सौ करोड़ की कमाई का आँकड़ा पार कर चुकी अमित आर शर्मा निर्देशित फ़िल्म 'बधाई हो' 18 अक्टूबर 2018 को रिलीज़ हुई । शायद पहली बार पैरेंटल प्रेंग्नेंसी को केंद्र में रखकर हिंदी सिने जगत में कोई फ़िल्म बनी है । फ़िल्म की कहानी दिल्ली के एक मध्यमवर्गीय "कौशिक परिवार" की कहानी है, जो पैरेंटल प्रग्नेंसी जैसे एक जीवंत और संजिदा सामाजिक मुद्दे को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करती है।
फ़िल्म में नायक की भूमिका में आयुष्मान खुराना हैं तो नायिका का किरदार सान्या मल्होत्रा ने निभाया है । इसके पहले सान्या आमिर ख़ान की फ़िल्म 'दंगल' और विशाल भारद्वाज की फ़िल्म 'पटाख़ा' में नज़र आ चुकी हैं । फ़िल्म में आयुष्मान के माता-पिता की भूमिका में नीना गुप्ता और गजराज राव हैं। नायक की दादी के रोल में सुरेखा सीकरी की अदाकारी बड़ी महत्वपूर्ण और सराहनीय रही है । फ़िल्म के संवाद बड़े उम्दा हैं ।
फिल्म में आयुष्मान खुराना (नकुल) की मां नीना गुप्ता उस उम्र में मां बनना स्वीकार करती हैं, जिस उम्र में उन्हें समाजिक परंपराओं एवं मर्यादाओं के अनुसार दादी-नानी बनने की तैयारी करनी चाहिए थी । उम्र के इस पड़ाव पर नीना गुप्ता और गजराज राव को जब बग्गा क्लीनिक में मालूम पड़ता है कि वे माँ - बाप बनने वाले हैं तो वे आश्चर्य और आशंकाओं से भर जाते हैं । उन्हें समझ ही नहीं आता कि वे बच्चे को जन्म लेने दें या अबॉर्शन करा लें । घर के सदस्यों और समाज को इस सब के बारे में कैसे बतायें ?
यह फ़िल्म नैतिकता के आग्रह से जूझ रहे भारतीय मध्यमवर्ग की नब्ज़ को न केवल टटोलती है अपितु उसका सार्थक और स्वाभाविक समाधान भी प्रस्तुत करती है । इस तरह की फिल्में एक सामाजिक जरूरत की तरह हैं । हमें खुले मन से ऐसी फिल्मों का स्वागत करना चाहिए, कमाई के आंकड़े बता भी रहे हैं कि दर्शकों ने दिल खोल के इस फ़िल्म का स्वागत किया है । हिंदी सिनेमा के कथानकों में ऐसे प्रयोग शुभ संकेत हैं ।
फ़िल्म का नायक नकुल व उसका छोटा भाई अपने माँ - बाप की इस सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं । वे दोस्तों का सामना करने से कतराते हैं । मां- बाप भी उनकी नज़रों में अपने आप को गिरा हुआ महसूस करते हैं । सास / सुरेखा सीकरी के ताने बहू प्रियंवदा / नीना गुप्ता को सालते हैं । लेकिन पति- पत्नी एक दूसरे को भावनात्मक संबल देते हैं । सास भी उस समय अपनी बहू के पक्ष में खुलकर खड़ी हो जाती है जब मेरठ में पारिवारिक समारोह के बीच अन्य पारिवारिक सदस्यों द्वारा प्रियंवदा को नैतिकता का पाठ पढ़ाये जाने की कोशिश की जाती है ।
नायिका सान्या भी नायक को समझाती है कि माँ- बाप के बीच सेक्स कोई ऐसी बात नहीं जिसे अनैतिक माना जाय । लीचड़ और लद्धड़ आग्रहों में डूबकर अपने आप को अपराधबोध से ग्रस्त करने से बेहतर है कि हम जीवन की सच्चाई को उसकी पूरी सहजता में स्वीकार करें । 'लोग क्या कहेंगे" जैसी चिंताओं की परिधि से निकलते हुए हमें कैसे प्रेम,करुणा और मानवीय संवेदना के पक्ष में खड़ा होना चाहिए यह वह अपने तरीके से समझाती है ।
एक सामाजिक इकाई के रूप में परिवार के लोगों का आपसी भरोसा, विश्वास,समर्पण,त्याग और उनका मूल्यबोध किसी भी जड़ता के विरुद्ध किसतरह एक ताकत बन सकती है इसे फ़िल्म हल्के फुल्के तरीके से दर्शकों से सामने प्रस्तुत कर देती है । अपनों का सहयोग हमारे आत्मविश्वास को किस तरह मजबूत करता, इसे यह फ़िल्म समझाती है ।
फिल्म में आयुष्मान खुराना (नकुल) की मां नीना गुप्ता उस उम्र में मां बनना स्वीकार करती हैं, जिस उम्र में उन्हें समाजिक परंपराओं एवं मर्यादाओं के अनुसार दादी-नानी बनने की तैयारी करनी चाहिए थी । उम्र के इस पड़ाव पर नीना गुप्ता और गजराज राव को जब बग्गा क्लीनिक में मालूम पड़ता है कि वे माँ - बाप बनने वाले हैं तो वे आश्चर्य और आशंकाओं से भर जाते हैं । उन्हें समझ ही नहीं आता कि वे बच्चे को जन्म लेने दें या अबॉर्शन करा लें । घर के सदस्यों और समाज को इस सब के बारे में कैसे बतायें ?
यह फ़िल्म नैतिकता के आग्रह से जूझ रहे भारतीय मध्यमवर्ग की नब्ज़ को न केवल टटोलती है अपितु उसका सार्थक और स्वाभाविक समाधान भी प्रस्तुत करती है । इस तरह की फिल्में एक सामाजिक जरूरत की तरह हैं । हमें खुले मन से ऐसी फिल्मों का स्वागत करना चाहिए, कमाई के आंकड़े बता भी रहे हैं कि दर्शकों ने दिल खोल के इस फ़िल्म का स्वागत किया है । हिंदी सिनेमा के कथानकों में ऐसे प्रयोग शुभ संकेत हैं ।
फ़िल्म का नायक नकुल व उसका छोटा भाई अपने माँ - बाप की इस सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं । वे दोस्तों का सामना करने से कतराते हैं । मां- बाप भी उनकी नज़रों में अपने आप को गिरा हुआ महसूस करते हैं । सास / सुरेखा सीकरी के ताने बहू प्रियंवदा / नीना गुप्ता को सालते हैं । लेकिन पति- पत्नी एक दूसरे को भावनात्मक संबल देते हैं । सास भी उस समय अपनी बहू के पक्ष में खुलकर खड़ी हो जाती है जब मेरठ में पारिवारिक समारोह के बीच अन्य पारिवारिक सदस्यों द्वारा प्रियंवदा को नैतिकता का पाठ पढ़ाये जाने की कोशिश की जाती है ।
नायिका सान्या भी नायक को समझाती है कि माँ- बाप के बीच सेक्स कोई ऐसी बात नहीं जिसे अनैतिक माना जाय । लीचड़ और लद्धड़ आग्रहों में डूबकर अपने आप को अपराधबोध से ग्रस्त करने से बेहतर है कि हम जीवन की सच्चाई को उसकी पूरी सहजता में स्वीकार करें । 'लोग क्या कहेंगे" जैसी चिंताओं की परिधि से निकलते हुए हमें कैसे प्रेम,करुणा और मानवीय संवेदना के पक्ष में खड़ा होना चाहिए यह वह अपने तरीके से समझाती है ।
एक सामाजिक इकाई के रूप में परिवार के लोगों का आपसी भरोसा, विश्वास,समर्पण,त्याग और उनका मूल्यबोध किसी भी जड़ता के विरुद्ध किसतरह एक ताकत बन सकती है इसे फ़िल्म हल्के फुल्के तरीके से दर्शकों से सामने प्रस्तुत कर देती है । अपनों का सहयोग हमारे आत्मविश्वास को किस तरह मजबूत करता, इसे यह फ़िल्म समझाती है ।
#BadhaaiHo
------ डॉ. मनीषकुमार सी. मिश्रा ।
------ डॉ. मनीषकुमार सी. मिश्रा ।