फिर ना आयी ,जाने किधर गयी
वो शाम जो ,तेरे पहलू में गुजर गयी .
वीरान हो गए हैं, अब गाँव सारे
नई पौध तो ,कब की शहर गयी .
तेरे पास लौटना तो चाहता हूँ
पर जाने कंहा वह डगर गयी .
अब कौन बदलेगा इस व्यवस्था को,
दिलों से इन्कलाब की वो लहर गयी .
हकीकत में सूख रहे हैं खेत सारे ,
सिर्फ कागजों पे बनती नहर गयी .
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Tuesday, 2 November 2010
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