ओम प्रकाश पांडे ‘नमन’ द्वारा लिखित
उपन्यास आधी जीत समाजसेवी अन्ना हज़ारे के जन लोकपाल बिल से संबंधित
दिल्ली के रामलीला मैदान में हुए आंदोलन के परिप्रेक्ष में लिखा गया एक नए कलेवर
का उपन्यास है । अगस्त 2011 में हुआ यह आंदोलन कई मायनों में अलग था, इस समग्र आंदोलन को सामाजिक, राजनीतिक,आर्थिक एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष में समझने – समझाने का साहित्यिक स्वरूप
ही इस उपन्यास की गति है । आंदोलन की दुर्गति या सफलता के प्रश्न पे लेखक का मोटे
तौर पे निष्पक्ष रहना उपन्यास को बोझिल या एकांगी बनाने से बचाता है । ठीक इसीतरह
तर्क के साथ-साथ तथ्यों का विस्तृत विश्लेषण भी उपन्यास के संवादों को अधिक
विश्वसनीय रूप प्रदान करता है ।
भाषा सहज,सरल और सपाट बयानी वाली है । आत्मकथात्मक और संवाद शैली का
भरपूर उपयोग किया गया है। शेरो - शायरी और काव्य पंक्तियाँ भी उपयोग में लायी गयी
हैं। दिल्ली और आस-पास का परिवेश उपन्यास के केंद्र में है । पात्रों की भाषा को
उनके परिवेश के अनुकूल दिखाई गयी है। पात्रों के नाम बड़े प्रतिकात्मक हैं । आज़ादी
के बाद का मोहभंग, शोषण, भ्रष्टाचार, अपराध और राजनीति की साँठ-गाँठ और जन आंदोलनों की स्थितियाँ उपन्यास के
केंद्र में हैं । इस पूरे उपन्यास में उपन्यासकार सीधे तौर पे अपना कोई निर्णय नहीं थोपता है लेकिन अपने तर्क से अपनी
स्थिति को स्पष्ट जरूर करता चलता है।
उपन्यास का मुख्य पात्र स्वतंत्र कुमार उस भारतीय मध्यम वर्ग
का प्रतिनिधि है जो सोचने-समझने और बहस
करने के बीच कुलबुला जरूर रहा है लेकिन उसकी जरूरतें और जिम्मेदारियाँ उससे बगावत
के सारे हथियार / इरादे छीन लेती हैं । लेकिन अन्ना हज़ारे की जो वर्चुअल छवि /
मीडिया द्वारा निर्मित एक जो फोबिया / रूपक बनाया गया उसने इस मध्यम वर्ग की
कुलबुलाहट को बढ़ा ज़रूर दिया था । ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के शामिल होने वाली
खबरों ने आंदोलन को प्रभावी बनाया ।
आम आदमी हताशा, निराशा,कुंठा और शोषण
के बीच अन्ना हज़ारे की तरफ उम्मीद,कौतूहल,आशा और हर्ष के साथ जुड़ा । आश्चर्य और आशंका के साथ भी अपरोक्ष रूप से इस
आंदोलन को समर्थन मिला । उपन्यासकार ने दिखाया है कि अन्ना के आंदोलन ने
भ्रष्टाचार के तिलिस्म को भले ही न तोड़ा हो लेकिन आम आदमी के अंदर पैठ जमा चुके
कायर को काफ़ी हद तक हराने में ऊर्जा ज़रूर प्रदान की है । उपन्यास के निम्न
मध्यवर्गीय पात्र लिप्टन की लड़ाई और उसमें सभी का सहयोग उसी मानसिकता का
उदाहरण है ।
इस उपन्यास का एक दबा हुआ पर
महत्वपूर्ण पक्ष है साइबर संस्कृति,मास कल्चर, माध्यम
साम्राज्यवाद, मीडिया निर्मित रूपक,
मीडिया का चरित्र, और सोशल मीडिया का गाशिपतंत्र । इन सब को
उपन्यासकार ने उभारने का सफल प्रयास किया है । मेरा यह मानना है कि अन्ना का
आंदोलन, आंदोलन से कंही अधिक एक सफल इवेंट था जो विचारधारा
की विनम्रता के अभाव में खत्म हो गया । लोकतांत्रिक प्रक्रिया में चीजें समय
के साथ मजबूत होती हैं । आक्रोश, आक्रामकता और अतिवाद
लोकप्रियता ज़रूर प्रदान करता लेकिन लॉन्ग टर्म बेनिफ़िट नहीं दे पाता है । जे.पी.
आंदोलन से लेकर अभी तक जो भी बड़े लोकप्रिय जन आंदोलन इस देश में हुए, उन आंदोलनों के मलबे पे ही भ्रष्टाचार की नई पौध इसी देश में लहलहाई है ।
इन्हीं बातों को उपन्यासकार इस उपन्यास के
माध्यम से बिना अपनी कोई राय थोपे पाठकों के सामने तथ्यों और तर्कों के साथ
प्रस्तुत कर देते हैं । अन्ना हज़ारे के आंदोलन एवं उसकी गति को निष्पक्षता और
प्रामाणिकता के साथ समझने में महत्वपूर्ण साहित्यिक दस्तावेज़ है ।
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
असोसिएट– भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र,शिमला
एवं प्रभारी – हिंदी विभाग
अग्रवाल
महाविद्यालय, कल्याण