अब अक्सर
अपनों के बीच
वह लावारिस स्थिति में
पड़ी रहती है चुपचाप
हालांकि उसका संबंध
संकल्पों, विकल्पों की मनोदशा से
बहुत ही पुराना है।
उसका विनम्र चेहरा
कितनी ही उलझनों को
सुलझाता रहा है
उसके पास होने की शर्त
बस इतनी है कि
आप
अधिक से अधिक
सहिष्णु, संवेदनशील
और मानवीय हों।
लेकिन आज
सत्ता, अर्थतंत्र और धर्म की तिकड़ी
वैचारिक रीढ़ के अभाव में
उन्माद से भरे हुए हैं
परिणामतः
समाज की परिधि से
वह लगातार
निर्वासित हो रही है।
प्रचारित विज्ञापन
प्रचलित किए गए सिद्धांत
छलाओं का मायाजाल
मिलकर बुन रहे हैं
एक ऐसी संस्कृति
जो दरअसल
विकृत एवं विभत्स का
समुच्चयात्मक कूड़ा है
जिसके नीचे
उसे
खोदकर गाड़ने की
तैयारी भी जारी है।
संवादहीनता, आत्मकेंद्रियता
बिखराव, कलह
और मनोरंजक विवादों के बीच
उसकी सादगी
उसके मूल्य
इस नई व्यवस्था में
लगभग सभी को
असहनीय लग रहे हैं ।
जड़ताओं के बीच
उसकी जगह
छोटी होती जा रही है
वैचारिक सतहीकरण के बीच
नगण्य सी स्थिति में
वह कमतर आंकी जा रही है
उन चमकीले, चिकने मुखौटों की तुलना में
जो
बाजार की ताकत से
कमजर्फी से फूले हुए, फूले नहीं समा रहे
इन सब के बीच
किसी अंधेरे कोने में धकियाई हुई
वह चुप है
अपनी उपेक्षा पर
लेकिन क्रोध से
लाल हो रही हैं, उसकी आंखें ।
बाजार को भरोसा है
कि धीरे - धीरे
सब उसके अनुकूल होगा
जल, जंगल और ज़मीन ही नहीं
विचार और सपने भी
उनके गुलाम होंगे।
दुनियां की गतिशीलता में
साझी ज़मीन
असहमतियों से पनपी
सहमति के बिना
अंततः ख़ारिज हो जायेगी
और वह
एक अचरज भरी पहेली की तरह
बिना सही पते की
कोई चिट्ठी हो जायेगी।
उसके पास
व्यथा की
कितनी कथाएं होंगी ?
कितना कुछ
बचाने का रक्षा सूत्र भी !!
लेकिन
इस नई व्यवस्था में
उसपर भरोसा किसे है ?
वह
किसी भी तरह
बिकाऊ नहीं है
यही उसकी अंतर्निहित शक्ति है
पर चतुर लोग
उसे समझाते हैं कि
भ्रम तोड़ो !!
अपनी कब्र
ख़ुद मत खोदो !!
मनुष्य होने की आग
अपने अंतर्निहित स्रोतों में ही
मद्धिम हो चली है
मनुष्य का अस्तित्व
भ्रम का
एक मकड़जाल सा हो गया है
ऐसे में
एकमुश्त सच यही है कि
उसकी चुप्पी
उसका निर्वासन
कानों में पिघलते
गर्म शीशे की तरह
पीड़ादायक एवं असहनीय है ।
मनुष्यता की हत्या के लिए
उसपर यह बेरहमी
बेहद जरूरी है
जरूरी है उसे इतनी यातना देना
कि उसकी आत्मा छिल जाए
ताकि उसकी आखों से
आंसू नहीं रक्त बहे।
मैं
उसके खिलाफ नहीं
पर साथ भी कहां हूं ?
लेकिन
अपनी तटस्थता को तोड़ते हुए
मैं पहुंच रहा हूं उस तक
हर संभव
अतिक्रमण के साथ।
उसकी तमाम पीड़ाएं
अपने आप में
एक युद्ध है
जो लड़ा जा रहा है
इस ध्येय वाक्य के साथ कि -
डरो मत ।
इस स्याह रात की
निस्तब्धता में भी
उसकी चेतना की
निष्कम्प लौ
परिमार्जन, परिष्कार की
उम्मीद को
बचाए हुए है ।
विज्ञापित मूल्योंवाला
यह छिन्न -भिन्न समय
एक दिन
अपने तिलिस्म में ही
दरकने लगेगा
फिर उसकी चुप्पी
सिसकी में बदलते हुए
झरने की तरह
फूट पड़ेगी ।
उसपर
मेरा विश्वास पुख्ता है
इस निरीह समय में
मुझे अब भी
उसी से उम्मीद है
क्योंकि उसका अतीत
विराट संकल्पों के
आस्था का इतिहास है ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा