गौहर जान : एक ज़माना जिसका मुश्ताक़ रहा ।
मलका-ए-तरन्नुम, शान-ए-कलकत्ता, निहायत मशहूर-ओ-मा’रूफ़ गायिका गौहर जान
का जन्म 26 जून 1873 ई. में वर्तमान उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में हुआ । गौहर का जन्म एक
क्रिश्चियन परिवार में हुआ था । उनके दादा अंग्रेज़ और दादी हिंदू थी । अंग्रेजों
द्वारा स्थानीय लड़कियों से विवाह की परंपरा सत्रहवीं सदी के अंत तक पूरे देश में
प्रचलन में थी । अंग्रेज़ कई नौकर रखते थे। जैसे कि खानसामा, बैरा, ख़िदमतगार, आया, मेहतर, मशालची, भिश्ती, धोबी, दर्ज़ी, कोचवान इत्यादि । महिला नौकरों को कई बार ‘एक पत्नी की तरह’ घर संभालने से लेकर ‘यौन सेवा’ तक करनी पड़ती थी । ऐसी औरतों के लिए ‘बीबीख़ाना’ अंग्रेज़ अफसरों के
घरों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता था । सन 1750 तक समुद्र के रास्ते इंग्लैंड से भारत आने में 08
से 24 महीने का समय और करीब
200 पौंड का आर्थिक खर्च आता था । इसमें जो ख़तरा था वो अलग । परिणामतः अंग्रेज़
महिलाएं यहाँ न के बराबर थी । ऐसे में अंग्रेज़ पुरुष स्थानीय महिलाओं से संबंध बनाकर
उन्हें साथ रखते थे ।
ऐसी औरतों को वे कभी शादी तो कभी बिना शादी के ही रखते थे । ऐसी अधिकांश
औरतें हिंदुओं और मुसलमानों की निम्न जातियों से होती थीं । हालांकि इसके कुछ
अपवाद भी हैं । जैसे कि जेम्स अकिलिज़ कर्कपैट्रिक का हैदराबाद के राजसी परिवार की
खैर-उन-निशा से विवाह । कलकत्ता के संस्थापक जॉब चार्नोक ने स्वयं एक ब्राह्मण
विधवा से शादी की थी । अंग्रेज़ पहले यूरेशियाई /
वर्णसंकर पुर्तगाली
महिलाओं को पसंद करते थे । लेकिन इनसे उत्पन्न संतानों का कैथोलिक चर्च में धर्म
परिवर्तन कराने की परंपरा थी । इसी कारण कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने अपने यूरोपीय
कर्मचारियों को भारतीय महिलाओं से विवाह के लिए प्रोत्साहित किया । ऐसा करने के
पीछे ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार का मोह प्रमुख था । लेकिन पति की
मृत्यु या उसके द्वारा ऐसी पत्नियों को छोड़ देने की स्थिति में अक्सर ये औरतें
निराश्रित हो जाती थीं । इस तरह की अधिकांश शादियाँ आपसी समझ के आधार पर निर्धारित
होनेवाले संबंधों की तरह थे । अंग्रेज़ पति की संपत्ति पर इनके दावों को लेकर
स्थितियाँ उत्साहजनक नहीं रहीं ।
विक्रम संपथ ने अपनी किताब माय नेम इज़ गौहर जान :
द लाइफ अँड टाइम्स ऑफ
ए मुयजिशियन (My Name is Gauhar Jaan : The Life and Times of a Musician ) में गौहर के जीवन को साक्ष्यों के साथ बड़ी
बारीकी के साथ प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं । उन्होने गौहर की दादी का नाम रुक्मणी
एवं दादा का नाम हार्डी हेमिंग्स (Hardy Hemings) बताया है । शादी के बाद रुक्मणी इसाई धर्म स्वीकार करती हैं और उन्हें
नया नाम मिलता है श्रीमती एलिजाह हेमिंग्स (Mrs. Elijah Hemings) । इस दंपत्ति को संतान के रूप में दो लड़कियाँ हुईं । बड़ी लड़की अड़ेलाईन
विक्टोरिया का जन्म 1857 में हुआ । इसी बीच हार्डी की अचानक हुई मौत
से माँ और दो बेटियों की हालत दयनीय हो जाती है । हार्डी की संपत्ति में उन्हें
किसी तरह का कोई अधिकार नहीं मिलता । श्रीमती एलिजाह हेमिंग्स परिवार के भरण-पोषण के लिये ड्राय
आइस फैक्ट्री में मज़दूरी करने लगती हैं ।
इसी फैक्ट्री में सालों बाद सुपरवाइज़र के रूप
में अर्मेनियाई मूल के एक बीस वर्षीय युवा इंजीनियर Robert William Yeoward (राबर्ट विलियम योवर्ड) की नियुक्ति होती है । भारत का यूरोप के साथ
संबंध जोड़ने में अर्मेनियाई मूल के लोगों का बड़ा योगदान था । ईस्ट इंडिया कंपनी को
व्यापारिक रूप से भारत में सफ़ल करने के पीछे इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
मुगलों से भी इनके अच्छे संबंध रहे । अकबर की एक अर्मेनियाई रानी मरियम जमानी बेगम
थीं । श्रीमती एलिजाह हेमिंग्स अपनी बड़ी बेटी अड़ेलाईन
विक्टोरिया का विवाह राबर्ट विलियम योवर्ड के साथ सुनिश्चित करती हैं । सन 1872 में इनकी शादी होती है । उस समय राबर्ट विलियम योवर्ड
की उम्र बीस साल और विक्टोरिया पंद्रह साल की थी । 26 जून 1873 को इस दंपत्ति के घर
एक बेटी पैदा होती है जिसका नाम Eileen
Angelina Yeoward ( ऐलीन एंजेलिना योवर्ड) रक्खा जाता है ।
परिवार में सबकुछ ठीक
चल रहा था । विक्टोरिया हमेशा से संगीत, नृत्य और लेखन में रुचि रखती थी लेकिन
आर्थिक तंगी की वजह से वह बेहतर प्रशिक्षण नहीं प्राप्त कर पायी थी । अब उसे थोड़ा
मौका मिला तो उसने अपनी रुचियों को पंख दिये । वह सुरीली आवाज की भी धनी थी ।
नृत्य, गायन और लेखनी तीनों
की धनी थी विक्टोरिया । शादी के कुछ सालों बाद पति पत्नी के रिश्ते में दरार आने
लगी थी । आपसी समझ और विश्वास की डोर कमजोर पड़ गई । इसका दुखद परिणाम यह हुआ कि सन
1879 में दोनों का तलाक़ हो गया । इस तलाक के पीछे
की एक बड़ी वजह राबर्ट विलियम का यह शक था कि विक्टोरिया दूसरे पुरुषों से संबंध
रखती थी ।
राबर्ट विलियम को अपने पड़ोसी जोगेश्वर भारती
पर शक रहा जिनके पास विक्टोरिया संगीत से जुड़ी बारीकियाँ सीखने जाती थी । तलाक के
बाद विक्टोरिया पर अपनी माँ और बेटी की ज़िम्मेदारी थी । वह बिलकुल असहाय हो गई थी, ऐसे में आजमगढ़ के ही खुर्शीद नामक एक
व्यक्ति ने उन्हें आसरा दिया । कुछ दिन आजमगढ़ रहने के बाद ये सभी पास के शहर बनारस
में आकार रहने लगते हैं ।
बनारस आने के बाद विक्टोरिया ने इस्लाम कबूल किया और उसे नया नाम बड़ी मलका
जान मिला । बेटी ऐलीन एंजेलिना योवर्ड का भी नया नाम गौहर हुआ । दुनियाँ की नज़र
में खुर्शीद बड़ी मलका जान के शौहर थे और इन दोनों की बेटी गौहर थी । यहाँ खुर्शीद
ने बनारसी साड़ी का छोटा सा कारोबार शुरू किया जिससे आर्थिक स्थितियाँ पटरी पर आ
गईं । बनारस में आने का फ़ायदा बड़ी मलका जान और उनकी बेटी गौहर को इस रूप में मिला
कि यहाँ संगीत के बड़े से बड़े उस्ताद थे जिनसे वे नृत्य और संगीत की शिक्षा ले सकती
थीं । माँ बेटी दोनों ने अपने हुनर को यहाँ धार दी । खुर्शीद ने भी उनका पूरा साथ
दिया ।
ठुमरी की बारीकियाँ सीखने के लिए बनारस से बेहतर कोई जगह नहीं थी । सामगान, ध्रुवागान, जातिगान, प्रबंध, ध्रुवपद, धमार, ख़्याल, ठुमरी, टप्पा, गजल, क़व्वाली, होरी, कजरी, चैती इत्यादि सांगीतिक रूपों से भारतीय
संगीत हमेशा ही प्रस्तुति पाता रहा है । इन्हीं में बनारस की एक महत्वपूर्ण गायकी
परंपरा “ठुमरी” की रही है जो गेय विधा के रूप में प्रसिद्ध
मूल रूप में एक “नृत्य गीत भेद” है । ठुमरी भारतीय संगीत के “उपशास्त्रीय वर्ग” में स्थान बनाने में सफल रही है । यह शृंगारिक एवं भक्तिपूर्ण दोनों ही
रूपों में प्रस्तुत की जाती रही है । 19वीं शताब्दी में
ध्रुवपद और ख़याल की तुलना में इसकी लोकप्रियता अधिक बढ़ी । स्त्रियों के जिस वर्ग
ने इस गायकी को अपनाया उन्हें गणिका,
वेश्या, नर्तकी, बाई इत्यादि नामों से संबोधित किया गया । इसे “तवायफ़ों का गाना” कहते हुए इससे जुड़ी
स्त्रियों को हेय दृष्टि से ही देखा गया ।
इन स्त्रियों को समाज के सम्पन्न और विलासी पुरुषों का संरक्षण प्राप्त
होता था । ये अपनी कला के दम पर नाम और शोहरत पाती थी । आर्थिक और कलात्मक वर्चस्व
के साथ - साथ अपरोक्षरूप से
सामाजिक दबदबा भी ये हासिल करती थीं । इनका यह दबदबा इनके संरक्षकों के माध्यम से
होता था । लेकिन जन सामान्य के बीच ये “बुरी स्त्री” के रूप में ही जानी जाती रहीं । इनके जीवन
में पुरुषों की अधिकांश सहभागिता सिर्फ़ मनोरंजन और आनंद के लिए ही रही । इनका निजी
जीवन संपन्नता के बावजूद संवेदना और प्रेम के स्तर पर त्रासदी का निजी इतिहास रहा
है । इन्हें सामाजिक नैतिकता और आदर्श के लिए हमेशा “खतरनाक” माना गया ।
बनारस की इन ठुमरी गायिकाओं ने अपने संघर्ष को समयानुकूल रूपांतरित करने एवं उसे
धार देने में कोई कमी नहीं छोड़ी । ऐसा इसलिए ताकि जीवन जीना थोड़ा सरल हो सके और
कला का सफ़र अधिक खूबसूरत । ये गायिकायें अपने जीवन की ही नहीं अपितु अपनी कला की
भी शिल्पी रहीं । इन डेरेवालियों, कोठेवालियों के निजी
जीवन के न जाने कितने ही तहख़ाने
अनखुले रह गये । कितनी ही सुरीली आवाज़ोंवाली बाई जी के नाम गुमनामी में ही दफ़न हो
गये । लेकिन समय की धौंकीनी में इनके ख़्वाब हमेशा पकते रहे । इन गायिकाओं ने अपने
दर्द को ही अपनी गायकी से एक ख़ास तेवर दिया ।
इन गायिकाओं के जीवन से बहुत से रंग और मौसम
सामाजिक व्यवस्था ने बेदख़ल कर दिये थे । बावजूद इसके इनके जीवन में स्वाद लायक नमक
की कोई कमी नहीं थी । ये हमेशा नयेपन का उत्सव मनाते हुए आगे बढ़ी । इनके जीवन में
संघर्ष और संगीत की निरंतरता असाधारण रही । इन्हीं गायिकाओं में अब बड़ी मलका जान
का शामिल हो चुका था । वे बनारस के रईसों में मशहूर हो चुकी थीं । उन्होने शहर की
नामचीन तवायफ़ों में अपनी जगह बनाने के साथ-साथ बेटी गौहर को
अच्छी शिक्षा दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । गौहर जान ने पटियाला के काले खाँ
ऊर्फ कालू उस्ताद, रामपुर के उस्ताद
वज़ीर खाँ और उस्ताद अली बख़्श जरनैल से हिंदुस्तानी गायकी के गुर सीखे । सृजनबाई से
उन्होने ध्रुपद की शिक्षा ली थी । माँ-बेटी की जुगल बंदी भी होने लगी । छोटी गौहर
दस साल की हो चुकी थी । बनारस के रईस उसे गौहर जान के रूप में पहचानने लगे थे ।
ठुमरी को नवीनता और जनप्रियता इसी बनारस से
मिली । संगीत घरानों एवं गुणी उस्तादों के बीच ठुमरी बनारस में ही चमकी । 1790 से 1850 तक का समय ठुमरी और ठुमरी गायिकाओं के लिये
काफी उत्साह जनक रहा । लेकिन 1857 के विद्रोह के बाद
काफी कुछ बदल गया । अंग्रेज़ वेश्याओं में दिलचस्पी तो लेते रहे पर “नेटिव म्युजिक” को कोई तवज्जो नहीं देते थे । इसके संरक्षण की उन्होने कभी कोई ज़रूरत नहीं
समझी । तवायफ़ों के क्रांतिकारियों से
संबंध और उन्हें सहायता पहुंचाने की कई बातों के सामने आने के बाद अंग्रेज़ हुकूमत
सख़्त हो गई । “ब्रिटिश क्राउन ला” इसी सख्ती का परिणाम था । इसी क़ानून द्वारा
सभी तवायफ़ों को वेश्याओं की श्रेणी में रखकर उनकी गतिविधियों को अपराध की श्रेणी
में सम्मिलित कर दिया गया ।
चार साल बनारस रहने के बाद बड़ी मलका जान अपने
कुनबे के साथ सन 1883 में कलकत्ता आकर रहने
लगी । वे उत्तरी कलकत्ता के चितपुर इलाके में रहीं । यहीं रहते हुए उन्हें नवाब
वाजिद अली शाह के दरबार में संगीतकार के रूप में नियुक्ति मिली । गौहर को बिंदादिन
महाराज जैसे नए गुरु मिले । आप कृष्ण के अनन्य उपासक भी थे । बिंदादिन महाराज बिरजू महराज के दादा जी लगते थे । बामाचरण भट्टाचार्य से गौहर ने बंगाली गीत तो
रमेश चंद्रदास बाबा से बंगाली कीर्तन सीखा । श्रीमती डिसिल्वा से गौहर ने अँग्रेजी
और कुछ धुने सीखीं । फ़ारसी और उर्दू ख़ुद बड़ी मलका जान ने गौहर को सिखाया ।
सन 1886 में बड़ी मलका जान ने उत्तरी
कलकत्ता के चितपुर इलाके में ही तीन मंज़िला मकान उस समय चालीस हजार रुपये में
खरीदा । जो यह बताता है कि उनकी माली हालत अब बहुत बेहतर थी । लेकिन इसी साल दो
अप्रत्याशित घटनायें उनके जीवन में घटती है । अज्ञात लोगों द्वारा खुर्शीद की
हत्या और 13 साल की गौहर के साथ
बलात्कार । विक्रम संपथ ने अपनी किताब के माध्यम से इस बलात्कार के लिए खैरागढ़ के
किसी राजा की तरफ इशारा किया है । जीवन की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद गौहर जान
ने अपनी कला साधना में कोई कमी नहीं रखी । 14
साल की उम्र में वे
राजा दरभंगा के यहाँ अपनी पहली प्रस्तुति देती हैं, जिससे प्रभावित होकर राजा साहब उन्हें अपने दरबार में संगीतकार के रूप
में नियुक्त कर लेते हैं । गौहर जान ‘हमदम’ और ‘गौहर पिया’ नाम से अपनी नज़्में
ख़ुद लिखती एवं उनकी धुन बनाती । यहीं से गायिका और नृत्यांगना के रूप में गौहर जान
का एक नामचीन सुनहरा दौर शुरू हो जाता है ।
गौहर जान मशहूर हुई
तो उनके चाहने वाले भी बढ़े । जिन पुरुषों के साथ गौहर के इश्क़ का दौर चला उसमें
बनारस के प्रसिद्ध राय परिवार से संबंधित राय छग्गन, बेहरामपुर के धनी जमींदार निमाई सेन, गुजराती – हिंदुस्तानी स्टेज
के प्रसिद्ध अभिनेता एवं लेखक अमृत केशव नायक
और सय्यद ग़ुलाम अब्बास सब्ज़्वारी का नाम अलग-अलग संदर्भों में प्राप्त होता है । सन 1906 में गौहर की माँ बड़ी मलका जान का देहांत हो गया । 1907 में अमृत केशव नायक का भी अचानक देहांत हो गया ।
ये दो साल गौहर के लिए बड़े दुखद रहे । सय्यद
ग़ुलाम अब्बास सब्ज़्वारी को गौहर ने अपने मैनेजर के रूप में नियुक्त कर रक्खा था ।
बाद में गौहर ने इनसे शादी भी की थी । ये एक पेशावरी पठान था जो गौहर से उम्र में
करीब दस साल छोटा था । दोनों के संबंधों में बाद में खटास आ गई थी और कोर्ट कचहरी
तक मामला पहुँच गया था । इसने गौहर को आर्थिक रूप से बड़ी चोट दी । अपने प्रेम
प्रसंगों में गौहर नाकामयाब ही रहीं । मशहूर शायर ख़ान बहादुर सय्यद अकबर इलाहाबादी गौहर जान के विषय में सन 1910 के आस-पास लिखते हैं कि -
ख़ुशनसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा
सब कुछ अल्लाह ने दे रखा है शौहर के सिवा ।
कलकत्ता की निहायत
मशहूर-ओ-मा’रूफ़ गायिका गौहर जान 10 से 20
भाषाओं में गाती थीं
। उन्होने तकनीकी बदलाव के अनुरूप अपने आप को तैयार किया । भारत में 78 आरपीएम पर संगीत रिकार्ड करनेवाली गौहर पहली
कलाकार थी । इंग्लैंड की कंपनी ग्रामोंफोन अँड टाईप राईटर लिमिटेड का पहला सेल्स
आफ़ीस जुलाई 1901 में कलकत्ता में खुला
। कंपनी का रिकार्डिंग अधिकारी गैस्बेर्ग सन 1902 में कलकत्ता आया । 11 नवंबर 1902 को गौहर कंपनी के अस्थायी स्टूडियो आती हैं
। उन दिनों ग्रामोफोन की रिकार्डिंग 02 से 03 मिनट की ही होती थी । ठुमरी को दो से तीन
मिनट में गाना बहुत बड़ी चुनौती थी लेकिन गौहर ने अपनी खास शैली में यह चुनौती
स्वीकार की ।
गौहर ने जो बदलाव गायकी के लिए किए उसे उसी रूप
में बाद के रिकार्डिंग कलाकारों ने स्वीकार करते हुए अपनाया । हर गायन के बाद वो ‘माय नेम इज़ गौहर जान’ कहना नहीं भूलती थी
। गौहर की ठनक, ठसक और खनकती आवाज़
की दुनियाँ दीवानी थी । गौहर जान और जानकी बाई ने ग्रामोंफोन की रिकार्डिंग में
अपना परचम लहराया । गौहर जान ने बीस से अधिक भाषाओं में 600 से अधिक रिकार्डिंग किये । इसी रिकार्डिंग की बदौलत गौहर देश ही नहीं
विदेश में भी मशहूर हुई । गौहर जान भारत की पहली रिकार्डिंग सुपरस्टार थी ।
गौहर की बदौलत ग्रामोंफोन भारत में लोकप्रिय
हुआ । बंगाली, गुजराती, तमिल, मराठी, अरबी, फ़ारसी, पश्तो, फ्रेंच और अँग्रेजी
भाषा में गौहर ने अपनी गायकी का लोहा मनवाया । गौहर अपनी हर रिकार्डिंग के लिए उस
समय तीन हज़ार रुपये लेती थी जो कि किसी अन्य कलाकार को नहीं मिलता था । अपनी हर
रिकार्डिंग के लिए वो नए गहने और कपड़ों में जाती । गौहर जान की लोकप्रियता का आलम
यह था कि आस्ट्रेलिया में बनी माचिस की डिब्बी पर गौहर की फ़ोटो छपने लगी । इसी तरह
सिगरेट और ताश की गड्डियों पर भी गौहर की तस्वीर नज़र आती थी । राजस्थान, पंजाब के कठपुतलियों के खेल में गौहर का
नाम लिया जाने लगा ।
गौहर कलकता में जल्द
ही आलीशान कोठियों, महंगी गाड़ियों, शाही गहनों और कपड़ों की मालकिन बन गयीं ।
घोड़ों की रेस में पैसे लगाने का शौख भी गौहर ने पाल लिया था । इसके लिए वो
महालक्ष्मी रेस कोर्स बम्बई बराबर आती थीं । कलकत्ता की सड़कों पर सफ़ेद अरबी घोड़ों वाली बग्गी
में घूमती । उस समय के नियमों के अनुसार ऐसी बग्गी सिर्फ शाही परिवार और अंग्रेज़
साहब बहादुर रख सकते थे । लेकिन नियमों के खिलाफ़ गौहर ऐसी बग्गी रखती थी । इसके
लिए उन्हें एक हजार जुर्माना भी भरना पडा था । बावजूद इसके गौहर ने अपने आगे कभी
किसी को कुछ नहीं समझा ।
सन 1920 के आस-पास गांधी जी कलकत्ता कांग्रेस के लिए ‘स्वराज फंड’ के बैनर तले चंदा
जमा कर रहे थे । गांधी जी ने गौहर की लोकप्रियता को देखते हुए एक गायन प्रस्तुति
देने और उससे जो पैसा जमा हो उसे ‘स्वराज फंड’ को दान करने की बात कही । गौहर इस शर्त पर
यह कार्यक्रम करने के लिए तैयार हुई कि गांधी जी स्वयं इस आयोजन में उपस्थित
रहेंगे । लेकिन किसी कारणवश गांधी जी नहीं पहुंचे । बाद में जब उन्होने मौलाना
शौकत अली को गौहर के पास पैसे लेने के लिए भेजा तो गौहर ने कुल जमा राशि 24000 रुपये की आधी राशि 12000 रूपए ही मौलाना को दिये । गौहर ने साफ कहा कि गांधी जी ने अपना आधा वादा
निभाया अतः चंदे की राशि भी आधी ही मिलेगी । मौलाना साहब से
शिकायती और तंज़ भरे लहजे में गौहर जान
ने यह भी कहा कि आपके
बापू ईमान और एहतराम की बातें तो करते हैं पर एक अदना तवायफ़़ को किया वादा भी
नहीं निभा सके । मौलाना साहब मुस्कुरा के रह गए । ऐसी थी गौहर के व्यक्तित्व की
ठसक ।
एक बार दतिया नरेश का निमंत्रण गौहर को महफ़िल के लिए मिला । दतिया को कोई
छोटी रियासत मानकर गौहर ने आमंत्रण अस्वीकार कर दिया । बाद में दबाव पड़ने पर
उन्होने जाना तो स्वीकार किया लेकिन अपने लिए शाही ट्रेन की मांग की । दतिया नरेश
ने 11 कोच की शाही ट्रेन
गौहर के लिए भेजी । अपने सहायकों, नौकरों, धोबी इत्यादि तामझाम के साथ गौहर दतिया
पहुंची । दतिया नरेश ने गौहर के लिए दो हजार रुपये प्रतिदिन के हिसाब से सम्मान
राशि भी सुनिश्चित की । इतना सबकुछ करने के बाद भी गौहर को गाने का अवसर नहीं दिया
। गौहर को जल्द ही अपनी गलती समझ में आ गई । उन्होने दतिया नरेश से माफ़ी मांगी
उसके बाद ही उनको कार्यक्रम की अनुमति मिली । गौहर करीब छ महीने वहाँ रहीं । यहीं
रहते हुए उसने उस्ताद मौला बख़्श से संगीत सीखा ।
कलकत्ते
में जो संरक्षक गौहर
जान को मिलें उनमें सेठ धुलीचंद और सेठ श्यामलाल खत्री प्रमुख थे । राजा दरभंगा, राजा रामपुर, राजा इंदौर, राजा मैसूर, राजा हैदराबाद और राजा कश्मीर के दरबारों
में गौहर जान की आवाज गूँजती थी । लाहौर, कराची, लखनऊ, पटना, मुजफ्फरपुर, छपरा, कलकत्ता, हैदराबाद, ढाका, भोपाल, कर्नाटक, पूना और बाम्बे जैसे शहरों जमींदार, उमरा, उलमा बड़े अदब और एहतराम के साथ गौहर जान को अपनी मफिल सजाने के लिए बुलाना शान समझते थे । गौहर जान के बारे में
कहा जाता है कि वे सोने की सौ गिन्नियाँ लेने के बाद ही किसी मफ़िल के लिए हामी
भरती थीं । दिसंबर 1911 में इलाहाबाद की
जानकी बाई के साथ दिल्ली दरबार में किंग जार्ज़ पंचम के सम्मान में गौहर ने गायन
प्रस्तुत किया था ।
मैसूर के महाराज कृष्णराज वाडियार चतुर्थ की
कृपा से उन्हें 500 रूपए की निर्धारित
राशि पर दरबार में संगीतकार के रूप में नियुक्त किया गया । ये गौहर जान के मुफ़लिसी
भरे दिन थे । अपनी पालतू बिल्ली के बच्चों की शादी पर कभी बीस हजार दावत पर खर्च
करनेवाली गौहर जान आज 500 रुपये की नियुक्ति
पत्र पर भी खुश थी । गौहर को आवास के रूप में ‘दिलखुश काटेज’ उपलब्ध कराया गया था
। यहाँ वे 01 अगस्त 1928 से रह रहीं थी । यहाँ करीब 18 महीने का समय बिताने के बाद शुक्रवार 17 जनवरी 1930 को मैसूर के कृष्णराजेन्द्र अस्पताल में गौहर जान ने आख़री सांस ली । अंतिम
दिनों में भी वे बंबई के सेठ माधोदास गोकुलदास पास्ता द्वारा दायर मुकदमें से जूझ
रहीं थी । उनकी मृत्यु के आठ साल बाद / सन 1938 तक उनका लालची शौहर सय्यद ग़ुलाम अब्बास
सब्ज़्वारी उनकी जायदाद एवं गहनों इत्यादि के संदर्भ में पत्र व्यवहार राजा मैसूर
के दरबार में करता रहा । हालांकि उसके हांथ कुछ न लगा ।
गौहर जान की सारी
ज़िंदगी तूफानों में घिरी हुई उस कश्ती की तरह रही जिसने बार-बार रूठी हुई हवा का रुख़ मोड़ दिया । जिंदगी की बुझी हुई शामों को अपने
हौसले अपनी मेहनत से न केवल जलाए रक्खा बल्कि उन्हें यादगारी के झिलमिलाते हुए
सिलसिले भी दिए । ये गौहर जान की ज़िंदादिली ही थी जिसनें सारी तकलीफ़ों, मुसीबतों को अपने आगे बौना साबित किया ।
अपने समय और समाज की तमाम बर्बरताओं को अपनी देह, अपने मन पर झेलते हुए गौहर ने दुनियादारी की सारी हदों के लिए अपने आप को
एक पहेली, एक अपवाद बना लिया ।
वो भी एक जमाना था कि गौहर जान के बिना महफ़िलों से कई मौसम, कई रंग उदास हो जाते थे ।
अपने अंतिम दिनों में
गौहर ने वह वक्त भी देखा जो संक्षेप में उदासी, मुफ़लिसी और बेबसी का घुला हुआ रंग था । यह मौसम गौहर के अंदर का मौसम भी
था । सचमुच गौहर अब वहाँ थी जहां से कोई और रास्ता नहीं जाता । एक गाने वाली, कोठे वाली इस तवायफ़ ने दुनियाँ को यह सिखाया कि जीवन खोखले
विज्ञापित मूल्यों के लिए नहीं अपितु अपनी पाली हुई लालसाओं को अपनी जिद्द, अपने श्रम से हासिल करते हुए उन्हें अपनी
बाहों की परिधि में लेकर झूमने का नाम है । गौहर सक्रिय हस्तक्षेप करते हुए नयेपन
का उत्सव मनाना जानती थी ।
गौहर उन लोगों के भी आँख का तारा थी जिन्हें
अँधेरा बहुत पसंद था । ऐसे न जाने कितने खूनी पंजों से जूझती हुई वह लहूलुहान हुई
होगी ? सभ्य होने के दबाव के
नीचे झुका हुआ हमारा समाज एक औरत, एक शानदार फनकार के
रूप में गौहर जान से क्या कुछ सीखना चाहेगा ? कम से कम ऐसे सवाल तो दर्ज़ कर लिए जायें, उसी का यह एक विनम्र प्रयास ।
संदर्भ सूची :
1. भारत में विदेशी लोग
एवं विदेशी भाषाएँ : समाज भाषा – वैज्ञानिक इतिहास – श्रीश चौधरी । राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, पहला संस्करण 2018 ।
2. ये कोठेवालियाँ – अमृतलाल नागर । लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद । संस्करण 2008 ।
3. बनारसी ठुमरी की
परंपरा में ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियाँ एवं उपलब्धियां (19वीं-20वीं सदी )
– डॉ. ज्योति सिन्हा, भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र, शिमला । प्रथम संस्करण वर्ष 2019 ।
4. कोठागोई – प्रभात रंजन । वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली । संस्करण 2015 ।
5. महफ़िल – गजेन्द्र नारायण सिंह । बिहार ग्रंथ अकादमी
पटना । संस्करण 2002 ।
6. My Name Is Gauhar Jaan: The life and Times of a
Musician – Vikram Sampath, Rupa Publications India, January 2010.
7. https://www.bbc.com/hindi/india-37661820
8. http://103.35.120.216/bbc-hindi-news/gauhar-jaan-118062700018_1.html