डॉ. मनीष कुमार मिश्रा उज़्बेकिस्तान में खोज रहे हैं हिंदी की नई बोलियां ।
माना जाता है कि दूसरी शताब्दी के आस पास कुछ घुमंतू जातियां मध्य एशिया, अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका की तरफ गईं और अलग अलग स्थानों पर रहने लगीं । समय के साथ इन्होंने अपनी मूल भाषा को खो दिया और स्थानीय भाषाओं को बोलचाल के लिए स्वीकार कर लिया । इन्हें मूल रूप से जिप्सी कहा जाता है।
मध्य एशिया के देश उज़्बेकिस्तान में भी ऐसे कई समुदाय रहते हैं। इन लोगों को यहां स्थानीय उज़्बेक भाषा में लोले या लोली कहा जाता है। इनके बीच भी कई समुदाय हैं जैसे कि अफ़गान, मुल्तान, पारया, जोगी, मजांग, कव्वाल, चिश्तानी, सोहूतराश और मुगांत इत्यादि । ये सभी भारत से हैं या नहीं यह शोध का विषय है।
इस संबंध में विधिवत शोध कार्य न के बराबर हुए हैं। डॉ भोलानाथ तिवारी ने ताशकंद रहते हुए अफ़गान समूह की भाषा पर काम किया और उनकी भाषा को "ताजुज्बेकी" नाम देते हुए इसे हिंदी की एक नई बोली बताई । लेकिन वे लोले या जिप्सियों को इनसे अलग मानते हैं।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा इन दिनों ICCR हिन्दी चेयर पर उज़्बेकिस्तान में हैं और ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज में हिंदी भाषा के विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। आप भारतीय दूतावास उज़्बेकिस्तान के सहयोग से इन समुदायों एवम इनकी भाषाओं का अध्ययन कर भारत से इनके संबंधों की पड़ताल कर रहे हैं। संभव है कि जल्द ही हिंदी की कुछ नई बोलियों का पता लगाने में वे सफल हो जाएं ।