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Friday, 23 December 2011

हिंदी के महत्वपूर्ण प्रवासी ब्लागरों का वैचारिक परिप्रेक्ष्य



सूचना और प्रौद्योगिकी के विकास ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । इंटरनेट और वेब मीडिया के कारण पूरा विश्व आपस में जुड़ा हुआ है। रोजी – रोटी की तलाश में दुनिया भर में भारतीय जाकर बसे हुए हैं । अपने देश, अपने लोग,अपनी भाषा और संस्कृति से हजारों किलोमीटर दूर लाखों भारतीय अपने दिल में हसरतों –अरमानों के न जाने कितने ही सिलसिले दबाये बैठे हैं । सारी सुख- सुविधाओं के बावजूद कोई कसक, सब को ही अंदर ही अंदर सालती है, तड़पाती है और रुलाती भी है । अपनों से दूर जाने का दुख किसे नहीं होता ? फिर इन्ही भारतियों में से कितनों की तो दूसरी-तीसरी पीढ़ी विदेशों में ही पल बढ़ रही है । इस नई पीढ़ी का प्रवासी जीवन, इनके अंदर निहित स्वदेश प्रेम, इनका हिंदी के प्रति प्रेम,अपनी सभ्यता और संस्कृति को लेकर इनके विचार तथा अपनी ही पुरानी पीढ़ी के साथ इनका वैचारिक संघर्ष और सामंजस्य; कुछ ऐसे बिन्दु हैं जिनकी चर्चा  हिंदी के कुछ महत्वपूर्ण प्रवासी ब्लागरों के ब्लाग में व्यक्त विचारों के परिप्रेक्ष्य में इस आलेख के माध्यम से मैं करना चाहूँगा ।
यहाँ यह समझ लेना भी महत्वपूर्ण है कि प्रवासी हिन्दी साहित्य और प्रवासी हिन्दी ब्लागरों द्वारा दी जा रही जानकारी दो अलग स्थितियाँ हैं। विवाद इस बाद पर हो सकता है कि प्रवासी हिन्दी साहित्य की परिभाषा क्या हो ? लेकिन यहाँ इस विवाद के लिए जगह इस लिए नहीं है क्योंकि विवेच्य शोध आलेख हिन्दी के प्रवासी ब्लागरों के ब्लॉग में व्यक्त भावनाओं के आधार पर ही उनके वैचारिक दृष्टिकोण को आकने का प्रयास है । अब ब्लाग पर उपलब्ध सामग्री को प्रवासी साहित्य के दायरे में माना जाय या नहीं , इसपर अलग से चर्चा हो सकती है । अगर माना जा सकता है,तब तो कोई विवाद ही नहीं है । जो लोग ब्लाग पर उपलब्ध सामाग्री को दोयम दर्जे का और उसे साहित्य की परिधि से ही बाहर मानते हैं, उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि संबन्धित आलेख का विषय ही प्रवासी हिन्दी ब्लागर और उनके ब्लाग हैं।
ब्लाग को परिभाषित करते हुए जाने-माने हिंदी ब्लागर रवि रतलामी जी लिखते हैं कि, 'ब्लॉग' वेब-लॉग का संक्षिप्त रूप है, जो अमरीका में '1997' के दौरान इंटरनेट में प्रचलन में आया। प्रारंभ में कुछ ऑनलाइन जर्नल्स के लॉग (log यानी रोजनामचा जैसा कुछ जैसा कि पुलिस की डायरी में होता है) प्रकाशित किए गए थे, जिसमें इंटरनेट के भिन्न क्षेत्रों में प्रकाशित समाचार, जानकारी इत्यादि लिंक होते थे, तथा लॉग लिखने वालों की संक्षिप्त टिप्पणियाँ भी उनमें होती थीं। इन्हें ही ब्लॉग कहा जाने लगा। ब्लॉग लिखने वाले, ज़ाहिर है, ब्लॉगर कहलाने लगे। हिंदी में प्रथम ब्लॉग प्रविष्टि श्री विनय जैन ने अपने हिंदी नामक ब्लॉग में लिखी जो कि हिंदी संबंधी एक कड़ी थी. इस ब्लॉग में वे पहले से अंग्रेजी में प्रविष्टियाँ लिखा करते थे और बाद में हिंदी में लिखने लगे. हिंदी में प्रथम परिपूर्ण ब्लॉग साइट बनाने का श्रेय आलोक कुमार को है। उनके ब्लॉग का नाम  नौ दो ग्यारह (उन्होंने  ब्लॉग के लिए चिठ्ठा शब्द भी गढ़ा था) है, जिसमें वे पिछले कुछ वर्षों से अपने कंप्यूटर जगत के तकनीकी तथा अन्य व्यक्तिगत अनुभवों को नियमित लिखते हैं। दरअसल पहले हिंदी में ब्लॉग का नाम नहीं लिखा जा सकता था. तकनीक उतनी उन्नत नहीं थी. तब आलोक ने बीच का रास्ता निकाला. उन्होंने हिंदी में नाम देने के बजाये अंक 9-2-11 लिख दिया. इस तरह से हिंदी इंटरनेट में एक नई क्रांति की शुरूआत हुई । ’’
ब्लागिंग एक ऐसी व्यवस्था है जहां आप स्वतंत्र भी हैं और स्वछंद भी, लेकिन लिखे हुए शब्दों की ज़िम्मेदारी से आप बच नहीं सकते । यहाँ आप अपनी बात बिना किसी रोक-टोक के कहने के लिए जितने स्वतंत्र हैं उतने ही जिम्मेदार भी । किसी ब्लाग पर मैंने पढ़ा था कि “ ----- ब्लागिंग एक ऐसा धोबी घाट है, जहां आप जिसे चाहें उसे धो सकते हैं ।’’ बात सच है लेकिन आप जिसे धोयेंगे वह भी धोबिया पछाड़ से आप को दिन में ही तारे दिखा सकता है, इस बात का भी ख्याल रखें । नकारात्मक लोकप्रियता बड़ी घातक हो सकती है । हिंदी के वरिष्ठ ब्लागर श्री रवि रतलामी जी का स्पष्ट मानना है कि  भविष्य के सूर और तुलसी इसी ब्लागिंग जगत से ही निकलेगें । रतलामी जी की बात बड़ी गंभीर है और महत्वपूर्ण है । हमें ब्लाग जगत और वेब मीडिया पर पैनी नजर बनाए रखनी होगी । एक सिरे से इसे ख़ारिज करने से अब काम नहीं चलेगा । ब्लागिंग को बड़े ही सकारात्मक नजरिए से देखने की जरूरत है। प्रवासी हिंदी ब्लागरों के ब्लाग उनके वैचारिक धरातल का आईना हैं । इन ब्लागों पर दी जानेवाली जानकारी उनके सोचने-समझने के नजरिए को बड़े ही विस्तार के साथ हमारे सामने प्रस्तुत कर देती हैं ।
हिंदी के कई ब्लागर इन प्रवासी भारतियों पर लिखते रहे हैं । डॉ. अशोक कुमार मिश्रा जी का एक बड़ा महत्वपूर्ण आलेख हिंदी ब्लागिंग : स्वरूप, व्याप्ति और संभावनाएं नामक पुस्तक में प्रकाशित है । श्रीमती  आकांक्षा यादव भी अपने कई आलेखों में प्रवासी ब्लागरों की चर्चा करती रही हैं । श्री रवीन्द्र प्रभात, श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी , श्री रवि रतलामी , श्रीमती अनिता कुमार , श्री अविनाश  वाचस्पति , डॉ. हरीश अरोड़ा , डॉ. चंदप्रकाश मिश्र , श्री कृष्ण कुमार यादव , श्री केवल राम , श्री शैलेष भारतवासी और श्री गिरीश बिल्लोरे जैसे हिंदी ब्लागिंग जगत के सक्रिय ब्लागर प्रवासी हिंदी ब्लागरों पर अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया बड़ी बेबाकी से रखते आये हैं । हिंदी ब्लागर  डॉ आर. बी. सिंह का स्पष्ट मानना है कि, “ प्रवासी ब्लागरों का अपनी मातृभाषा के साथ साथ अपनी मातृभूमि ही नहीं अपितु अपनों से जुड़ने की छटपटाहट भी उनको इस माध्यम से अभिव्यक्ति के लिए मजबूर करती है । ऐसे अधिकांश लोगो का बचपन उनकी अपनी माटी में बीता है और उनके संस्कार अपने वतन की संस्कृति में पोषित हैं । जब भी इस प्रकार की संभावना बनती है कि अपनी सुषुप्त मनोभावों को शब्द प्रदान किया जा सकता है, प्रवासी ब्लागर अपने को संभाल नहीं पाता । अधिकांश आलेख/ कविताएं जो किसी विषय विशेष पर न लिखे गए हों,उनका संबंध भावनात्मक क्षेत्र से ही परिलक्षित होता है । उद्देश्य भले ही लगे अपने विचारों को दूसरों तक पहुचाने का, परंतु प्रवासी ब्लागर ज्यादा उत्सुक रहता है अपनी रचनाओं पर होने वाली प्रतिक्रियाओं को लेकर। ’’ डॉ सिंह के विचारों में प्रतिक्रियाओं के जिस आग्रह की बात है , वह दरअसल अपनों से अपने मन को साझा करने वाली बात नजर आती है ।
हाल में ही अनीता कपूर की एक कविता पढ़ी, जो प्रवासी मन में निहित भावों को गहराई से व्यक्त करती है । अपने देश की वर्तमान स्थिति से वे आहत तो हैं लेकिन इसके बदल जाने का उन्हें विश्वास भी है । आप का हिंदी ब्लाग http://test-hindi-blog.blogspot.com/
काफी प्रचलित है ।
मैं प्रवासी
सपना एक सँजोये
वर्षों से पलटती रही, पन्ने विदेशी केलेण्डर के
इंतज़ार में उस निमंत्र्ण के, जो देता माह दिसम्बर
एक ढलती शाम की विदाई का और स्वागत
होगा पाहुने सा, खिलखिलाते नूतन वर्ष का
सपना सच भी हुआ, मैं आज स्वदेश में हूँ पर बोझिल मन, और आँखें तलाशती हैं
उस प्यार, अपनेपन और उस समाज को
जो ले गयी थी, मैं अपने साथ एक धरोहर
संस्कारों और विचारों की मिट्टी की खूशबू
और पढ़ाती रही, जिसका पाठ विदेश मे
गौरवान्वित रही, भारतीय होने पर
अब क्या कहूँ , मन बोझिल है, दुखी है
पूछता आप से सवाल, क्योंकर सड़ गयी
सबसे प्राचीन सभ्यता की सुगंध ,
ढक लिया समाज को लूटपाट
अत्याचार और भ्रष्टाचार के बादलों ने
पर अभी भी देर नहीं हुई, चुनौतियाँ स्वीकारों
आओ मिल कर नव
-वर्ष को सतरंगी बनाएँ
प्यार संस्कृति के सभी रंगों से सजा कर
विश्व के आसमान पर भारत का परचम लहराएँ
’’
विश्व के आसमान पर भारत का परचम लहराने का स्वप्न वह प्रवासी भारतीय भी देखता है जो इस वतन से सालों से दूर है पर यह वतन उसके जिस्म में लहू की तरह दौड़ता है ।विकीपीडिया प्रवासी भारतीय को परिभाषित करते हुए जानकारी देता है कि,“ प्रवासी भारतीय वे लोग हैं जो भारत छोड़कर विश्व के दूसरे देशों में जा बसे हैं। ये दनिया के अनेक देशों में फैले हुए हैं। 48 देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों की जनसंख्या करीब 2 करोड़ है। इनमें से 11 देशों में 5 लाख से ज्यादा प्रवासी भारतीय वहां की औसत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं और वहां की आर्थिक व राजनीतिक दशा व दिशा को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ’’

  1. हम जानते हैं कि प्रवासी भारतीय दिवस भारत सरकार द्वारा प्रतिवर्ष ९ जनवरी को मनाया जाता है। यह वही दिन है जब राष्ट्र्पिता महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत  वापस आये थे। प्रवासी दिवस को मनाने की शुरुआत  सन २००३ से हुई थी। प्रवासी भारतीय दिवस मनाने की संकल्पना स्वर्गीय लक्ष्मीमल सिंघवी जी की थी । जिन उद्देश्यों को लेकर सरकार प्रवासी दिवस मनाती है, उन उद्देश्यों की पूर्ति में हिंदी ब्लाग एवं वेब मीडिया भी अपनी बड़ी ही सार्थक और कारगर भूमिका अदा कर रहा है । इसे निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है ।
  2. अप्रवासी भारतीयों की भारत के प्रति सोच, उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही उनकी अपने देशवासियों के साथ सकारात्मक बातचीत के लिए एक मंच उपलब्ध कराना ही सरकार का उद्देश्य था। यह मंच बिना किसी रोक-टोक के हिंदी ब्लाग भी उपलब्ध करा रहे हैं।
  3. भारतवासियों को अप्रवासी बंधुओं की उपलब्धियों के बारे में बताना तथा अप्रवासियों को देशवासियों की उनसे अपेक्षाओं से अवगत कराना भी सरकार का उद्देश्य रहा । वेब जगत में प्रवासी और भारतीय दोनों ही अपने अनुभवों, विचारों, पसंद-नापसंद तथा अपने आयोजनों और उपलब्धियों को एक –दूसरे से लगातार साझा करते रहते हैं।
  4. विश्व के 110 देशों में अप्रवासी भारतीयों का एक नेटवर्क बनाना सरकारी उद्देश्यों का महत्वपूर्ण हिस्सा था जिसमे ब्लाग और वेब जगत सोशल नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से लगातार मदद पहुंचा रहा है ।
  5. भारत का दूसरे देशों से बनने वाले मधुर संबंध में अप्रवासियों की भूमिका के बारे में आम लोगों को बताना भी सरकारी नीति का हिस्सा थी जिसमे हिंदी ब्लाग बड़े महत्वपूर्ण साबित हो रहे हैं ।
  6. भारत की युवा पीढ़ी को अप्रवासी भाईयों से जोड़ने में भी हिंदी ब्लागिंग मददगार साबित हुई है ।
  7. भारतीय श्रमजीवियों को विदेशों में किस तरह की कठिनाइयों का सामना करना होता है, इस  बारे में विचार-विमर्श और सार्थक पहल सरकारी रणनीति का हिस्सा थी। वेब मीडिया और हिंदी ब्लाग के माध्यम से तो भारतीय श्रमजीवियों को अपने अनुभव और अपनी परेशानी को दुनिया से सीधे साझा करने का नायाब तरीका मिल गया है।
मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि सरकारी उद्देश्यों की पूर्ति में हिंदी ब्लाग सकारात्मक भूमिका निभा रहे हैं। यह जरूर है कि यहाँ भी कुछ लोग नकारात्मक दृष्टिकोण के साथ काम कर रहे हैं लेकिन ऐसे लोगों के पर आसानी से क़तरे जा सकते हैं । बस सरकार को ऐसे लोगों के पर कतरते हुए यह ध्यान रखना होगा कि उसका खुद का रवैया तानाशाही ना हो जाये तथा वो आम आदमी की अभिव्यक्ति एवं स्वतन्त्रता के अधिकारों का हनन और दमन ना करने लगे । हाल ही में सरकार ने जब वेब पर उपलब्ध जानकारी को लेकर आपत्ति दर्ज की तो इन सब बातों पर व्यापक चर्चा देश भर में हुई ।
सरकारी प्रयासों के साथ-साथ हम सभी को यह कोशिश व्यक्तिगत तौर पर  करनी चाहिए कि प्रवासी भारतीय और हिंदी का जुड़ाव बड़े पैमाने पर हो सके । ब्लाग लेखन एक ऐसा ही प्रयास माना जा सकता है । ‘‘ कुछ सुझाव” नामक अपने आलेख में -प्रो. हरिशंकर आदेश स्पष्ट रूप से कहते हैं कि“
---------- हम प्रवासी भारतीय सरकार की बैसाखी पकड़कर चलने तथा आलोचना करने के स्थान पर उसकी वरद छत्र-छाया में स्वावलंबी बनकर प्राण-प्रण से हिंदी का प्रचार एवं प्रसार करें हमें समय की पुकार सुनकर जागरूक हो जाना चाहिए और हिंदी के वर्तमान को सुधार कर सुरक्षित स्वर्णिम भविष्य की नींव डालना चाहिए हमें इन देशों की स्वतः चरमराती हुई जाति-पाति, प्रांत तथा प्रांतीय मातृभाषा की सीमाओं से बाहर निकलकर भारतीय संस्कृति की संवाहिका भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी को समुचित स्थान एवं सम्मान देना चाहिए। ’’ इस संबंध मे आदेश जी कुछ सुझाव भी देते हैं ,जैसे कि --------------------------
‘‘हम जब कभी किसी अन्य भारतीय से कहीं मिलें, तब हमें अवसर एवं परिस्थितियों अनुसार यथा संभव हिंदी में ही वार्तालाप का शुभारंभ करना चाहिए फीजी, मॉरिशस एवं सूरीनाम के प्रवासी भारतीय तो निःसंकोच धाराप्रवाह हिंदी बोलते ही हैं, अब त्रिनिडाड एवं गयाना के प्रवासी भारतीय भी थोड़ी-थोड़ी हिंदी बोलने लगे हैं इसके अतिरिक्त उनसे हिंदी में वार्तालाप आरंभ करने से उन्हें हिंदी सीखने की प्रेरणा मिलेगी त्रिनिडाड में अब पर्याप्त संख्या में लोग कुछ शब्द हिंदी में समझने और बोलने योग्य हो गए हैं।चाहे वह सामान्य पत्र हो या विद्युत डाक पत्र (ईमेल) हो, हमें हिंदी-विद व्यक्तियों के साथ सदैव हिंदी में ही पत्र-व्यवहार करना चाहिए।हमें हिंदी पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं को यथाशक्ति क्रय करके पढ़ना चाहिए स्थानीय हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त भारत तथा अन्य देशों में प्रकाशित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं को भी यथाशक्ति संरक्षण तथा प्रोत्साहन देना चाहिए खेद का विषय है कि आज भारत जैसे देश में उच्च स्तरीय हिंदी पत्रिकाओं का अभाव हो गया है।हमें सामयिक अराजनैतिक आंदोलन चलाकर स्थानीय सरकारों से अभ्यर्थना करना चाहिए कि हिंदी उन देशों तथा राज्यों के पाठ्य-क्रम में सम्मिलित की जाए यदि संभव हो तो राजनैतिक दबाव भी डालें।हमें व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से मैत्री आंदोलन चलाकर प्रयास करना चाहिए कि संबंधित देशों में स्थानीय जन-पुस्तकालयों में हर अवस्था वाले व्यक्ति के लिए हिंदी की सर्वस्तरीय एवं सर्वविषयी पुस्तकें उपलब्ध कराई जाएँ कनाडा जैसे देश में जहाँ जन-पुस्तकालयों में हिंदी-भाषीय पुस्तकें उपलब्ध हैं, हिंदी प्रेमी व्यक्ति स्वयं तथा अहिंदी भाषी व्यक्तियों द्वारा उन पुस्तकों को अधिक से अधिक पढ़ने के लिए उधार लें और समय पर वापस कर दें ऐसा करने से हिंदी पुस्तकों की लोकप्रियता सिद्ध और समृद्ध होगी तथा हिंदी का प्रचार एवं प्रसार होगा।------------’’ आदेश जी  ने ऐसे ही कई सुझाव अपने आलेख में दिये हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि प्रवासी भारती खुद हिंदी के विकास के लिए पूरी निष्ठा और विश्वास से  जुड़ना चाह रहे हैं ।
 प्रवासी भारतीय अपने मन की पीड़ा को समय-समय पर व्यक्त करते रहे हैं। उषा गुप्ता जी की पुस्तक में कुछ ऐसे ही प्रवासी भारतियों के मन की व्यथा को चित्रित किया गया है । जैसे कि -----
 “यहाँ आदमी बहुत थोड़े हैं ,
फिर भी न जाने क्यों ,
इक दूजे से मुंह मोड़े हैं।   
              ------कैलाश नाथ तिवारी
                                            
कैसी थी माधुर्य प्रीति ,
पल पल के उस जीवन में ,भूल गया हूँ आज,
मशीनी चट्टानों के वन में

            कैलाश नाथ तिवारी ------------------- ’’                       
    

राजेन्द्र यादव का मानना है कि, ‘‘ हिन्दी का लचीलापन ही उसके विकास की पहचान है। यही कारण है कि आज विदेशों में भी उसका विस्तार हो रहा है। जो लोग १००-१५० साल पहले विदेशों में बस गए, वे अब भारत लौटना नहीं चाहते। लेकिन वे वहीं पर रहकर साहित्य की रचना कर रहे हैं। अगर प्रवासी बहुत ज्यादा अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे, तो  इससे साहित्य का विकास अवरूद्ध होगा। विदेशों में जो लोग साहित्य की रचना कर रहे हैं, वे हमेशा दोहरी पहचान में बंधे रहते हैं । जिस कारण वह न तो यहाँ  की और न ही वहाँ  की जिंदगी में हस्तक्षेप नहीं कर पाता। ’’ मैं व्यक्तिगत तौर पर राजेन्द्र यादव जी के इस विचार से इत्तफ़ाक नहीं रखता । दरअसल जड़ों की तरफ लौटने का अर्थ जड़ताओं के साथ लौटना नहीं है । जड़ों की तरफ लौटने का अर्थ अपनेपन की संवेदनाओ,मूल्यों और भावों की ओर लौटना। हिंदी ब्लागिंग के माध्यम से जिस तरह का साहित्यिक योगदान दिया जा रहा है उसे अब नकारा नहीं जाना चाहिए। कथा यूके (लंदन) के महासचिव तेजेंद्र शर्मा का स्पष्ट मानना है कि,‘‘--- साहित्य को एक देश से दूसरे देश तक पहुंचाने का जो काम वेबसाइड नुक्कड़ द्वारा किया जा रहा है, वह किसी लघु पत्रिका द्वारा संभव नहीं है। ’’ हमें यह ईमानदारी के साथ स्वीकार करना होगा कि प्रवासी साहित्य के माध्यम से हिन्दी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशेष पहचान बना रही है। भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के इस दौर में हिन्दी का नया रूप हमारे सामने आ रहा है। इस रूप के विकास में इंटरनेट, वेब मेडिया, सोशल नेटवर्किंग साइट्स और ब्लाग का महत्वपूर्ण योगदान है ।