मुंबई मे एक सेमिनार मे भाग लेने का अवसर मिला ,वहा चर्चा के दौरान किसी विद्वान ने यह प्रश्न उठाया की आख़िर जिस दलित साहित्य की आज इतनी चर्चा है , वह है क्या ?
इसके लिये उन्होने कुछ विकल्प भी दिये , जो की निम्नलिखित हैं ।
१- वह साहित्य जो दलितों द्वारा लिखा गया हो ?
२-वह साहित्य जो दलित के बारे मे लिखा गया हो ?
३-वह साहित्य जो दलित के बारे मे किसी दलित द्वारा ही लिखा गया हो ?
या की ''वह साहित्य जो ख़ुद दलित हो वह दलित साहित्य है । ''
विषय पर आगे चर्चा नही हो सकी । वाद-विवाद बढ़ता गया । मगर मैं परेशां हो गया । आज जब इस के बारे मे सोचता हूँ तो लगता है की हम कब तक दूसरो की भावनावो के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे ? दलित साहित्य का प्रारंभिक समय आक्रोश का रहा अतः इन दिनों आक्रोश का साहित्य सामने आया । यह स्वाभाविक भी था । सदियों के शोषण के खिलाफ पहले आक्रोश ही दिखाई पड़ेगा । लेकिन फ़िर यह आन्दोलन आज गंभीर साहित्य की ओर अग्रसर हो रहा है । अब इस आन्दोलन के द्वारा भी लोक मंगल , समन्वय और मानवता का संदेश दिया जा रहा है । केवल विरोध के साहित्य को ख़ुद इस आन्दोलन के अंदर समर्थन नही मिल रहा है । आज बहुत बड़ा हिन्दी समाज इस आन्दोलन से जुड़कर बड़ा ही सकारात्मक साहित्य सामने ला रहा है । आदिवाशी समाज की तरफ़ से भी लोकधर्मी साहित्य सामने आ रहा है ।
इन सभी सकारात्मक स्थितियों मे अनावश्यक बातो को सामने ला कर समाज के बीच अन्तर पैदा करने का प्रयास अच्छा नही है । दलित बनाम सवर्ण साहित्य की आग इस देश के लिये अच्छी नही है , यह बात हमे समझनी होगी । प्रश्न यह नही है की हम किसका समर्थन करते हैं, बल्कि प्रश्न यह है की हम ख़ुद कौन सा समाज हित का काम साहित्य के द्वारा कर रहे हैं । रहा सवाल दलित साहित्य का तो मेरा मानना है की
'' दलित साहित्य हिन्दी साहित्य के प्रमुख साहित्यिक आन्दोलनों मे से एक है । इसकी शुरुवात यद्यपि आक्रोश और विरोध के रूप मे हुई , लेकिन आज इसका लोकधर्मी स्वरूप सामने आ रहा है । दलित साहित्य स्वतंत्रत भारत के विकास की मुख्य धारा मे शोषितों के सामिल होने का इतिहास है .दलित साहित्य समानता के अधिकारों की लडाई का साहित्य है । दलित साहित्य संघर्स , संगठन और प्रगति का साहित्य है ।''
वैसे आप की इस पर क्या राय है ?
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Tuesday, 6 January 2009
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