'जिंदगी  और जोक` रजुआ नाम एक भिखमंगे  व्यक्ति की कहानी है। जिसे  लेखक ने मुहल्ले में आते-जाते  एवम् लोगों के घर चक्कर लगाते  देखा था। एक दिन अचानक शिवनाथ  बाबू के घर के लोग रहुआ को बुरी  तरह से पीट रहे थे। लेखक ने जब  इसका कारण जानना चाहा तो उन्हें  पता चला कि रजुआ पर साड़ी चुराने  का आरोप है। पर बाद में पता चलता  है कि साड़ी घर पर ही है। लेकिन  रजुआ को उस गलती की सजा मिल चुकी  थी, जो उसने कभी की ही नहीं थी।
      परिणाम  स्वरूप अब मुहल्ले वाले उसके  प्रति सहानुभूति रखने लगे और  बचा हुआ या जूठा खाना उसे खाने  को दे देते। वह सबके दरवाजे  पर जाता था, लेकिन शिवनाथ बाबू  के यहाँ जाने की उसकी हिम्मत  ना होती। पर एक दिन शिवनाथ बाबू  ने ही उसे बुलाकर घर पर रहने  की हिदायत दे दी। अब वह शिवनाथ  बाबू के यहाँ स्थायी रूप से  रहने लगा। यहीं पर उसका नाम  'गोपाल` की जगह 'रजुआ` रखा गया।  क्योंकि गोपाल सिंह शिवनाथ  बाबू के दादा का नाम था।
      लेकिन  मुहल्ले के सभी लोग रजुआ पर  अपना बराबर का हक समझते। वह  पूरे मुहल्ले का नौकर बन गया  था। अब रजुआ भी थोड़ा ढीठ हो  गया था। मुहल्ले की औरतों से  हँसी-मजाक भी रकने लगा था। इसी  कारण मुहल्ले के लोग उसे 'रजुआ  साला` कहने लगे थे। शहर की वही  एक पगली औरत के चक्कर में पड़ने  के बाद उसे काफी मार पड़ी। 'बरन  की बहू` ने उसके दस रूपये नहीं  लौटाये तो वह भगत बन गया।
      इधर  उसे हैजा फिर खुजली की बिमारी  भी हो गई। अब वह किसी के काम  का नहीं रह गया था। अब कोई उसे  अपने दरवाजे पर खड़ा नहीं रहने  देता था। इसी बीच एक लड़का लेखक  को सूचना देता है कि रजुआ मर  गया। अत: वह एक पोस्टकार्ड पर  रजुआ के घर यह सूचना लिख दे।  पर दो-चार दिन बाद रजुआ लेखक  के समक्ष एक और पोस्टकार्ड  लेकर आता है। और लेखक से अपने  गाँव यह संदेश लिखने को कहता  है कि, ''गोपाल जिंदा है।``
      लेखक  ऐसा ही करते हैं। पर यह समझ नहीं  पाते हैं कि जिंदगी से जोंक  की तरह वह लिपटा है या फिर खुद  जिंदगी। वह जिंदगी का खून चूस  रहा था या जिंदगी उसका? अपनी  जिजीविषा के कारण की रजुआ जैसे  अपेक्षित पात्र नई कहानी में  'मुख्य पात्र` के रूप में सामने  आये।
      अमरकांत  की इस कहानी के संदर्भ में राजेंद्र  यादव ने कहा है कि, ''अमरकांत  का शायद ही कोई पात्र अपनी नियति  या स्थिति को बदलने की बात सोचता  या करता हो। जहाँ-जहाँ ऐसा है  वहाँ उठे उबाल की तरह फौरन ही  ठण्डा ही गया है। मैं आज तक तय  नहीं कर पाया कि 'जिंदगी और जोंक`  जीवन के प्रति आस्था की कहानी  है या जुगुप्सा, आस्थाहीनता  और डिसगस्ट की।``7
      अमरकांत  की यह कहानी भी बहुत प्रसिद्ध  हुई। आर्थिक अभाव के कारण कोई  व्यक्ति कितना टूटता है इसे  'जिंदगी और जोंक` के 'रजुआ` के  माध्यम से समझा जा सकता हैं। 
 
