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Thursday, 6 May 2010

लहरें -अमरकांत का नया उपन्यास /amerkant

लहरें -अमरकांत का नया उपन्यास  :-
      अमरकांत का यह उपन्यास अभी पुस्तकाकार रूप में नहीं छपा है। इसका प्रकाशन कादम्बिनी पत्रिका के उपहार अंक-1 में अक्तूबर, 2005 में प्रकाशित हुआ। लेकिन यह उपन्यास, अमरकांत की कथा यात्रा का एक प्रमुख एवम् महत्वपूर्ण पड़ाव है। अत: अमरकांत के उपन्यासों की चर्चा मंे 'लहरें ` की चर्चा बड़ी आवश्यक है।
      इस उपन्यास के संदर्भ में अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ''इस दुनिया में स्त्री और पुरूष परस्पर विरोधी प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। वे बनावट और प्रकृति में भिन्न होते हुए भी परस्पर सहयोगी, सहभागी एवम् संपूरक हैं। उनके मेल से ही एक संपूर्ण संसार बनता है और दूसरा नया संसार निर्मित होने की भूमिका तैयार होती है। स्पष्ट है कि किसी सामाजिक प्रगति या नये समाज के निर्माण में इनका परस्पर स्वैच्छिक, मनपसंद सहयोग एवं सहभागिता जरूरी है परंतु आज के भारतीय समाज में शिक्षा, आर्थिक स्वावलंबन जनतांत्रिक अधिकार, सुरक्षा, न्याय आदि के मामलों में स्त्रियों की प्राप्तियाँ वांछित अनुपात से बहुत ही कम हैं, अत: दोनों के परस्पर संबंधों के संदर्भ में अमूमन स्त्रियों के विरूद्ध इतना असंतुलन, जोर-जबर्दस्ती, पाखंड, उत्पीड़न, अन्याय तथा हिंसा है।............ कुछ बातें तो मैंने उस समय देखी या सुनी थीं, जब मेरी उम्र बीस वर्ष भी नहीं थी। ....... वर्षो पहले 1995 में भीष्म साहनी का एक पत्र पाकर मैंने इसी समस्या पर एक लंबी कहानी लिखने की कोशिश की थी किंतु सफलता नहीं मिली। अब उक्त कथा लघु उपन्यास के रूप में प्रस्तुत है। नारी-पुरूष संबंधों के अनेक रूप एवम् आयाम हैं, जिन पर लेखक लोग लिखते ही रहते हैं। यह एक रचनात्मक कृति है और इसमें नारी-पुरूष संबंधों के कुछ रूप तथा नारी समाज के आंदोजित मन की एक झलक प्रतिबिंबित है।``43
स्त्री विमर्श की चर्चा आज जोरों पे है। ऐसे में यह उपन्यास समय के साथ अमरकांत की कदमताल का प्रतीक है। वे एक सजग साहित्यकार है। स्त्री के शोषण एवम् उसके अधिकारों को लेकर वे लगातार लिखते रहे हैं। 'सुरंग` भी इसी लेखन की एक अगली कड़ी है।
      'लहरें ` बच्ची देवी नामक एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसका विवाह श्यामा प्रसाद नामक एक नौकरी पेशा पढ़े लिखे व्यक्ति से होती है। लेकिन शादी के बाद जब श्यामा प्रसाद को पता चलता है। लेकिन शादी के बाद जब श्यामा प्रसाद को पता चलता है कि उसकी पत्नी निपट गवार, भुच्चड़, भुख्खड़ और सिर्फ दो कक्षा तक पढ़ी है तो वह गुस्से में उसे माँ-बाप के पास ही छोड़कर शहर चला आता है। उसके पिता उसे समझाने की पूरी कोशिश करते हैं पर वह किसी की एक नहीं सुनता।
      श्यामा प्रसाद को शादी के पहले बताया गया था कि बच्ची देवी पढ़ी लिखी, सुंदर और संस्कारों वाली लड़की है। पर विवाह के बाद उसे समझ में आ जाता है कि उससे झूठ बोला गया था। अत: वह अपनी पत्नी को गाँव छोड़कर शहर में रहने लगा था। पर एक दिन उसे अपने पिताजी का पत्र मिलता है। पत्र में उन्होंने लिखा था कि अब वे अपने अंतिम दिन गिन रहे हैं। वे अब बच्ची देवी का खयाल नहीं रख सकते। अत: वह आकर अपनी पत्नी को अपने साथ ले जाये। फिर भले ही उसे शहर लाकर मार डाले। इस पत्र को पढ़कर श्यामा प्रसाद को पिताजी पर दया आयी और वह अपनी पत्नी को अपने साथ गाँव से शहर लेकर आया।
      बच्ची देवी के आ जाने पर उसके मोहल्ले की स्त्रियाँ उससे मिलने को आतुर हो उठती हैं। कारण यह था कि श्यामा प्रसाद अभी तक अकेले रहते थे, तो मोहल्ले की औरतों को घूरना, अजीब तरह से इशारे करना आदि ऐसी ही बातों के कारण वे स्त्रियों के बीच चर्चा का विषय रहते थे। अब जब उनकी पत्नी आ जाती है तो सब स्त्रियाँ यह जानने को उत्साहित हो जाती है कि ऐसे आवारा और झैला बनकर घूमने वाले व्यक्ति की स्त्री आखिर कैसी है?
      धीरे-धीरे मोहल्ले भर के लोगों को पता चल जाता है कि श्यामा प्रसाद की औरत निपट गवार है और श्यामा प्रसाद हमेशा उसे डॉटता ही रहता है। बच्ची देवी की जान पहचान धीरे-धीरे मोहल्ले की सुमित्रा, सरोजबाला और विमला जैसी स्त्रियों से हो जाता है। सुमित्रा जब बच्ची देवी से मिलती है और उसकी बातें सुनती है तो उसे यह एहसास हो जाता है कि ग्रामीण समाज में स्त्रियों की दशा कितनी दयनीय है। उनका कितना शोषण होता है। वे अपने को कितना दीन-हीन और गिरा हुआ समझती हैं। जब बच्ची देवी कहती है कि, ''ए बहिनी, छोड़ो इन बातों को.... सच तो यह है, मर्द चाहे जैसा हो, स्त्री का भरण-पोषण तो उसी से होता है। मर्द से ही तो स्त्री की जिनगी है, मर्द ही उसका सहारा है, उसकी इज्जत है। न होने से तो अच्छा है शराबी, रंडीबाज, ऐवी, अंधा, कोढ़ी, लूला कोई भी मर्द हो।....``44 तो सुमित्रा जी की आँखों से भी आँसू गिरने लगते हैं।
      सुमित्रा उसे खूब समझाती है। मोहल्ले की स्त्रियों द्वारा बनायी गयी मंडली में आने के लिए कहती हैं। पढ़ने-लिखने, कपड़े पहनने और खाना किस तरह परोसना चाहिए जैसी सभी बातें उसे सिखाती हैं। बच्ची देवी भी पूरा मन लगारक सब सीखती है। वह अपने आप को बदलने की कोशिश करने लगती है। परिणाम स्वरूप उसका उठना-बैठना, बात-व्यवहार सब बदलने लगता है।
      पर श्यामा प्रसाद को अपनी पत्नी का यह बदला हुआ रूप बिलकुल पसंद नहीं आता है। जब उसे यह मालूम पड़ता है कि उसकी पत्नी पढ़ना और सिलाई का काम सीख रही है तो वह गुस्से से लाल हो जाता है। वह बच्ची देवी को घर से बाहर निकाल देता है। जब मोहल्ले की औरतों को यह पता चलता है कि बच्ची देवी के साथ श्यामा प्रसाद ने अन्याय किया है तो वे सब बच्ची देवी को साथ लेकर श्यामा प्रसाद पहुँँचती हैं।
      लेकिन बिस्तर पर पड़े श्यामा प्रसाद की हालत देखकर वे डर जाती हैं। डाक्टर बुलाये जाते हैं। पता चलता है कि उन्हें हल्का दिल का दौरा पड़ा था। धीरे-धीरे श्यामा प्रसाद की हालत में सुधार होता है। उनका व्यवहार बच्ची देवी के प्रति नरम एवम् सामान्य है। पर बच्ची देवी के मन में एक डर बना रहता है कि कहीं पूरी तरह ठीक हो जाने के बाद श्यामा प्रसाद पुन: अपना 'मर्दानापन` न दिखाने लगा। अमरकांत का यह उपन्यास बच्ची देवी के मन में निहित आशंका के साथ ही समाप्त हो जाता है।
      अमरकांत का यह उपन्यास जिन संदर्भो में नया है वह यह कि पहली बार अमरकांत का कोई पात्र बदलाव की प्रक्रिया से जुड़कर अपनी स्थिति को बदलने की चेेष्टा करता हुआ दिखायी पड़ रहा है। 'बच्ची देवी` ऐसी ही एक पात्र है। अन्यथा अमरकांत के बारे में अक्सर यह कहा गया कि, ''जीवन के संबंध में एक अपरिवर्तनशील दृष्टि का जो आभास अमरकांत के एक रूपी कथानकों ने शुरू में देना शुरू किया था, वह अब एक तरह से ठहरा हुआ अनुभव-बोध-सा लगने लगा है।``45
      अमरकांत का यह उपन्यास निश्चित तौर पर स्त्रियों के स्वावलंबन और समाज में पुरूषों के बराबर अधिकार की वकालत करते हुए उन्हें संगठित रूप से अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा प्रदान करता है। इस उपन्यास का शीर्षक 'लहरें स्त्रियों को जीवन में अशिक्षा, गरीबी, परावलंबन और शोषण रूपी अंधेरे के बीच से शिक्षा, संगठन, अधिकार, स्वावलंबन और आत्मसम्मान की सुरंग से निकलते हुए समाज अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराने के लिए प्रेरित करता सा मालूम पड़ता हैं।