'राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.` द्वारा सन् 2003 में प्रकाशित 536 पृष्ठों का यह उपन्यास, अमरकांत द्वारा लिखे गए अब तक के उपन्यासों में सबसे बडा है। साथ ही साथ इसका कथानक भी बाकी उपन्यासों से बिलकुल अलग है। 'सूखा पत्ता` के बाद अमरकांत के जिस उपन्यास की चर्चा सबसे ज्यादा हुई वह 'इन्हीं हथियारों से` है।
उपन्यास के आरंभ में उपन्यास के बारे में बताते हुए अमरकांत लिखते हैं कि, ''यह रचना उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से जनपद पर केंन्द्रित स्वाधीनता आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। सन् 1942 ई. में 'भारत छोड़ो` जनक्रान्ति के दौरान कुछ दिनों के लिए बलिया में ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया था। गाँवों में पंचायत सरकारें कायम हुई थी। परन्तु, यह ऐतिहासिक उपन्यास नहीं है, बल्कि उस आन्दोलन से जुड़े व्यक्तियों के निजी अनुभवों, ऐतिहासिक घटनाओं तथा बयालिस से लेकर स्वतंत्रता- प्राप्ति तक के समय की एक यथार्थवादी परिकल्पना है। वस्तुत: बलिया के बहाने, एक कल्पित कथा द्वारा इस ऐतिहासिक जमाने का स्मरण किया गया है, जब देश की जनता ने स्वाधीनता के लिए विदेशी हुकूमत के विरूद्ध बगावत का झंडा उठाते हुए जबरदस्त संघर्ष किया, जनगिनत कुर्बानियाँ दीं और भयंकर दमन का सामना किया।``31
अमरकांत का यह उपन्यास 'साक्षात्कार` नामक पत्रिका में 'आँधी` शीर्षक से धारावाहिक रूप मंे छप चुकी है। बाद में अपने मित्र कवि अमरनाथ श्रीवास्तव के आग्रह एवम् सहयोग से अमरकांत ने इसका शीर्षक बदल कर 'इन्हीं हथियारों से` शीर्षक के साथ इसे उपन्यास रूप में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित करवाने का निर्णय लिया। इस तरह यह उपन्यास 2003 में पाठकों के लिए पुस्तकाकार रूप में सामने आ सका।
इस उपन्यास के प्रकाशित होने के बाद समीक्षकों के बीच यह चर्चा का विषय बना रहा। वेदप्रकाश जी इस उपन्यास के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''पिछले दिनों इतिहास और निकट अतीत को आधार बनाकर अनेक उपन्यास लिखे गए हैं। अमरकांत का नया उपन्यास 'इन्ही हथियारों से` सन 42 के भारत छोड़ो आन्दोलन पर केन्द्रित है। लेकिन इस केन्द्र के समानान्तर और भी कई उपकेन्द्र हैं जो इस उपन्यास को बहुआयामी, बहुरसात्मक और स्वाधीनता की कामना को ठोस तथा जीवन्त बनाते हैं। इसमें स्वतंत्रता आन्दोलन और स्वतंत्रता, जीवन के विविध हिस्सों से अलग-ओढ़ी हुई नहीं है, साक्षात परिदृश्य है,.....।``32
निश्चित तौर पर वेद प्रकाश जी की उपर्युक्त बात एकदम सही है क्योंकि इस उपन्यास को पढ़ते हुए इसके बहुआयामी स्वरूप और इसके विशाल परिदृश्य से पाठक अवगत हो जाता है। सामान्य तौर पर इतने बड़े उपन्यास के केन्द्र मंे कोई बड़ा नायक होता है और बाकी सभी पात्र, घटनाएँ एवम् उपकथाएँ मुख्य कथा के साथ नाटकीय रूप में जुड़ती चली जाती हैं। लेकिन इस उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने बलिया जिले का एक 'कोलाज़` प्रस्तुत करने का सफल प्रयत्न किया है। वहाँ के लोग, उनकी सोच, उनका रहन-सहन ये सब इस उपन्यास का हिस्सा है। बलिया का प्राकृतिक वर्णन करने में भी अमरकांत पीछे नहीं रहे हैं। अमरकांत खुद बलिया जिले के हैं। इसलिए यहाँ से उनका आत्मीय लगाव होना स्वाभाविक भी है। अपने और बलिया के संबंधों को अमरकांत ने इस उपन्यास में बड़े ही कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है। निश्चित तौर पर यह उनके रूचि का विषय रहा इसलिए जिसके वर्णन में उन्होंने कोई कमी नहीं रखी।
इस उपन्यास के बडे हो जाने के कारणों में शायद एक कारण यह भी रहा हो। वैसे इतना मोटा उपन्यास लिखने के पीछे एक और सच्चाई भी है, जिसे अमरकांत बड़ी सहजता से बतलाते है। साक्षात्कार के दौरान उन्होंने बतलाया कि जब यह 'साक्षात्कार` में धारावाहिक रूप में छप रहा था तो हर अंक के लिए एक निश्चित धन राशि अमरकांत को मिल जाया करती थी। आर्थिक परेशानियों के बीच यह मदद अमरकांत के लिए बड़ी बात थी। कुछ यह भी कारण रहा कि यह उपन्यास इतना मोटा बना। इस तरह लेखक की रूचि और 'जरूरत` दोनों कारणों के एक साथ मिल जाने के कारण यह उपन्यास इतना मोटा हो गया। अन्यथा अमरकांत के इसके पहले के लिखे गए कोई भी उपन्यास 200-250 पृष्ठों से अधिक नहीं है।
इस उपन्यास की खूबियों की चर्चा करते हुए वेद प्रकाश जी लिखते हैं कि, ''.... 'इन्हीं हथियारों से` एक महाकाव्यात्मक उपन्यास है। प्रेमचंद के बाद इस तरह के उपन्यास कम ही लिखे गए हैं। जीवन की भव्यता को कोई एक पुस्तक जितना समेट सकती है, उतना यह उपन्यास समेटता है।..... इस उपन्यास में भी सम्पूर्ण युग का व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुआ है। व्यास और महाभारत एक युग की देन थे, अमरकांत और उनका यह उपन्यास दूसरे युग की देन हैं। क्या हमारे युग का महाकाव्य ऐसा ही नहीं होगा?``33 वेद प्रकाश जी एक उपन्यास को महाकाव्यात्मक गौरव वाला माना है। साथ ही साथ उन्होंने एक प्रश्न भी किया है कि आखिर हमारे युगा का महाकाव्य ऐसा नहीं तो कैसा होगा? निश्चित तौर पर यह प्रश्न अमरकांत के साहित्य को लेकर पुन: एक नये विमर्श की तरफ इशारा कर रहा है।
यह उपन्यास खुद अमरकांत की अपनी सीमाओं को तोड़ता सा दिखायी पड़ता है। उनकी कहानियों एम् अन्य उपन्यासों को लेकर समीक्षक अक्सर एक बात बड़ी आसानी से कह जाते थे कि अमरकांत चूँकि 'मोहभंग` के कथाकार है इसलिए उनके सभी पात्र हमेशा गहरी निराशा और 'करूण काईयॉपन` से ग्रस्त रहे हैं। लेकिन इस उपन्यास की स्थिति भिन्न है। ''इस उपन्यास में निराशा और मोहभंग नहीं, जीवन में भरपूर आस्था, उत्साह, आशा तथा भविष्य की एक कल्पना है जिसका आधार है - साधारण जनता का ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध संयुक्त प्रतिरोध। इस कृति में आशा और आस्था के पीछे स्वाधीनता आन्दोलन है जबकि कहानियों की पृष्ठभूमि में स्वातंत्रोत्तर भारत की विसंगत जीवन-स्थितियाँ।``
अमरकांत के रचनात्मक साहित्य पर गिरिराज किशोर जी लिखते हैं कि, ''रचनात्मक लेखन के संदर्भ में एक और बात मुख्य हैं वह है प्राथमिकताओं का निर्धारण। प्राथमिकता निर्धारण करते समय लेखक के सामने मुख्य बात उसके युग का संघर्ष है। अनुभव और तत्कालीन मानव मूल्यों के बीच से उभरने वाला संघर्ष! ऐतिहासिक परिवेश और समकालीनता के बीच स्थापित होने वाला वह बारीक रिश्ता जो कभी नजरअंदाज हो जाता है। लेखक की ऐतिहासिकता की समझ इस प्राथमिकता को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण योगदान देती है।..... लेखक बनने की यह भी एक अनिवार्य शर्त है कि वह मानवीय मूल्यों के संदर्भ में अपने युग की सामाजिकता और आर्थिक ऐतिहासिकता का भी विश्लेषण करे।``35
यद्यापि गिरिराज जी का उपर्युक्त वक्तव्य अमरकांत के संपूर्ण रचनात्मक साहित्य को लेकर किया गया है। पर यह 'इन्हीं हथियारों से` के संदर्भ अधिक सटीक प्रतीत होता है। बलिया के लोग पेचकस, लाठी, पुरानी साइकल, भोंपू, पलाश और ड़डा लेकर अंग्रेजों की बंदुकों का सामना करने निकल पड़ते हैं। दलित, मजदूर, बच्चे औरतें, व्यापारी, मुसलमान और वेश्याएँ भी इस आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए आतुर दिखायी पडती हैं।
इस उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने एक कोशिश यह भी की है कि इतिहास में गाँधी का मूल्यांकन नए सिरे से होना चाहिए। यह अमरकांत की नई और अनोखी पहल है। खुद अमरकांत के शब्दों में ''...... मैंने उपन्यास लिखा 'इन्हीं हथियारों से` कम्युनिस्ट पार्टी ने पाकिस्तान बनने का समर्थन किया था, 42 के दिनों में। इस उपन्यास में मैंने कम्युनिस्ट पार्टी की इसी बिंदु पर आलोचना की है। उस समय कांग्रेसियों का ट्रेंड किधर जा रहा था? फिर उस दौर में कम्युनिस्टों की गतिविधियों पर और तरह से भी प्रश्नचिन्ह लगाये गये हैं। इन सारे बिंदुओं को मिस करते हुए भावुकता के आवेग में यह आरोप लगाना कि इस उपन्यास में गाँधी का महिमामण्डन है, सही नहीं है। साहित्य में लोकतंत्र विरोधी माहौल से मुझे बहुत रोष है। 'इन्हीं हथियारों से` में गाँधी को यथार्थपरक दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया है। यथार्थ विरोधी दृष्टि से गाँधी की बुराई करना उतना ही बुरा है जितना कि उनका अकारण महिमामण्डन करना। गाँधी साम्राज्यवाद विरोध के महान स्तंभ थे। खादी चरखा द्वारा उन्होंने साम्राज्यवाद को भारी चुनौती दी थी। मैं गाँधीवादी नहीं हूँ, लेकिन मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि हमारे इतिहास में गाँधी की भूमिका का सही मूल्यांकन होना चाहिए जो अभी तक नहीं हुआ है।``36
इस उपन्यास के संदर्भ में वेद प्रकाश जी के शब्दों में अंतिम रूप से यही कहा जा सकता है कि, ''..... यह उपन्यास लेखक की कहानियों की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है। यह समकालीन राजनीति और व्यवस्था से नैतिकता और ईमानदारी की माँग करता है। समकालीन भ्रष्टाचार तथा अमानवीयता पर गहरी चोट करता है। अमरकांत की कहानियों को एक निरंतरता देता है। लगता है जैसे उनका सारा साहित्य मिलकर विसंगति का विशाल बिम्ब निर्मित कर रहा हो।``३७