नाशिक,मनमाड,धुलिया जैसे शहरों से जुड़ा हुआ मालेगाँव नाशिक जिले का एक तालुका है । यह मुंबई से लगभग 300 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । बीस लाख के लगभग आबादी वाला यह मुस्लिम बाहुल्य शहर है । यह शहर अपने पवार लूम और फिल्मों के लिये जाना जाता है । हिंदी,उर्दू,ऐरानी,मराठी,बाग्लानी,खानदेशी,भिल्ल और सटानी जैसी भाषाओं-बोलियों के संलयन से मालेगाँव की एक अलग ही बोली विकसित होती है जो कि हिंदी का एक नया स्थानीय रूप है ।
मालेगाँव का फ़िल्म उद्योग, उद्योग से अधिक सामाजिक सहयोग और सहकार्यता आधारित प्रकल्प है । सीमित संसाधनों से बनी यहाँ की फिल्में कई कारणों से चर्चा का विषय रही हैं । मालेगाँव के शोले, मालेगाँव का सुपरमैन, मालेगाँव के करण-अर्जुन, मालेगाँव का जेम्स बांड जैसी यहाँ की फिल्में काफ़ी लोकप्रिय रही हैं ।
मात्र पचास हजार से 2 लाख रुपये के बजट में बनकर तैयार हो जानेवाली ये फिल्में स्थानीय मध्यमवर्गीय , निम्न मध्यमवर्गीय कुछ उत्साही लोगों द्वारा बनायी जाती हैं । ये फिल्में यहीं दिखायी जाती हैं और लाख- पचास हजार की कमाई भी कर लेती हैं । लूम में, चाय की दुकान में, कपड़े की दुकान में या ऐसे ही छोटे-मोटे काम करने वाले लोग आपसी सहयोग से इन फिल्मों का निर्माण करते हैं । संसाधनों से वंचित ये लोग अपनी साधना में जिद्द और जुनून के साथ काम करते हैं ।
हास्य प्रधान ये फिल्में सामाजिक सरोकारों से जुड़ी नहीं होती और ना ही अधिक कमाई के लिये अपने समाज विशेष में वर्जित वर्जनाओं से टकराती ही हैं । अपनी बोली,स्थान,खान-पान और पहनावे की विशेषता के साथ ये फिल्में हास्य के माध्यम से मनोरंजन करना ही उचित मानती हैं ।
अतुल दुसाने, नासिर शेख़, फ़ैज़ अहमद ख़ान, खुर्शीद सिद्दकी और फिरोज़ टार्जन जैसे नाम यहाँ के फिल्मों से जुड़े बड़े नाम हैं । इनके पास वैनटी वैन नहीं होती सो कलाकार किसी कोने में जाकर मेकअप और कपड़े बदलने का काम कर लेते हैं, कैमरा घुमाने के लिये ट्राली नहीं होती इसलिए ठेले या साईकिल पर उसे रखकर काम चला लिया जाता है । यहाँ कलाकारों को कोई रकम नहीं मिलती, मिलता है तो बस अपनों का साथ ।
मालेगाँव का फ़िल्म उद्योग, उद्योग से अधिक सामाजिक सहयोग और सहकार्यता आधारित प्रकल्प है । सीमित संसाधनों से बनी यहाँ की फिल्में कई कारणों से चर्चा का विषय रही हैं । मालेगाँव के शोले, मालेगाँव का सुपरमैन, मालेगाँव के करण-अर्जुन, मालेगाँव का जेम्स बांड जैसी यहाँ की फिल्में काफ़ी लोकप्रिय रही हैं ।
मात्र पचास हजार से 2 लाख रुपये के बजट में बनकर तैयार हो जानेवाली ये फिल्में स्थानीय मध्यमवर्गीय , निम्न मध्यमवर्गीय कुछ उत्साही लोगों द्वारा बनायी जाती हैं । ये फिल्में यहीं दिखायी जाती हैं और लाख- पचास हजार की कमाई भी कर लेती हैं । लूम में, चाय की दुकान में, कपड़े की दुकान में या ऐसे ही छोटे-मोटे काम करने वाले लोग आपसी सहयोग से इन फिल्मों का निर्माण करते हैं । संसाधनों से वंचित ये लोग अपनी साधना में जिद्द और जुनून के साथ काम करते हैं ।
हास्य प्रधान ये फिल्में सामाजिक सरोकारों से जुड़ी नहीं होती और ना ही अधिक कमाई के लिये अपने समाज विशेष में वर्जित वर्जनाओं से टकराती ही हैं । अपनी बोली,स्थान,खान-पान और पहनावे की विशेषता के साथ ये फिल्में हास्य के माध्यम से मनोरंजन करना ही उचित मानती हैं ।
अतुल दुसाने, नासिर शेख़, फ़ैज़ अहमद ख़ान, खुर्शीद सिद्दकी और फिरोज़ टार्जन जैसे नाम यहाँ के फिल्मों से जुड़े बड़े नाम हैं । इनके पास वैनटी वैन नहीं होती सो कलाकार किसी कोने में जाकर मेकअप और कपड़े बदलने का काम कर लेते हैं, कैमरा घुमाने के लिये ट्राली नहीं होती इसलिए ठेले या साईकिल पर उसे रखकर काम चला लिया जाता है । यहाँ कलाकारों को कोई रकम नहीं मिलती, मिलता है तो बस अपनों का साथ ।
पूरे मालेगाँव में 15-16 फ़िल्म थियेटर हैं । मोहन,सुभाष,दीपकऔर संदेश यहाँ कुछ प्रमुख थियेटर हैं । इनके अलावा छोटे वीडियो पार्लर भी हैं । यहीं पर ये फिल्में अपना कारोबार करती हैं । जुम्मे / शुक्रवार को सभी थियेटर हाऊस फ़ुल होते हैं क्योंकि उस दिन लूम बंद रहते हैं । मालेगाँव में फिल्मों के लिये जो जुनून है वह पूरे भारत में अनोखा है । हिंदी और मराठी फ़िल्म उद्योग के सामने इनका कोई व्यावसायिक मुक़ाबला हो ही नहीं सकता लेकिन इनकी फिल्मों के प्रति प्रतिबद्धता इन्हें एक विशेष पहचान देती है ।
किस तरह एक क्षेत्र विशेष अपनी क्षेत्रीयता के तमाम रंगों के साथ प्रयोगधर्मी होते हुए सामाजिक सहयोग और सहकार्यता के ताने-बाने पर पूरी पूंजीवादी व्यवस्था और उसके मकडजाल को चुनौती देता है, इसे मालेगाँव की फ़िल्मों से समझा जा सकता है ।
किस तरह एक क्षेत्र विशेष अपनी क्षेत्रीयता के तमाम रंगों के साथ प्रयोगधर्मी होते हुए सामाजिक सहयोग और सहकार्यता के ताने-बाने पर पूरी पूंजीवादी व्यवस्था और उसके मकडजाल को चुनौती देता है, इसे मालेगाँव की फ़िल्मों से समझा जा सकता है ।
डॉ. मनीषकुमार सी. मिश्रा