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Tuesday, 4 September 2012

हम और हमारी भावनाएं

मैं किसी दार्शनिक या अध्ययन की विचारधारा विशेष से परे सामान्य तौर पे हमारे जीवन में भावनाओं के महत्व के संदर्भ में बात करना चाहूँगा । सब से पहले सवाल यह उठता है कि आखिर भावनाएं हैं क्या और ये आती कहाँ से हैं ? क्या भावनाएं सिर्फ और सिर्फ आंतरिक अनुभूति और उसका प्रस्फुटन हैं या फिर इनके ऊपर हमारी संस्कृति , संस्कार और जीवनशैली का भी कोई प्रभाव होता है ?

मैं यह समझता हूँ कि हमारे कुछ सोचने, समझने और सीखने के बीच जो एक चीज सामान्य है , वो है हमारा शरीर । शरीर ही माध्यम है, हमारे होने और न होने के बीच । यंहा तक कि लौकिक और अलौकिक के बीच की अनुभूति का माध्यम भी शरीर है । इसे ऐसे भी कह सकतें हैं कि अनुभूति का माध्यम ही शरीर है । इसलिए शरीर निश्चित रूप से एक जरूरी  और महत्वपूर्ण संदर्भ है जीवन और जीवन की अनुभूतियों के लिए । हमने सुना भी है कि- स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है ।

भावनाएं हमारे अंदर उमड़ती हैं और हमारी भाव-भंगिमाओं और व्यवहार के माध्यम से सामने आती हैं । भरतमुनि का नाट्यशास्त्र विस्तार में इनकी चर्चा करता है, हम सभी जानते हैं । लेकिन उमड़ती हुई भावनाओं और हमारे व्यवहार के बीच जीवन कितना कुछ गलत - सही करता है ये हम सब जानते हैं । मैंने सुना है कि सच्ची भावनाएं बुद्धिमान नहीं होती, लेकिन बुद्धिमानीपूर्ण भावनाएं अक्सर धोखा दे जाती हैं ।

हमारे अंदर जो भावनाएं उमड़ती हैं निश्चित तौर पे उनपे हमारे अनुभवों और संस्कारों का प्रभाव होता है , लेकिन भावनाओं  और व्यवहार के बीच का गणित बड़ा जटिल है । हमारा व्यवहार हमारे स्वार्थ से प्रभावित होता है । हमारी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक,राजनीतिक,पारिवारिक और व्यक्तिगत स्वार्थपरकता हमारी भावनाओं की वाहक होती हैं ।  " स्वराथ लाय करे सब प्रीती" बड़ा मनोवैज्ञानिक तथ्य है ।

लेकिन इन सब के बाद भी कई बार ऐसा होता है कि अपना नफा-नुकसान  जाँचने-परखने के बाद भी हम वो करते हैं जो हमारे लिए फायदेमंद कम और नुकसान दायक अधिक होता है । आखिर हम ऐसा करते क्यों हैं ?
शायद इसलिए क्यों कि हमारे अंदर कोई ऐसा होता है जो हम सा नहीं होता है । किसी दार्शनिक नें कहा भी है कि - मैं वो हूँ, जो मैं नहीं हूँ । इसका क्या अर्थ समझा जाय ? संस्कृत साहित्य और पुराणों इत्यादि में " परा" और " अपरा " की संकल्पना भी कुछ यही इशारा कर रही है कि
                                             
                                                                परा + अपरा = मैं

मोटे तौर पे जो बात मेरे समझ में आ रही है , वो यह कि कुछ होने और कुछ न होने  के बीच मैं हूँ और मेरे होने का माध्यम या प्रमाण मेरा शरीर है । इस शरीर की ज्ञानेन्द्रियों , इसे मिले संस्कारों और इसके द्वारा ग्रहित अनुभवों के बाद भी कुछ तो ऐसा है जिसके आगे जीवन के सारे धागे उलझ जाते हैं । हम अपने से अधिक दूसरों की चिंता करने लगते हैं, अपना नुकसान करके भी किसी का फ़ायदा करना चाहते हैं , जान बूझ के धोखा  और फरेब खाना चाहते है , किसी को पसंद-नापसंद करने के बीच में वो कर गुजरते हैं जिसके बारे में सोचा ही नहीं था । प्रेम और घृणा , क्रोध और काम , मद और लोभ के बीच भी कुछ ऐसे बिंदु ज़रूर होते  हैं जंहा अकारण  ही हम कुछ ऐसा कर जाते हैं जो हमारे सोचे और समझे हुवे से कंही अलग होता है । उसमें ना ही दर्शन होता है और ना ही मनोविज्ञान । 

Two days online international Conference

 International Institute of Central Asian Studies (IICAS), Samarkand, Uzbekistan (by UNESCO Silk Road Programme ) Alfraganus University, Tas...