बाउल : वंचितों द्वारा संचित जीवन संगीत ।
पूर्वी और उत्तर पूर्वी बंगाल ( विभाजन के पूर्व का बांग्लादेश भी ) के आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों के हाशिये का समाज "बाउल" लोकगीत एवं लोकशैली का जन्मदाता रहा है । किसी भी मुख्यधारा के जाति,धर्म एवं पंथ से अलग अपनी पहचान रखनेवाला यह समाज अपने एक तारे / दो तारे से समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव, अन्याय, अज्ञानता इत्यादि का पुरजोर विरोध किया ।
राजस्थान और मध्यप्रदेश में ऐसे गीतों की प्रस्तुति करने वाले भाट कहलाए । उत्तर प्रदेश में इन्हें सरंगी, जोगी या फ़कीर कहा गया । आऊल, बाउल,फ़कीर,साई,दरबेस,जोगी, सेन, नेरा- नेरी, कर्ताभाजा, किशोरी भाजा और भाट जैसे समुदायों में काफ़ी समानता रही है । इनमें हिन्दू, मुसलमान दोनों ही रहते हैं । इनके संप्रदायों में कई आंतरिक भेद और वर्ग हैं । जैसे कि वैष्णव बाउल गो मांस नहीं खाते । चावल, मछली इत्यादि वे खाते हैं। ये लहसुन और प्याज भी कम ही खाना पसंद करते हैं। इनके आंतरिक समाज में गुरु का महत्व समान रूप से है । स्त्रियां आसानी से परपुरुष से संबंध बना लेती हैं । आपराधिक गतिविधियों में इनकी सक्रियता कम पायी गई है । लेकिन " जीवन रक्षा के लिए सबकुछ" इनका महत्वपूर्ण सामाजिक सिद्धांत है । इनकी 95% आबादी ग्रामीण इलाकों में ही रहती है। पश्चिम बंगाल के बर्धमान, बनकुरा, मिदनापुर और मुर्शिदाबाद जैसे इलाकों में ये बहुतायत में हैं । इनमें कुछ आदिवासी जातियां भी शामिल हैं, जैसे कि हरी, मुरमुर और बुगडी ।
बाउल शैली पर बौद्धों, सूफियों और संतों का समान प्रभाव रहा । इनके दार्शनिक विचारों में देहतत्व, प्रेमतत्व, गुरुतत्व , परम सत्ता, स्व अनुभूति, गुरु का महत्व, मधुकरी और अहम के त्याग जैसी बातें शामिल हैं । बाउल शब्द की उत्पत्ति को लेकर कोई निश्चित धारणा नहीं है । कुछ विद्वान बौद्ध शब्द "ब्रजकुल" से "बाजुल" और इसी से "बाउल" शब्द बना हो ऐसा मानते हैं । कुछ विद्वान इसे संस्कृत के "व्याकुल" तो कुछ अरबी के "औलिया" शब्द से भी इसका संबंध मानते हैं । इन्होंने सामाजिक विषमताओं, धार्मिक पाखंडों इत्यादि पर जिसतरह चोट की, वह कट्टरपंथी हिंदुओं और मुसलमानों को रास नहीं आया । कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं जहां इन लोक शैलियों के ख़िलाफ़ फतवे तक जारी हुए । एक ऐसे ही फतवे का जिक्र मौलाना रियाजूद्दीन अहमद के नाम से मिलता है । ये वर्तमान बांग्लादेश के रंगपुर से संबंध रखते हैं । उन्नीसवीं सदी के अंत में इन्होंने "बाउल धांगशेर फतवा / Baul Dhangsher Fatva" जारी किया था । ऐसे विरोधों से सीधे सीधे बचने के लिए ही इन कलाकारों ने अपरोक्ष रूप में कलात्मकता और रहस्यात्मकता के साथ अपनी बात कहनी शुरू की हो इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता ।
बाउल गीत मानवता की अनमोल धरोहर हैं । ये हिंसा के खिलाफ मानवता, समानता, समरसता और सर्वसमावेशी व्यवस्था के पक्षधर हैं । सन 2004 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित सुधीर चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक"बाउल फ़कीर कथा" के माध्यम से पूरे विश्व का ध्यान इनकी तरफ़ खींचा । आज के बाजारवादी युग में "बाउल" को भी एक कमोडिटी के रूप में बाज़ार में उपलब्ध कराया जा रहा है । कई दक्ष और पेशेवर गायक बाउल की प्रस्तुतियों से देश विदेश में नाम कमा रहे हैं । इंटरनेट पर उनके बाउल आसानी से सुने और खरीदे जा सकते हैं । इस तरह " बाउल" मधुकरी से परे अब प्रॉफिट मार्जिन की नई कमोडिटी के रूप में बाज़ार में उपलब्ध है ।
लेकिन बाज़ार के इस खेल ने वास्तविक बाउल कलाकारों के जीवन संघर्ष को और अधिक बढ़ा दिया । उनकी आर्थिक स्थिति चिंतनीय है । बाज़ार और तकनीक के गठजोड़ ने कलाओं का व्यापक प्रचार प्रसार तो किया लेकिन वास्तविक लोक कलाकारों को इससे नुक़सान अधिक हुआ । महाराष्ट्र में लावणी कलाकारों का दर्द भी कुछ ऐसा ही है । आवश्यकता इस बात की है कि जिन समुदायों ने पीढ़ी दर पीढ़ी इन कलाओं को समृद्ध किया, इन कलाओं के माध्यम से समाज प्रबोधन का महत्वपूर्ण कार्य किया, विरोधों का डटकर सामना किया उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जाय । राज्य और केंद्र सरकार के स्तर पर उनके भरण पोषण की यथोचित योजना शुरू की जाए । उनकी कलाओं को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया जाय । क्योंकि बाउल जैसी शैली मानवीय अस्मिता का प्रतीक है । यह संगीत जीवन की समरसता का संगीत है । यह हमारी थाती है ।
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
सहायक प्राध्यापक
के . एम. अग्रवाल महाविद्यालय कल्याण पश्चिम महाराष्ट्र
डॉ. उषा आलोक दुबे
सहायक प्राध्यापिका
एम. डी. कालेज, परेल, मुंबई