मेरे ब्लाग सहयोगी एवं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के अँग्रेजी विभाग में असिसटेंट प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत डॉ देवेन्द्र कुमार ने हरियाणवी लोक संस्कृति के ऊपर अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया एवं कुछ गीतों को गुनगुनाया भी । इन गीतों की एक झलक आप यू ट्यूब के http://youtu.be/ws9yHPP-csA इस लिंक पे देख और सुन सकते हैं। डॉ देवेन्द्र स्वयं भी एक अच्छे कवि हैं । आप की एक कविता यहाँ दे रहा हूँ
‘खामोश चिड़िया’
‘खामोश चिड़िया’
चिड़िया, तुम चुप
हो ?
मै तो सोचता था अब
तक
कि चिड़ियाँ चहकती
ही रहती हैं—
सुबह हो, शाम हो, ढलती दोपहर हो ।
बरसों से मेरे घर
के आँगन में तुम
भरी दुपहरी में भी
चिकचिक करती रहती थीं ।
खेत से लौटी
थकी-हारी मेरी माँ को तुम
कच्ची दालान में
दो पल भी चैन न लेने देती थीं ।
पसीने से तर माँ
के मुंह पर पड़ी
ओढनी से उठती ललकार
पर भी तुम
ज़रा न सहमती थीं ।
उसके हाथ आए ज्वार
के फरड़े के
लहरने पर भी तुम न
घबराती थीं ।
क्या हुआ जो
पलभर तुम
दालान कि कड़ियाँ
छोड़
ड्योढ़ी पर लटक
गयीं !
लेकिन मुझे याद है
तुम्हारा चहकना
कभी दुलार से
अपने बच्चों के लिए,
कभी माँ की डांट
खाकर
गुस्से में,
कभी फरड़े की चपेट
से बचकर
क्षणिक पलायन के
दौरान
तुम्हारा वो
गुस्से से चिर्राना
और माँ पर तरह-तरह
के
तिनके, तन्तु और
तार गिराना ।
मैने देखा है
तुम्हारा चहकना
असंख्य दुपहरियों
की नोक-झोंक में ।
मैने तुम्हें ऐसे
ही देखा है चिड़िया ।
मैं सोचता था अब
तक
तुम हो ही ऐसी ।
लेकिन आज
विश्वविद्यालय के
परीक्षा-भवन में तुम
अपने बच्चों के
साथ रोशनदान में बैठी
खामोश हो, मौन हो, सहमी हो !
मुझे तो तब पता
चला जब तुमसे
शायद अनजाने में
तुम्हारी सूखी बींठ
के ढेर से
कुछ कण लुढ़क गए और
परीक्षा-भवन की
तंद्रा तोड़ गए ।
तुम शायद किसी काम
से
इस रोशनदान से उस
रोशनदान तक गयीं
और वापिस आ गयीं —
चुपचाप ।
आज भी वही गर्मी
की दोपहर है
लू और धूल-भरी,
वही खामोशी पसरी
है
तुम्हारी मनमाफिक ,
लेकिन, चिडिया, तुम खामोश हो !
क्या तुम जान गयी
हो
यहाँ महत्त्वपूर्ण
परीक्षा चल रही है
और शोर करना मना
है?
या तुम्हें डर है
की कोई तुम्हें इस
ठंडे कमरे से बेदखल कर देगा ?
शायद इसीलिए तुम
खामोश हो
क्योंकि पहले
न तो मेरी माँ
परीक्षा दे रही होती थी,
और न ही उसकी
कच्ची दालान में
तुम्हारी मनचाही
ठंडक होती थी
जिसके लालच में
तुम
खामोश रहतीं ।