मैं किसी दार्शनिक या अध्ययन की विचारधारा विशेष से परे सामान्य तौर पे हमारे जीवन में भावनाओं के महत्व के संदर्भ में बात करना चाहूँगा । सब से पहले सवाल यह उठता है कि आखिर भावनाएं हैं क्या और ये आती कहाँ से हैं ? क्या भावनाएं सिर्फ और सिर्फ आंतरिक अनुभूति और उसका प्रस्फुटन हैं या फिर इनके ऊपर हमारी संस्कृति , संस्कार और जीवनशैली का भी कोई प्रभाव होता है ?
मैं यह समझता हूँ कि हमारे कुछ सोचने, समझने और सीखने के बीच जो एक चीज सामान्य है , वो है हमारा शरीर । शरीर ही माध्यम है, हमारे होने और न होने के बीच । यंहा तक कि लौकिक और अलौकिक के बीच की अनुभूति का माध्यम भी शरीर है । इसे ऐसे भी कह सकतें हैं कि अनुभूति का माध्यम ही शरीर है । इसलिए शरीर निश्चित रूप से एक जरूरी और महत्वपूर्ण संदर्भ है जीवन और जीवन की अनुभूतियों के लिए । हमने सुना भी है कि- स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है ।
भावनाएं हमारे अंदर उमड़ती हैं और हमारी भाव-भंगिमाओं और व्यवहार के माध्यम से सामने आती हैं । भरतमुनि का नाट्यशास्त्र विस्तार में इनकी चर्चा करता है, हम सभी जानते हैं । लेकिन उमड़ती हुई भावनाओं और हमारे व्यवहार के बीच जीवन कितना कुछ गलत - सही करता है ये हम सब जानते हैं । मैंने सुना है कि सच्ची भावनाएं बुद्धिमान नहीं होती, लेकिन बुद्धिमानीपूर्ण भावनाएं अक्सर धोखा दे जाती हैं ।
हमारे अंदर जो भावनाएं उमड़ती हैं निश्चित तौर पे उनपे हमारे अनुभवों और संस्कारों का प्रभाव होता है , लेकिन भावनाओं और व्यवहार के बीच का गणित बड़ा जटिल है । हमारा व्यवहार हमारे स्वार्थ से प्रभावित होता है । हमारी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक,राजनीतिक,पारिवारिक और व्यक्तिगत स्वार्थपरकता हमारी भावनाओं की वाहक होती हैं । " स्वराथ लाय करे सब प्रीती" बड़ा मनोवैज्ञानिक तथ्य है ।
लेकिन इन सब के बाद भी कई बार ऐसा होता है कि अपना नफा-नुकसान जाँचने-परखने के बाद भी हम वो करते हैं जो हमारे लिए फायदेमंद कम और नुकसान दायक अधिक होता है । आखिर हम ऐसा करते क्यों हैं ?
शायद इसलिए क्यों कि हमारे अंदर कोई ऐसा होता है जो हम सा नहीं होता है । किसी दार्शनिक नें कहा भी है कि - मैं वो हूँ, जो मैं नहीं हूँ । इसका क्या अर्थ समझा जाय ? संस्कृत साहित्य और पुराणों इत्यादि में " परा" और " अपरा " की संकल्पना भी कुछ यही इशारा कर रही है कि
परा + अपरा = मैं
मोटे तौर पे जो बात मेरे समझ में आ रही है , वो यह कि कुछ होने और कुछ न होने के बीच मैं हूँ और मेरे होने का माध्यम या प्रमाण मेरा शरीर है । इस शरीर की ज्ञानेन्द्रियों , इसे मिले संस्कारों और इसके द्वारा ग्रहित अनुभवों के बाद भी कुछ तो ऐसा है जिसके आगे जीवन के सारे धागे उलझ जाते हैं । हम अपने से अधिक दूसरों की चिंता करने लगते हैं, अपना नुकसान करके भी किसी का फ़ायदा करना चाहते हैं , जान बूझ के धोखा और फरेब खाना चाहते है , किसी को पसंद-नापसंद करने के बीच में वो कर गुजरते हैं जिसके बारे में सोचा ही नहीं था । प्रेम और घृणा , क्रोध और काम , मद और लोभ के बीच भी कुछ ऐसे बिंदु ज़रूर होते हैं जंहा अकारण ही हम कुछ ऐसा कर जाते हैं जो हमारे सोचे और समझे हुवे से कंही अलग होता है । उसमें ना ही दर्शन होता है और ना ही मनोविज्ञान ।
मैं यह समझता हूँ कि हमारे कुछ सोचने, समझने और सीखने के बीच जो एक चीज सामान्य है , वो है हमारा शरीर । शरीर ही माध्यम है, हमारे होने और न होने के बीच । यंहा तक कि लौकिक और अलौकिक के बीच की अनुभूति का माध्यम भी शरीर है । इसे ऐसे भी कह सकतें हैं कि अनुभूति का माध्यम ही शरीर है । इसलिए शरीर निश्चित रूप से एक जरूरी और महत्वपूर्ण संदर्भ है जीवन और जीवन की अनुभूतियों के लिए । हमने सुना भी है कि- स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है ।
भावनाएं हमारे अंदर उमड़ती हैं और हमारी भाव-भंगिमाओं और व्यवहार के माध्यम से सामने आती हैं । भरतमुनि का नाट्यशास्त्र विस्तार में इनकी चर्चा करता है, हम सभी जानते हैं । लेकिन उमड़ती हुई भावनाओं और हमारे व्यवहार के बीच जीवन कितना कुछ गलत - सही करता है ये हम सब जानते हैं । मैंने सुना है कि सच्ची भावनाएं बुद्धिमान नहीं होती, लेकिन बुद्धिमानीपूर्ण भावनाएं अक्सर धोखा दे जाती हैं ।
हमारे अंदर जो भावनाएं उमड़ती हैं निश्चित तौर पे उनपे हमारे अनुभवों और संस्कारों का प्रभाव होता है , लेकिन भावनाओं और व्यवहार के बीच का गणित बड़ा जटिल है । हमारा व्यवहार हमारे स्वार्थ से प्रभावित होता है । हमारी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक,राजनीतिक,पारिवारिक और व्यक्तिगत स्वार्थपरकता हमारी भावनाओं की वाहक होती हैं । " स्वराथ लाय करे सब प्रीती" बड़ा मनोवैज्ञानिक तथ्य है ।
लेकिन इन सब के बाद भी कई बार ऐसा होता है कि अपना नफा-नुकसान जाँचने-परखने के बाद भी हम वो करते हैं जो हमारे लिए फायदेमंद कम और नुकसान दायक अधिक होता है । आखिर हम ऐसा करते क्यों हैं ?
शायद इसलिए क्यों कि हमारे अंदर कोई ऐसा होता है जो हम सा नहीं होता है । किसी दार्शनिक नें कहा भी है कि - मैं वो हूँ, जो मैं नहीं हूँ । इसका क्या अर्थ समझा जाय ? संस्कृत साहित्य और पुराणों इत्यादि में " परा" और " अपरा " की संकल्पना भी कुछ यही इशारा कर रही है कि
परा + अपरा = मैं
मोटे तौर पे जो बात मेरे समझ में आ रही है , वो यह कि कुछ होने और कुछ न होने के बीच मैं हूँ और मेरे होने का माध्यम या प्रमाण मेरा शरीर है । इस शरीर की ज्ञानेन्द्रियों , इसे मिले संस्कारों और इसके द्वारा ग्रहित अनुभवों के बाद भी कुछ तो ऐसा है जिसके आगे जीवन के सारे धागे उलझ जाते हैं । हम अपने से अधिक दूसरों की चिंता करने लगते हैं, अपना नुकसान करके भी किसी का फ़ायदा करना चाहते हैं , जान बूझ के धोखा और फरेब खाना चाहते है , किसी को पसंद-नापसंद करने के बीच में वो कर गुजरते हैं जिसके बारे में सोचा ही नहीं था । प्रेम और घृणा , क्रोध और काम , मद और लोभ के बीच भी कुछ ऐसे बिंदु ज़रूर होते हैं जंहा अकारण ही हम कुछ ऐसा कर जाते हैं जो हमारे सोचे और समझे हुवे से कंही अलग होता है । उसमें ना ही दर्शन होता है और ना ही मनोविज्ञान ।