बोध कथा १३ : अपना
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बहुत पुरानी बात है.पुराने मगध साम्राज्य में राजा ने अपने एक सेवक को पत्थरों से मारने क़ी सजा सुनाई .यह पहली बार था जब राजा ने किसी को ऐसी सजा सुनाई हो. सेवक चुप-चाप इस सजा को कबूल कर सब के सामने खड़ा था.सभी लोग बस एक-दूसरे का मुह देख रहे थे.तभी राजा ने फिर कहा,'' आदेश का पालन किया जाय.''
बस फिर क्या था,चारों तरफ से पत्थर उस सेवक पर बरसने लगे.उसका पूरा शरीर लहू लुहान हो गया था.पर वह एक प्रतिमा क़ी भांति अपनी जगह पर खड़ा रहा.इतने पत्थर खाने के बाद भी उसकी आँख से आंसू नहीं निकले.इतने एक दूसरा व्यक्ति वंहा पर आया और उसने अपने हाँथ के फूलों के गुलदस्ते को उस सेवक क़ी तरफ फेंक दिया.वह फूलों का गुलदस्ता सीधे उस सेवक के सर पर लगा,और वह जोर-जोर से रोने लगा.
लोगों को इस बात का बड़ा आश्चर्य हुवा क़ि जो व्यक्ति इतने पत्थरों को खाने के बाद भी नहीं रोया,वह फूलों क़ि मार से कैसे रोने लगा ? धीरे -धीरे सब लोग वंहा से जाने लगे. अंत में एक बूढ़े व्यक्ति ने उस सेवक से पूछा ,''हे सेवक ,तुम्हे सब ने इतने पत्थर मारे ,मगर तुम जरा भी नहीं रोये.इन फूलों से मार खाने के बाद तुम क्यों रो रहे हो ?''इस पर उस घायल सेवक ने जवाब दिया क़ि,''हे बाबा,जो लोग मुझे पत्थर मार रहे थे ,वे मेरे कोई नहीं थे.उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था.पर जिसने मुझे फूलों से मारा वह मेरा अपना था.इसलिए उसके मारने पर मुझे रोना आ गया .''
उस सेवक क़ी बात सुनकर बूढा बोला,''समझ गया बेटा.अपनों के दिए हुवे जख्म बड़े गहरे होते हैं. '' और बूढा वहां से जाने लगा.जाते-जाते उसके कान में घायल ,असहाय सेवक के जो शब्द पड़े वे इस प्रकार थे-------
'' अपनों से ही घाव मिले हैं ,किसको हाल बताऊँ अपना
पीठ में खंजर मारा उसने,जिसे समझता रहा मैं अपना ''
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Sunday, 28 March 2010
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