अमरकांत के लेखन की शुरुआत 'नयी कहानी` से होती है। वे नयी कहानी आंदोलन के प्रमुख कर्णधारों में से एक हैं। नई कहानी आंदोलन के पीछे जो तत्व प्रेरक शक्ति के रूप में काम कर रहे थे उसके मूल में मोहभंग, हताशा, कुंठा, देश का बँटवारा, सांप्रदायिक दंगे, संयुक्त परिवारों का तेजी से हो रहा विघटन, पारिवारिक संबंधों पर अर्थ का दबाव, प्रेम संबंधों की समस्या, अमीरी-गरीबी के बीच लंबी होती खाई, नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच सामंजस्य की समस्या, बेरोजगारी, महानगरीयता, अकेलापन, शिक्षित और आर्थिक रूप से स्वावलंबी स्त्रियों की नई विचारधारा, कामकाजी स्त्रियों का दोहरा शोषण, जातिगत व्यवस्था में उपेक्षा का भाव और ऐसी ही अनेकों बातों का समावेश था।
आज़ादी के पहले पूरे राष्ट्र के सामने एक ही सपना था। वह सपना था अखंड स्वतंत्र भारत राष्ट्र का। अपना देश और अपनी चुनी हुई सरकार का। सबके लिए रोटी, कपड़ा, मकान और सम्मान का। अपने जीवन को अपने तरीके से जीने का सपना भारतवासियों ने देखा। 15 अगस्त सन् 1947 को यह राष्ट्र स्वतंत्र भी हुआ। सरकार बनी, नेहरू जी स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री बने। पंचवर्षीय योजनाएँ शुरू की गयी। शिक्षा के क्षेत्र में काम शुरू हुआ। देश की प्रगति को अधिक से अधिक गति प्रदान करने के लिए आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और तकनीक का उपयोग प्रारंभ किया गया। सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी प्रगति हुई। लेकिन इन सब के बीच ही आज़ादी के मात्र 10-15 सालों के भीतर ही यह बात कही जाने लगी कि 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र नहीं हुआ, अपितु उस दिन जो कुछ भी हुआ वह मात्र 'सत्ता का हस्तांतरण` था। उसे किसी भी तरीके से स्वतंत्रता नहीं कहा जा सकता। फिर इस आज़ादी ने बँटवारें का जो विभत्स रूप दिखाया था, उससे देशवासियों की रूह तक काँप गयी थी।
आज़ादी के बाद देश की राजनैतिक स्थितियों ने आम आदमी को यह विश्वास दिला दिया कि यह वह आज़ादी नहीं है जिसका सपना उन्होंने देखा था। अवसरवादिता, भाई-भतीजावाद, परिवारवाद और लालफीताशाही ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। आम आदमी के हालात में कोई सुधार नहीं हुआ। उसकी सुध लेने वाला अब भी काई नहीं था। सारी सुख-सुविधाएँ कुछ गिने-चुने पूँजीपतियों के हाँथ में ही थी। आदर्श, नैतिकता, त्याग, बलिदान, राष्ट्रसेवा, समानता, रोजगार और बराबरी के अवसर जैसी बातें होती तो थी लेकिन इनकी आड़ में सब अपना स्वार्थ सिद्ध करते दिखायी पड़ रहे थे। इन सारी परिस्थितियों में गरीब जनता अपने आप को ठगी हुई महसूस कर रही थी।
देश की स्वतंत्रता के साथ देखे गये सभी आदर्शवादी सपने यथार्थ की ज़मीन पर दम तोड़ने लगे थे। प्रांतवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और नेताओं की अवसरवादिता ने आम आदमी के मन को घोर निराशा व अवसाद से भर दिया था। साथ ही साथ एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हमपर अपनी एक शाख बनाने का भी दबाव पड़ ही रहा था। सुदूर ग्रामीण अंचलों से निकलकर युवक शहरों में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। वे देश में हो रहे परिवर्तनों को समझ रहे थे।
इस सभी स्थितियों के बीच अमरकांत समाज के मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग को केन्द्र में रखते हुए अपना लेखन कार्य शुरू करते हैं। सपाट कथानक, सरल भाषा और यथार्थ चित्रण को वे अपना हथियार बनाते हैं। जिस परिवेश में रहे उसकी भाषा, संस्कृति और समस्या को ही अपने लेखन का विषय बनाया। कल्पना, प्रयोग करने के लिए प्रयोग, कामुक स्थितियों एवम् भावों का अनावश्यक विस्तार के साथ चित्रण, प्रेम के काल्पनिक त्रिकोण और उनका असहज लगनेवाला अंत, भावुकता के साथ आदर्श की स्थापना का अव्यवहारिक प्रयास, इन तमाम बातों से बचते हुए अमरकांत ने विश्वसनीय लगने वाले कथा साहित्य को लिखा। आधुनिकता और पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में आकर कथा साहित्य के भारतीय स्वरूप को बिगाड़ने में उनकी जरा भी दिलचस्पी नहीं रही।
अमरकांत का लेखन कार्य आज भी जारी है। 80 की उम्र पार कर चुके अमरकांत आज 'ओस्टिओमेलाइटिस` नामक बीमारी से ग्रस्त हैं। यह एक ऐसी बीमारी है जिसमें हिलन-डुलने मात्र से भी मरीज के शरीर की हडि्डयों के टूटने का खतरा रहता है। गंभीर आर्थिक संकट से जझते हुए, शरीर की बीमारियों से लड़ते हुए भी एक सच्चे साधक की तरह उन्होंने अपने साहित्य साधना का कार्य जारी रखा है। ऐसे में हिंदी कथा साहित्य को उन्होंने जो दिया उस प्रदेय की चर्चा हम इस अध्याय के माध्यम से करेंगे।
1) मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण :-
अमरकांत के कथा लेखन के दायरे में समाज का जो वर्ग सबसे अधिक चित्रित हुआ है, वह है निम्नमध्यमवर्ग और मध्यवर्ग। इस समाज को जितनी गहराई और विसतार के साथ अमरकांत ने चित्रित किया, उतना उनके समकालीनों में किसी अन्य कथाकार ने शायद ही किया हो। ऐसे में अक्सर एक सवाल उठता है कि आखिर अमरकांत मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग को ही मुख्य रूप से अपने कथा साहित्य का विषय बनाकर अपने आप का वहीं तक सीमित क्यों करते हैं?
इसका कारण उन सभी परिस्थितियों के बीच है, जिन्होंने 'नयी कहानी` के स्वरूप को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उभारने में मदद की। साथ ही साथ अमरकांत का अपना व्यक्तित्व, उनका अपना परिवेश, जीवन को देखने की उनकी अपनी दृष्टि, ये सारी बातें ही महत्वपूर्ण हैं। अमरकांत अन्याय, शोषण और निर्धनता के बीच पिस रहे मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग के लिए बहुत कुछ करना चाह रहे थे। लेकिन उनकी अपनी सीमाएँ थी। लेकिन उन्होंने अपनी लेखनी को ही हथियार बनाया और तँय किया कि वे समाज के निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग के अधिकरों की लड़ाई इसी कलम से करेंगे। अमरकांत अपने आत्मकथ्य में अपने ही संदर्भ में लिखते भी हैं कि, ''उसमें शारीरिक, मानसिक एवम् आर्थिक क्षमताएँ बहुत नहीं थीं, पर उसे सन्तोष था कि वह अपने देश की साधारण जनता के साथ था, वह उनकी लड़ाई में शामिल था - अन्याय, शोषण एवम् निर्धनता से मुक्त होने की लड़ाई। उसको अपने देश के लोगों से प्यार था। उनका साहस, उनकी क्षमता, उनकी उदारता और विनम्रता, उनका आलस्य, हार को जीत में परिवर्तित करने की उनकी आदत, उनका साहस और उनकी विलक्षण प्रतिभा। उसके जीवन को एक सार्थक आधार मिल गया था।``1 इस तरह स्पष्ट है कि अमरकांत एक संकल्प के साथ अपना लेखन कार्य शुरू करते हैं जिसमें देश की साधारण जनता को अन्याय, शोषण और निर्धनता से मुक्त कराने की बात प्रमुख थी।
शायद इसी कारण अमरकांत के यहाँ कल्पना, भावुकता, आदर्श, प्रेम, सेक्स, आधुनिकता और शिल्पगत प्रयोगों जैसी बातों के विस्तार के लिए अधिक गुंजाइश नहीं रही। उनके यहाँ विस्तार के साथ कुछ चित्रित हो सकता था तो वह था साधाराण व्यक्ति का यथार्थ, उसके सपने, उसका संघर्ष, उसकी मानसिकता, उसका मोहभंग, उसकी नियती, उसका गाँव-देहात, उसका कस्बा, उसका शहर, उसके संघर्ष का परिवार पर प्रभाव और प्रतिकूल सामाजिक व्यवस्था में उसका हो रहा शोषण। ''अमरकांत ने अपनी रचनाओं के लिए वही भूमि चूनी जिसमें वे जी रहे थे। यही उनके जैनुइन होने का रहस्य है।``02
इस तरह हम देखते हैं कि अमरकांत यह अच्छी तरह जानते और समझते थे कि उन्हें क्या करना है। ऐसा साहित्य जिसका उद्देश्य ''सामाजिक वास्तविकताओं से विमुख करना, आत्मगत 'सत्यों` को प्रक्षेपित करना, यथार्थ द्रोही भाषा का निर्माण करना. शिल्पगत चमत्कार उत्पन्न करना तथा झूठी आधुनिकता का बहाना मात्र हो तो ऐसा साहित्य प्रयोजनहीन हो जाता है।``03 और ऐसे प्रयोजनहीन साहित्य से अमरकांत ने अपनी दूरी लगातार बनाये रखी। अमरकांत ने जो कथा साहित्य रचा उसमें गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, शोषण आदि के खिलाफ पूरी ईमानदारी के साथ लड़ने का संकल्प था। अमरकांत देश की साधारण जनता की आवाज़ बनना चाहते थे। और अमरकांत ने यही किया भी। मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग की जीवन में निहित तमाम जटिलताओं को उन्होने अपने कथा साहित्य का विषय बनाया। इस वर्ग के जीवनानुभव और इसकी जिजीविषा के सूक्ष्म से सूक्ष्म स्वरूप को भी चित्रित करने में अमरकांत सफल रहे हैं। उसकी आशा, निराशा, पीड़ा, घुटन, संत्रास, शोषण, आकांक्षा, बेरोजगारी, कुंठाएँ, टुच्चापन, आलस और अब सब कुछ अमरकांत के लेान का केंन्द्र बिंदु रहा है। यहाँ तक की उसकी तर्कहीन मन:स्थिति भी।
इतना ही नहीं अपितु मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग के बीच के अंतर को भी अमरकांत अच्छी तरह समझते रहे। यह अंतर इन वर्ग विशेष के पात्रों के आचरण के आधार पर आसानी से समझा जा सकता है। मध्यवर्ग के पात्र प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी झूठी शान, प्रतिष्ठा, इज्जत आदि को बचाने के लिए लगातार प्रयत्न करते हुए दिखायी पड़ते हैं, जबकि निम्न मध्यवर्गीय पात्रों के साथ यह बात नहीं दिखायी पड़ती। रजुआ, मूस, परबतिया और मुनरी कुछ ऐसे ही निम्नमध्यवर्गीय पात्र हैं।
समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत ने अपने लेखन द्वारा साधारण जनता की लड़ाई में खुद को भी शामिल करने का संकल्प लिया था। यह लड़ाई थी शोषण, कुंठा, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, लालफीताशाही और आर्थिक अथाव के खिलाफ। इसलिए समाज के मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग का ही चित्रण उन्होंने बड़े ही विस्तार और ईमानदारी के साथ किया।
2) आम आदमी का मोहभंग :-
नयी कहानी आंदोलन के पीछे जो प्रेरक शक्तियाँ थी, उनमें से एक प्रमुख स्वर मोहभंग का भी थी। देश की जनता को जब यह आभास हो गया कि अब देश स्वतंत्र होने वाला है तो, उन्होंने इस स्वतंत्रता को लेकर कई सपने सजों लिये। इस संभावित आज़ादी ने आम आदमी के भीतर एक जोश भर दिया। उसने बहुत सारी अपेक्षाओं के ताने-बाने के बीच अपने सपनों को बुनना शुरू कर दिया। आम आदमी की इन्हीं आशाओं की एक झलक अमरकांत के उपन्यास 'इन्हीं हथियारों से` में देखी जा सकती है। विभिन्न समस्याओं पर आज़ादी के साथ जो सपने सँजोये गये उन्हें निम्नलिखित उदाहरणों के माध्यम से समझा जा सकता है।
1) अछूतों की समस्या पर सुरंजन शास्त्री कहते हैं कि, ''....सदियों से हम गुलाम हैं और हजारों वर्ष से देश में गरीबी और अछूत समस्या है, इसीलिए ये दोनों आगे भी कायम रहेंगी, इसे हम नहीं मानते। हम अपने प्रखर विचार और निरंतर परिश्रम द्वारा जातिवाद, सम्प्रदायवाद, अस्पृश्यता, गरीबी, अन्याय सब कुछ मिटा देंगे। हम देश में पोंगू, पेटू और अजगरी व्यवस्था नहीं चाहते। हमें निजी स्वतंत्रता के ख्वाबों में रहनेवाले आरामतलब और चालाक लोग नहीं चाहिए। हम ऐसा जनतंत्र चाहते है, जिसमें सभी परिश्रम करें और एक-दूसरे की स्वतंत्रता, एक दूसरे के विकास के लिए कार्य करें।``04
2) सुविधाओं की समस्या पर डॉक्टर बनवारी की माँ से कहता है कि, ''....हम एक गुलाम देश हैं, विदेशियों ने हमारे देश को काफी चूसा है। चारों ओर भयंकर गरीबी है, अस्पताल, डॉक्टर वगैरह बहुत कम हैं। यह सोचकर सन्तोष कीजिए कि जब देश आज़ाद हो जाएगा तो गरीबी दूर होगी और लोगों की तन्दुरूस्ती का भी ख्याल रखा जाएगा।``05
3) उपन्यास का पात्र रमाशंकर, चाची को समझाते हुए कहता है कि, ''जब देश आज़ाद हो जायेगा तो गरीबी दूर होगी, लोगों का दवा इलाज होगा, गरीब ऊँचा उठेंगे, घी-दूध की नदियाँ बहेंगी ....इसीलिए तो गाँधाजी और लाखों लोग जेल जाते हैं, लाठी -डंडा सहते हैं, अपने सीने पर गोली रोकते हैं और अपनी जान कुर्बान कर देते हैं।``06
4) उपन्यास का पात्र निलेश, आनंदी से कहता है कि, ''अम्मा, आज गाँधीजी देश की आज़ादी के लिए बड़ी लड़ाई चला रहे हैं, आज़ादी के लिए लोग लाठी-गोली की मार झेल रहे हैं, खुशी-खुशी जेल जा रहे हैं। इस लड़ाई में सबसे अधिक तो ऐसे गरीब लोग हैं जो मुश्किल से दो जून का खाना जुटा पाते हैं। और भी कष्ट झेलना पड़ सकता है, मगर आज़ादी मिलने पर सबका कष्ट दूर भी हो जाएगा।``06
इसी तरह के कई अन्य उदाहरण इस उपन्यास में खोजे जा सकते हैं। इन सभी संवादों में आज़ादी के बाद के सुनहरे सपने का स्वरूप दिखलायी पड़ता है। लेकिन आज़ादी के बाद मात्र 10-15 सालों के अंदर ही आम जनता का सपना टूट गया। 'बँटवारे` के साथ मिली आज़ादी में अफसरशाही और अवसरवादिता हावी हो गयी। रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या आम आदमी के लिए उसी तरह बनी रही, जैसी वह आज़ादी के पहले थी। बड़े बड़े उद्योगपतियों और धनी लोगों के लिए सारी सुख-सुविधा थी, लेकिन आम आदमी की सुध लेनेवाला काई नहीं था। आम आदमी अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहा था। उसके अंदर हताशा और कुंठा बढ़ती जा रही थी। उसका शोषण उसी तरह चल रहा था, जैसे की पहले अंग्रेजों द्वारा होता था।
आम आदमी की इसी त्रासदी को 'नयी कहानी` ने स्वर दिया। देश का बँटवारा, पुरानी परंपराओं और रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, बेरोजगदारी, अराजकता, कुंठा, मोहभंग, आर्थिक दबाव, अर्थ का संबंधों पर पड़ रहा प्रभाव, गाँव और शहर के बीच बढ़ती दूरी, टूटते संयुक्त परिवार, प्रेम, प्रेम के त्रिकोण, जीवन में बढ़ता अकेलापन, आदि बातों को नयी कहानी आंदोलन के कथाकारों ने अपने कथा साहित्य का विषय बनाया।
अमरकांत ने भी आम आदमी के इस मोहभंग को समझा। उसकी त्रासदी, उसके संघर्ष को अपना संघर्ष बनाते हुए उन्होंने ऐसे कथानक सामने लाये जिनमें - आम आदमी का दर्द खुलकर सामने आ गया। 'डिप्टी-कलक्टरी` कहानी के शकलदीप बाबू की आशा-निराशा आज़ादी के बाद के मोहभंग को प्रमुखता से दिखलाती है। 'कला प्रेमी` कहानी के सुबोध की बातों में भी इसी मोहभंग की स्थिति दिखायी पड़ती है। वह कहता है, ''सारे संसार को रास्ता दिखाने वाले इस देश में कोई परिवर्तन क्योें नहीं होता है? शासन कर रहा है? बड़ी-बड़ी जातियों के सामन्तवादी प्रवृत्तियों वाले लोग। आज भी इन्हीं जातियों का शासन है। ......आप जहाँ जाइए, ये लोग अपने स्वार्थो के लिए झट दो दल बनाकर आपस में लड़ना शुरू कर देते हैं। लड़ाई जितनी तेज होती है, उतनी ही ऊँची-ऊँची बातें की जाती हैं। इनमें से प्रत्येक अपने को एकमात्र देशभक्त घोषित करता है - एकमात्र क्रांतिकारी। इनमें से प्रत्येक शोषणहीन समाज की स्थापना करने का दावा करता है। जबकि चाहिए इनको कुर्सी, सत्ता और सुख-सुविधा। वर्षो से वही लोग, वही बातें, वही आदतें, वही काम - और कभी एक गुट सत्ता में आता है और कभी दूसरा गुट....।``08
इस तरह समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत ने नयी कहानी आंदोलन क मुख्य स्वर 'आम आदमी के मोहभंग` को न केवल अच्छी तरह समझा अपितु उसे पूरी ईमानदारी के साथ अपने कथा साहित्य में चित्रित भी करते हैं।
3) विविध शैलियों का प्रयोग :-
यद्यपि अमरकांत सप्रयास विविध शैलियों के प्रयोग के पक्ष में कभी नहीं रहे, फिर भी उनके लगातार संपन्न हो रहे कथा साहित्य में हमें अनेकों शैलियों के प्रयोग दिखायी पड़ते हैं। इन्हीं में से कुछ शैलियों की चर्चा हम करेंगे। अमरकांत के कथा साहित्य को जिन शैलियों का प्रयोग दिखायी पड़ता है वे निम्नलिखित हैं।
1. कथात्मक या वर्णनात्मक शैली
2. आत्मचरितात्मक या आत्मकथात्मक शैली
3. पत्रात्मक शैली
4. दृश्य शैली
5. कथोपकथन या संवाद शैली
6. स्वप्न विश्लेषण शैली
7. विश्लेषणात्मक शैली
8. सांकेतिक शैली
9. व्यंग्यात्मक शैली
10. हास्य शैली
11. प्रतीकात्मक शैली
12. उद्धरण शैली
13. आत्मविश्लेषण युक्त भावात्मक शैली
14. चित्रात्मक शैली
15. रेखाचित्र या संस्मरणात्मक शैली
16. चेतना प्रवाह शैली
17. समन्वित शैली
18. समाचार पत्रों की कतरन या रिपोर्ताज शैली
उपर्युक्त शैलियों का संक्षेप में परिचय प्राप्त करते हुए हम अमरकांत के कथासाहित्य में उनके प्रयोग की सविस्तर चर्चा करेंगे।
1) कथात्मक या वर्णनात्मक शैली :-
विभिन्न साहित्यिक शैलियों में यह शैली बहु प्रचलित है। ''इसमें कथाकार असंपृक्त भाव से कथा कहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्णन की प्रधानता रहती है। इसमें कथाकार की प्रवृत्ति, रूचि व योग्यता को लक्षित किया जा सकता है, क्योंकि इसमें बिना किसी बंधन के खुलकर लिखने की स्वच्छंदता होती है।``09
अमरकांत की कहानी - इंटरव्यू, जिंदगी और जोंक, मूस, बस्ती, उनका जाना और आना, एक बाढ़ कथा, और जाँच और बच्चे जैसी कहानियों में इस कथात्मक शैली का उपयोग किया गया है। साथ ही 'सूखा पत्ता`, 'ग्रामसेविका`, 'आकाश पक्षी`, 'इन्हीं हथियारों से` और 'बिदा की रात` नामक उपन्यासों में भी इस शैली के उदाहरण मिल जाते हैं। 'सूखा पत्ता` उपन्यास का यह अंश देखिए, ''सर्दी अच्छी पड़ रही थी। पूर्णिमा थी या नहीं, याद नहीं, पर चारों ओर छिटकी चाँदनी बहुत ही प्रिय लग रही थी। हवा कुछ तेज थी। हमने सिर को कंबल से इस तरह ढँक लिया था जैसे कन्टोप कहने हों। हमारी चाल तेज थी, दिल में जोश था और कभी-कभी हम एक दूसरे की ओर देखकर व्यर्थ मुस्कुरा पड़ते।``10 इसी तरह के अनेकों उदाहरण अमरकांत के कथा साहित्य में भरे पड़े हैं। अमरकांत ने कथात्मक या वर्णनात्मक शैली का भरपूर उपयोग किया है।
2) आत्मचरितात्मक या आत्मकथात्मक शैली :-
'मैं` शैली में लिखित उपन्यास एवम् कहानियाँ आत्मचरितात्मक या आत्मकथात्मक शैली में आती हैं। अमरकांत ने जिन दो प्रमुख शैलियों को अपनाया उनमें आत्मकथात्मक शैली के अतिरिक्त रेखाचित्र शैली है। 'सूखा पत्ता`, 'काले- उजले दिन`, 'कटीली राह के फूल` जैसे उपन्यास अमरकांत ने इसी शैली में लिख। 'गले की जंजीर`, 'सवा रूपये`, 'जिंदगी और जोंक`, 'अमेरिका की यात्रा`, 'लड़की की शादी`, 'महान् चेहरा`, 'विजेता`, 'बहादुर`, 'जोकर`, 'स्वामी`, 'धरती के लिए`, 'निर्वासित`, 'घुड़सवार`, 'मकान`, 'पहलवानी`, 'लोक-परलोक`, 'कबड्डी`, 'सपूत`, 'एक धनी व्यक्ति का बयान`, 'लाखो`, 'बीमारी` और 'शाम के घिरते अँधेरे मंे भटकता नौजवान` जैसी कहानियाँ भी 'मैं` शैली में लिखी गयी हैं।
इस शैली के संबंध में एक धारणा यह भी है कि , ''आत्मकथात्मक शैली में लिखित कहानी और उपन्यास विशेष प्रभावशाली सिद्ध हुए हैं। उसका कारण यह है कि इस शैली के अंतर्गत पाठक और नायक के मध्य बिना किसी रूकावट के सम्पर्क स्थापित हो जाता है। इस शैली में रचित कभी-कभी अविश्वसनीय घटनांए भी आत्मीय सहानुभूति के कारण सह और विश्सनीय प्रतीत होने लगती है।``11
3) पत्रात्मक शैली :-
जब उपन्यास या कहानी के कथानक को विस्तार देने के लिए पात्रों द्वारा लिखित पत्रों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाता है तो इसे पत्रात्मक शैली कहते हैं। कथानक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इन पत्रों से ही संबद्ध होता है। अमरकांत ने अपने कुछ उपन्यासों में इस शैली का उपयोग किया है। 'सूखा पत्ता` और 'आकाश पक्षी` उपन्यास में यह शैली अपनायी गयी है। अमरकांत ने 'एक निर्णायक पत्र` और 'संत तुलसीदास और सोलहवाँ साल` जैसी कहानियों में भी इसी शैली का प्रयोग करते हैं। इस तरह के पत्रों के माध्यम से पात्रों की मनोस्थिति एवम् उनके विचारों को गहराई से समझने में मदद मिलती है।
'सूखा पत्ता` उपन्यास का नायक उर्मिला के पिताजी को पत्र लिखता है।
''पूज्य चाचा जी,
मैं उच्च कर्तव्य भाव से प्रेरित होकर यह पत्र आपके पास लिख रहा हूँ। यदि इसमें कोई धृष्टता की बात नजर आये तो मुझ क्षमा कीजियेगा। .....यह सच है कि हम दोनों ने शादी करने का निश्चय किया है, पर यह कोई अपराध नहीं है। नहीं। एक तो यह होता कि हम बुरी नीयत से मिलते और अपने खानदान के नाम को कलंकित करते अथवा दूसरी बात यह होती कि हम सच्चाई से एक-दूसरे को प्यार करके शादी कर लेते। हमने दूसरा रास्ता अपनाया है।.....।``12
इसी तरह के कई अन्य पत्रात्मक शैली का उदाहरण अमरकांत के कथा साहित्य में मिलते हैं।
4) दृश्य शैली :-
''इस शैली में छोटे-छोटे दृश्यों के माध्यम से वातावरण और पृष्ठभूमि के साथ-साथ पात्रों की रूपाकृति एवम् कार्यो का सजीव चित्र खींचा जाता है। जिस प्रकार चित्रकार विराट दृश्य कोरी रेखाओं एवम् रंगों के माध्यम से चित्र में प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार उपन्यासकार शब्द-चित्रों के माध्यम से प्रभावशाली ढंग से संक्षेप में दृश्य - चित्रों को पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करता है। इस शैली में पात्रों के महत्वपूर्ण कार्यो, निर्णयों एवम् उनके छोटे-छोटे जीवन खण्डों और घटनाओं की दृश्य परक प्रस्तुति इस प्रकार होती है कि पाठक को लगता है, जैसे वह इस प्रसंग में स्वयं ही भाग ले रहा हो``13 अमरकांत के उपन्यासों में कई ऐसे प्रसंग है जहाँ उन्होंने इस शैली का कुशलता पूर्वक उपयोग किया है। 'बिदा की रात` उपन्यास में सुल्ताना के व्यवहार एवम् उसके शरीर का वर्णन करते हुए अमरकांत लिखते हैं -
''तीन बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी सुल्ताना कुछ अलग ही थी। कभी नरमदिल और रहमदिल और कभी गुस्सैल और जिद्दी बड़ी, भूरी आँखे, कुछ छोटा गोल और गोरा चेहरा, मगर उसके पतले ओठों में ही उसकी खूबसूरती छिपी थी, जो दोनों ही हालात में उसके जज्बात और खयालात का इज़हार कर देते थे। खुशी के वक्त होंठ अजीब अदा से सिकुड़ जाते और नाक में हल्की सी कँपकँपी आ जाती, और गुस्से में भवों की सिकुड़न के साथ ओठों में फड़कन। नाराजी में वह बोलना छोड देती, अलग बैठ जाती, और बहुत हुआ तो बहस करने लगती या खाना ही छोड़ देती। ऐसे वक्त बोलते उसकी ज़बान कैंची की तरह चलती। तब तो उसकी वालिदा मेहताब बेगम भी उसका मुकाबला न कर पाती।``14
इसी तरह अमरकांत की कहानी 'इंटरव्यू` का यह उद्धरण देखिये - ''उम्मीदवार लोग नौ बजे से ही जिलाधीश के बंगले के सामने मंडराने लगे थे। दस बजे तक तो लगभग तीन-साढे तीन सौ व्यक्तियों की एक भारी पंचमेल भीड़, त्यौहारों के अवसर पर किसी निर्द्वंद्व, धर्मात्मा सेठ के हाथ से सत्तू के लड्डू खाने के लिए एकत्रित कुत्तों के समूह के समान इकठ्ठी हो जाती थी।``15 इसी तरह 'जनमार्गी` कहानी के बलराज का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं, ''अकेला होने पर वह सदा इसी तरह तेज चलना आरम्भ कर देता था - एक पुराने विचित्र यंत्र की तरह - जब उसका दाहिना कन्धा उचकता था, हाथ भद्दे ढंग से झूलने लगते थे और टाँगे शरीर से उखड़ने की कोशिश करती प्रतीत होती थीं। वह अभी पचास का नहीं हुआ था और उसके सिर के बाल कपास हो रहे थे। वह ठिगना और दुबला-पतला था। उसकी गरदन छोटी थी और मुँह बड़ा था छुहारे की तरह सूखा था, जिस पर घोंसले के तिनके की तरह झुर्रियाँ उभर आयी थीं।``16
इस तरह दृश्य शैली के अनेकों उदाहरण अमरकांत के कथा साहित्य में मिलते हैं। अमरकांत ने इस शैली का उपयोग बड़े ही कलात्म तरीके से किया है।
5) कथोपकथन या संवाद शैली :-
शैली के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें संवादों के आधार पर कथानक आगे बढ़ता है। छोटे-छोटे वाक्यों के माध्यम से पात्रों के बीच का संवाद कथानक को आगे बढ़ाते हैं। ये संवाद पारिवारिक समस्याओं, मनोदशाओं एवम् संवेदनाओं को व्यक्त करने में सहायक होते हैं। अमरकांत की कहानी 'बउरैया कोदो` का यह संवाद देखिए-
'' ''यह भगवान है, ढेला न मारना,`` किसी बच्चे ने कहा।
''क्या भगवान भूत होता है?`` एक काफी छोटे बच्चे ने पूछा।
''अरे बड़ा पागल है..... भूत तो भूत होता है।``
''भगवान टाफी देते है?``
''हाँ देते हैं।``
''यह गधा भी देगा?``
''गधा नहीं, भगवान जी कहो, नहीं कहोगे तो दुल्लती लगायेंगे।``
''ए जी, क्यों न फूल की एक माला पहना दें?``
''कहाँ माला है रे``
''मेरे घर में है, मैं लाता हूँ।`` ``17
इसी तरह 'हंगामा` कहानी का यह संवाद देखिए -
'' ''क्या हो रहा है?`` अलका ने पूछा।
''आइए बहिन जी, खाना खायें.....।``
''मैं खा चूकी हूँ। आप थाली में क्यों नहीं खा रही हैं?
''बहिन जी, थाली कौन जाय मलने? पेट भरने से काम है। न थाली,
न फाली.... हाँ।``
''सभी खाना तो कौए खा रहे है।``
''अभी ढक देती हूँ। शाम को खाना नहीं बनाएंगे, अब यही खाना हम और
ये खा लेंगे......।``
''सब खाना तो कौओं ने जूठा कर दिया है।``
''क्या हुआ? चिड़िया चुरंग तो खाते ही रहते हैं..... उनका तो यह काम है।``
''ब्लाउज क्यों उतार दिया है?``
''बहिन जी, नहा कर आई तो खाना बनाने बैठ गयी। हम लोगों में बड़ी सफाई से खाना बनता है.... बिना नहाये हम लोग नहीं बनाते....।`` ``18
6) स्वप्न विश्लेषण शैली :-
उपन्यासों एवम् कहानियों में कई ऐसे संदर्भ आते है जब पात्र कुछ स्वप्न देखते हैं और उसका अर्थ कहीं न कहीं मुख्य कथानक की परिस्थितियों से संबद्ध होता है। पात्रों की मनौवैज्ञानिक स्थिति को इस शैली के माध्यम से सामने लाया जाता है। उनकी मानसिक स्थिति, इच्छाएँ, कुंठाएँ सभी कुछ एक व्यक्त रूप में इस श्ैली के माध्यम से सामने आ जाता है।
'डिप्टी कलेक्टरी` कहानी के शकलदीप बाबू अपनी पत्नी को अपने सपने के बारे में बताते हुए कहते हैं कि, ''अरे, एकदम ब्रह्म मूहूर्त में देखा था। देखता हूँ की अखबार में नतीजा निकल गया है और उसमें नारायण बाबू का भी नाम है। अब यह याद नहीं है कि कौन नम्बर था, पर इतना कह सकता हूँ कि नाम काफी ऊपर था।``19 दरअसल शकलदीप बाबू के लड़के नारायण बाबू का डिप्टी कलेक्टरी का नतीजा निकलने वाला है। पिता आशा-निराशा के बीच अजीब मन:स्थिति में हैं। उपर्युक्त स्वप्न उनकी आशा को बल प्रदान करता है।
इसी तरह 'बिदा की रात` उपन्यास की शबनम बेगम अपने शौहर से कहती है कि, ''एक रोज तो रात में मैंने सपना देखा कि कोई फरिश्ता ऊपर से आकर कहने लगा, 'ऐ दिल की पाक-साफ खातून बेगम, अपने लायक साहबजादे की फिक्र कर, नही तो पछताएगी। मै जागकर उठ गई। मेरी आँखों में आँसू आ गए। मैं यह सोचकर बेचैन हो गई कि अपने साहबजादे की तकलीफ केसे दूर करूँ। इसी वक्त मेरे अंदर से कोई आवाज आई, जैसे वही फरिश्ता हो, 'ऐ पाक-साफ और, तू घबरा मत, अल्ला ने क्या मर्द और क्या औरत, सबकी परेशानियाँ दूर करने के लिए कानून बना दिए हैं, रास्ते बड़ी खूबसूरत लड़की है, खूब शऊर और सलीके वाली और जरनिवाजा बस तू चुपचाप अपने मसले हल कर ले, तेरा साहबजादा खुश रहेगा और सबको आराम और राहत मिल जाएगी.....।``20
यहाँ पर भी शबनम बेगम अपने लड़के की दूसरी शादी करवाना चाहती थी, इसलिए शौहर के सामने सपने और फरिश्ते की बात करती है, जिससे शौहर इसे अल्ला का आदेश मानकर आसानी से दूसरी शादी की बात पर राजी हो जाये।
7) विश्लेषणात्मक शैली :-
''विश्लेषणात्मक शैली में उपन्यासकार पात्रों के चेतन या अचेतन विचारों की प्रक्रिया को अभिव्यक्ति देने का प्रयास करता है। इसके माध्यम से घटनाएँ, परिस्थितियाँ तथा पात्रों के कार्यो के मूल में स्थित कारण स्पष्ट हो जाते हैं, किन्तु जहाँ इस शैली का प्रयोग मनोविज्ञान से अनुप्राणित होता है, वहाँ यह शैली मनोवैज्ञानिक हो जाती है।``21
'पलाश के फूल` कहानी के बाबू हृदय नारायण कहते हैं कि, ''ब्रदर, स्त्री माया है!.... उसमें शैतान का वास होता है, वही भरमाता, चक्कर खिलाता और नरक के रास्ते पर ले जाता है।..... पर, भाई जान, मैं सिर्फ एक बात जानता हूँ, उसके सामने किसी की नहीं चलती, जो कुछ होता है, उसकी के इशारे से होता है। वह चाहता है, तभी हम चोरी, डकैती, हत्या, जना, बदकारी, सब कुछ करते हैं, और जहाँ उसकी मेहर हुई, सब मिनटों में टूट जाता है।``22
हृदय नारायण बाबू उपर्युक्त बात अपने द्वारा किये गये घृणित कार्य को बताने के साथ-साथ उसे ईश्वरी माया या इच्छा बताकर 'जस्टीफाई` भी करना चाहते हैं। इसी तरह 'आकाश पक्षी` उपन्यास की पात्र हेमा जब यह कहती है कि, ''रो-धोकर मैं बाहर निकली। मैंने स्नान किया। फिर मैं सजने-धजने लगी। मैं आईने के सामने खड़ी हूँ। मेरे शरीर पर कटवर्क की साड़ी चमक रही है। कानों में बालियाँ डोल रही हैं। मैं आज अहाटे में शान से घूमूँगी और किसी को पहचानूँगी नहीं। मैं अब सबके प्रति अपना अहंकार तथा उपेक्षा प्रकट करूँगी, क्योंकि मैंने स्वयं अपने हाथों अपने प्यार का गला घोंट दिया और जिंदगी से बहुत दूर एक ऐसे मरूस्थल में चली आयी, जहाँ मेरी आत्मा सदा प्यास से छटपटाती रहेगी।``23 तो वह अपनी मन:स्थिति और व्यवहार के बीच के द्वंद्व को स्पष्ट करती है। यहाँ उसके प्रति पाठकों में करूणा का भाव जागृत होता है।
8) सांकेतिक शैली :-
अत्यधिक विस्तार और विश्लेषण की जगह जब कथाकार कतिपय संकेतों के माध्यम से घटना को चित्रित करता है, तो उसे सांकेतिक शैली कहते हैं। कई बार कथानक में पात्र अपनी प्रतिक्रिया संकेतों के आधार पर व्यक्त करते हैं। परिस्थिति विशेष में अभिव्यक्ति के लिए सांकेतिक शैली बड़े ही कारगर तरीके से सामने प्रस्तुत होती है। अमरकांत ने भी इस शैली का सीमित पर सधा हुआ प्रयोग किया हैं।
'असमर्थ हिलता हाँथ` नामक कहानी में लक्ष्मी की दशा का वर्णन करते हुए अमरकांत लिखते हैं, ''उसने घर के लोगों को पुकारा। सभी दौड़े आये। बड़े लड़के ने दाहिना पैर और दाहिना हाथ हिलाकर देखा। वे बेजान से बिस्तर पर गिर पड़े। फिर उसने मुँह में पानी डाला। पानी मुँह से बाहर निकल कर बिस्तर पर फैल गया। ''लकवा है! मुँह टेढ़ा हो गया है। अंगों पर है.....।`` यहाँ विस्तार से वर्णन की गुंजाइश नहीं है। सिर्फ संकेतों से स्थिति को समझाने का प्रयत्न किया है।
इसी तरह 'दोपहर का भोजन` कहानी का रामचन्द्र भूख होने पर भी अधिक रोटी नहीं खाता। जानता है कि वह अपने हिस्से का खाना खा चुका है। माँ से पानी लाने के लिए कहता है। फिर ''एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकड़े को धीरे से हाँथ से उठाकर आँख से निहारा और अंत में इधर-उधर देखने के बाद टुकड़े को मुँह मे इस सरलता से रख लिया, जैसे वह भोजन का ग्रास न हो कर पान का बीड़ा हो।``24 यहाँ पर भी रामचन्द्र भूख और अभाव के बीच संवाद से बचता हुआ अपने संकेतों से ही अपनी स्थिति स्पष्ट कर रहा है। अमरकांत के यहाँ सांकेतिकता इसी रूप में सामने आयी है।
9) व्यंग्यात्मक शैली :-
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत का सामान्य जन-मानस जिस ' मोहभंग` की स्थिति में था वहाँ उसके 'यथार्थ` को व्यक्त करने का सबसे सशक्त हथियार 'व्यंग्य` ही था। आदर्शो और नैतिकता के नाम पर लोग किस तरह अपने स्वार्थ की रोटियाँ सें रहे थे इसे बताने के लिए 'नयी कहानी आंदोलन` के रचनाकारों ने व्यंग्यात्मक शैली का भरपूर उपयोग किया।
'व्यंग्य` अमरकांत की एक प्रमुख शैली है। अमरकांत के पूरे कथा साहित्य में व्यंग्य की छाप है। जहाँ कथनी-करनी में अंतर, कोरी भावुकता, स्वार्थ सिद्धी और व्यक्तिगत लाभ के लिए आदर्श और नैतिकता की दुहाई देनेवाले पात्र आये हैं, वहीं अमरकांत ने व्यंग्य के माध्यम से उनका चरित्रांकन भी किया है। निम्नलिखित उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जायेगा।
'पलाश के फूल` कहानी के पात्र बाबू हृदयनारायण के संवादों के माध्यम से देहातों में गरीबों के शोषण की स्थिति को अमरकांत व्यंग्यात्मक तरीके से प्रस्तुत करते है।ं हृदयनारायन कहता है, ''नहीं जानते? ......अरे, हमारे देहातों में यह आम रिवाज था। जब बाबू लोगों को किसी गरीब की बहू-बेटी पसंद आ जाती, तो वे उसको तंग परेशान करते, मारते-पीटते, खेतों से बेदखल कर देते, और सफलता न मिलने पर बुरी तरह पिटवा देते। फिर रात में उसके धर में घुसकर या किसी दूसरे तरीके से उल्लू सीधा करते।``25
इसी तरह 'गगनबिहारी` कहानी के सुंदरलाल का चरित्रांकन भी अमरकांत ने व्यंग्यात्मक रूप में ही किया है। उनका चरित्र उन लोगों जैसा है जो जीवन में स्थिर मन से, संयम के साथ परिश्रम करते हुए आगे नहीं बढ़ पाते। ये वो लोग हैं जो जल्द से जल्द और कम से कम श्रम में सबकुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। ऐसे लोग कल्पना में ही अधिक खोये रहते हैं। 'म्यान की दो तलवारे` नामक कहनी में साथ काम करनेवाले 'विकल` और 'मदमस्त` की आपसी दुश्मनी का वर्णन अमरकांत व्यंग्यात्मक शैली में ही करते हैे। मदमस्त अगर लिखता कि -
''देर हो रही है, देर हो रही है,
जौनपुर की लोमडी शेर हो रही है।``26
तो जवाब में 'विकल` की भी कविता तैयार हो जाती -
''देर हो रही है, देर हो रही है,
'मदमस्त` जैसे गीदडों की ढेर हो रही है।``27
'अमेरिका यात्रा`, 'दोस्त का गम`, 'लड़की की शादी`, 'लड़की और आदर्श`, 'मैत्री`, 'महान चेहरा`, 'मित्र मिलन`, 'शक्तिशाली`, 'तन्दरूस्ती का रोग`, 'बस्ती`, 'कला प्रेमी`, 'प्रिय मेहमान`, 'हंगामा`, 'बडरैया कोदो`, 'लोक-परलोक`, 'चाँद`, 'एक बाढ़,` कथा` और 'श्वान गाथा` जैसी कहानियों में अमरकांत ने इस व्यंग्यात्मक शैली का भरपूर उपयोग किया है। इसी तरह 'सुख जीवी`, 'आकाश पक्षी`, 'सुरंग`, 'बिदा की रात` और 'इन्ही हथियारों से` जैसे उपन्यासों में भी व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग दिखलायी पड़ता है।
10) हास्य शैली
अमरकांत के कथा साहित्य में हास्य के जो पुट मिलते हैं वे भी व्यंग्य पूर्ण ही हैं। फिर भी संवादों में व्यक्त हास्य कथानक को गंभीरता और अतिभावुकता से बचाने में महत्वपूर्ण दिखायी पड़ते हैं। अमरकांत का मुख्य हथियार 'व्यंग्य` ही रहा है। इस व्यंग्यात्मक शैली के साथ हास्य का स्वरूप भी सामने आया है। इस संदर्भ में निम्नलिखित उदाहरण उल्लेखनीय हैं।
'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास का पात्र पिलपिली ढेला को ग्रैविटी कॉटने वाला मजाक समझाते हुए कहता है`, ''अरे, तुम ग्रैविटी नहींं जानती? बड़ी फिसड्डी हो। देखो यह धरती हर चीज को अपनी तरफ खींंचती है, इसीलिए हर चीज पृथ्वी पर टिकी हुई। हमारे पास एक ऐसा औजार है, जिससे हम किसी आदमी या चीज के नीचे से ग्रैविटी को खुट-खुट काट देते हैं और वह आकाश में उड़ने लगता है। .......अगर तुम्हारा कोई दुश्मन हो तो बताओ, हम उसकी ग्रैविटी काट देंगे और वह बाप-दादा चिल्लाते हुए आसमान में उड़ने लगेगा।``28 इसी तरह जब गोवर्धन एकदम भावुक होकर ढेला से गंभीर बाते करता रहता है तो ढेला एकदम से यह कहकर हॅंस पड़ती है कि, ''यह कैसे? मैं अपनी मॉँ की हू, इस शहर के मर्दो की हूूँ, उनके पैसों की हूँ, अपने पेशे की हूँ, अपने और अपने खानदान के पेट की हूॅं।``29
जिंदगी और जोंक` कहानी का रजुआ कई बार अपनी बातों से हास्य उपस्थित करता है। जैसे कि यह पूछने पर की उसे नहाये कितने दिन हुए तो वह कहता है कि, ''खिचड़ी की खिचड़ी नहाता हूॅं। न, मलिकाइन जी।``30 इसी तरह कुएं पर किसी औरत को देखकर पूछ बैठता ''यह कौन है? अच्छा बड़की भौजी है। सलाम भौजी। सीताराम, सीताराम, राम-राम जपना पराया माल अपना।``31
'हत्यारे` कहानी के संवादोें में भी हास्य का पुट दिखलायी पड़ता है। निम्नलिखित संवाद उल्लेखनीय है।
''- हलो, डियर!
- हलो, सन ! - गोरा पास आकर खड़ा हो गया।
- इतना लेट क्यों, बेटे?
- भई, बोर हो नये!
- कोई खास बात?
- यही नेहरू है, यार! आज उसका एक और पत्र मिला है।
- आई सी! - सॉंवले की ऑंखों और होंठों के कोरों में हास्य की हल्की सिकुड़नें पैदा हो कर विलीन हो गयीं।
- हॉं, डियर यह आदमी मुझको परेशान कर रहा है। मैंने बार-बार कहा कि, भाई मेरे, भारत की प्राइम मिनिस्ट्री किसी दूसरे व्यक्ति को दो, मेरे पास बड़े-बड़े काम हैंं। लेकिन मानता ही नहीं।``32
यहॉं स्पष्ट है कि इन दोंनों पात्रों का नेहरू जी से कुछ लेना-देना नहीं है। ये सिर्फ एक दूसरे के सामने डींंगे मार रहे हैं। एक-दूसरे की सच्चाई से दोनों ही वाकिफ हैंं। इसीतरह हास्य के कई अन्य उदाहरण भी अमरकांत के कथा साहित्य में मिल जाते हैं।
11़़ प़्रतीकात्मक शैली :-
''जिन भावों को प्रगट करने में कठिनाई होती थी, उन्हें सहज एवम् प्रभावशाली ढ़ग से व्यक्त करने के लिए प्रतीकाम्मक शैली का विकास हुआ । इससे उपन्यासों में कलात्मकता की भी अभिवद्धि हुई।33 अमरकांत ने इस शैली का सीमित पर संुदर प्रयोग किया है। निम्नलिख्ति कुछ उदाहरण उल्लेखनीय है।
'बिदा की रात` उपन्यास के प्रारंभ में सुलताना की स्थिति स्पष्ट करते हुए अमरकांत लिखते है कि, ''बीसवीं सदी की आखिरी हद पर, पचास की उम्र के पार, वह कुछ ज्यादा ही सोचने लगी है। एक समय का खूबसूरत चेहरा अब फिक्र की लकीरों के साथ सूखे-सिकुड़े हारे की शक्ल में बदल गया है। ....कई दिनों की कड़वी मिर्ची धूप के बाद हवा तेज चल रही है, आसमान में हल्के भूरे बादल मकानों के पीछे से उभर कर पश्चिम की तरफ दौड़ लगा रहे हैं।``34 इसी तरह उपन्यास में एक जगह उसके एकाकी पन के संदर्भ में लिखते हैं कि,''...अचानक उन्हें महसूस हुआ कि उनकी जिंदगी तो इस मकान की तरह ही है, जिसमें सें हर शख्स़ बाहर निकलता ही जा रहा है। .....और उनके मुॅह से चीख निकल गई, ''हाय अल्ला, ऐ परवर दिगार!``35
12) उद्धरण शैली :-
उद्धरण शैली` का उपयोग कथा साहित्य में इधर काफी कम हो गया है। फिर भी कई बार पात्रों की मन:स्थिति, उनकी इच्छाओं, प्रचलित लोक गीत, कविताऍं, सूक्तियों, भाषणों आदि को प्रस्तुत करने के लिए उद्धरण शैली का उपयोग होता रहता है। अमरकांत ने अपने उपन्यास 'सुन्नर पांडे की पतोह` और 'इन्ही हथियारों से` में शैली का उपयोग करते है। कुछ उदाहरण इस प्रकार है।ं
- ''पाको हे ईट पाको
जइसे दू मेहरी का मरद पाके....``36
- ''सिर पर बॉंधे कफनिया हो%%
शहीदों की टोली निकली....।``36
- ''थानेदार होश में आओ,
चौरी चौरा याद करो।
थानेदार नीचे उतरो,
चौरी चौरा याद करो।
हम अहिंसा के अनुयायी,
पुलिस हमारे भाई-भाई।
आजाद सरकार , जिन्दाबाद``38
- ''सब मिल खाऍँ मकई का लावा
नाहींं मिले तो बोल दें धावा....
बोल दें धावा....
बोल दें धावा।``39
13) आत्म विश्लेषण युक्त भावत्मक शैली :-
कथा साहित्य में पात्रों की मानसिक स्थिति के, उनके मानसिक द्वंद्व के चित्र प्रस्तुत करने के लिए इस भावात्मक शैली का उपयोग किया जाता रहा है। यह शैली पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं को अभिव्यक्त करने में भी कारकर साबित होती है। अमरकांत ने अपने कथा साहित्य कई जगहों पर इस शैली का उपयोग किया है। कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।
- ''जब वह आया तो मेरा हृदय जोरों से धड़का था। जैसे मुझ पर बेहोशी छा जाएगी। ......भावनाओं में खोयी हुई ऑंखें जो मुझे इतनी अच्छी लगती थीं और जिनको देखने या जिनका खयाल करने से ही मैं बुरी तरह आन्दोलित हो उठती थी।``40
- ''उस दिन जब रवि ने मेरे हॉथ पर अपना हॉथ रखा तो मुझे और जोर से रूलाई आयी थी। मैंने अपना हॉंथ वहॉं से हटाया नहीं था। फिर मैंने अपने उपर नियन्त्रण कर लिया था। दूसरे हॉंथ से मैंने अपनी ऑंखें पोंछ ली थीं । वह इसी तरह कुछ देर तक हॉंथ रखे रहा । उसका चेहरा किन्हीं भावनाओं में खो गया था और सचमुच वह इस दुनियॉं में नहीं था।``41
- ''पोस्टकार्ड लौटाते समय मैंने उसके चेहरे को गौर से देखा। उसके मुख पर मौत की भीषण छाया नाच रही थी और वह जिन्दगी से जोंक की तरह चिमटा था - लेकिन जोंक वह था या जिंदगी? वह जिंदगी का खून चूस रहा था या जिंदगी उसका? मैं तॅँय न कर पाया।``42
इस शैली के माध्यम से पात्रों की मन:स्थिति तो स्पष्ट होती ही है, इससे ही कथानक आगे भी बढ़ता है।
14) चित्रात्मक शैली :-
चित्रात्मक शैली के माध्यम से लेखक की सूक्ष्म चित्रण क्षमता का पता चलता है। कथासाहित्य में इस शैली के प्रयोग से विषय वस्तु में जीवंतता आ जाती है। अमरकांत के उपन्यासों एवम् कहानियों में कई जगह इस शैली का प्रयोग हुआ है। कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।
'इन्ही हथियारों से` उपन्यास के प्रंारभ में ही अमरकांत का स्थान विशेष के संदर्भ में किया गया वर्णन इस तरह का है कि पाठक अपने मन में वैसे ही दृश्य को देख पाता है। वे लिखते है कि, ''आज हर रस्ता टाउन-हॉल की ओर जा रहा है। चाहे भगुक्षेत्र, - जापलिनगंज या बमपुलिस मोहल्ला हो, प्रत्येक गली, सड़क और चौराहे से - निकलकर लोग उधर ही लपक रहे हैं। चारों ओर से सिमट आए बरसाती जल से लबालब तालाब की भॉंति टाउन हॉंल का अहाता समय से पूर्व ऐसा ठसा ठस भर गया है कि सूई फेंककर ऊपर-ऊपर ही खोज लीजिए। पॉंच बजे की सॉँझ, आकाश अकस्मात बादलों से ढककर एक विशाल मटमैला तम्बू बन गया है, यद्यपि कुछ ही घंटे पूर्व दोपहर में जून मास की लाल, मिरचई धूप निकली थी।``43
'सप्ताहान्त` कहानी का यए वाक्य भी अपने समय के चित्र को प्रस्तुत करता है। -''शाम तेजी से उतर रही थी और सूरज की ललौंद फीकी धूप वृक्षों और मकानों के शिखर पर दिखाई दे रही थी। वे सड़कों तथा बल खाती हुई सेंंकरी, बदवूदार गलियों को पार करके एक चौड़ी सड़क पर चले आये थे जहॉ। बायीं तरफ 'राष्ट्रीय प्रेस` का बोर्ड लगा हुआ था।``44
'एक बाढ़ कथा` नामक कहानी का यह अंश देखिए, ''रेलवे लाइन के बाँध पर पुरूष, महिलायें और बच्चे भीड़ की ओर टुकुर-टुकुर देख रहे थे। सबके चेहरे उड़े-उड़े थे औैर उन पर मैल सी जम गई थी। उनकी ऑंखों में भय, क्रोध, दु:ख और निराशा के मिले जुले विचित्र भाव दृष्टिगोचर हो रहे थे। कोई खड़ा था और कोई बैठा था। बहुत सी औरतें सिर पर ऑंचल डालकर तथा घुटनों के अन्दर मुॅह गाड़कर चुपचाप बैठी थी। बॉंध के नीचे चारों ओर पानी फैला था, दर्शकों की भीड़ इधर-उधर मँडरा रही थी, पर वे हर चीज से उदासीन और निर्लिप्त थे।``45
15) रेखाचित्र या संस्मरणात्मक शैली :-
अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में जिन दो शैलियों का उपयोग सबसे अधिक किया है उनमें रेखाचित्र शैली प्रमुख है। पात्रों की भाव-भंगिमा एवम् उनके शारीरिक वर्णन में अमरकांत इस शैली का उपयोग करते हैं। शब्दों के द्वारा पात्रों एवम् उनके चरित्रों को व्यक्त करने में यह शैली विशेष सहायक होती है। 'नई कहानी` अन्य कई कहानीकारों ने इस शैली का भरभूर उपयोंग किया है।
अमरकांत के कथा साहित्य में इस शैली के अनेकों उदाहरण है। कुछ निम्नलिखत उदाहरण विचारणीय हैं।
मूस का वर्णन करते हुए अमरकांत लिखते है कि, ''चार फुट का मरद होने के कारण लोग उसके बारे में खामखाह कह देते, जैसा नाम वैसा गुण। दुबला-पतला शरीर, छोटा चेहरा, बड़ी बड़ी फरकती मूॅंछे, छोटी-छोटी मिचमिचाती ऑंखे और उभरी हुई गाल की हड़डियाँ। पाँच साल पहले उसने चालीस पार कर लिया था। उसके हाथों तथा पैरों में सिकुडे हुए केंचुए की तरह मोटी-मोटी नसें उभर आई थी।``46
इसी तरह 'हत्यारे` कहानी के दो युवकों का चित्रण करते हुए अमरकांत लिखते है ''एक युवक गोरे रंग का, लम्बा, तगडा और बहुत सुंदर था, यद्यपि उसकी ऑँखे छोटी-छोटी थीं। वह सफेद कमीज और आधुनिक फैशन की एक ऐसी तंग पैंट पहने था, जिसको फाड़ कर उसके बडे बडे और सुड़ौल चूतड़ बाहर निकलना चाहते थे। पैरों में जूते थे, किन्तु मोजे नहीं थे और बाल उलटे फिरे हुए थे। दूसरा युवक साँंवला, ठिगना और तन्दरूस्त था। उसकी दाढी मूॅछ अपने साथी की तरह ही सफाचट थी, पोशाक भी उसी ढंग की थी, किन्तु सिर पर कश्मीरी टोपी थी, पैंट का रंग चाकलेटी न हो कर भूरा था और कमीज की दो बटनें खुली होने के कारण बनियाइन साफ दिखायी दे रही थी।``47
इस तरह स्पष्ट है कि अमरकांत अपने पात्रों का शब्द रेखाचित्र बड़ी गहराई और विस्तार देकर बनाते हैं, जिससे पाठकों के मन-मस्तिष्क में उस पात्र विशेष की एक छवि निर्मित हो जाती है।
16).चेतना प्रवाह शैली :-
''चेतना प्रवाह - शैली में पात्रों के मस्तिष्क में प्रेत्यक क्षण उठने वाले विचारों का यथावत अंकन किया जाता है। एक ही समय में व्यक्ति मानसिक रूप से परेशान हीेकर अपने प्रेम, घृणा, निराशा, सत्य, सफलता, असफलता, परिवार, समाज, देश आदि अनेक बातों के विषय में सोच जाता है। शैली का प्रयोग करने वाले कहानीकारों ने वास्तविकता की अपेक्षा मनोवैज्ञानिक समय को महत्वपूर्ण माना है क्योंकि इसका संबंध मानवीय चेतना से जुड़ा हुआ है।``48
यद्यपि अमरकांत उन कथाकारों में से है जिन्हें 'यथार्थ का पक्षधर` माना जाता है। फिर भी सीमित रूप में उन्होंने इस चेतना प्रवाह शैली का उपयोंग किया है। पर वे वास्तविकता से दूर जाकर मनोवैज्ञानिकता से जुड़ने के लिए ऐसा नहीं करते हैं, अपितु वास्तविक जीवन की परेशानियों के बीच जीते हुए पात्रों की मन:स्थिति को व्यक्त करने के लिए ऐसा करते हैं। निम्नलिखित उदाहरणों से यह अधिक स्पष्ट हो सकेगा।
'गगन बिहारी` कहानी का पात्र सुन्दरलाल बी.ए. करने के बाद कुछ करना चाहता है। पर क्या करे? कहॉ से शुरू करे? वह यही तॅय नहीं कर पाता है। इसलिए उसके मन में कई बाते आती हैं। वह होमियोपैथी की डॉक्टरी करने की सोचता है, फिर अचानक उसे लगता हैं कि खेती करना ही अधिक लाभ वाला व्यवसाय है, अपने मित्र से मिलने के बाद पुन: उसका विचार बदला और वह व्यापार करने की सोचता है। और वह यह भी सोचता है कि, ''सचमुच इस औद्योगीकरण के युग में इंसान और देश की तरक्की वाणिज्य-व्यापार से ही हो सकती है। इसी रास्ते पर चलकर अमेरिका इतना संपन्न और शक्तिशाली हुआ है।``49 अचानक उसे यह लगने लगता है कि उसकी तबीयत ठीक नहीं हैं। ''किसी को पत्र लिखता, तो शुरू में ही यह सूचित करना न भूलना कि आजकल उसकी तन्दरूस्ती ठीक नहीं। .....परंतु उसके भीतर कहीं अब भी यह दृढ़ विश्वास था कि वह एक दिन खूब तन्दरूस्त और तगड़ा हो जायेगा और कठिन परिश्रम करके अपने कुटुम्ब और देश का नाम उॅंचा करेगा।``50
इसी तरह 'अन्तरात्मा` कहानी के विमल बाबू अपने घर में आराम करते हुए खयालों में खोये हैं। शरीर में सुस्ती और ऑंखे बंद हो गयी। इसके बाद वे किसी व्यक्ति को कमरे में महसूस करते हुए एक लंबी वार्ता उससे करते हैं। अपने अतीत की न जानें कितनी ही बातें उन्हें याद आती है। अतीत की सच्चाईयों से संवाद करते हुए अचानक उनकी नींद टूट जाती है। ''वह उठकर बैठ गये। उनका शरीर पसीने से नहाया हुआ था। .....कभी-कभी सपने भी अजीब दिखाई देते हैं। उन्होंने सिर को कई बार हिलाया; वह अब पूरी तरह चैतन्य हो गये थे।``51 दरअसल विमल बाबू के 'सब कॉन्सियस माइंड` में वे सारी बातें थी जो उन्होंने सबसे छुपाते हुए तरक्की के मार्ग पर वे अक्सर आगे बढ़ते रहे। पर चेतना जब उनको उनके ही छुपे हुए रूप से मिलवाती है तो वे असहज हो उठते हैं।
....'काले उजले दिन` उपन्यास का नायक यह अच्छी तरह जानता है कि ''प्यार, समर्पण एवं विश्वास ही कान्ति का जीवन था।``52 पर वह सब कुछ समझते हुए भी वह अपने ऑफिस की रजनी से प्रेम करता है। पत्नी 'कान्ति` के लिए सहानुभूति है पर प्रेम नहीं। 'कान्ति` और 'रजनी` के बीच के द्वंद्व को वह मानसिक रूप से झेलता रहता है। कई तरह के विचारों से टकराता है। परिवार, समाज और न जाने क्या-क्या । इस उपन्यास में भी चेतना प्रवाह शैली का प्रयोग स्पष्ट दिखायी पड़ता है।
17. समन्वित शैली :-
समन्वित शैली का अभिप्राय है कि कहानी में एक से अधिक शैली का उपयोग करते हुए कथानक प्रस्तुत करना। उपन्यासों में तो यह सामान्य बात है, क्यों कि उपन्यासों में मिश्रित शैली या समन्वित शैली का ही अधिकांशत: तक प्रयोग होता है। कहानियों का कथानक उपन्यासों की तुलना में बहुत ही छोटा होता है। फिर भी कई कहानीकार अपनी कहानियों में एक से अधिक शैली का प्रयोग करते हैं। अमरकांत की कुछ कहानियों में समन्वित शैली का प्रयोग दिखायी पड़ता है। ऐसी कहानियों में विश्लेषणात्मक शैली, पत्रात्मक शैली, रेखाचित्र शैली और स्वप्न विश्लेषण शैली के साथ संवाद शैली का संुदर समन्वय दिखायी पड़ता है।
'संत तुलसीदास औैैैैैैैर सोलहवॉं साल`, 'जिन्दगी और जोंक`, 'डिप्टी कलक्टरी`, 'गगन बिहारी`, 'मूस`, 'हत्यारे`, 'महुआ`, 'कला प्रेमी`, 'हंगामा`, 'बउरैया कोदो`, 'चॉंद` और 'सफर` जैसी कहानियों में समन्वित शैली का प्रयोग दिखायी पड़ता है।
18. समाचार पत्रों की कतरन या रिपोर्ताज शैली :-
''यथार्थ के अत्यधिक आग्रह के कारण कहानी कई बार लेखक द्वारा प्रत्यक्ष देखी गई द्यटना का वर्णन बन जाती है। ऐसी स्थिति में वह रिपोर्ताज विधा के काफी निकट जा पड़ती हैं। कई बार लेखक इस विधा को कहानी की एक शैली के रूप में इस प्रकार प्रयोग करते हैं कि कई बार यथार्थ घटना या स्थिति का वर्णन न होने पर भी कहानी रिपोर्ताज ही मालूम पड़ती हैं।``53
अमरकांत ने अपने उपन्यास 'इन्हीं हथियारों से` में इस शैली का भरपूर उपयोग करते हैं। जैसा कि वे खुद कहते हैं कि यह उपन्यास ऐतिहासिक न होकर भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का है। अत: कई आंदोलनों, नेताओं के भाषणों और घटनाओं का जिक्र अमरकांत एकदम रिपोर्ताज विधा की शैली में करते हैं। इस संदर्भ में कुछ निम्नलिखित कुछ उदाहरण विचारणीय हैं।
उपन्यास के प्रारंभ में अमरकांत बलिया जिले, यहॉ की भाषा, यहॉं की संस्कृति आदि के बारे में विस्तार से बतलाने के लिए 'सुरंजन शास्त्री` नामक पात्र के भाषण का सहारा लेते हैं। और विस्तार में सारी बाते कहते हैं। मानों वे स्वयं उस ऐतिहासिक भाषण को सुनने के लिए वहॉँ उपस्थित रहे हों।
बलिया के कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों आदि के बारे में बताते हुए अमरकांत 'कांग्रेसध्यक्ष` के संबोधन को भी विस्तार से बतलाते हैं। यह उद्धरण देखिये. इस बहादुर जिले के बहादुर साथियों, सबसे पहले मैं आजादी के लिए आपको हार्दिक बधाई देता हूॅं। हॉं आज से आप स्वतन्त्र हैं। अंग्रेजों की गुलामी खत्म हो गई है। अगर आपने इतना बड़ा सघर्ष न चलाया होता, महान कुर्बानियॉँ न दी होतीं तो ये दिन देखने को न मिलते।54
उपन्यास के ये सभी प्रसंग रिपोर्ताज शैली के अधिक निकट दिखायी पड़ते हैं।
इन शैलियों के अतिरिक्त कई अन्य शैलियों का जिक्र अमरकांत के कथा साहित्य के संदर्भ में मिलता है। जैसे कि, ''क्रोधात्मक शैली, मुहावरेदार शैली, कहावतेदार शैली, शरीर सौष्ठषात्मक शैली, रोमांटिक शैली, ग्राम्य एवं जन-मानस की भाषा शैली, उमपात्मक शैली, और रूआंसू शैली``55
इस तरह उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि यद्यपि अमरकांंत शिल्प और शैली को लेकर प्रयोग के हिमायती नही हैं किंतु उनके विस्तृत कथा साहित्य में कथानक की आवश्यकतानुसार सहज रूप में कई शैलियों का प्रयोग दिखायी पड़ता है। शैलियों का यह प्रयोग सप्रयास किया हुआ नहीं लगता, जैसा की 'नई कहानी` आंदोलन के अनेकों कथाकारों ने किया। अमरकांत शिल्प और कथ्य के स्तर पर प्राय: नवीन प्रयोगों से बचते रहै हैं। आत्मकथ्यात्मक और रेखाचित्र शैली को उन्होंने विशेष तौर पर अपनाया है। कथानक प्राय: सपाट हैं। जानवरों की उपमा वे पात्रों की भाव-भंगिमाओं एवम् शारीरिक वर्णन के लिए विशेष तौर पर करते हैं। पर इनका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि अमरकांत शिल्प और शैली को लेकर सहज नहीं थे। अमरकांत के यहॉं जितनी सहजता और सरलता है उतनी ही सजगता भी।
4) मध्यवर्गीय चेतना :-
न केवल अमरकांत अपितु 'नई कहानी आंदोलन, के अधिकांश कथाकारों ने मध्यवर्ग का चित्रण अधिक किया है। ''इसका कारण यह है कि नए कहानीकारों में से अधिकांश मध्यवर्ग से संबंधित है, अत: इस जीवन को उन्होंने पूरी तरह जाना-पहचाना और भोगा है। मध्यवर्गीय जीवन से संबंधित सभी पहलुओं जैसे आशा-आकांक्षा, निराशा, बेरोजगारी, परस्पर संबंध, कुंठाऍं, पीड़ा, घुटन, ऊब, अनास्था, संत्रास आदि का समग्र चित्रण नई कहानी करती है। इन सब प्रवृत्तियों के मूल में अधिकांशत: आर्थिक कारण और संयुक्त परिवार का विघटन ही प्रधान है।``56
अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज में व्याप्त अभाव, कुंठा, असंतोष, मोहभंग और निराशा को बड़ी ही गहराई के साथ चित्रित किया है। अर्थ का दबाव किस तरह आपसी संबंधों को प्रभावित करने लगता है, इसे अमरकांत के कथा साहित्य के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है। 'मूस` जैसी कहानी इसका एक जीवंत उदाहरण है। अमरकांत के कथा साहित्य के अध्ययन के माध्यम से एक बात और सामने आती है कि अमरकांत के निम्न मध्यवर्गीय पात्र उनके यथार्थ से प्रभावित होकर अपनी स्थिति में जिस तीव्रता एवम् खुलेपन से बदलाव कर लेते है, वैसा मध्यवर्गीय समाज से संबंधित पात्र नहीं कर पाते। इनके यहाँ आदर्श और यथार्थ के बीच की लड़ाई बड़ी उलझी हुई एवम् लंबी है। वे बदलाव को उस तीव्रता के साथ नहीं अपना पाते जिस तरह से निम्न मध्यवर्गीय समाज के पात्र। अमरकांत के कथा साहित्य के अधिकांश मध्यवर्गीय नायक किसी सुंदर लड़की से प्रेम करना चाहते हैं, प्रेम में बड़ी से बड़ी कुर्बानी करना चाहते हैं, पर जब कुछ करने अर्थात निर्णय लेने का समय आता है तो उनकी सारी हिम्मत पस्त है। वे अपनी इस कमी को छुपाने के लिए कई संगत - असंगत तर्क खोजने लगते हैं। हलॉंकि 'आकाश पक्षी` उपन्यास का नायक 'रवि` और ऐसे ही कुछ पात्र अपवाद स्वरूप हैं।
अमरकांत प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ानेवाले कथाकारों में से एक हैं। प्रेमचंद की आदर्शवादी परंपरा से आगे बढ़ते हुए उन्होंने द्वंंद्वात्मक यथार्थ के स्वरूप को सामने लाया। अमरकांत के पात्रों की यथास्थिति की निरीहता के साथ उनकी परिवेशगत परिस्थितियों के प्रति धृणा पाठकों के मन में एक साथ बनती है। यह यथार्थ के साथ द्वंद्व का एक नया स्वरूप था जो अमरकांत के कथा साहित्य के माध्यम से सामने आता है। अमरकांत किसी आदर्श को केन्द्र में रखकर अपने पात्रों के जीवन में एकदम से कोई परिवर्तन लाने की चेष्टा नहीं करते। परिस्थितियों के वशीभूत उनका पात्र जो भी जीवन जीता है उसके प्रति पाठकों के मन में सहानभूति तो उसके आस-पास की परिस्थितियों एवम् सामाजिक व्यवस्था के प्रति पाठकों के मन में क्रोध का भाव सामने आता हैं। अमरकांत के अधिकांश मध्यवर्गीय पात्र जब भी आदर्श या नैतिकता की बात करते हैं तो केवल और केवल अपनी स्वार्थ सिद्धी के लिए ही। हलाँकि इतने बड़े कथा साहित्य में एकाध पात्र अपवाद भी हो सकते हैं।
स्त्री पात्रों के व्यवहार में वर्ग गत अंतर स्पष्ट दिखायी पड़ता है। अमरकांत इस संदर्भ में लिखते भी हैं कि, ''.....मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय स्त्रियाँ? वे परदे में रहती हैं, अंधविश्वासों के सहारे जीती हैं, अपने पुरूषों के अनेक तरह के अन्याय सहती हैं, फिर भी दूसरी स्त्रियों, खास तरह से निम्नवर्ग की स्त्रियों से अपने को उच्च समझती हैं और किसी भी नई बात को बरदाश्त नहीं पाती। दूसरों की बहू-बेटियों की आलोचना और शिकायत में ही वह अपना खाली समय बिताती हैं।``57 लेकीन निम्नवर्ग की स्त्रियों के यहाँ इतनी व्यवहारिक जड़ता नहीं है।
समग्र रूप में हम कह सकते हैं कि अमरकांत ने मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग के समाज को अच्छी तरह जाना-समझा और उनके सूक्ष्म से सूक्ष्म व्यवहार को समझने में वे कुशल हैं। उनके हर व्यवहार पर उनकी मन:स्थिती तक को आँकने में अमरकांत सफल दिखायी पड़ते हैं। यही कारण रहा है कि इन दोनों वर्ग को केन्द्र में रखकर लिखा गया उनका कथासाहित्य इतना विश्वसनीय और जीवंत दिखायी पड़ता है।
5) कथ्य का नया स्वरुप :-
अमरकांत के कथा साहित्य में अगर 'कथ्य` की बात करें तो हमेेेेेेेें पता चलता है कि सपाट कथानक के साथ उन्होंने मध्यवर्ग औैैैैैैर निम्न-मध्यवर्ग के जीवन से जुड़ी समस्याओं को सामने लाने का प्रयास किया है। दरअसल ''कहानी उन घटनाओं और कार्यो से संबंध रखती है, जो पात्रों के द्वारा किए जाते हैं और जिनका प्रधान उद्देश्य-उसके विकास में योगदान देना होता। ऐसी घटनाओं और ऐसे कार्यो को कहानी का कथानक कहते हैं।`` कथानक और कथ्य के अंतर को समझ लेना जरुरी है। ''कुछ कहने की समस्या कहानी के साथ जुड़ी है। कहानी 'क्या कहती है` इसका संबंध कथ्य से और 'कैसे कहती है` का संबंध कथानक से है। कथानक के अभाव में कहानी जीवित रह सकती है किंतु कथ्य या संवेदना -शून्य कहानी की कल्पना भी कठिन है।``59
'नयी कहानी` के उदय के पीछे कई बातें थी । स्वतंत्रता से आम आदमी का मोहभंग, देश के विभाजन का दर्द, सामाजिक जीवन में व्याप्त विसंगति, जीवन में बढ़ता आर्थिक संघर्ष और राजनैतिक अवसर वादिता के बीच जीने को विवश सामान्य भारतीय एवम् उसी परिवेश में लेखन कर रहे कथाकार ने जो भी महसूस किया वही उसका 'कथ्य` बना और 'नयी कहानी` के रुप में सामने आया । यथार्थ, कुंठा, अन्तदृन्दृ, व्यर्थताबोध, संत्रास, अकेलापन, अजनबीपन व़्यक्ति चेतना सांकेतिकता और कामुकता जैसी न जाने कितनी ही बातें 'नयी कहानी` के कथ्य से जुड़ती गयी। इनसब के बीच सबसे महत्वपूर्ण था-आम आदमी का मोहभंग ।'' नयी कहानी का स्वर मुख्यत मोहभंग की स्थिति को अभिव्यक्त करने वाला है। आजादी के बाद मोहभंग की यह स्थिति -जीवन के प्राय: हर क्षेत्र में प्रतिबिंबित होती दिखाई देती है। राजनीतिक,-सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक सभी क्षेत्रों में व्यक्ति मोहभंग का शिकार है। वस्तुत: आजादी को लेकर अनेक आशाएँ-आकांक्षाएँ जनमानस के मन में संचित थीं। जमींदारी उन्मूलन और पंचवर्षीय योजना जैसी अनेक विकास ऱ्योजनाओं ने उनकी इन आकांक्षाओं को और बलवती किया। लेकिन शीग्र ही तस्वीर बदलने लगी। मोहभंग होने लगा। अधिकाधिक सुविधाएँ बटोरने की होड़ में सभी क्षेत्रों में व्यापक भ्रष्टाचार के दर्शन हुए। देश के नेतागण अवसरवादी, भ्रष्ट और दल-बदलू हो गए। भ्रष्ट राजनीति और अफसरशाही ने विकास योजनाओं का लाभ साधारण जनता तक नहीं पहुँचने दिया ...जातिवाद, भाई-भतीजावाद, क्षेत्रीयता, गुटबंदी, धूसखोरी, कालाबाजारी आदि अनेक सामाजिक बुराइयों ने देश में गहरी पैठ बना ली।``60
इन सभी परिस्थितियों के बीच अमरकांत अपना लेखन कार्य शुरु करते हैं, अत: 'नयी कहानी` के कथ्य में स्वरुपों से उनका प्रभावित होना सहज था। फिर भी उनके कथ्य में कुछ बातें- इस 'नयी कहानी` से अलग दिखायी पड़ती हैं। जैसे कि,
1) अमरकांत महानगरीय जीवन के चित्रण को अपनी कथा का विषय नहीं बनाते हैं। क्योंकि महानगरों के परिवेश में खुद नहीं रहे। वे गाँव-देहात और कस्बों के परिवेश से अच्छी तरह परिचित थे अत: उन्होंने इन गाँव-देहातों और कस्बों का ही चित्रण उचित समझा।
2) महानगरीय जीवन के चित्रण से अमरकांत दूर रहे अत: यहाँ व्याप्त अजनबीपन एवम् एकाकीपन का भी चित्रण उन्नके कथा साहित्य में -नहीं मिलता। यद्यपि छोटे कस्बों के संदर्भ कई बार कुछ ऐसे पात्रों का संक्षेप में चरित्रांकन अवश्यक हुआ है।
3) अमरकांत के यहाँ यौन समस्या, कामुकता आदि बातों का चित्रण बहुत संयमित रुप में हुआ है। जबकि 'नई कहानी` के कई कथाकारों ने बड़ी युक्तता एवम् विस्तार के साथ इन बातों का चित्रण किया है।
4) अमरकांत के कथा साहित्य में कोरी भावुकता कम नजर आती है। वे सप्रयास नाटकीय रुप से पात्रों की परिस्थितियों में बदलाव नहीं लाते बल्कि उसकी परिस्थितिगत जटिलता को अधिक बढ़ाते ही जाते हैं।
5) अमरकांत ने आर्दश और कल्पना के माध्यम से कथ्य के अंतर्गत बदलाव नहीं लाया। उनके कई मध्यवर्गीय पात्र यद्यपि आदर्शो की बात करते हैं पर वह झलावा या दिखावा मात्र ही जाता है, जो कथानक के समाप्त होने से पहले खुद ही स्पष्ट हो जाता है।
समग्र रुप से हम कह सकते हैं कि -अमरकांत नयी कहानी आंदोलन के कथ्य से प्रभावित तो हुए पर अपने कथासाहित्य की विश्वसानियता, सहजता, सरलता और उसके भारतीय स्वरुप से उन्होंने कोई समझौता नहींंंंंं किया। ये कथ्य संबंधी बातें ही अमरकांत को अपने समकालीनों में एक अलग और विशिष्ट पहचान देती है। अमरकांत का यह कथ्य संबंधी दृष्टिकोण ही उनकी विशेषता भी मानी जा सकती है।
6) संयमित और सांकेतिक चित्रण :-
अमरकांत अपने कथा साहित्य के -माध्यम से मुख्य रुप से मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग के समाज का चित्रण करते रहे हैं।'नयी कहानी` आदोलन की कथ्य- संबंधी कई बातों से प्रभावित होते हुए भी अमरकांत ने अपने लिए मानों एक सीमा रेखा स्वयं निर्धारित कर ली थी। यह- सीमा कथ्य गत चित्रण से संगद्ध दिखायी पड़ता है।
अमरकांत ने कई विषयों पर चित्रण हमशा ही बहुत संयमित होकर किया है। यद्यपि उनके समकालीनों में कई कथाकार उनकी इस सीमा के कारण ही उन्हें भिन्न भी मानते रहे हैं। प्रेम प्रसंग एवम् कामुकता से-भरी स्थितियों का अनावश्यक विस्तार पूर्ण चित्रण करने से अमरकांत हमेशा संकोच करते रहे। कामुकता की भावना- भरी हुई है। कई कहानियों में भी ऐसी स्थितियाँ सामने आयी हैं। पर अमरकांत अपना संयम कहीं नहीं खोते। '' अमरकांत लगातार स्विवर्मनत एक आन्तरिक अनुशासन में जीते हैं, अपने आपको सहेज कर रखते हैं और अपनी संवेदनशीलता को गरिमा के स्तर पर कायम रखने में प्रयत्नशील रहते हैं। हो सकता है उन्हें अपनी इस कोशिश का अहसास न हों, हो सकता है हो।``61
अमरकांत ने वासना या कामुकता संबंधी जो वर्णन किये भी है उसके पीछे दो स्थितियाँ नजर आती हैं। एक तो यह कि इस तरह के चित्रण से वे पात्र विशेष की मन: स्थिति को स्पष्ट कर सकें और दूसरी बात यह कि इस तरह के चित्रण से मानों बतलाना चाहते थे कि पूँजीवादी व्यवस्था के बीच जीता हुए आदमी कितना- आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी होता जाता है। ''हमारी पूँजीवादी व्यवस्था की गिरपत्त में आदमी किस कदर टुच्चा, स्वार्था और आत्म केन्द्रित होता है यह तध्य अमरकांत की कई कहानियों में उभर कर सामने आता है। यह व्यवस्था आदमी के अंदर आत्म-गरिमा के प्रदर्शन का ह्द्म ही नहीं पैदा करती, उपदेशक-और बड़बोलेपन की भूमिका में भी ला खड़ा करती है।``62
संयमित चित्रण के साथ-साथ सांकेतिकता की भी विशेषता अमरकांत के यहाँ कम ही है। जबकि नई-कहानी आंदोलन के कथ्य में 'सांकेतिकता` एक-प्रमुख स्वर था। जबकि अमरकांत की कुछ कहानियों में ही सांकेतिकता दिखायी पड़ती है। 'दोपहर का भोजन` ऐसी ही एक कहानी है। इसीतरह 'असमर्थ हिलता हाथ` 'एक निर्णाय पत्र` और 'दर्पण` तथा 'जाँच और बच्चे` नायक कहानी में कई शैलियों का प्रयोंग होता है अत: वहाँ वर भी सामान्यरुप में यह सांकेतिकता दिखायी पड़ती है। 'आकाशपक्षी`'सुरंग` और 'इन्हीं हथियारों से` जैसे उपन्यासों में अमरकात ने सांकेतिकता का चित्रण किया है।
समग्र रुप से हम कह सकमे हैं कि अमरकांत ने हमेशा खुद को एक 'स्वअनुशासन` में रखा। उनका यही अनुशासन उनके कथ्य साहित्य में भी दिखायी पड़ता है। पे्रम और कामुक स्थितियों का चित्रण उन्हें संयमित रुप से किया है तो'नई कहानी` की बहुप्रचलित सांकेतिक शैली का भी वे बड़े ही संयमित रुप से उपयोग करते हैं।
7) कथा साहित्य का भारतीय स्वरुप :-
अमरकांत के कथा साहित्य की एक सबसे बड़ी-विशेषता यह है कि किसी पात्र विशेष की परेशानियों का असर-उसके पूरे परिवार पर दिखयी पड़ता है। अमरकांत का 'रजुआ` जैसा पात्र भी अपने चाचा को यह सही खबर पहुँचाना चाहता है। कि वह जिंदा है। यद्यपि वह परिवार जैसी इकाई से कोसों दूर है। फिर भी उसे लगता है कि उसके मरने की झूठी खबर के बाद एक सच्ची खबर चाचा तक अवश्य पहुँचनी चाहिए।
अमरकांत के पात्र अपने परिवार से जुड़े है। उन्हें-अपनी सामाजिकता, गाँव-जवार, रीति-रिवाज आदि का खयाल है। पूँजीगत समाज का आत्मकेन्दित पात्र भी अपनी सामाजिक परिधि-को लाँद्यने का खुलेतौर पर प्रयास नहीं कर पाता। विशेष तौर पर मध्यम-वर्ग की यही स्थिति है। अमरकांत ने भारतीय समाज का यही चेहरा अपने कथा साहित्य के माध्यम से सामने लाया है।
आज़ादी के बाद देश में शिक्षा के माध्यम से एक नई स्थिति उत्पन्न हुई। अब स्त्रियों को भी पुरुषों के समान ही शिक्षा लेने की छूट भी। स्त्रियाँ शिक्षा ग्रहण कर रही थी। घर-परिवार के सीमित दायरे से निकलकर उसीलिए ज्ञान-विज्ञान को आत्म-साथ कर रहीं थी। उनका व्यक्तित्व निखर रहा था। गा्रमीण आचलों से आमे युवक शहरों की इन नयी लड़कियों की ओर आकर्षित हो रहे थे। उनके के लिए सर्वस्व व्यागने का संकल्प कर रहे थे। गाँव की अशिक्षित पर संस्कारी और पूरी तरह समर्पित लड़कियों की तुलना में नव युवकों का आकर्षण इन पढ़ी-लिखी स्त्रियों की -तरप अधिक था। इन्हेंं बोलने-बतियाने का तलीका मालूम था। ये देश-विदेश की गंभीर से गंभीर समस्या पर बहज कर सकती थी। पे्रम के उदात्त भाव को समझ सकती थीं। फिर में उन ग्रामीण स्त्रियों की तुलना में आकर्षक और मोहक थीं। इनके- अंदर अदाओं की जादूगरी थी। दूसरी तरफ एक सच्चाई यह भी थी कि अब स्त्रियों के शिक्षित होने और रोजगार तथा शहरीकरण की नयी स्थितियों के बीच भारतीय समाज में कुछ नये संबंध भी बड़ी तेजी से विकसित हो रहे थे। 'प्रेम` कम संबंध ऐसा ही एक अनोखा संबंध था। यह संबंध-परंपराओं और जाति-धर्म के द्यर बंद्यन को तोड़ने के लिए तैयार थी। लेकिन यह तैयारी मानसिक स्तर पर अधिक और ययार्थ रुप में न के बराबर थी। प्यार में बड़ी-बड़ी कजमें-खाने वाला नायक अचानक अपनी परिस्थितियों के आगे मजबूर होकर टूट जाता। वह नामिका को ही असभय औैैैैर संस्कार हीन मानने लगता। कई बार यही प्रेम पारिवारिक दायित्वों के आगे भी दबा दिया जाता। नये और पुराने संबंधों के बीच पिस रहे युवा समाज की इजी अजीवों-गरीब कश्मकश को अमरकांत के अपनी-अधिकांश कहानियों स्वर उपन्यासों के माध्यम से सामने लाया है।
अमरकांत महानगरीय में अकेलेपन और अजनबीपन का चित्रण नहीं करते क्योंकि महानगरों की जीवन शैली पर उन्होंने कथानक नहीं गढ़े हैं। फिर भी छोटे कस्बों और शहरों में रहनेवाले मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय पात्रों के माध्यम से ही अमरकांत कस्बाई या शहरी संस्कृति में पनप रही-नयी विसेगत स्थितियों की तरफ इशारा जरुर करते हैं। आर्थिक एवम् पारिवारिक कारणों से जब कोई व्यक्ति अपना द्यर-गाँव छोड़कर नई जगह आता है तो उसे किस-किस तरह की परेशानियाँ छेलनी पड़ती हैं इसे अमरकांत के कथ्य साहित्य के माध्यम से-आसानी से समझा जा सकता है। 'सुन्नर पांडे की पतोह` जैसे उपन्यासों में इसी समस्या पर विस्तार से चर्चा की गयी है। टूटते संयुक्त परिवारों एवम् बदलते आर्थिक परिदृश्य में रिश्तों को भी किस तरह 'अर्थ` के ही ईद-गिर्द आँका जाने लगा है, इसे अमरकांत ने कई कहानियों के माध्यम से सामने लाया है। ये सब स्थितियाँ भारतीय समाज की वास्तविक तस्वीर दिखलाती हैं।
अत: समग्र रुप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत के कथा साहित्य के माध्यम से भरतीय समाज की वास्तविक तस्वीर उभर कर सामने आती है। अमरकांत के साहित्य का स्वरुप पूर्णत: भारतीय है।
8) भारतीयता के प्रति निष्ठा :-
आजादी के बाद भारतीय समाज में जो बदलाव हो रहा था अमरकांत उसके प्रति सजग थे। सामान्य भारतीय जनमानस की निराशा, हताशा और कुंठा के कारण को वे अच्छी तरह समझ रहे थे। ऐसे में अपने कथा साहित्य के माध्यम से अमरकांत ने पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ-आम आदमी की इन्हीं परेशानियों को मुखर किया। वे यथार्थ-की जमीन पर खड़े थे और सामाजिक शोषण, व्यवस्था-की असफलता को बिना किसी संकोच के अपने-कथ्य के माध्यम से सामने ला रहे थे।
ऐसे में उन्होंने कभी भी कोरी भावुकता, आदर्श एवम् अनौतिक लगनेवाले वासनाग्रस्त स्थितियों का चित्रण अपने साहित्य में नहीं किया। कहीं ऐसे प्रसंग आये भी हैं तो पात्र विशेष की मानसिकता की कलई खोलने के लिए ही। अमरकांत ने संयमित होकर सपाट कथानक के माध्यम से बिलकुल सहज और सरल तरीके से भारतीय समाज में व्याप्त निराशा, हताशा, कुंठा, मोहभंग इत्यादि को कथ्य गत स्वरुप में सामने लाते हैं।
अमरकांत ने ''अपने समाज की वास्तविकता को हिंदी के अधिकांश कहानीकारों की अपेक्षा अधिक गहराई और सच्चाई से देखा है। पुत्र की आर्थिक और सामाजिक उन्नति से उसकी अपेक्षा माँ-बाप को अधिक प्रसन्नता नहीं होगी - ऐसा कौन कह सकता है, और उन्नति की आशा टूट जाने पर उसे पुत्र की अपेक्षा अधिक संताप नहीं होगा - यह कौन मानेगा? लेकीन इसका चित्रण अमरकांत के यहाँ ही मिलता है। माँ-बाप और संतान की जैसी ही स्थिति पति-पत्नी संबंधो की रागात्मकता की भी है। पति के सुख-दुख उसके उत्कर्ष - अपकर्ष का प्रभाव पत्नी पर पति की अपेक्षा कम नहीं पड़ता।``36
अमरकांत के कथा साहित्य में प्यारी बातें दिखायी पड़ती है। फिर ऐतिहासिक पृष्ठभुमि के आधार 'इन्हीं हथियारों से` जैसा-उपन्यास अमरकांत लिखते हैं। विभाजन की-त्रासदी पर 'बिदा की रात` उपन्यास लिखते हैं। टूटते सामंती ढाँचे के बीच नई स्थितियों को स्वीकार करने और न करने की कश्मकश के बीच 'आकाश पक्षी` जैसा उपन्यास अमरकांत ही लिखते हैं।
भारतीय समाज की परंपरा, रीति-रिवाज,संस्कृति, अंधविश्वास, रुढ़ियों, बदलते सामाजिक स्वरुप और नयी व्यवस्था के बीच पनपते-असंतोष, भ्रष्टाचार आदि सभी बातों को ही तो-अमरकांत अपने कथा साहित्य के माध्यम से-सामने लाते हैं। 'लेखन कार्य` को अमरकंात एक-हथियार की तरह उपयोग में ला रहें जो आम भारतीय व्यक्ति की लड़ाई में उसकी तरफ होकर अपने तरीके से उसकी मदद करने के लिए तत्पर है। यह भारतीयता के प्रति उनकी लेखकीय निष्ठा ही कही जायेगी।
9) प्रतीकात्मकता, बिंबात्मकता व सांकेतिकता :-
1) प्रतीकात्मकता :-
प्रताकात्मका की व्यापक चर्चा हम इसी अध्याय के अंतर्गत 'प्रतीकात्मक शैली`के रुप में कर चुके हैं। नई कहानी आंदोलन के कई कथाकारों ने इस शैली का जमकर उपयोग किया। लेकिन उनकी तुलना में अमरकांत के कथा साहित्य में इस प्रतीकात्मक शैली का उपयोंग कम हुआ है। सपाट कथानक के साथ इस शैली के प्रयोग की गुंजाइश थी कम ही थी।
अमरकांत के यहाँ यह शैली कहानियों के-नाम आदि में स्पष्ट होती है। 'जिंदगी और जोंक` 'गगन बिहारी` 'चाँद` और 'मूस` कुछ ऐसे ही शीर्षक हैं जो कथानक के अनुरुप बड़े ही प्रतीकात्मक स्वरुप में सामने आते हैं। 'इन्हीं हथियों से`'सुरंग` 'सूखा पत्ता` 'आकाश पक्षी` 'सुखजीवी` और 'कँटीली राह के फूल` जैसे उपन्यासों के शीर्षक भी अपनंे कथानक के संदर्भ में प्रतीकात्मक ही हैं।
पात्रों के भावों के सूक्ष्म चित्रण के लिए भी अमरकांत कहीं-कहीं प्रतीकात्मकता का सहारा लेते हैं। लेकिन प्राय: ऐसे अवसरों पर वे पात्रों की -भाव-भंगिमा आदि का चित्रण जानवरों के साथ करने लगते हैं। जिससे प्रतीकात्मकता का गांभीर्य खत्म हो जाता है और व्यंग्य का स्वरुप अधिक मुखर हो जाता है। यह अमरकांत की अपनी शैली गट विशेषता है जो उन्हें अन्य कथाकारों से अलग एक पहचान देती है।
2) बिम्बात्मकता :-
कथा साहित्य के अंदर बिम्बात्मकता कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए उपयोग में लायी जाती-है। 'नयी कहानी` के कथा साहित्य में इसका भी उपयोग खूब हुआ। सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति में-बिम्बों का प्रयोग बड़ा कारगर सिद्ध हुआ। प्राचीन मान्य बिम्बों के स्थान पर नए बिम्बाँ को लेकर खूब प्रयोग किये गये। कविता की ही तरह-कथा साहित्य में भी।
''अमरकांत ने सादृश्यविधान के लिए-उपमा का प्रयोग सबसे अधिक किया है। उनकी उपमाएँ अपनी गत्वरता और दृश्यता के कारण बिंब ही प्रतीत होती हैं। उन्हें उपमा-मूलक बिंब कहा जा सकता है। अमरकांत के बिंब अन्य कहानीकारों से इस अर्थ में विशिष्ट हैं कि वे अधिकांशत: उनकी कहानियों के पात्रों से संबंधित हैं जैसे उनके रुप आकार, वेशभूषा, सौंदर्य, विभिन्न चेष्टाएँ जैसे-उनकी चाल, द्यूरना, मु्ँह तानना, काँपना, देखना, खाना, बीनना, दौड़ना, झाँकना, सरकना, मुसकराना, हिलना, प्रहार करना, सिर हिलाना, हटपटाना आदि; उनकी आवाजें जैसे हँसी, चिल्लाना, बोलना, सिसकना, किलकारी, हिचकी, रोना, गरजना-तड़पना आदि; पात्रों की ही कार्य-पद्धति, व्यवहार अन्य प्रकार के बिम्ब बहुत कम है।``64
इस तरह स्पष्ट है कि अमरकांत के -कथा साहित्य में पात्रों को पशुओं के रुप में दी जाने-वाली उपमाओं में ही बिम्ब का स्वरुप मुख्य रुप से सामने आता है। ये उपमाएँ पात्रों के बात, व्यवहार, भंगिमा आदि से संबंधित हैं।
3) सांकेतिकता :-
सांकेतिक शैली का भी उपयोग नई कहानी के कथाकारों द्वारा खूब हुआ। लेकिन अमरकांत के कथा साहित्य में सांकेतिकता कम ही दिखायी पड़ती है। कारण यह है कि अमरकांत के पात्र मुख्य रुप से मध्यवर्गीय एवम् निम्नमध्यवर्गीय हैं।
मध्यवर्गीय पात्रों के यहाँ दिखावा या आडेबर अधिक है। अत: उनके यहाँ बड़बोलापन भी अधिक है। परंपरा, परिवार, समाज, मान्यता आदि के नाम पर कहने-सुनने के लिए बहुत कुछ है। ये अलग बात है कि उनका व्यक्तित्व एवम् चरित्र अनेकानेक कुंठाओं एवम् चिताओं के बीच तड़पता रहता है। निम्न मध्यवर्गीय पात्र परिस्थितियों के-अनुकूल बड़ी सहजता से अपने आप को बदल-लेते हैं। उनके यहाँ वे चोचले नहीं सुनायी नहीं पड़ते तो मध्यवर्गीय पात्रों के यहाँ होते हैं। अत: संकेतो में कुछ कहते-सुनने की गुंजाइश-अमरकांत के यहाँ कम हो जाती है। फिर सूक्ष्म भावों, नायक-नायिका के बीच संवादों में कई जगह-अमरकांत ने इस सांकेतिक शैली का उपयोग-किया है किंतु बहुत ही संयमित रुप में।
इस तरह हम कह सकते हैं कि-अमरकांत के कथा साहित्य में प्रतीकात्मकता, बिम्बात्म-कहा और सांकेतिकता का उपयोग-उनके समकालीन कथाकारों की तुलना में कम हुआ है। फिर भी कथानक की आवश्यकतानुसार कई स्थानों पर इन शैलियों का प्रयोग उन्होंने किया है। लेकिन इनका प्रयोग बहुत ही सीमित रुप में हुआ है।
10) व्यंग्यात्मकता :-
अमरकांत अपने कथासाहित्य के माध्यम से मुख्य रुप से मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग को चित्रित करते हैं। समाज का यह वर्ग हताश और निराश था। अपने आप को ग्गा हुआ महसूस कर रहा था। समाज की तथाकाकित विकास की मुख्य धारा से वह अपने आप को जोड़ ही नहीं पा रहा था। विशेष तौर निम्नमध्यवर्ग। नए सामाजिक-परिवर्तनों के बीच जैसे उसका और नुकसान ही हो रहा था। 'मूस` कहानी की परबतिया को जब यह मालूम पड़ता है कि शहरों में नल लग रहें हैं जिससे काँवर से पानी भरने का मूस का काम भी खत्म हो गया तो वह चारें तरफ- चिल्लाते हुए कहती,''सरकार कोठिय़ा पर भर-बोरसी अँगार डालूँ!.......बाल-बच्चे नहीं हैं क्या उसके?अब किसी का धरम-करम नहीं बचेगा!.........डोम-चमार सभी एक ही द्याट पानी पीएँगे!....हैजा-पिलेक सेे हजारों मनई मरेंगे! हे गंगा मैया! हे बाबा बलेसरनाथ!जो किसी की रोजी छीने उसकी आँखों में कच्चा बैठे ! उसके अंग-अंग में कोढ़ फूटे!.....।``65
समाज का निम्नमध्य वर्ग विकास की मुख्य धारा को पहचान ही नहीं पा रहा था। समाज का निम्नवर्ग तथाकथित विकास की मुख्यधारा को पहचान नहीं पा रहा था। उसे देख ही नहीं पा रहा था, अत: इससे उसके जुड़ने और लाभान्वित होने का प्रश्न ही उठता था। बाजारवादी संस्कृति तेजी से समाज के ढाँचे को बदलना चाह रही थी। इन सारी विरोधाभासी स्थितियों का संबंध व्यंग्यात्मकता और नाटकीसता से अपने आप ही जुड़ जाता है। समाज में व्याप्त कथनी और करनी के बीच के अंतर को साहित्य में व्यंग्य और नाटकीय स्वरुप में ही दिखलाया जा सकता है। अमरकांत के कथ्य साहित्य में भी यही नाटकीयता और व्यंग्यात्मकता हमंें दिखलायी पड़ती है। न केवल अमरकांत अर्थात पूरे के पूरे 'नई कहानी आंदोलन` की हम बात करे तो पायेंगे कि समाज में व्याप्त इज दो-मुँहेपन, कथनी-करनी के अंतर और आदर्शो के नाम पर अपना उल्लूसीधा करनेवालों की स्थितियाँ का चित्रण यहाँ खूब हुआ है। लगभग सभी कथाकारों ने व्यंग्य और तारकीयता के माध्यम ऐसी ही स्थितियों को सामने लाया है।
अमरकांत के कथासाहित्य में नाटकियता एवम् व्यंग्य स्पष्ट दिखायी पड़ता है। अमरकांत के निम्नवर्ग के पात्रों को जीवन में अगर थोड़ी सी सफलता कभी मिलती हुई दिखायी भी पड़ती है तो अमरकांत उसका वर्णन व्यंग्य के रुप में करते हैं। अक्सर किसी न किसी जानवर के उदाहरण से। ऐसा शायद इसालिए क्योंकि इससे उनके प्रति दया और सहानुभूति तो जगती ही है पर उनकी नियती के प्रति भी रचनाकार की सूक्ष्म दृष्टि से पाठक अवगत होता रहता है। अमरकांत के यहाँ यह द्वंद्वात्मकता हमेशा बनी रहती है। विडंबनाओं को हास्यास्पद बनाकर अमरकांत एक तरफ उन्हें निखारते हैं तो दूसरी तरफ उस पात्र विशेष की यातना को और अधिक आर्मिक बनाकर पाठकों के जायमें प्रस्तुत करते हैं।
अमरकांत के यहाँ व्यंग्य उपर्युक्त कारणों से ही अधिक मुखरित हुआ है। व्यंग्य के साथ-साथ हास्य का पुट भी कई स्थानों पर उभर आता है। अपने- पात्रों की भाव-भंगिमाओं के लिए वे जिस प्रकार पशुओं के आचरण की उपमा देते हैं उसमें व्यंग्य के साथ- साथ एक गहरी सोच भी होती है। मानवीयता और -पशुता के बीच का द्वंद्व वे इसीतरह सामने लाते हैं। पूँजी-वादी समाज में खोखले आदर्शी एवम् नैतिकता के -नामपर सामान्य व्यक्ति का इजकदर शोषण होता है कि उसमें और पश्ुओं में अंतर बहुत कम हो जाता है। -'रजुआ` और 'मूस` जैसे पात्र पशुतुल्य जीवन ही -तो जीते हुए दिखायी पड़ते हैं। ऐसे में उनकी भाव-भंगिमाओं के लिए पशुओं का उदाहरण बड़ा तर्क संगत है, प्रतिकात्मक है और सांकेतिक थी। -व्यंग्यात्मक तो है ही। इस तरह के समन्वित प्रयोग करते हैं।
इस तरह हम समग्र रुप से कह सकते हैं कि अमरकांत ने व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग बड़ी ही कुशलता के साथ किया है। वे जिस तरह के-समाज का चित्रण करते हैं वहाँ व्यंग्य ही सबसे कारगर साधम हो सकता है। अमरकांत का -व्यंग्य, सिर्फ व्यंग्य न होकर बिम्ब भी है, प्रतीक भी है साथ ही साथ मनुष्यता एवम् पशुता के बीच समाज में चल रहे संघर्ष की तरफ संकेत भी है।
11) मनोवैज्ञानिक विश्लेषण :-
'नयी कहानी आंदोलन` का संबंध मनोविज्ञान से भी रहा। इसके भी दो प्रमुख कारण रहे। एक तो यह कि व्यवहार की सूक्ष्म विवेवना के लिए लेखकों को इसका सहारा लेना पड़ा दूसरा यह कि -पात्रों की मानासिक कुंठा, अनेकों असंगत व्यवहार आदि के स्वरुप को बताते के लिए भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ही आवश्यक था। क्योंकि मनुष्य के व्यवहार और मानसिक स्थितियों का अध्ययन मनोविज्ञान की-ही परिभाषा है। विद्वान मनोविज्ञान की परिभाषा देते हुए लिखते हैं कि ,''ूम कमपिवदम चेलबीवसवहल ंे जीम ेबपमवदबम वि इमींअपवत ंदक उमदजंस चतवबमेेमेण् ंसजीवनही जीपे कमपिवदपजवद मउचींेप्रमे इींंअपवतए पज कवेम उवज तनसम वनज जीम तपबी पददमत सपमि जींज ूम ंसस मगचमतपमदबमेय पज पदबसनकमे कतमंउेए कंलकतमंउे ंदक पददमत मगचमतपमदबमेण्श्श्66
मनोविज्ञान की उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है नयी कहानी आंदोलन में पात्रों के व्यवहार और-उनकी असंगत मानसिक स्थितियों का जो चित्रण प्रारंभ हुआ, वह सब मनोविज्ञान के ही अध्ययन का विषय है। आगे चलकर कहानी में यह मनोवैज्ञानिकता और भी हावी होती चली गयी। फैंटेसी, एब्सर्डिटी आदि बाते विस्तार के साथ साहित्य में अपनी दखल बढ़ा रहे थे। कई मनोवैज्ञानिक विश्लेषण हिदी के सिद्धांत भी साहित्मिक कृतियों की समीक्षा के लिए अपनाये जाने लगे। फ्रायड का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धात इसका एक उदाहरण माना जा-सकता है। मनोवैज्ञानिकता से युक्त कथानकों में ''एक साधारण औसत व्यक्ति का चित्रण नहीं होता, बल्कि असाधारण व्यक्तियों को लेकर ही उनका सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन किया जाता है। जिस प्रकार समाजवादी यथार्थवाद मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित है, उसी प्रकार मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार 'फ्रायड` के सिद्धांतो से प्रभावित हैं।``
अमरकांत भी पात्रों की असंगत मन: स्थिति के लिए जो चित्रण सामने लाते वह मनोविज्ञान की भाषा में 'एब्सर्डिटी` कहलाती है। साथ ही अपने पात्रों की-भाव-भंगिता, विचार आदि का विवेचन अमरकांत बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ करते हैं। अमरकांत इस क्षेत्र में अमरकांत अन्य कहानीकरों से इस रूप में भिन्न हैं कि जहाँ उनके समकालीन पात्रों के असामान्य मनोविज्ञान का कुशल चित्रण करते हैं वही अमरकांत अधिकांशत: पात्रों के सामान्य मनोविज्ञान का असाधारण चित्रण करते हैं। इसका कारण यह है कि अमरकांत जिस वर्ग (निम्न मध्यवर्ग) के जीवन का चित्रण अपनी कहानियों में करते हैं वहाँ यौन विषयक कुंठाओं के लिए अवकाश नहीं। वे आर्थिक अभाव से उत्पन्न स्थितियाँ हैं। जिन पर बैठकर उन्हें बौद्धिक चिंतन नहीं करना है बल्कि झेलना है।``68 ये सारी स्थितियाँ अमरकांत के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण को उनके समकालीनों से अलग एक नया स्वरूप प्रदान करती है।
अमरकांत के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण काही परिणाम है कि उनके ''पात्र अपना निजी व्यक्तित्व और विशिष्टताएँ रखते हुए भी एक सम्पूर्ण वर्ग या समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। 'डिप्टी कलक्टरी` के शकलदीप बाबू गरीबी और तंगहाली की जिंदगी में भी अपने बेटे नारायण को 'डिप्टी कलक्टर` बनते देखना चाहते हैं पर मोह भंग और निराशा के कारण विश्वास ही नहीं कर पाते कि ऐसा हो सकता है। शकलदीप बाबू अपने पुत्र में सपने देखते रहते हैं और सफलता की कामना भगवान से कते रहते हैं।``69 इसी तरह के कई अन्य पात्र भी हैं जिनकी मनोदशा का सूक्ष्म विवेचन अमरकांत करते हैं। 'मूस` , 'रजुआ`, 'सुंदरलाल`, 'आनंद मोहन`, 'सिद्धेश्वरी`, 'बाबू हृदयनारायण`, 'ज्ञान`, 'राजशेखर`, 'मदमस्त` और 'देवकी नंदन`, 'विकल` उलके कथा साहित्य के कुछ ऐसे ही पात्र हैं।
समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत ने भी अपने पात्रों का बड़ा ही सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण किया हैं। पात्रों की विसंगत स्थितियों के रूप में वह चित्रण सामने भी आया है। अपने पात्रों की सामान्य मन:स्थितियों को अमरकांत बड़ी गहनता से प्रस्तुत करते हैं। वे मनोविज्ञान की जटिलता को पात्रों पर नहीं लादते अपितु पात्रों के साधारण व्यवहार को मनोविज्ञान की असाधारण स्थितियों में आँकने का प्रयास करते हैं।