महाकाव्य ऐसा नहीं तो कैसा होगा? निश्चित तौर पर यह प्रश्न अमरकांत के
साहित्य को लेकर पुनः एक नये विमर्श की तरफ इशारा कर रहा है।
यह उपन्यास खुद
अमरकांत की अपनी सीमाओं को तोड़ता सा दिखायी पड़ता है। उनकी कहानियों एवम् अन्य
उपन्यासों को लेकर समीक्षक अक्सर एक बात बड़ी आसानी से कह जाते थे कि अमरकांत चूँकि
‘मोहभंग’ के कथाकार है इसलिए उनके सभी पात्र
हमेशा गहरी निराशा और ‘करूण
काईयॉपन’ से ग्रस्त रहे हैं।
लेकिन इस उपन्यास की स्थिति भिन्न है। ‘‘इस उपन्यास में निराशा और मोहभंग नहीं, जीवन में भरपूर आस्था, उत्साह, आशा तथा भविष्य की एक कल्पना है जिसका
आधार है - साधारण जनता का ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध संयुक्त प्रतिरोध। इस
कृति में आशा और आस्था के पीछे स्वाधीनता आन्दोलन है जबकि कहानियों की पृष्ठभूमि
में स्वातंत्रोत्तर भारत की विसंगत जीवन-स्थितियाँ।’’34
अमरकांत के
रचनात्मक साहित्य पर गिरिराज किशोर जी लिखते हैं कि, ‘‘रचनात्मक लेखन के संदर्भ में एक और बात
मुख्य है वह है प्राथमिकताओं का निर्धारण। प्राथमिकता निर्धारण करते समय लेखक के
सामने मुख्य बात उसके युग का संघर्ष है। अनुभव और तत्कालीन मानव मूल्यों के बीच से
उभरने वाला संघर्ष! ऐतिहासिक परिवेश और समकालीनता के बीच स्थापित होने वाला वह
बारीक रिश्ता जो कभी नजरअंदाज हो जाता है। लेखक की ऐतिहासिकता की समझ इस
प्राथमिकता को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण योगदान देती है।..... लेखक बनने की
यह भी एक अनिवार्य शर्त है कि वह मानवीय मूल्यों के संदर्भ में अपने युग की
सामाजिकता और आर्थिक ऐतिहासिकता का भी विश्लेषण करे।’’35
यद्यापि गिरिराज
जी का उपर्युक्त वक्तव्य अमरकांत के संपूर्ण रचनात्मक साहित्य को लेकर किया गया
है। पर यह ‘इन्हीं हथियारों से’
के संदर्भ अधिक सटीक प्रतीत होता है।
बलिया के लोग पेचकस, लाठी,
पुरानी साइकल, भोंपू, पलाश और ड़डा लेकर अंग्रेजों की बंदुकों
का सामना करने निकल पड़ते हैं। दलित, मजदूर, बच्चे
औरतें, व्यापारी, मुसलमान और वेश्याएँ भी इस आंदोलन का
हिस्सा बनने के लिए आतुर दिखायी पड़ती हैं। परिस्थितियों को बदलने की इच्छाशक्ति उन
दिनों कितनी प्रबल थी, इसे
समझा जा सकता है।
इस उपन्यास के
माध्यम से अमरकांत ने एक कोशिश यह भी की है कि इतिहास में गाँधी का मूल्यांकन नए
सिरे से होना चाहिए। यह अमरकांत की नई और अनोखी पहल है। खुद अमरकांत के शब्दों में
‘‘...... मैंने उपन्यास लिखा ‘इन्हीं हथियारों से’ कम्युनिस्ट पार्टी ने पाकिस्तान बनने का
समर्थन किया था, 42
के दिनों में। इस उपन्यास में मैंने कम्युनिस्ट पार्टी की इसी बिंदु पर आलोचना की
है। उस समय कांग्रेसियों का ट्रेंड किधर जा रहा था? फिर उस दौर में कम्युनिस्टों की
गतिविधियों पर और तरह से भी प्रश्नचिन्ह लगाये गये हैं। इन सारे बिंदुओं को मिस
करते हुए भावुकता के आवेग में यह आरोप लगाना कि इस उपन्यास में गाँधी का
महिमामण्डन है, सही
नहीं है। साहित्य में लोकतंत्र विरोधी माहौल से मुझे बहुत रोष है। ‘इन्हीं हथियारों से’ में गाँधी को यथार्थपरक दृष्टि से देखने
का प्रयत्न किया है। यथार्थ विरोधी दृष्टि से गाँधी की बुराई करना उतना ही बुरा है
जितना कि उनका अकारण महिमामण्डन करना। गाँधी साम्राज्यवाद विरोध के महान स्तंभ थे।
खादी चरखा द्वारा उन्होंने साम्राज्यवाद को भारी चुनौती दी थी। मैं गाँधीवादी नहीं
हूँ, लेकिन मैं यह अवश्य
चाहता हूँ कि हमारे इतिहास में गाँधी की भूमिका का सही मूल्यांकन होना चाहिए जो
अभी तक नहीं हुआ है।’’36
इस उपन्यास के
संदर्भ में वेद प्रकाश जी के शब्दों में अंतिम रूप से यही कहा जा सकता है कि,
‘‘..... यह उपन्यास लेखक की
कहानियों की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है। यह समकालीन राजनीति और व्यवस्था से
नैतिकता और ईमानदारी की माँग करता है। समकालीन भ्रष्टाचार तथा अमानवीयता पर गहरी
चोट करता है। अमरकांत की कहानियों को एक निरंतरता देता है। लगता है जैसे उनका सारा
साहित्य मिलकर विसंगति का विशाल बिम्ब निर्मित कर रहा हो।’’37
9) सुन्नर पांडे की पतोह
112 पृष्ठों का यह
छोटा सा उपन्यास सन् 2005 में ‘राजकमल
प्रकाशन प्रा. लि.’ द्वारा
प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास अपने पति द्वारा परित्यक्त राजलक्ष्मी नामक स्त्री की
कहानी है जो अपने ही ससुर की बुरी नीयत को ताड़कर घर छोड़कर निकल जाती है। घर से
बाहर निकलकर वह समाज के नर-भेडियों से न केवल अपनी इज्जत की रक्षा करती है बल्कि
कुछ ऐसे कार्य भी करती है जो उसके जैसी समाज की स्त्रियों के लिए एक सबक, एक प्रेरणा स्त्रोत का काम करता है।
रविवार दिनांक 27
नवंबर 1988 को ‘जनसत्ता’
में अमरकांत का एक साक्षात्कार छपा।
उनसे यह साक्षात्कार कुमुद शर्मा ने लिया था। इस साक्षात्कार में उन्होंने बतलाया
कि, ‘‘जीवन की कई घटनाओं को
देखने-सुनने से ही इस रचना को लिखने की प्रेरणा हुई थी। कभी एक कहानी लिखी थी ‘सुहागिन’ नाम से जो छपी नहीं। छपने के लिए कहीं
भेजी ही नहीं। बाद में सोचा कि इस पर विस्तार से लिखना ठीक होगा। इसमें एक ऐसी
स्त्री की कहानी है जो अशिक्षित है, जिसका पति उसे छोड़कर चला जाता है। लेकिन वह बिना सहारे के अपनी
जिंदगी काट देती है। वह काफी संवेदनशील और संघर्षशील स्त्री है। उसे उपयुक्त
परिवेश मिला होता तो एक अधिक क्षमतावान स्त्री के रूप में उसका विकास हो सकता था।’’38
यह पूछे जाने पर
कि इस उपन्यास के पीछे उनकी मानवीय, सामाजिक और राजनीतिक चिंता क्या है? तो अमरकांत कहते हैं कि, ‘‘समाज में स्त्रियां जो विडंबनापूर्ण
जीवन व्यतीत कर रही हैं, उसी
से संबंधित रचना है। हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि नारी की क्षमताओं को पूरी
अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती। जिस सामाजिक परिवेश और मान्यताओं में वह जीती है,
उसकी तात्कालिक जिंदगी और उसकी क्षमताओं
के बीच काफी चौड़ी खाई नजर आती है। इसलिए वह समाज में कारगर भूमिका अदा नहीं कर
पाती। उसका सारा जीवन नारी जीवन की व्यर्थता की ओर ही संकेत करता है। इस तरीके से
आप सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को भी समझ सकते हैं कि यह कितनी पिछड़ी हुई है।’’39
अमरकांत के
उपर्युक्त वक्तव्य से स्पष्ट है कि वे सामाजिक मान्यताओं और स्त्रियों की क्षमताओं
के बीच निहित खाई से अच्छी तरह परिचित हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी
मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा
और स्त्रित्व की रक्षा में ही उसका सारा श्रम लग जाता है। ऐसी ही स्त्री की
जिजीविषाओं का लेखा-जोखा अमरकांत ने इस उपन्यास ‘सुन्नर पांडे की पतोह’ के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
राजलक्ष्मी का
विवाह झुल्लन पांडे से होता है। पर सास यह नहीं चाहती कि राजलक्ष्मी और झुल्लन के
बीच पति-पत्नी जैसे घनिष्ठ संबंध इतने जल्दी बने। वह इन दोनों के प्रेम के बीच
दीवार की तरह खड़ी हो जाती है। माता के इस तरह के व्यवहार और घरेलू परिस्थितियों से
तंग आकर आखिर एक दिन झुल्लन घर छोड़ कर कहीं चला जाता है।
सास अतिराजी का
व्यवहार राजलक्ष्मी के प्रति हमेशा ही कठोर रहा। उसके मन में राजलक्ष्मी के प्रति
इतनी घृणा भरी रहती है कि वह अपने पति सुन्नर पांडे को उकसाती है कि वह राजलक्ष्मी
के साथ सोने जाये। वह सुन्नर पांडे से कहती है कि, ‘‘आप जाइए न - कहने पर दरवाजा खोल देगी।
पता नहीं कौन-कौन तो आते रहते हैं दिन-रात। मैं कहाँ तक देखती रहूँगी? जाइए, जाइए - अभी जवान है - आसानी से गोद में
आ जाएगी - जाइए, उठिए।.....
मैं क्या कहूँगी - मैं तो उसकी जवानी मिट्टी में मिला देना चाहती हूँ।’’40
अतिराजी की बातों
से स्पष्ट है कि वह राजलक्ष्मी को बिलकुल पसंद नहीं करती है। कारण यह था कि उसने
अतिराजी की इच्छा के विरूद्ध अपने पति से संबंध बनाये और माँ बनी। हलाँकि उसका
बच्चा कुछ दिनों बाद मर जाता है। सास-ससुर की बातें सुनकर राजलक्ष्मी का खून खौल
जाता है। वह उनके सामने आकर कहती है कि, ‘‘मैं आप दोनों की बातें सुन चुकी हूँ। मैं नहीं जानती थी कि आप
लोग इतना गिर जाएँगे। पर मैं कहे देती हूँ - मुझमें सती का तेज है। जिनके हाथों
में मैंने अपना हाथ दिया था, उन्हीं
के लिए मैं अभी जिन्दा हूँ। मैं अपने तेज से आप दोनों को भस्म कर सकती हूँ। और कुछ
नहीं तो मैं अपनी जान दे सकती हूँ।’’41
इस तरह मन में
असीम पीड़ा के साथ सुन्नर पांडे की पतोह घर छोड़ देती है और अनजानी-अनदेखी राह पर
निकल देती है। मध्यमवर्गीय परिवारों में निहित अभाव, आक्रोश, पीड़ा, दीनता और पारिवारिक परिस्थितियों के
चित्रण में अमरकांत को महारत हासिल है। यह उपन्यास भी इसी का एक सुंदर उदाहरण है।
जीवन की सच्चाई को पूरी ईमानदारी से चित्रित करते हुए अमरकांत कभी-कभी अक्सर खुद
बड़ी जड़ स्थिति पैदा कर देते हैं। इसलिए उनकी कई कहानियों और उपन्यासों को पढ़ते समय
अक्सर यह लगता है कि कथानक कुछ अलग होता है तो अधिक अच्छा होता। पर ऐसा सोचते समय
हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि अमरकांत जीवन को जीवन में रहते हुए ही चित्रित करना
पसंद करते हैं। कहानी को कलात्मक रूप से सजाना अच्छा है पर सिर्फ सजावट में यथार्थ
की बुनियाद से उखड़ जाना उन्हें पसंद नहीं है।
अमरकांत के संदर्भ
में मार्कण्डेय जी लिखते हैं कि, ‘‘अमरकांत
उन्हीं लेखकों में से एक हैं, जो
निकट के छूटे हुए जीवन की ओर बार-बार लौटते हैं, इसलिए जहाँ उनकी रचनाओं के चरित्र
समसामयिक मालूम होते हैं, वहीं
इस बात का भी संकेत देते हैं कि लेखक की चेतना में इन चरित्रों के बाद एक खालीपन
आना शुरू हो गया है। जीवन के संबंध में एक अपरिवर्तनशील दृष्टि का जो आभास अमरकांत
के एक रूपी कथानकों ने शुरू में देना शुरू किया था, वह अब एक तरह से ठहरा हुआ अनुभव-बोध-सा
लगने लगा है।’’42
मार्कण्डेय ने यह
बात बहुत पहले लिखी है। पर अमरकांत के पूरे साहित्य पर हम आज भी नजर डालें तो यह
बात सही ही लगती है। उनकी यह ‘अपरिवर्तनशील
दृष्टि’ ही सही अर्थो में
उनकी सबसे बड़ी शक्ति है। यहाँ ‘अपरिवर्तन’
किसी ठहराव का प्रतीक न होकर लेखक की
अपने समाज, साहित्य और लेखन के
प्रति की गई प्रतिबद्धता का प्रतीक है। बहुत संभव है कि ‘सुन्नर पांडे की पतोह’ राजलक्ष्मी अपना घर छोड़ने के बाद कभी न
कभी किसी अच्छे पुरूष का स्नेह व आसरा पाकर अपनी गृहस्थी फिर से बसा लेती। या फिर
जीवन की सच्चाई को स्वीकार करते हुए अपनी देह को ही अपने जीवन यापन का सबसे सशक्त
हथियार बनाती। लेकिन अमरकांत के यहाँ यह संभव नहीं है। उनके पात्र सिर्फ रचना की
गुणवत्ता के लिए अपने स्वभाव का परित्याग नहीं करते। वे वैसे ही जीवन को स्वीकार
करते हैं और संघर्ष करते हैं।
समग्र रूप से
अमरकांत के इस उपन्यास के संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि इस उपन्यास के माध्यम
से वे मध्यमवर्गीय परिवारों की विडम्बनाओं, उनकी सामाजिक राजनीतिक एवम् आर्थिक
स्थिति के बीच परित्यक्त स्त्री के जीवन संघर्ष को पूरी सहजता और मार्मिकता के साथ
चित्रित करते हैं। स्त्री संघर्ष से जुड़ा यह उपन्यास एक छोटी परिधि का बड़ा उपन्यास
है। क्योंकि अपने छोटे से कथानक के दायरे में इस उपन्यास ने समाज में व्याप्त कई
बुनियादी सवालों को उठाने की कोशिश की है।
10) लहरें
अमरकांत का यह
उपन्यास अभी पुस्तकाकार रूप में नहीं छपा है। इसका प्रकाशन कादम्बिनी पत्रिका के
उपहार अंक-1 में अक्तूबर, 2005
में हुआ। लेकिन यह उपन्यास, अमरकांत
की कथा यात्रा का एक प्रमुख एवम् महत्वपूर्ण पड़ाव है। अतः अमरकांत के उपन्यासों की
चर्चा में इसका भी
जिक्र आवश्यक है।
इस उपन्यास के संदर्भ
में अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ‘‘इस
दुनिया में स्त्री और पुरूष परस्पर विरोधी प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। वे बनावट और
प्रकृति में भिन्न होते हुए भी परस्पर सहयोगी, सहभागी एवम् संपूरक हैं। उनके मेल से ही
एक संपूर्ण संसार बनता है और दूसरा नया संसार निर्मित होने की भूमिका तैयार होती
है। स्पष्ट है कि किसी सामाजिक प्रगति या नये समाज के निर्माण में इनका परस्पर
स्वैच्छिक, मनपसंद सहयोग एवं
सहभागिता जरूरी है परंतु आज के भारतीय समाज में शिक्षा, आर्थिक स्वावलंबन, जनतांत्रिक अधिकार, सुरक्षा, न्याय आदि के मामलों में स्त्रियों की
प्राप्तियाँ वांछित अनुपात से बहुत ही कम हैं, अतः दोनों के परस्पर संबंधों के संदर्भ
में अमूमन स्त्रियों के विरूद्ध इतना असंतुलन, जोर-जबर्दस्ती, पाखंड, उत्पीड़न, अन्याय तथा हिंसा है।............ कुछ
बातें तो मैंने उस समय देखी या सुनी थीं, जब मेरी उम्र बीस वर्ष भी नहीं थी। ....... वर्षो पहले 1995
में भीष्म साहनी का एक पत्र पाकर मैंने इसी समस्या पर एक लंबी कहानी लिखने की
कोशिश की थी किंतु सफलता नहीं मिली। अब उक्त कथा लघु उपन्यास के रूप में प्रस्तुत
है। नारी-पुरूष संबंधों के अनेक रूप एवम् आयाम हैं, जिन पर लेखक लोग लिखते ही रहते हैं। यह
एक रचनात्मक कृति है और इसमें नारी-पुरूष संबंधों के कुछ रूप तथा नारी समाज के
आंदोलित मन की एक झलक प्रतिबिंबित है।’’43
स्त्री विमर्श की
चर्चा आज जोरों पे है। ऐसे में यह उपन्यास समय के साथ अमरकांत की कदमताल का प्रतीक
है। वे एक सजग साहित्यकार है। स्त्री के शोषण एवम् उसके अधिकारों को लेकर वे
लगातार लिखते रहे हैं। लहरें
भी इसी लेखन की एक अगली कड़ी है।
लहरें बच्ची
देवी नामक एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसका विवाह श्यामा प्रसाद नामक एक नौकरी
पेशा पढ़े लिखे व्यक्ति से होती है। लेकिन शादी के बाद जब श्यामा प्रसाद को पता
चलता है कि उसकी पत्नी निपट गवार, भुच्चड़,
भुख्खड़ और सिर्फ दो कक्षा तक पढ़ी है तो
वह गुस्से में उसे माँ-बाप के पास ही छोड़कर शहर चला आता है। उसके पिता उसे समझाने
की पूरी कोशिश करते हैं पर वह किसी की एक नहीं सुनता।
श्यामा प्रसाद को
शादी के पहले बताया गया था कि बच्ची देवी पढ़ी लिखी, सुंदर और संस्कारों वाली लड़की है। पर
विवाह के बाद उसे समझ में आ जाता है कि उससे झूठ बोला गया था। अतः वह अपनी पत्नी
को गाँव छोड़कर शहर में रहने लगा था। पर एक दिन उसे अपने पिताजी का पत्र मिलता है।
पत्र में उन्होंने लिखा था कि अब वे अपने अंतिम दिन गिन रहे हैं। वे अब बच्ची देवी
का खयाल नहीं रख सकते। अतः वह आकर अपनी पत्नी को अपने साथ ले जाये। फिर भले ही उसे
शहर लाकर मार डाले। इस पत्र को पढ़कर श्यामा प्रसाद को पिताजी पर दया आयी और वह
अपनी पत्नी को अपने साथ गाँव से शहर लेकर आया।
बच्ची देवी के आ
जाने पर उसके मोहल्ले की स्त्रियाँ उससे मिलने को आतुर हो उठती हैं। कारण यह था कि
श्यामा प्रसाद अभी तक अकेले रहते थे, तो मोहल्ले की औरतों को घूरना, अजीब तरह से इशारे करना आदि ऐसी ही
बातों के कारण वे स्त्रियों के बीच चर्चा का विषय रहते थे। अब जब उनकी पत्नी आ
जाती है तो सब स्त्रियाँ यह जानने को उत्साहित हो जाती हैं कि ऐसे आवारा और झैला
बनकर घूमने वाले व्यक्ति की स्त्री आखिर कैसी है?
धीरे-धीरे मोहल्ले
भर के लोगों को पता चल जाता है कि श्यामा प्रसाद की औरत निपट गवार है और श्यामा
प्रसाद हमेशा उसे डॉटता ही रहता है। बच्ची देवी की जान पहचान धीरे-धीरे मोहल्ले की
सुमित्रा, सरोजबाला और विमला
जैसी स्त्रियों से हो जाती है। सुमित्रा जब बच्ची देवी से मिलती है और उसकी बातें
सुनती है तो उसे यह एहसास हो जाता है कि ग्रामीण समाज में स्त्रियों की दशा कितनी
दयनीय है। उनका कितना शोषण होता है। वे अपने को कितना दीन-हीन और गिरा हुआ समझती
हैं। जब बच्ची देवी कहती है कि, ‘‘ए
बहिनी, छोड़ो इन बातों को....
सच तो यह है, मर्द
चाहे जैसा हो, स्त्री
का भरण-पोषण तो उसी से होता है। मर्द से ही तो स्त्री की जिनगी है, मर्द ही उसका सहारा है, उसकी इज्जत है। न होने से तो अच्छा है
शराबी, रंडीबाज, ऐवी, अंधा, कोढ़ी, लूला कोई भी मर्द हो।....’’44 तो सुमित्रा जी की आँखों से भी आँसू
गिरने लगते हैं।
सुमित्रा उसे खूब
समझाती हैं। मोहल्ले की स्त्रियों द्वारा बनायी गयी मंडली में आने के लिए कहती
हैं। पढ़ने-लिखने, कपड़े
पहनने और खाना किस तरह परोसना चाहिए जैसी सभी बातें उसे सिखाती हैं। बच्ची देवी भी
पूरा मन लगारक सब सीखती है। वह अपने आप को बदलने की कोशिश करने लगती है। परिणाम
स्वरूप उसका उठना-बैठना, बात-व्यवहार
सब बदलने लगता है।
पर श्यामा प्रसाद
को अपनी पत्नी का यह बदला हुआ रूप बिलकुल पसंद नहीं आता है। जब उसे यह मालूम पड़ता
है कि उसकी पत्नी पढ़ना और सिलाई का काम सीख रही है तो वह गुस्से से लाल हो जाता
है। वह बच्ची देवी को घर से बाहर निकाल देता है। जब मोहल्ले की औरतों को यह पता
चलता है कि बच्ची देवी के साथ श्यामा प्रसाद ने अन्याय किया है तो वे सब बच्ची
देवी को साथ लेकर श्यामा प्रसाद के पास पहुँँचती हैं।
लेकिन बिस्तर पर
पड़े श्यामा प्रसाद की हालत देखकर वे डर जाती हैं। डाक्टर बुलाये जाते हैं। पता
चलता है कि उन्हें हल्का दिल का दौरा पड़ा था। धीरे-धीरे श्यामा प्रसाद की हालत में
सुधार होता है। उनका व्यवहार बच्ची देवी के प्रति नरम एवम् सामान्य है। पर बच्ची
देवी के मन में एक डर बना रहता है कि कहीं पूरी तरह ठीक हो जाने के बाद श्यामा
प्रसाद पुनः अपना ‘मर्दानापन’
न दिखाने लगे। अमरकांत का यह उपन्यास
बच्ची देवी के मन में निहित आशंका के साथ ही समाप्त हो जाता है।
अमरकांत का यह
उपन्यास जिन संदर्भो में नया है वह यह कि पहली बार अमरकांत का कोई पात्र बदलाव की
प्रक्रिया से जुड़कर अपनी स्थिति को बदलने की चेष्टा करता हुआ दिखायी पड़ रहा है। ‘बच्ची देवी’ ऐसी ही एक पात्र है। अन्यथा अमरकांत के
बारे में अक्सर यह कहा गया कि, ‘‘जीवन
के संबंध में एक अपरिवर्तनशील दृष्टि का जो आभास अमरकांत के एक रूपी कथानकों ने
शुरू में देना शुरू किया था, वह
अब एक तरह से ठहरा हुआ अनुभव-बोध-सा लगने लगा है।’’45
अमरकांत का यह
उपन्यास निश्चित तौर पर स्त्रियों के स्वावलंबन और समाज में पुरूषों के बराबर
अधिकार की वकालत करते हुए उन्हें संगठित रूप से अपने अधिकारों के लिए लड़ने की
प्रेरणा प्रदान करता है। इस उपन्यास का शीर्षक ‘सुरंग’ वास्तव में स्त्रियों को जीवन में
अशिक्षा, गरीबी, परावलंबन और शोषण रूपी अंधेरे के बीच से
शिक्षा, संगठन, अधिकार, स्वावलंबन और आत्मसम्मान की सुरंग से
निकलते हुए समाज मे अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराने के लिए प्रेरित करता सा मालूम
पड़ता हैं।
स्त्री विमर्श के
नाम पर ‘स्त्री देह विमर्श’
में अपनी सारी शक्ति लगा देने वाले
तथाकथित स्त्रीवादी रचनाकारों (जिन में स्त्री और पु़रूष रचनाकार दोनों ही शामिल
हैं) को अमरकांत से सबक लेना चाहिए। जिस संयम और सजगता के साथ अमरकांत कथानक को
उसके भारतीय स्वरूप में रखते हुए़ स्त्रियों के आंदोलित मन का चित्रण करते हैं वह
सराहनीय है।
11) बिदा की रात
‘बिदा की रात’ अमरकांत का नवीनतम उपन्यास है जो अभी तक
पु़स्तकाकार रूप में तो नहीं छपा लेकिन ‘बया’ पत्रिका
के प्रथम अंक दिसंबर 2006 में प्रकाशित हो चु़का है। यह उपन्यास कई संदर्भों में
अमरकांत के कथासाहित्य में महत्वपर्ण स्थान रखता है। अमरकांत ‘नई कहानी आंदोलन’ के प्रमुख रचनाकारों में से एक हैं।
आज़ादी के बाद के मोहभंग, भ्रष्टाचार,
अवसरवादिता और लालफीताशाही को लेकर
अमरकांत लगातार लिखते रहे हैं। लेकिन इधर उनके तीऩ उपन्यासों में विषय की नवीनता,
चिंतन की नई दृष्टि और ऐतिहासिक संदर्भो
में पु़र्नमूल्यांकन की बात बड़ी तेजी से उभरकर सामने आयी है। ये तीन उपन्यास है,
इन्हीं हथियारों से, सु़रंग और बिदा की रात।
‘बिदा की रात’ उपन्यास के केन्द्र में तीन-चार
समस्याएँ मु़ख्य रूप से उठायी गयी है। आज़ादी के साथ देश विभाजन की नीति से सामान्य
हिंदू-मु़स्लिम परिवारों पर इसका असर, आज़ादी के बाद का मोहभंग, बढ़ती अवसरवादिता और भ्रष्टाचार तथा
मुस्लिम परिवारों में औरतों की स्थिति; ये कु़छ ऐसे बिंदु़ हैं जिन्हें केन्द्र में रखते हु़ए ही
अमरकांत ने ‘बिदा
की रात’ उपन्यास को लिखा है।
देश के विभाजन और मु़स्लिम परिवारों को केन्द्र में रखकर लिखा गया यह अमरकांत का
पहला उपन्यास है। कथानक के अनु़रूप ही इसमें अरबी-फारसी के शब्दों की भरमार है।
गोरखपुर के परिवेश का जिस सहजता और सरलता के साथ वर्णन अमरकांत ने किया है वह उनके
व्यक्तिगत अनु़भवों एवम् सक्ष्म विवेचन क्षमता का ही प्रमाण है। उपन्यास की मुख्य
कथा को विस्तार देने के लिए व मु़ख्य कथा में कई अन्य कथाएँ भी जोड़ी गयी हैं। उनकी
भी विवेचना विस्तार से की गयी है। किंतु यह विस्तार किसी भी दृष्टि से अनु़चित
नहीं प्रतीत होता साथ ही साथ मुख्य कथा से सारी कथाएँ प्रसंगवश जु़ड़ती हु़ई एकदम
सहज ही प्रतीत होती हैं।
उपन्यास मुख्य रूप
से तीन भागों में विभक्त है। पूरे उपन्यास के केन्द्र में है ज़ाफरा बाज़ार की
सु़ल्ताना बेगम। जो 50 वर्ष की उम्र पार कर चु़की है और लकड़ी की टाल पर बैठकर अपने
बेटे यु़सु़फ का इंतज़ार कर रही है। यु़सुफ उसका इकलौता बेटा है। पति की मृत्यु़ के
बाद यही उसका सबकु़छ था। वह अपनी अम्मी की बड़ी इज्जत करता था। बी.ए. फाइनल का
रिजल्ट निकलने वाला था, वह
घर लौटा नहीं तो सु़ल्ताना के मन में कई बातें आ रही थी। सु़ल्ताना के पास ही रहकर
मजदरी का काम करनेवाला ‘गफ्फार’
‘घर के आदमी’ जैसा ही था। वह बड़ा सीधा, मेहनती और भरोसे का आदमी था।
सु़लताना के भाई
हकीम अहमद का बेटा अकबर भी सु़ल्ताना की ही एक दसरी कोठरी में रहकर पतंग, लटाई, माँझा बेचने और लट्ट में गँजा ठोकने का
काम करता था। वैसे उर्द बाज़ार में उसके वालिद की कॉपी-किताब और बाइंडिंग की मशहर
दु़कान थी। पर उसका मन पतंग वाली दु़कान में ही लगता। हकीम अहमद उसे लेकर काफी
परेशान थे लेकिन अपनी बाजी सु़लताना की बात मानकर उसे पतंग की दु़कान चलाने की
अनु़मति दे चु़के थे। सु़लताना का खयाल था कि एक बार अकबर पतंग की दु़कान भी सँभाल
ही लेगा। लेकिन अकबर की वालिदा नग़मा बेगम को सु़लताना का यह निर्णय ठीक नहीं लगा।
उसे लगा कि सु़लताना उसके बेटे को आवार बनाना चाहती हैं, इसीलिए उसे पतंग की दु़कान खोलकर दे रही
है। वह गु़स्से में सु़लतान के घर पहुँचकर उसे खब बु़रा-भला कहकर उसके मन को आहत
करती है।
ननद-भौजाई में खब
झगड़ा होता है। इतने में वहाँ अकबर पहुँच जाता है और वह अपनी बु़आ की तरफ होकर अपनी
वालिदा पर ही गरजने-बरसने लगता है। नग़मा रोती हु़ई वहाँ से चली जाती है। सु़लताना
अकबर को डाँटती है और आखिर में उससे इस बात पर सु़लह करती है कि वह उसकी दु़कान
चलाने देगी मगर नाश्ता, खाने
और सोने के लिए उसे अपने घर उर्दू बाज़ार जाना पड़ेगा।
सु़लताना अपनी तीऩ
बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी थी। सु़लताना के वालिद वकील अहमद और वालिदा मेहताब
बेगम के गु़लशन में सु़ल्ताना, फ़रज़ाना,
रूखसाना और हकीम ये खबसरत गु़ल थे। वकील
अहमद अपने मरहम अब्बा हु़जर की दु़कान को चलाने और विस्तार देने में लगातार मेहनत
करते रहे। उससे पैसा भी खब आ रहा था। उनकी बेगम मेहताब ‘‘कांग्रेसी रोशनख़याली में पली बढ़ी थी,
....मेहताब बेगम हम उम्र
पड़ोसिनों और रिश्तेदारिनों से दबी ज़बान में पर्दा-बु़र्का की नु़क्ताचीनी करतीं,
लड़कियों को अधिक से अधिक पढ़ने की वकालत
और पढ़-लिखकर स्कलों और दफ्तरों में नौकरी करके अपने पैरों पर खड़ा होने की हिमायत
भी करती।46 लेकिन उनकी सास तराना बेगम इस नए खयालात की ताईद और हिमायत से इत्तफ़ाक
नहीं रखती थी। फिर वकील अहमद भी अपनी खबसरत बेगम पर लट्टू तो थे मगर उसके अधिक
पढ़ी-लिखी होने और काँग्रेसी मायके में हासिल खुले खयालात को ससु़राल पर थोपने की
स्थिति में वे अपने अंदर एक तरह का ‘इनफीरियारिटी कॉम्पलेक्स’ महसूस करते।
नतीज़तन मेहताब
बेगम को सास और पति दोनों का विरोध झेलना पड़ा। सास ने उन्हें चेतावनी देते हु़ए
कहा कि,‘‘-- तु़म
इस खानदान में बीवी बनकर आई हो या शहर कलक्टर? ये कहियात बातें अपने नैहर मंे ही जाकर
कहना। हमारा तो इज्ज़त-आबरू और तहजी़ब वाला खानदान है, यहाँ ये बगावती नामाकूल बातें कोई भी
बरदाश्त नहीं करेगा।’’47
पति ने भी चेताते हुए कहा कि, ‘‘....आप साफ-साफ़ समझ लीजिए यह, कोई कांग्रेसी खानदान नहीं है, हम विलायत की नक़ल करके औरतों की नु़माइश
पर यकीन नहीं रखते। तालीम और रौशन खयाली हमें भी पसंद है, लेकिन वह इस्लाम के उसूलों और सीख की हद
में ही रहकर।’’48
यहाँ पर अमरकांत
ने कई समस्याओं को रेखांकित करते हुए उसके मूल में निहित कारणों को भी स्पष्ट किया
है। पहली समस्या तो उन्होंने यह दिखलायी कि औरतों को शिक्षा के माध्यम से सही-गलत
का अंदाजा तो हो रहा था पर उन्हें निर्णय लेने का अधिकार नहीं था । दूसरी परेशानी
पु़रूषों की उस मानासिकता को लेकर उजागर होती है जो पत्नी के अधिक पढ़-लिख जाने या
उसके विचार संपन्न हो जाने पर अंदर ही अंदर हीनता के भाव से ग्रस्त हो जाता है।
साथ ही साथ मु़स्लिम समाज जिस तरह धर्म और रवायतों के नाम पर बदलते सामाजिक परिवेश
में बदलाव को अपनाने से कतराता रहा, वह उसके लिए किसी भी ढ़ग से फायदेमंद न हो सका। इस बात को भी
अमरकांत ने कई जगह संवादों के माध्यम से सामने लाने का प्रयास किया है। इन सब के
बीच घर की चार दीवारी और पर्दे के पीछे इस समाज की औरतें सबकुछ सहने के लिए
अभिशप्त थी।
18 वीं शताब्दी के
मानवतावाद एवम् औद्योगिक क्रांति ने ‘नारीवाद’ को
भी जन्म दिया। यह वह समय था जब स्त्रियों ने पु़रूषों के समान अधिकारों के लिए
लड़ाई लड़ने की अपनी तैयारी दिखायी। उनकी यह लड़ाई राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षिक समानता के लिए थी।
समान अधिकारों की बात को लेकर जो आंदोलन 18वी शताब्दी में ग्रेट ब्रिटेन और
संयुक्त राज्य अमेरिका से शु़रू हु़आ था वह 1970 के आस-पास आकर अपने मल उद्देश्यों
से भटक गया। अब यह ‘नारीवाद’
सिर्फ महिलाओं की यौन स्वतंत्रता तक ही
उसकी ‘मुक्ति’ को मान रहा था। परिणाम स्वरूप आगे चलकर
इस आंदोलन से जुड़े कई लोगों ने इससे अपने आप को अलग कर लिया।
अगर बात भारत के
संदर्भ में करें तो हम पायेंगे कि राजनैतिक सरगरमी, समाज सुधार और स्त्री शिक्षा के
प्रयासों के द्वारा हमारे यहाँ नारीवादी आदोंलन की शु़रूआत होती है। उन्नीसवीं शती
का उत्तरार्ध ही वह समय था जब कई समाजसु़धारक इस दिशा में प्रयास कर रहे थे।
अंग्रेजों द्वारा नई शिक्षा प्रणाली आयी, हम ज्ञान-विज्ञान के नये क्षेत्रों से जु़ड़े और काफी संघर्ष के
बाद हमनें आजा़दी पायी। आजा़दी के बाद नौकरी पेशा मध्यवर्गीय समाज का नया स्वरूप
सामने आया। यह वह तबका था जो धीरे-धीरे आधुनिक बन रहा था। अब लड़कियों को पढ़ाने की
बात होने लगी थी, दहेज
का विरोध होने लगा था, हर
क्षेत्र में लड़कियों की सहभागिता का गौरवगान होने लगा था। लेकिन इन सब के बावजूद
पुरानी परंपराएँ, रवायतें
और धार्मिक मान्यताओं से इस नई पीढ़ी को हर कदम पे दो-दो हाँथ करने पड़ रहे थे।
ऐसे में आर्थिक
परावलंबन कुल खानदान की ऊँची नाक और धर्म के आगे स्त्रियों को न केवल झुकना पड़ा
बल्कि कई बार तो टटना भी पड़ा। मु़स्लिम समाज आजा़दी के साथ विभाजन के कारण सशंकित
दृष्टि से देखा जाने लगा था। सियासत दानों ने मजहब के नाम पर अपनी रोटी सेक ली,
किंतु आम मुसलमान को इसकी बड़ी भारी कीमत
चु़कानी पड़ी। न केवल सरहद के इस पार बल्कि उस पार भी। अमरकांत अपने पात्र वकील
अहमद के माध्यम से कहते भी हैं कि, ‘‘....इधर मु़सलमान मारे गये और उधर हिंदू-सिख मारे गए, लाखों लोग उधर और इधर आए और लाखों
कखूँरेजी और भगदड़ के बाद आज दोनों ओर जो बचे हैं, वे अपने दिलों में बँटवारे के जख़्म और
दाग़ लेकर जु़नून और दहशत की जिंदगी गुजा़र रहे है। तब ये बताइए, ऐसी हालत में हम क्या सोचे और क्या
समझें?’’49
अमरकांत की हमेशा
से यह खासियत रही है कि वे अपने पात्रों की यथा स्थिति में बदलाव लाये बिना,
उसकी परिस्थितियों को और जटिल बनाते
चलते है। इससे उस पात्र विशेष के प्रति पाठकों में सहानु़भति तो उसकी परिस्थितियों
के प्रति क्रोध का भाव उत्पन्न होता है। यह वही मानसिक द्वंद्व है जो व्यवस्था और
सामाजिक परिवर्तन के लिए पाठकों को बेचैन कर देता है। मेहताब बेगम भी इस उपन्यास
की ऐसी ही पात्र है। वे सास और पति के डर से अपना व्यवहार बदल देती है। फ़िर सुल्ताना
को जन्म देती हैं। उसके बाद फरजा़ना, रूखसाना और हकीम को। मेहताब बेगम अब बेहिसाब पुरानेपन, जिद्द और कट्टरता से भरती गई। जिंन
बातों के कारण उन्हें ससुराल में ताने सुनने पड़ते थे, उन्ही को अपनाकर वे अपनी प्रतिकूलताओं
को अनुकूलता में बदलने लगी। अपने आप से किया जानेवाला यह अजीब समझौता था, पर इसके अतिरिक्त उनके पास दूसरा रास्ता
भी नही था। इस बदलाव के परिणाम स्वरूप वे ‘एक मजलूम बह से दबंग, मालिक-मु़ख्तार, हु़कूमत चलाने वाली बीवी की पोजीशन में नज़र आने लगी।’’50 सु़ल्ताना इसी माहौल में बड़ी हो रही
थी। वह एक दिन अपने अबबु़ से कहती है कि उसे पढ़ लिख कर डाँक्टर बनना है। बेसहारा
औरतों और बच्चों के लिए कु़छ करना है। सुल्ताना के वालिद को यह बात मन ही मन अच्छी
लगी। ज़माने के साथ वे भी अपने बच्चों को आगे बढ़ते देखना चाहते थे। मगर अपनी बेगम
का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर उन्होंने सु़ल्ताना की बात को गैर वाजिब, वाहियात मानते हुए उसे अपनी अम्मी की
तरह ‘हु़नर’ सीखने की सलाह देते है।
इसतरह ‘हु़नर’ सीखने के नाम पर सु़ल्ताना की पढ़ाई छूट
जाती है। फ़िर उसकी शादी मु़नीर अहमद से कर दी जाती है। मु़नीर बी.ए. पास कर सेंट
एंड्रूज कॉलेज में फ़िलहाल गेम टीचर के तौर पर काम कर रहे थे। उनके वालिद हाजी
अब्दु़ल अजी़ज साहब बड़े मशहर मु़हर्रिर थे, जो बँटवारे के बाद पाकिस्तान में किसी
हाकी क्लब के कोच के तौर पर गये थे। मु़नीर के बड़े भाई सऊदी अरब में कमाई कर रहे
थे। मझले भाई डॉक्टर थे, जो
पाकिस्तान में ही रह रहे थे। एक शादीशु़दा बहन भी थी जो मुनीर के ही साथ रहती थी।
ऐसे परिवार में सुल्ताना का विवाह करके उसके माता-पिता काफ़ी खुश थे।
सुल्ताना और
मु़नीर बड़ी मोहब्बत के साथ अपने दिन बिता रहे थे। मु़नीर अहमद की बड़ी बहन नईमा
उनके साथ ही रहती थी और एक प्राइमरी स्कू़ल में पढ़ाने भी जाती थी। नईमा के जीवन
प्रसंग की भी अमरकांत ने विस्तार से चर्चा की है। नईमा का विवाह उसके वालिद अपने
मित्र फ़ौजदारी वकील गु़रूशरण वर्मा की मदद से मोहम्मद रहमतु़ल्ला से करवा देते हैं
जो कचहरी में ही अहलमद के रूप में कार्य करता था। उसके पिता मोहम्मद बरकतु़ल्ला
नायब तहसीलदार थे।
दबाव डलवा कर यह
शादी तो करा दी गयी पर इससे नईमा को सुख न मिला। उसकी सास शबनम बेगम हमेशा उसे
ताने मारती। रहमतु़ल्ला भी अपनी माँ के आगे कु़छ बोल नहीं पाते थे। नईमा किसी से
कु़छ न कहती, सब
कु़द चु़पचाप सहती रहती। इसी बीच नईमा ने एक बच्चे को जन्म दिया। हमल के दौरान
उसकी अच्छे से देखभाल नहीं हु़ई, इस
कारण वह अब अक्सर बमार रहने लगी। उसकी सास के मन में यह बात गड़ी हु़ई थी कि एक
मामू़ली मु़हर्रिर ने दबाव डलवाकर अपनी बेटी का ब्याह उसके (शबनम बेगम) बेटे से
करवाया है। अतः वह मौका ताड़कर अपने बेटे की दूसरी शादी करा देती है। नईमा कु़छ बोल
नहीं पाती। सबकुछ चु़पचाप सहती रहती है। उसके पिता जब इस संबंध में उससे मिलने आते
हैं तो वह इतना ही कहती है कि, ‘‘अब्बू
यह हमारे खानदान का अन्दरूनी मामला है, हमारी राजी खु़शी में दखल देने का आप लोगों को कोई हक नहीं है।
आदाबर्ज।’’51
मोहम्मद
रहमतु़ल्ला की नई बेगम गु़लशन बड़ी तेज थी। वह नईमा की तरह सबकु़छ चु़पचाप सहने
वालों में से नही थी। उसे नईमा के प्रति हमदर्दी थी। वह रहमतु़़ल्ला को भी ‘मर्दो’ की तरह व्यवहार करने की नसीहत देती
रहती। इस तरह उसके आ जाने से नईमा के परिवार में कलह की नई स्थितियाँ बनने लगी। एक
दिन किसी बात पर रहमतु़ल्ला ने नईमा के बेटे महमूद को खूब पीटा। नतीज़तन वह घर
छोड़कर भाग गया। नईमा तो पागल सी हो गई। फिर मु़नीर अहमद किसी तरह नईमा को अपने घर
लाते हैं और एक प्राइमरी स्कू़ल में उसकी नौकरी की भी व्यवस्था कर देते हैं।
मु़नीर अहमद के
वालिद और गु़रूशरण वर्मा पक्के दोस्त थे। लेकिन आर्थिक दबाव और अपनी ‘पोशीजन’ बरकरार रखने के लिए उन्होंने जनसंघ की
मेंबरशिप कु़़़़़बू़ल की। परिणाम स्वरूप वे पार्टी के बड़े नेता के रूप में उभरने
लगे। उनके विचारों और व्यवहार में भी अंतर आ गया। हॉकी क्लब के चु़नाव में
उन्होंने अब्दु़ल अज़ीज का विरोध किया, परिणाम स्वरूप वे हार गये। नर्मदा प्रसाद नामक व्यक्ति जीते जो
जनसंघ के नए मेंबर हु़ए थे। जब अब्दु़ल अज़ीज ने वर्मा जी से विरोध का कारण जानना
चाहा तो उन्होंने साफ तौर पर कह दिया, ‘‘मु़हर्रिर साहब, आपने पूऱा पाकिस्तान तो हथिया लिया, अब क्या चाहते हैं? यहाँ के लोगों के लिए तो कु़छ छोड़िएगा?’’52
इस तरह बरसों
पु़रानी दोस्ती टू़ट जाती है और अब्दु़ल अजीज भी पाकिस्तान चले जाते हैं। मु़नीर
अहमद ने पिता को जाने से रोकने का खू़ब प्रयास किया। कितनी ही बातें उसने पिता से
कहीं थी। जैसा कि, ‘‘.....मज़हवी
सियासत का जवाब उसकी मु़खालिफ़़़़़़़ सियासत ही है। यह इसलिए है कि मज़हब की बातें
की तो जाती है, लेकिन
मज़हब के उसू़लों पर कोई नहीं चलता। .....आप क्यों नहीं सोचते कि वहाँ धनी-मानी
सियासत करने वाले और सरकारी नौकरीपेशा, तिज़ारत में अहमियत रखने वाले वही लोग गए हैं जो समझते थे कि
उन्हें फ़़़ायदा होगा। यहाँ के करोड़ों मुसलमान तो वहाँ नहीं गए। वे बेपनाह ग़रीबी
में रहते हैं, उनके
पास न मकान है, न
तालीम है, और न कोई अच्छा
रोजगार है। वे छोटे-छोटे काम करके, किसी
तरह अपना गु़ज़ारा कर रहे हैं। वे चाहे भी तो पाकिस्तान नहीं जा पाएँगे। वहाँ उनको
कौन पूछेगा?’’53
लेकिन अब्दु़ल
अज़ीज तँय कर चु़़के थे कि वे अब गोरखपुऱ में नहीं रहेंगे। मु़नीर अहमद भी सु़ल्ताना
का साथ पाकर खु़श थे। वे खू़ब पैसा कमाना चाहते थे। उन्होंने अच्छी कमाई की। फिर
जब कु़छ कारणों वश वकालत टू़टने लगी तो उन्होंने बसों के परमिट निकलवा कर वसू़ली
का काम शु़रू किया। यहाँ भी उन्होंने अच्छी कमाई की। दरअसल उनकी और सु़ल्ताना की
कोई संतान नहीं थी, इसीलिए
अपने जीवन की इस उदासी को खू़ब पैसा कमाकर दू़र करना चाहते थे। सु़ल्ताना अपने पति
का साथ चाहती थी, उसका
प्यार चाहती थी लेकिन मु़नीर खू़ब पैसा चाहता था।
इसी बीच मु़नीर के
वालिद और वालिदा का पाकिस्तान में इंतकाल हो जाता है। मु़नीर, सु़ल्ताना को उसकी बहन के पास बनारस में
छोड़कर पाकिस्तान चले जाते हैं। वहाँ प्रापर्टी के बँटवारे आदि को निपटाकर वे जब
वापस आते हैं तो सु़ल्ताना की गोद में ‘यु़सु़फ’ नाम
का नन्हा बच्चा था। मुनीर सु़ल्ताना को खुश देख राहत महसूस़ कर रहे थे। काम-काज की
दौड़ भाग में अचानक उनकी भी सेहत खराब हो गयी और एक दिन वो भी सु़ल्ताना को इस
दु़नियाँ में अकेला छोड़कर चले जाते हैं। सु़ल्ताना अब अकेली हो गयी थी। यु़सुफ ही
उसका एकमात्र सहारा था। हिम्मत न हारते हुए़ उसने लकड़ी की टाल खोलकर उसपर बैठने
लगी। लकड़ी चीनरे के लिए उसे ‘गफ्फार’
जैसा भरोसेमंद आदमी मिल गया था। फिर
अकबर भी उसी के पास कु़छ दिनों के लिए पतंग की दु़कान खोलकर रहने लगा था। यु़सु़फ़
भी जैसे-जैसे बड़ा हो रहा था, अपनी
अम्मी का पूरा खयाल रखने लगा था।
यु़सु़फ का बी.ए.
फाइनल का रिजल्ट निकला। वह फर्स्ट क्लास पास हो गया था। साथ ही उसे एक प्राइवेट
बैंक में नौकरी का वादा भी हासिल हो गया था। वह बख़्शी बाज़ार में रहनेवाली सु़रैया
को मन ही मन चाहने लगा था। मगर सु़ल्ताना यु़़़सु़फ से सु़रैया को भू़ल जाने के
लिए कहती हैं। यु़सु़फ इसका कारण जानने के लिए बेताब हो जाता है। सुल्ताना पहले तो
टालना चाहती है, पर
अंत में उसे यु़सुफ को सच्चाई बतलानी पड़ती है।
दरअसल जब
सु़ल्ताना बनारस अपनी बहन के पास रहने गयी थी, तभी वहाँ अचानक मज़हबी जु़लू़स के रास्ते
को लेकर अचानक दंगा-फसाद शु़रू हो गया। इसी में पड़ोस की कमला के शौहर हरिहर सिंह
दफ्तर से लौटते वक्त मारे गये थे। कमला ने भी घर में रखी चू़हे मारने की दवा ही खा
ली। वह अपने नवजात बच्चे को लेकर लड़खड़ाती हु़ई सु़ल्ताना के पास पहु़ँची और उससे
बोली कि, ‘‘.....आप
इस नादान लड़के को ले लिजिए। इसे पाल लीजिएगा और जब बड़ा हो जाए तो इसे किसी हिंदू के यहाँ दे दीजिएगा। अनाथालय में न
दीजिएगा.....।’’54
सु़ल्ताना ने भी अल्ला की कसम खाकर मरती कमला को वचन दिया कि वह वही करेगी जो कमला
ने कहा है। फिर सु़ल्ताना ने उसी बच्चे को अपना बच्चा मानकर उसे ‘यु़सु़फ‘ नाम दिया। उसे पढ़ाया-लिखाया। लेकिन उसे
अपना वादा पू़रा करना था। उसे किसी हिंदू को सौपना था।
यु़सु़फ यह सब
सु़नकर फूट-फूट कर रोने लगा। सु़ल्ताना ने उसे खू़ब समझाते हुए़ अपने फर्ज को
अंजाम देने की बात उससे कही। फिर वह सोने के लिए चली गयी। सु़बह अचानक जब उसकी आँख
खु़ली तो वह यु़सु़फ के कमरे मे गयी। यु़सु़फ वहाँ नहीं था। उसके बिस्तर पर से जब
सु़ल्ताना ने ओढ़नेवाली चादर हटाई तो वहाँ एक काग़ज नजर आया। उस पर यु़सु़फ ने सु़ल्ताना
के लिए बस इतना लिखा थ - ‘मोहतरमा!
अलविदा!’
सु़ल्ताना ने अपना
फर्ज निभाया नतीज़तन अब वह जिंदगी में पूरी तरह अकेली रह गयी थी। उसके बुढापे का
सहारा भी उसे छोड़कर, संबंधों
को तोड़कर कहीं चला गया था। यहीं पर यह उपन्यास खत्म हो जाता है।
अमरकांत का यह
नवीनतम उपन्यास देश विभाजन की त्रासदी पर लिखा गया उनका पहला उपन्यास है। साथ ही
पहलीबार उनके किसी उपन्यास के कथानक में मु़स्लिम परिवार और मु़स्लिम समाज की
समस्याएँ इतनी बेबाकी से सामने आयी हैं। देश का विभाजन मजहब के नाम पर ‘मज़हबी सियासत’ के माध्यम से कराया गया। लेकिन ऐसे
सियासत दानों का वास्तव में मजहब से कु़छ लेना-देना नहीं होता। इसी बात को अमरकांत
अपने पात्र मु़नीर अहमद के माध्यम से कहते हैं। इस तरह विभाजन की नींव रखनेवाले
किसी नेता का नाम लिये
बिना, अमरकांत उनकी अवसरवादिता की कलई खोलते
हुए़ दिखायी पड़ते हैं। मु़़नीर के माध्यम से ही वे कहते हैं कि, ‘‘.....आज़ादी के पहले मज़हब और जात-पात के अलगाव
तो थे, मगर करीब-करीब सभी
अपनी अपनी हद में रहकर भी मिलजु़लकर आज़ादी की लड़ाई में शामिल होते थे। यह बड़ी चीज़
थी। लेकिन आज़ादी के बाद वह चीज़ गायब हो गई है। अब लोग अपनी-अपनी जाति और मज़हब के
बारे में अधिक सोचते हैं। .....अब हर चीज़ में सियासत आ गई है और इस सियासत की खास
बात यह है कि बड़ी-बड़ी बातें की जाएँ, लोगों को गु़मराह किया जाए और खु़द उसके ठीक उल्टा चला जाए और
उसका अधिक-से-अधिक फायदा उठाया जाए।.....।’’55
अमरकांत का इशारा
उन्हीं नेताओं की तरफ़ है जिन्होंने धर्म की आड़ में नए राष्ट्र की माँग की। लेकिन
उनका असली मनसू़बा अपने आप को सियासत में ऊँचा मकाम देना था। ऐसे स्वार्थी
रहनु़माओं की ही वज़ह से देश का विभाजन हु़आ और एक नया राष्ट्र - पाकिस्तान बना।
इस बँटवारे पर दुख़
व्यक्त करते हुए अमरकांत अपने पात्र मु़नीर के माध्यम से ही कहते हैं कि,
‘‘.....हिंदु़स्तान का
बँटवारा इस उसू़ल पर हु़आ कि हिंदू़ और मु़सलमान एक देश के बाशिन्दे नहीं, बल्कि दो अलग-अलग मु़ल्क हैं और
मु़सलमानों को हिंदु़ओं से अलग एक मु़ल्क यानी पाकिस्तान दे देना चाहिए। यह उसू़ल
था, और इसकी अमली सू़रत
क्या हो सकती थी, जबकि
समू़चे हिंदु़स्तान में हिंदू़ और मुसलमान अगल-बगल बसे है। अमली सू़रत या कोई
वाजिब स्कीम किसी के पास थी ही नहीं। बस अमली सू़रत निकाली अंग्रेजों ने। यह
बंदरबॉ़ट उन्होंने ही कराई क्योंकि फ़ौजी ताकत उन्हीं के पास थी, स्कीम उन्हीं के पास थी, हमारे हिंदु़स्तानी लीडरों, चाहे कांग्रेस हो, चाहे मु़स्लिम लीग, हिंदू़ सभा हो या डॉ़. आम्बेडकर हों या
दूस़रे हिंदू़-मु़स्लिम नेता हों, किसी
के पास कोई स्कीम थी ही नहीं। सियासत के बिसात पर अंग्रेजों ने अपने मोहरे ऐसे चले
कि हमारे सभी लीडर जो उनके पास आज़ादी के लिए समझौता करने गए थे, बु़री तरह मात खा गए और एक ऐसी स्कीम को
मंजू़री दे बैठे, जिसकी
वजह से उस समय तो तबाही हु़ई ही थी, आगे का भी मंजर वैसा ही दिखाई देता है। ये चीजें कहाँ रूकेंगी,
अल्ला ही जानता है।’’56
इसी तरह राजनीति
में बढ़ते अपराधीकरण के संदर्भ में भी अमरकांत अपनी स्पष्ट राय इस उपन्यास में रखते
हैं। वे लिखते हैं कि, ‘‘.....आजादी
के पहले सेवा और त्याग की जो सियासत थी, वह धन ओर ताकत की चाहत और हरकत में बदल गई। चु़नावों ने इसे
खूब चढ़ाया। .....फ़िर जरायम पेशेवाले शामिल होते गये इस खेल में। फ़िर ऐसे
मौकापरस्ती के माहौल में फ़िरकापरस्त ताकतों क्यों पीछे रहे? उन्होंने भी आगे बढ़कर ताकत हासिल करने
की मु़हीम छेड़ दी अपने खास तरीकों के साथ।’’57
इस तरह आज़ादी के
साथ विभाजन की त्रासदी, देश
की सियासत में बढ़ती मौकापरस्ती एवम् फ़िरकापरस्ती, आम मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय
हिंदू़़़़-मुस़लमान परिवारों के बीच की कसक, शंका और उनके बीच बढ़ती दू़रियों की टीस
के साथ-साथ मु़स्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति जैसे अनेकों बिंदु़ओं को
अमरकांत ने पहली बार इतनी स्पष्टता और बेबाकी से इस उपन्यास ‘बिदा की रात’ के माध्यम से सामने लाया है। अपने
अधिकारों के प्रति जागरूक होकर भी किस तरह स्त्री अधिकार विहीन जीवन धर्म, समाज और परिवार के नाम पर जीने के लिए
अभिशप्त है, यह
भी अमरकांत ने इस उपन्यास के महिला पात्रों के माध्यम से स्पष्ट किया है। समग्र
रूप से कहा जा सकता है कि अमरकांत का यह नवीन उपन्यास केवल विभाजन की त्रासदी को
बखू़बी बयाँ करता है अपितु मुस्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति का भी चित्रण बड़ी
सू़क्ष्मता और गहराई के साथ करता है।
कुछ यादें कुछ बातें
कहानियों एवम्
उपन्यासों के अतिरिक्त अमरकांत द्वारा लिखी गयी यह एकमात्र संस्मरणात्मक पुस्तक
है। 147 पृष्ठों की इस पुस्तक का प्रकाशन ‘राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.’ द्वारा सन् 2005 में हुआ।
इस पुस्तक में
अमरकांत के कई साक्षात्कारों, समय-समय
पर छपे आलेखों एवम् संस्मरणों को संकलित किया गया है। अमरकांत के व्यक्तित्व एवम्
साहित्यिक यात्रा को समझने में यह पुस्तक बड़ी ही सहायक है। इसमें अमरकांत के बचपन
से लेकर सफल साहित्यकार बनने तक की सारी बातों का बड़े ही रोचक तरीके से वर्णन किया
गया है।
इसके अतिरिक्त
रामविलास शर्मा, प्रकाशचन्द
गुप्त, अमृतराय, रांगेय राघव, नामवर सिंह, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, डॉ. जगदीश गुप्त जैसे कई साहित्यकारों
एवम् समीक्षकों से अपनी मुलाकातों का जिक्र अमरकांत ने विस्तार के साथ किया है।
साथ ही साथ इनमें से कईयों के साहित्य एवम् विचारधारा के संदर्भ में अपना अभिमत भी
अमरकांत ने व्यक्त किया है।
साहित्य, समाज, राजनीति आदि विषयों पर अमरकांत के
विचारों से अवगत होने में यह पुस्तक महत्वपूर्ण है। ऐसे विषयों पर अमरकांत ने कुछ
कहने से अक्सर ही अपने को बचाया है। जो कुछ कहा भी है वह कहीं एक जगह संग्रहित रूप
से मिलना मुश्किल था। पर इस पुस्तक ने इस मुश्किल को समाप्त कर दिया।
समग्र रूप से हम
कह सकते हैं कि ‘कुछ
यादें कुछ बातें’ अमरकांत
के विचारों एवम् उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने में बड़ी उपयोगी है।
अमरकांत का प्रकीर्ण साहित्य
अमरकांत ने गंभीर
कहानियों एवम् उपन्यासों के अतिरिक्त कुछ बाल साहित्य तथा प्रौढ नवसाक्षर लोगों के
लिए भी कुछ छोटी-छोटी पुस्तकें लिखी हैं। उन्हीं में से कुछ का हम यहाँ संक्षेप
में परिचय प्राप्त करेंगे।
1) झगरू लाल का फैसला
‘कृतिकार’ प्रकाशन द्वारा 1997 में प्रकाशित 23
पृष्ठों की यह पुस्तक बढ़ती जनसंख्या की समस्या को लेकर लिखी गयी है। यह पुस्तक
कराड़ों साधारण लोगों के बीच परिवार कल्याण की योजनाओं को लोकप्रिय बनाने के
उद्देश्य से लिखी गयी है।
इसमें झगरू और
मगरूलाल नामक दो भाईयों की कहानी है जो पिता की मृत्यु के उपरांत अलग हो जाते हैं।
झगरू अपना परिवार बढ़ाता जाता है जिसके कारण आर्थिक संकटों में फसा रहता है। मगरू
और उसकी पत्नी परिवार नियोजन के उपायों को अपनाते हैं और दो से अधिक बच्चे नहीं
होने देते। इस कारण वे झगरू की अपेक्षा अधिक अच्छा जीवन यापन करते हैं।
पुस्तक का संदेश
यही है कि हमें अपने परिवार को छोटा रखना चाहिए तथा लड़के लड़की के बीच कोई भेद नहीं
मानना चाहिए।
2) सुग्गी चाची का गाँव
‘कृतिकार प्रकाशन’ द्वारा यह लघु उपन्यास 1998 में
प्रकाशित हुआ। 23 पृष्ठों का यह लघु उपन्यास अशिक्षा और अंधविश्वासों के विरूद्ध
चलाए गए संघर्ष व आंदोलन की कथा है। ग्रामीण पाठकों के लिए मुख्य रूप से लिखा गया
यह लघु उपन्यास अतिशय संक्षिप्त एवम् सरल भाषा में है।
इस लघु उपन्यास के
केन्द्र में सुग्गी चाची हैं जो एक छोटे से गाँव में रहती हैं। पर उस गाँव में
सुविधाओं का अभाव है। सुग्गी चाची गाँव में स्कूल और अस्पताल खुलवाने के लिए
प्रयत्न करती हैं। पहले लोग उनका साथ नहीं देते पर धीरे-धीरे लोग सुग्गी चाची के
बात समझते हैं और उनके प्रयास में उनका साथ देते हैं।
3) खूँटा में दाल है
‘कृतिकार प्रकाशन’ द्वारा सन् 1991 में प्रकाशित यह 32
पृष्ठों का एक लघु बाल उपन्यास है। इसमें एक छोटी सी चिड़िया के संघर्ष की कहानी को
बड़े ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
इस पुस्तक में ‘धीरा’ नाम की एक चिड़िया की कहानी है। जो दाल
का एक दाना खूँटे मंे रखकर खाना चाहती थी कि खूँटा व दाल हड़प लेता है। धीरा ने बढ़ई
से खूँटे की शिकायत की, बढ़ई
की शिकायत राजा से और राजा की शिकायत रानी से की। रानी ने भी उसकी बात नहीं मानी।
फिर धीरा ने रानी की शिकायत साँप से और साँप की शिकायत लाठी से की।
इस पर भी धीरा का
काम नहीं बना। पर उसने हिम्मत नहीं हारी। लाठी की शिकायत आग से, आग की समुद्र से और समुद्र की शिकायत
उसने हाथी से की। इस पर भी जब काम न बना तो उसने हाथी की शिकायत जाल और जाल की
शिकायत चूहे से की। चूहे ने धीरा के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए उसकी मदद की।
इस तरह अंत में
चिड़िया को उसकी दाल मिल जाती है। इस लघु बाल उपन्यास का संदेश यही है कि हमें
हिम्मत न हारते हुए अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए।
4) एक स्त्री का सफर
‘कृतिकार प्रकाशन’ द्वारा ही सन 1996 में प्रकाशित 22
पृष्ठों की यह पुस्तक अशिक्षा, अंधविश्वास
और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में होने वाले भयंकर रोगों के प्रति हमें सजग बनाते
हुए भविष्य के प्रति हमें आशान्वित भी करती है।
इस पुस्तक में ‘सरोस्ती’ नामक एक विकलाँग स्त्री की कहानी है।
बचपन में वह पोलियो का शिकार हो गयी थी। उसे अपनी विकलाँगता के कारण कई बार
अपमानित भी होना पड़ा था। पर उसने पढ़ने का निर्णय लिया और पढ़कर शिक्षिका बन गई।
उसने अपना सारा जीवन औरतों की शिक्षा एवम् विकास में लगाने का प्रण किया था।
इस तरह इस पुस्तक
के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि शिक्षा ग्रहण करके हर कोई अपने पैरों पर खड़ा
हो सकता है। स्वावलंबी बनकर, समाज
में प्रतिष्ठा के साथ जीवन यापन कर सकता है।
5) वानर सेना
‘कृतिकार प्रकाशन’ द्वारा यह बाल उपन्यास 1992 में
प्रकाशित हुआ। यह 32 पृष्ठों का है। सन 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान बलिया के बच्चों ने भी वानर
सेना बनाकर इस लड़ाई मे हिस्सा लिया। उसी का रोचक वर्णन इस लघु बाल उपन्यास में है।
कहानी मुंशी
अम्बिका प्रसाद के लड़के केदार से शुरू होती है। उसके बड़े भाई निर्मल की एक पुस्तक
उसने चोरी से पढ़ी। वह गाँधी जी की आत्मकथा थी। केदार इससे बहुत प्रभावित हुआ और
उनकी तरह बनने की ठान लेता है।
अपने कुछ मित्रों
के साथ मिलकर वह छोटा सा पुस्तकालय शुरू करवाता है। स्कूल में हड़ताल करवाने में
अहम भूमिका निभाता है। शहर में पोस्टर चिपकाता है। इसी तरह के कई कार्यो का वर्णन
इस लघु बाल उपन्यास में है।
इस बाल उपन्यास के
माध्यम से अमरकांत ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बलिया के छोटे-छोटे
बच्चों द्वारा किये गये क्रांतिकारी कार्याे का वर्णन किया है।
इसी तरह की कई
अन्य पुस्तकें भी अमरकांत ने लिखी है। बाल साहित्य का हिस्सा होते हुए भी ये बड़ी
महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। खासकर तब जब कोई अमरकांत के संपूर्ण रचनात्मक व्यक्तित्व
की पड़ताल करना चाहता हो। ‘वानर
सेना’ को पढ़कर यह आसानी से
समझा जा सकता है कि ‘इन्हीं
हथियारों से’ जैसा
उपन्यास लिखने की प्रेरणा बीज रूप में अमरकांत के मन मंे बहुत पहले से ही थी। ‘वानर सेना’ और ‘इन्हीं हथियारों से’ की पृष्ठभूमि में बलिया का वही आंदोलन
है।
इस तरह समग्र रूप
से अमरकांत की कहानियों, उपन्यासों,
संस्मरण और प्रकीर्ण साहित्य को देखने
के पश्चात हम कह सकते हैं कि अमरकांत का रचना साहित्य बहुत बड़ा है। वे लगातार अपने
रचना संसार को बढ़ाने में लगे हैं।
अमरकांत का
साहित्य अपने समय का जीवंत दस्तावेज है। उनकी कहानियाँ उन्हें प्रेमचंद के समकक्ष
प्रतिष्ठित करती हैं तो ‘इन्हीं
हथियारों से’ जैसे
उपन्यास महाकाव्यात्मक गरिमा से युक्त हैं। ‘सुरंग’ जैसे उपन्यास समाज में परिवर्तन के साथ
आगे बढ़ने की प्रेरणा से युक्त हैं। ‘आकाश पक्षी’ जैसे
उपन्यास बदलती सामाजिक व्यवस्था में होनेवाले परिवर्तन का बड़ा ही गंभीर और सूक्ष्म
चित्रण प्रस्तुत करते हैं।
अमरकांत का पूरा
साहित्य हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर है। विशेष तौर पर आजादी के बाद के देश के
सबसे बड़े वर्ग ‘‘निम्न
मध्यमवर्गीय समाज’’ के
जीवन में निहित सपनों, दुखों,
परिवर्तनों और प्रगति की सूक्ष्म
विवेचना अमरकांत के साहित्य में मिलती है। अमरकांत का साहित्य सही मायनों में ‘भारतीय’ है और यथार्थ की जमीन से जुड़ा हुआ है।
01 मई 2006 में लिए
अमरकांत के साक्षात्कार के आधार पर
02 अमरकांत से प्रेम
कु़मार की बातचीत, कथादेश,
मार्च 2006, पृ. क्र. 16
03 पक्षाधर यथार्थ के
कथाकार - यशपाल, अमृतलाल
नागर, रेणु़़़़़ और अमरकांत,
संपादक-विष्णु़़़़़़़़़़़चंद्र शर्मा,
पृ. क्र. 184-185.
04 अमरकांत वर्ष 01,
रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना, पृ. क्र. 308
05 वही पृ. क्र. 232.
06 मई 2006 में लिए
अमरकांत के साक्षात्कार के आधार पर
07 अमरकांत वर्ष 01,
रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना, पृ. क्र. 187.
08 अमरकांत से प्रेम
कु़़मार की बातचीत - कथादेश, मार्च
2006, पृ. क्र. 18
09 अमरकांत की
संपू़़़़़़़़़़र्ण कहानियाँ - खण्ड दो - अमरकांत, पृ. क्र. 03
10 वही, पृ. क्र. 313
11 अमरकांत वर्ष 01 -
रवीन्द्र कालिया, ममता
कालिया, नरेश सक्सेना,
पृ. क्र. 122.
12 मई 2006 में
अमरकांत के लिए साक्षात्कार के आधार पर
13 ग्रामसेविका -
अमरकांत, पृ. क्र. 06
14 अमरकांत वर्ष 01 -
रवीन्द्र कालिया, ममता
कालिया, नरेश सक्सेना,
पृ. क्र. 299
15 वही, पृ. क्र. 300
16 वही, पृ. क्र. 299
17 वही, पृ. क्र. 300
18 वही, पृ. क्र. 300
19 सु़़़़़़़़खजीवी -
अमरकांत, पृ. क्र. 21
20 वही, पृ. क्र. 21
21 वही, पृ. क्र. 222- 223
22 सूख़़़़़़़़़़़़़़़़़़्ाा
पत्ता - अमरकांत, पृ.
क्र. 05
23 अमरकांत वर्ष 01 -
रवीन्द्र कालिया, ममता
कालिया, नरेश सक्सेना,
पृ. क्र. 301
24 वही, पृ. क्र. 302
25 वही, पृ. क्र. 303
26 वही, पृ. क्र. 304
27 वही, पृ. क्र. 305-306
28 कु़छ यादे कु़़़छ
बातें - अमरकांत, पृ.
क्र. 134-135.
29 आकाश पक्षी -
अमरकांत, पृ. क्र. 130.
30 अमरकांत वर्ष 01 -
रवीन्द्र कालिया ,
ममता कालिया, नरेश सक्सेना, पृ. क्र. 299-300.
31 इन्हीं हथियारों
से - अमरकांत, पृ.
क्र. 05.
32 हिन्दी उपन्यास:
जनवादी परंपरा - कु़वर पाल सिंह, अजय
बिसारिया, पृ. क्र. 163
33 वही, पृ. क्र. 170
34 वही, पृ. क्र. 164
35 संवाद सेतु-
गिरिराज किशोर, पृ.
क्र. 26
36 अमरकांत से प्रियम
अंकित की बातचीत - नया ज्ञानोदय, नवंबर
2006, पृ. क्र. 54.
37 हिन्दी उपन्यास:
जनवादी परंपरा - कु़ँवर पाल सिंह, अजय
बिसारिया, पृ. क्र. 165.
38 जनसत्ता - रविवार,
27 नवंबर 1988.
39 वही
40 सु़न्नर पांडे की
पतोह - अमरकांत, पृ.
क्र. 49
41 वही
42 कहानी की बात -
मार्कण्डेय, पृ.
क्र. 33.
43 कादम्बिनी - उपहार,
अंक 01, अक्टू़बर 2005, पृ. क्र. 119-120
44 वही, पृ. क्र. 148
45 कहानी की बात -
मार्कण्डेय, पृ.
क्र. 33
46 बिदा की रात,
अमरकांत, (बया अंक 1, दिसंबर 2006), पृ. क्र. 168
47 और 48 बया पत्रिका
अंक 01 पृ. क्र. 169
48 वही.
49 वही, पृ. क्र. 175
50 वही, पृ. क्र. 171
51 वही, पृ. क्र. 186
52 वही, पृ. क्र. 188
53 वही, पृ. क्र. 189
54 वही, पृ. क्र. 222
55 वही, पृ. क्र. 197
56 वही, पृ. क्र. 187
57 वही, पृ. क्र. 177