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Saturday, 27 May 2023

तुम्हारी स्मृतियों से

 तुम्हारी स्मृतियों से  । 


यह जो 

मेरी मनोभूमि है

लबालब भरी हुई

तुम्हारी स्मृतियों से

यहां

रुपहली बर्फ़ पर

प्रतिध्वनियां

उन लालसाओं को 

विस्तार देती हैं 

जो की अधूरी रहीं ।


ये रोपती हैं

जीवन राग के साथ

गुमसुम सी यादें

लांघते हुए

उस समय को

कि जिसकी प्रांजल हँसी

समाई हुई है

मेरे अंदर 

बहुत गहरे में कहीं पर ।


इस घनघोर एकांत में

उजाड़ मौसमों के बीच

बहुत कुछ 

ओझल हो गया

तो बहुत कुछ गर्क।


विस्मृतियों के

ध्वंस का गुबार

इन स्याह रातों में

रोशनदान से

अब भी 

झांकते हैं मुझे 

और मैं

ऐसी दुश्वारियों के बीच

डूबा रहता हूं

अपना ही निषेध करते हुए

उन बातों में

जो तुम कह चुकी हो ।


मैं

शिलाओं सा जड़

नहीं होना चाहता इसलिए

लगा रहता हूं

हंसने की

जद्दोजहद में भी

लेकिन मेरा चेहरा

गोया कोई

ना पढ़ी जा सकनेवाली 

किसी इबारत की तरह

बिलकुल नहीं है ।


ऐसे में

सोचता हूं कि

विपदाओं की इस बारिश में 

पीड़ाओं के बीच

कोई पुल बनाऊं

ताकि 

साझा कर सकूं

पीड़ाओं से भरी चुप्पियां ।


इन चुप्पियों में

कठिन पर कई

जरूरी प्रश्न हैं

जिनका

अभिलेखों में

संरक्षित होना ज़रूरी है

वैसे भी

प्रेम में लोच

बहुत ज़रूरी है।


फिर इसी बहाने

तुम याद आती रहोगी

पूरे वेग से

और

एक उपाय 

शेष भी रह जायेगा 

अन्यथा 

ख़ुद को खोते हुए

मैं

तुम्हें भी खो दूंगा ।


जबकि मैं

तुम्हें खोना नहीं चाहता

फिर यह बात

तुम तो जानती ही हो 

इसलिए

तुम रहो 

मेरे होने तक

फिर भले ही जुदा हो जाना 

हमेशा की तरह

पर

हमेशा के लिए नहीं ।



डॉ मनीष कुमार मिश्रा

सहायक प्राध्यापक

हिन्दी विभाग

के एम अग्रवाल महाविद्यालय

कल्याण पश्चिम

महाराष्ट्र

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