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Sunday, 17 July 2011

अमरकांत के संदर्भ में



       अमरकांत का जन्म 1 जुलाई 1925 को उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिले बलिया के रसड़ा तहसील के अंतर्गत आनेवाले भगमलपुर नामक गाँव में हुआ। सीताराम वर्मा और अनन्ती देवी के पुत्र के रूप में जन्में अमरकांत के बचपन का नाम श्रीराम रखा गया, श्रीराम वर्मा। अमरकांत के पिता का सनातन धर्म में गहरा विश्वास था किंतु कर्मकांडों व धार्मिक रूढ़ियों में नहीं। उन्होंने अपने सभी बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलायी।
       अमरकांत की प्रारंभिक शिक्षा 'नगरा` के प्राइमरी स्कूल से शुरू हुई। सन 1946 ई. में अमरकांत ने बलिया के सतीशचन्द्र इन्टर कॉलेज से इन्टरमीडियेट की पढ़ाई पूरी कर बी.ए. करने इलाहाबाद आ गये। यहाँ से बी.ए. करने के बाद नौकरी की तलाश में वे आगरा गये। आगरा से निकलने वाले 'दैनिक` में अमरकांत को नौकरी मिल गई। आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकों में अमरकांत का आना-जाना शुरू हुआ। यहीं पर उनकी मुलाकात डॉ. रामविलास शर्मा, राजेन्द्र यादव, रवी राजेन्द्र, रांगेय राघव, घनश्याम अस्थाना, पद्मसिंह शर्मा 'कमलेश` और ऐसे ही कई अन्य लोगों से हुई। अपनी पहली कहानी 'इंटरव्यू` अमरकांत ने यहीं की मीटिंग में सुनाई।
       आगरा में तीन साल रहने के बाद वे वापस इलाहाबाद आ गये। इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश से अमरकांत अच्छी तरह जुड़ गये। भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, शमशेर, अमृतराय, श्रीकृष्णदास और नेमीचन्द्र जैन जैसे साहित्यकारों से उनका परिचय इलाहाबाद में ही हुआ। 1954 में अमरकांत 29 वर्ष की आयु में हृदय रोग के शिकार हो गये। नौकरी छूट गयी फिर लंबे समय तक बलिया में ही रहना पड़ा। आर्थिक तंगी विकट थी, दौड़-भाग का काम कर नहीं सकते थे, ऐसे में निराशा और हताशा के बीच अपनी लेखनी को ही अमरकांत अपने सहारे और लड़ाई की लाठी बनाते हैं।
       साहित्य के क्षेत्र में यह समय 'नई कहानी आंदोलन` का था। 'नई कहानी` का प्रारंभ 1954 ई. के आस-पास माना जाता है। भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा संपादित 'नयी कहानी` पत्रिका का प्रकाशन 1956 ई. में हुआ। नयी कहानी को व्यापक प्रतिष्ठा 1956 के बाद ही मिली। निश्चित तारीखों के आधार पर 'नयी कहानी` का कालखण्ड निर्धारित करना मुश्किल है। फिर भी अध्ययन की सुविधानुसार सन् 1954 से 1963 तक के पूरे कालखण्ड को नयी कहानी का समय कहा जा सकता है। इस नयी कहानी के पीछे 'नयेपन` का एक सामूहिक और सचेत आग्रह था। आज़ादी के बाद देश का मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग जिस यथार्थ से जूझ रहा था, उसी यथार्थ की अनुभूति को नई कहानी आंदोलन के कथाकारों ने अपने कथा साहित्य का विषय बनाया। अमरकांत भी इसी परिवेश में अपना लेखन कार्य प्रारंभ करते हैं। साहित्य सृजन को एक सामाजिक दायित्व मानते हुए उन्होंने अपनी लेखनी को ही अपना हथियार बनाया। आम आदमी के संघर्ष में अमरकांत इसी हथियार के साथ उनके पक्ष में लड़ने के लिए तैयार हुए। विगत 50-60 वर्षो से लगातार अमरकांत एक सच्चे साधक के रूप में अपनी साहित्य साधना में लगे हुए हैं। बीमारियों और आर्थिक तंगी से जूझते हुए भी उन्होंने अपने रचना क्रम को कभी प्रभावित नहीं होने दिया। रचनाशीलता के प्रति उनकी यह प्रतिबद्धता बेजोड़ है।
       आज़ादी के साथ देशवासियों ने कई सपने सँजोये हुए थे। उन्हें यह विश्वास था कि स्वतंत्र भारत में उनके सारे सपने पूरे होंगे। उन्हें तरक्की के नये अवसर मिलेंगे। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाएँ सभी को मिलेंगी। लेकिन आज़ादी के मात्र 10-15 सालों में ही आम आदमी का मोह भंग हो गया। वह अपने आप को ठगा हुआ महसूस करने लगा, टूटते संयुक्त परिवार, आर्थिक परेशानियाँ, पुरानी मान्यताओं और रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, देश का विभाजन, आर्थिक परेशानियों का संबंधों पर पड़ता प्रभाव, बेरोजगारी, संत्रास, कुंठा, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, लालफीताशाही, अवसरवादिता और आत्मकेन्द्रियता के अजीब से ताने-बाने में समाज की स्थिति विचित्र थी।
       नई कहानी आंदोलन के कथाकारों ने समाज के इसी यथार्थ को अपने कथानक और कथ्य के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। इन नई स्थितियों ने नए कथ्य और शिल्प की माँग की। सूक्ष्म कथानक, एब्सर्डिटी, सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता, व्यंग्यात्मकता, बिंबात्मकता, आधुनिक महानगरीय जीवन में बढ़ता अकेलापन और अजनबीपन, व्यर्थता-बोध, स्त्री-पुरूष प्रेम संबंध, प्रेम के नाम पर वासनाओं की पूर्ति, सुविधाओं से पूरी तरह वंचित निरीह पात्रों का चित्रण, बेरोजगारी, कामकाजी स्त्रियों का दोहरा शोषण, पूँजीवादी समाज में बढ़ता शोषण, मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज का चित्रण, आदर्श और नैतिकता की बातों के पीछे का खोखलापन, शोषण के शिकार पात्रों की चारित्रिक जटिलता, दोहरा व्यक्तित्व, मनोवैज्ञानिकता, यौन-कुंठा और ऐसी ही कई अन्य बातों को नई कहानी आंदोलन के कथाकारों ने अपने कथासाहित्य का विषय बनाया।     
       समाजवाद, स्वतंत्रता, आथ्र्ािक स्वतंत्रता और सबके साथ समान व्यवहार जैसी बातों के साथ अमरकांत बडे हो रहे थे। हर सामान्य भारतवासी की ही तरह अमरकांत भी आजाद़ी के लिए उत्सुक थे। सन 1946 में जब यह करीब-करीब निश्चित हो गया कि भारत को आजाद़ी जल्द ही मिल जायेगी तो उन्होंने अपना रूका हुआ अध्ययन कार्य आगे बढाय़ा और अपने विवाह की भी स्वीकृति परिवारवालों को दे दी। लेकिन विभाजन की जिस त्रासदी के साथ यह आज़ादी मिली, उसने अमरकांत को बुरी तरह प्रभावित किया। इस विभाजन की त्रासदी का उनका दुख 'बिदा की रात` नामक उपन्यास में देखा जा सकता है। आज़ादी के बाद भाषावाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, जातिवाद, अलगाववाद और भ्रष्टाचार ने जिस तरह देशभर में अपनी जड़े जमायी, उसने हर आज़ादी के मतवाले को निराश किया।
       इस निराशा के बीच उन्होंने लेखनी के माध्यम से सामाजिक स्थितियों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने का निर्णय लिया। अमरकांत प्रेमचंद के साहित्य से बहुत प्रभावित थे। प्रेमचंद जैसे कथाकारों के साहित्य के माध्यम से ही समाज में व्याप्त अंधविश्वास, शोषण और कुरीतियों के प्रति उनकी अपनी एक दृष्टि विकसित हुई। अमरकांत ने साहित्य सृजन के जो आधारभूत तत्व माने हैं उनमें गहरी संवेदना, सामाजिक यथार्थ की समझ तथा ऐतिहासिक एवम् प्रगतिशील जीवन दृष्टि प्रमुख है। यथार्थ से जूझते हुए व्यक्ति के अंदर भी कतिपय आदर्शो को वे आवश्यक मानते हैं। अन्यथा संघर्ष के बीच में संघर्षकर्ता के पथ भ्रष्ट होने की संभावना अधिक रहती है। अमरकांत विभिन्न विचारधाराओं से प्रभावित होने की बात तो स्वीकार करते हैं, पर किसी 'वाद विशेष` की चार दिवारी में अपने आप को कैद करना पसंद नहीं करते। फिर भी अमरकांत को जनवादी विचारधारा का प्रगतिशील दृष्टिवाला लेखक कहा जा सकता है। उनके अंदर सहमति का साहस और असहमति का विवेक समान रूप से विद्यमान है। इसी कारण नयी कहानी आंदोलन से प्रभावित होते हुए भी उन्होंने अपने समकालीन लेखकों के बीच अपनी एक विशेष पहचान बनायी।
       अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से मुख्य रूप से मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया। उच्चवर्ग का भी चित्रण मिलता है पर मुख्य रूप से मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज पर ही वे अधिक केन्द्रित रहे। 'आकाश पक्षी` जैसे उपन्यास के माध्यम से वे एक उच्चवर्ग के सामंती विचारधारा वाले परिवार को विस्तार से चित्रित करते हैं। इसी तरह उनकी कई कहानियों में भी उच्च वर्ग का जिक्र प्रसंगों के अनुरूप दिखलायी पड़ता है। मध्यवर्ग में भी निम्नमध्यवर्ग के पात्र उन्हें अधिक प्रिय रहे। सामाजिक स्थितियों के चित्रण के संबंध में यह अमरकांत की अपनी एक निर्धारित सीमा थी, जिसके अंदर रहते हुए उन्होंने इस समाज को जितने विस्तार के साथ कथा साहित्य में प्रस्तुत किया, उतना विस्तार उनके समकालीनों में किसी अन्य के कथा साहित्य में नहीं दिखायी पड़ता। अमरकांत 'छोटे दायरे` के बड़े लेखक नहीं अपितु अपने दायरे के बड़े लेखक हैं। उनका जो दायरा है वह उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता से जुड़ा हुआ है। फिर भारतीय समाज का चित्रण करते हुए अगर कोई लेखक मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग को केन्द्र में रखता है, तो उसका दायरा छोटा कैसे कहा सकता है। भारत में तो इसी वर्ग का दायरा सबसे बड़ा है। इसलिए अमरकांत को 'छोटे दायरे` का नहीं अपितु अपने दायरे का बड़ा लेखक कहना अधिक तर्कसंगत लगता है।
       अमरकांत के संदर्भ में एक बात और हमेशा कही जाती रही है कि उन्होंने बड़े महानगरों के परिवेश को कभी केन्द्र में रखकर कथानक नहीं लिखे, अत: महानगरीय जीवन की विसंगतियों, यहाँ पनप रहे अकेलेपन और अजनबीपन तथा यौन कुंठाओं को चित्रित करने के लिए उनके कथा साहित्य में कभी 'स्पेस` नहीं रहा। यह बात सच है लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि जिन कस्बों और छोटे शहरों का चित्रण अमरकांत ने किया है, उन्हीं के माध्यम से उन्होंने शहरीय जीवन की कई विसंगतियों को सामने लाने का प्रयास किया है। शहरों में रोजगार की समस्या, आवास की समस्या, मजदूरों का शोषण, शहरों की अर्थप्रधान संस्कृति और ऐसी ही कई अन्य बातों को अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से रेखांकित करने का प्रयास किया है। इसलिए यह कहना कि अमरकांत शहरी जीवन की विसंगतियों को चित्रित नहीं कर पाये हैं, यह उचित नहीं प्रतीत होता। अमरकांत अपने कथा साहित्य के माध्यम से आम आदमी की संवेदनाओं को बड़ी ही कुशलता से प्रस्तुत करते हैं। फिर वे पात्र गाँवों के हों, कस्बों के हों या फिर छोटे शहरों के। अमरकांत के पात्रों की चारित्रिक जटिलता कभी भी काल्पनिक नहीं रही। बहुस्तरीय शोषण, मूल्य हीनता और मोहभंग जैसी जटिल स्थितियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण अमरकांत ने प्रहारधर्मी व्यंग्यों के माध्यम से किया है।
       अमरकांत के कथा साहित्य में भारतीयता की छाप है। वे एक भारतीय व्यक्ति की भावनाओं, संस्कारों, भावुकता और संकोच को अच्छी तरह समझते हैं। साथ ही साथ इस समाज में स्वीकृत - अस्वीकृत बातें, समाज में व्याप्त रूढ़ियाँ और अंधविश्वास, तथा ऐसी ही अनेकों बातें उनसे अछूती नहीं रही हैं। इन सबको समझते हुए अमरकांत ने भारतीय जनमानस में वर्जित माने जानेवाले विषयों के चित्रण में पूरा संयम दिखाया। अमरकांत यथार्थ के समर्थक तो हैं, लेकिन वे सामाजिक संदर्भों में उपयोगी और अनुपयोगी यथार्थ के बीच के अंतर को अच्छी तरह समझते भी हैं। स्त्री-पुरूष प्रेम संबंध, यौन कुंठा, कामुकता जैसी बातों का चित्रण उन्होंने बड़े ही संयमित रूप में किया है।
       भारत को धर्म और दर्शन के देश के रूप में जाना जाता रहा है। धर्म की आड़ में इस देश को बाँटने का प्रयास सदैव ही होता रहा है। आज़ादी के पहले धर्म के नाम पर ही इस देश का विभाजन हुआ। धार्मिक आडंबर, कर्मकांड, अंधविश्वास, रूढ़िया, अनुचित परंपरा का पालन, लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ और सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने के लिए धर्म का सहारा राजनेता और स्वार्थी पूँजीपति हमेशा से ही लेते रहे हैं। समाज विरोधी लोग धार्मिक भावनाएँ भड़काने का काम करते रहे हैं। अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में इन दोहरे चरित्रवाले राजनेताओं, पूँजीपतियों एवम् समाजसेवियों को बेनकाब करने का काम किया है। ईश्वर और भाग्य जैसी बातों को समाज का शोषक वर्ग किस तरह अपने पक्ष में भुनाने का काम करता है, इसे भी अमरकांत स्पष्ट करते हैं। सिद्धांत, कर्तव्य, उदारता और आदर्श जैसी बातों को शोषक वर्ग अपने फायदे के लिए ढाल की तरह उपयोग में लाता है। इन तमाम बातों को अमरकांत ने बड़ी सूक्ष्मता के साथ चित्रित किया है।
       ठीक इसी तरह अमरकांत अपने कथा साहित्य में जो परिवेश चित्रित करते हैं, वह उनका अपना ही परिवेश रहा। अर्थात् वे जिस तरह के सामाजिक परिवेश में स्वयं रहते रहे, उसी को उन्होंने अपने कथा साहित्य में भी स्थान दिया। इलाहाबाद, आगरा, लखनऊ, बलिया और बनारस जैसे शहरों का और इनसे जुड़े ग्रामीणांचलों का ही ज्यादा तर जिक्र अमरकांत के कथा साहित्य में मिलता है। अमरकांत ने अपने जीवन का लंबा समय इन्हीं स्थानों पर बिताया है। विशेष तौर पर बलिया और इलाहाबाद। सामाजिक जीवन एवम् संबंधों की व्याख्या के लिए समाज ही साध्य होता है, इस बात को अमरकांत ने अपने साहित्य के माध्यम से सही साबित किया है। एक जुझारू, कर्मठ और जागरूक साहित्यकार के रूप में अमरकांत ने अपना दायित्व बखूबी निभाया है। उनके साहित्य में जो विश्वसनीयता दिखायी पड़ती है, उसका भी यही कारण है कि उन्होंने कभी भी काल्पनिक परिवेश को आधार बनाकर कथानक नहीं गढ़ा। अमरकांत ने अब तक कुल 11 उपन्यास लिखे हैं और उनकी कहानियों की संख्या 100 के करीब है। इस पूरे कथा साहित्य का सामाजिक परिवेश मुख्य रूप से मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय भारतीय समाज से संबद्ध रहा है। अमरकांत स्वयं एक मध्यवर्गीय परिवार से आते हैं। अत: उनके कथा साहित्य में भी वही परिवेश दिखायी पड़ता है जो उनके अपने निजी जीवन से संबंधित रहा। अब इसे कोई उनका सीमित दृष्टिफलक माने तो यह उचित नहीं है। यह उनके सीमित दृष्टिकोण का परिचायक न होकर उनकी साहित्य के प्रति निष्ठा और गंभीरता का द्योतक है।
       अमरकांत के कथा साहित्य में मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग का जो चित्रण हुआ है उसमें इस वर्ग के पात्रों के जीवन में आर्थिक समस्या प्रमुखता से दिखलायी पड़ती है। अर्थ का जीवन में महत्व, अर्थ के आधार पर संबंधोें में आते बदलाव और आदर्श, नैतिकता के साथ-साथ मानवीय मूल्यों का गला घोटता समाज का पूँजीवादी उच्चवर्ग अमरकांत की आँखों में सबसे अधिक खटकता है। यही कारण भी रहा जो उनके संपूर्ण कथा साहित्य में 'आर्थिक मुद्दों` से जुड़ी बातों का चित्रण सबसे अधिक हुआ है। आर्थिक रूप से विपन्न व्यक्ति के संबंध में संपन्न वर्ग मानवीय व्यवहार को भी त्याज्य समझता है। रजुआ, मूस और नौकर कहानी का 'जन्तू` ऐसे ही विपन्न पात्र हैं, जिन्हें मनुष्य तक नहीं समझा जाता। आर्थिक रूप से विपन्न व्यक्ति को प्रेम व स्नेह का भी अधिकार नहीं होता। 'बहादुर` कहानी की निर्मला को कोई समझाता है कि नौकर-चाकर को अपने हाँथ से रोटियाँ बनाकर नहीं देनी चाहिए। महीन खाना खाने से उनकी आदत खराब हो जाती है। इस बात से प्रभावित होकर निर्मला उस छोटे से बच्चे 'बहादुर` के लिए रोटियाँ बनाना बंद कर देती है, और उसे डाँटते हुए कहती है कि वह अपने लिए रोटियाँ खुद बना लिया करे। 'मौत का नगर` कहानी का पात्र 'राम` कर्फ्यु के तुरंत बाद घर से बाहर नहीं जाना चाहता था लेकिन अपनी आर्थिक तंगी के कारण वह मन मारकर डरते हुए घर से बाहर काम पर जाने के लिए निकलता है। 'मकान` कहानी का मनोहर आर्थिक तंगी से जूझ रहा है, इसलिए शकीला के मामू को झूठी चिट्ठी लिखता है कि वह ऑफिस के काम से दो महीने के लिए दिल्ली जा रहा है और शकीला को भी साथ ले जा रहा है। वह ऐसा इसलिए लिखता है ताकि मामू इलाज के लिए उसके पास न आ जायें, वह गंभीर आर्थिक संकट के बीच शकीला के मामू का इलाज करवाने की हालत में नहीं था। ऐसी ही कई अन्य कहानियाँ हैं जिनमें अमरकांत ने आर्थिक समस्या को प्रमुखता से उठाया है। 'ग्रामसेविका`, 'सुरंग`, 'सुन्नर पांडे की पतोह`, 'आकाश पक्षी` और 'इन्हीं हथियारों से` जैसे उपन्यासों में भी यह समस्या प्रमुखता से चित्रित है।
       अमरकांत 'नयी कहानी आंदोलन` के प्रमुख कर्णधारों में से एक हैं। फिर भी उनके मूल्यांकन के लिए 'नयी कहानी` की परिधि ठीक नहीं हैं। क्योंकि अमरकांत का लेखन कार्य पिछले 50-60 वर्षो से लगातार जारी है। युगीन परिस्थितियों के अनुसार उनके विचारों में भी परिवर्तन परिलक्षित होता है। युगीन परिस्थितियाँ हमेशा एक सी नहीं रहती। युग बदलने के साथ-साथ किसी समाज विशेष की परिस्थितियाँ भी बदल जाती हैं। अमरकांत ने अपने समय विशेष की संवेदना को गहराई से समझा है। अमरकांत अपने कथा साहित्य के माध्यम से अपने समय की वास्तविक तस्वीर पेश करने में सफल रहे हैं। मनुष्य के अंदर निहित रागात्मक संवेदना प्रेम और सौंदर्य के द्वारा विकसित होती है। ये रागात्मक संवेदनाएँ ही मानवीय गुणों का विकास करती हैं। ये रागात्मक संवेदनाएँ ही हैं जिनके कारण व्यक्ति अपनी निजता से हटकर पारिवारिक और सामाजिक दायित्व को महसूस करता है। अपने से अधिक दूसरों के बारे में सोचता है। प्रेम के संबंध में अमरकांत खुद 'इन्हीं हथियारों से (पृष्ठ क्रमांक 131)` में लिखते हैं कि, ''प्रेम सिर्फ शारीरिक भूख नहीं हैं, वह ममता भी है, वात्सल्य भी है। एक आध्यात्मिक बुलन्दी है और अपने प्रिय से अभिन्न रहने की तमन्ना और उसके लिए कुर्बानी का संकल्प।`` अमरकांत के पात्रों की एक खूबी यह रही है कि उनके पात्रों के राग-विराग के बीच उन पात्रों का पूरा परिवार समाहित है। अर्थात परिस्थितियों की अनुकूलता या प्रतिकूलता का प्रभाव सिर्फ पात्र विशेष पे न पड़कर उसके पूरे परिवार पर पड़ता है। परिस्थितियों के दबाव में जो परिवार, जो जिम्मेदारियाँ किसी पात्र को खीझ और निराशा से भर देती हैं, वही बातें अनुकूल परिस्थितियों में उसे परिवार से जुड़ने की प्रेरणा भी देती हैं। ये बातें उन सूत्रों की तरफ इशारा करती हैं जो अमरकांत के कथा साहित्य को भारतीयता के निकट लाती हैं।
       बदलते सामाजिक परिदृश्य में 'बाज़ारवाद` अपनी जड़े जमा रहा है। अर्थ प्रधान बन रही सामाजिक व्यवस्था में आदर्श और नैतिकता का धीरे-धीरे पतन हो रहा है। यही कारण है कि सामाजिक मूल्यों में भी लगातार गिरावट आ रही है। भौतिकवादी समाज में भौतिक सुख-सुविधाओं का संग्रह ही हर व्यक्ति का लक्ष्य बनता जा रहा है। 'आत्मकेन्द्रियता` का भाव लोगों में बढ़ रहा है। ऐसे में व्यक्ति विशेष के अंदर बढ़ता स्वार्थ, उसके चरित्र का दोहरापन, उसकी संवेदनाओं में आती गिरावट और भौतिकता की अंधी दौड़ में समस्त मानवीय मूल्यों का बिखराव ही यथार्थधर्मी कथानक के कथ्य में जो मनोवैज्ञानिकता, व्यंग्यात्मकता, बिम्बात्मकता, प्रतीकात्मकता, दोहरा व्यक्तित्व, व्यवस्था में निहित भ्रष्टाचार, शोषित एवम् निरीह पात्र, मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय संवेदना, कथा का भारतीय स्वरूप, पात्रों की चारित्रिक जटिलता और संबंधों की नियती में अर्थ की भूमिका दिखलायी पड़ती है वह इसी गिरते सामाजिक मूल्यों के ही परिणाम स्वरूप है। अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से इन्ही टूटते-बिखरते सामाजिक मूल्यों को सामने लाने का प्रयास किया है।
       शिल्प और विषय वस्तु के संदर्भ में हम कह सकते है कि कृति विशेष के संदर्भ में दोनों का ही महत्व समान रूप से है। किसी को किसी से कम मानकर आँकना सही नहीं है। अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में जिस तरह से शिल्प का उपयोग किया है, वह उनके भावों एवम् संवेदनाओं को समझने में हमारी मदद करता है। निश्चित तौर पर शिल्प और विषय में बुनियादी अंतर है, फिर भी दोनों के महत्व का समान आकलन ही कृति विशेष की समीक्षा को सही दिशा प्रदान करती है। अमरकांत के कथा साहित्य में शिल्प के प्रयोग की सजगता और सहजता दोनों ही हमें दिखलायी पड़ती है। कथानक का सहज, सरल और सुसंगठित प्रवाह और कथ्य में निहित विचारों की गहराई, मनोवैज्ञानिक चिंतन एवम् संवेदनाओं का अपना स्वरूप शिल्प और विषय दोनों ही संदर्भो में अमरकांत की दृष्टि साफ कर देती है। जिस तरह कहानी या उपन्यास के विषय चयन में अमरकांत ने कभी भी कोरी भावुकता एवम् कल्पना को नहीं अपनाया ठीक उसी तरह शिल्प के किसी स्वरूप का भी उपयोग सप्रयास 'प्रयोग` की दृष्टि से उन्होंने नहीं किया। अमरकांत का शिल्प-विधान उनके कथानकों के सर्वथा अनुरूप रहा। विषय की आवश्यकतानुसार उन्होंने शिल्प का चयन किया।
       अमरकांत की कहानियों की मौलिकता एवम् उनकी विश्वसनियता ने सभी का ध्यान आकर्षित किया। उनके प्रारंभिक उपन्यासों की चर्चा कहानियों की तुलना में उतने व्यापक स्तर पर नहीं हुई। लेकिन इधर एक उपन्यासकार के तौर पर भी अमरकांत हिंदी साहित्य में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए हैं। अमरकांत का कथा साहित्य एक लेखक की उसके लेखन की ईमानदारी के प्रति प्रतिबद्धता का साहित्य है। अपने समय और समाज के परिवेशगत यथार्थ से जुड़ते हुए कोरी भावुकता एवम् काल्पनिकता से बचते हुए, अमरकांत अपनी साहित्य साधना में लगे हुए है। आत्मकथ्य और रेखाचित्र शैली का उपयोग उन्होंने अधिक किया है। उपन्यासों में मिश्रित शैली का उपयोग अमरकांत के सभी उपन्यासों में दिखलायी पड़ता है। कहानियों की अपेक्षा अमरकांत के उपन्यासों में शिल्प संबंधी प्रयोग अधिक दिखायी पड़ता है। कथात्मक, पत्रात्मक, दृश्य शैली, स्वप्न विश्लेषण शैली, सांकेतिक शैली, व्यंग्यात्मक शैली, हास्य शैली, प्रतीकात्मक शैली, उद्धरण शैली, रेखाचित्र शैली और समन्वित शैली जैसे कई शैलीगत प्रयोग अमरकांत के कथा साहित्य में परिलक्षित होते हैं।
       अमरकांत के कथा साहित्य की भाषा तत्सम् प्रधान है। डॉ. गोविन्द स्वरूप गुप्त अमरकांत को 'तत्सम् प्रधान लेखक` मानते हैं। अमरकांत की भाषा सरल है और इसकी सरलता ही इसकी सबसे बड़ी शक्ति भी है। कथानक के अनुरूप शब्दों का चयन करने में अमरकांत सजग दिखायी पड़ते हैं। तत्सम् के साथ-साथ तद्भव शब्द, अरबी फारसी के शब्द, अंग्रेजी के शब्द, स्थानीय शब्द, बाजारू एवम् अपशब्द, दिृरुक्त शब्द, निरर्थक शब्द, ध्वन्यार्थक शब्द तथा उन्य विदेशह भाषाओं के शब्द भी अमरकांत के कथा साहित्य में प्रयुक्त हुए है। स्पष्ट है कि शब्दों के प्रयोग को लेकर अमरकांत जितनी सरलता दिखाते हैं, उतनी सजगता भी। इनके अतिरिक्त लोकोक्तियों और मुहावरों का भी वे जमकर प्रयोग करते हैं। बिम्बात्मकता, प्रतीकात्मकता, मिथक योजना, कथा साहित्य में 'एब्सर्डिटी` के तत्वों के साथ-साथ सीमित रूप में सांकेतिकता और पात्रों की मनोस्थिति का मनोवैज्ञानिक विश्लेष्ज्ञण भी अमरकांत बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ करते हैं। व्यंग्य उनका प्रधान हथियार रहा है। भारतीय समाज के मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग को ध्यान में रखते हुए अमरकांत ने कथा साहित्य की रचना की। इस समाज के दुख, पीड़ा, अभाव, शोषण, सपने, संघर्ष, प्रगति, इसका पिछड़ापन, इसकी उदारता, इसकी आत्मकेन्द्रियता और इस समाज का रूढ़ियों, परंपराओं और अंधविश्वास से जुड़े पहलुओं पर अमरकांत ने अपनी पैनी निगाह रखी। हम कह सकते हैं कि इस वर्ग विशेष के जीवन पद्धति को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करने का काम अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से किया।
       इस तरह समग्र रूप में हम कह सकते हैं कि अमरकांत का कथासाहित्य यद्यपि एक दायरे में बँधा हुआ है। लेकिन यह दायरा उनकी क्षमताओं का नहीं अपितु उनके अनुभवों एवम् लेखकीय ईमानदारी की प्रतिबद्धता का दायरा है। और इसी प्रतिबद्धता ने अमरकांत के कथा साहित्य को विश्वसनियता प्रदान की है। मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग को केन्द्र में रखकर लिखा गया उनका संपूर्ण कथा साहित्य यथार्थ की ठोस जमीन का आधार लिए हुए है। अमरकांत ने कथ्य और शिल्प के संबंध में पूरी सजगता अपनायी है। नई कहानी आंदोलन से लेखन की शुरूआत करने वाले अमरकांत की लेखकीय यात्रा लगातार जारी है। पिछले 50-60 वर्षो में उनका जो साहित्य प्रकाशित हुआ है, वह उनके विचारों में हो रहे जो साहित्य प्रकाशित हुआ है, वह उनके विचारों में हो रहे बदलाव का संकेत देता है तो अपने समय की समस्याओं से जुड़े रहकर नए साहित्यिक विमर्शों के साथ उन्हीं सम् सामयिक समस्याओं पर लेखन करने की उनकी प्रतिबद्धता को भी दर्शाता है। अमरकांत एक कद्दावर व्यक्तित्व के कथाकार हैं। उनकी साहित्य साधना, साधनों की मोहताज नहीं है। कलम उनके लिए एक हथियार है, जिसके माध्यम से वे समाज के मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग के अधिकारों की लड़ाई पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ लड़ रहे हैं। बिना किसी बनावट, कल्पना या भावुकता को अपनाये। अमरकांत के कथा साहित्य में गहरी संवेदना के साथ साथ शिल्प के अनूठे प्रयोग भी दिखलायी पड़ते हैं। लेकिन इन सब में सहजता और सरलता का गुण प्रमुख है। 'प्रयोग के लिए प्रयोग` के पक्षधर अमरकांत नहीं दिखायी पड़ते। अमरकांत कला और शिल्प के संतुलन में विश्वास करते हैं। 'शिल्प विहीन शिल्प` भी वे कथानक के अनुरूप अपनाने में नहीं हिचकिचाते। अमरकांत ने खुद जैसा जीवन जिया, जैसा सामाजिक परिवेश उनके आस-पास का रहा, उसे ही उन्होंने अपने कथा साहित्य में भी प्रस्तुत किया। साहित्यिक गुटबाजी और मठाधीशी से वे हमेशा दूर रहे। एक कथाकार के रूप में अमरकांत ने हिन्दी साहित्य में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है। आवश्यकता इस बात की है कि उनके अब तक के प्रकाशित समग्र कथा साहित्य के आधार पर उनके पुनर्मुल्यांकन की नई स्थितियाँ सामने लायी जायें। जिससे हिंदी जगत अमरकांत को 'नई कहानी` के दायरे के बाहर भी समझने का प्रयास करे।