मिर्ज़ा
असदउल्ला खाँ “गालिब” उर्फ़ मिर्ज़ा नौशा के
नाम से उर्दू और फ़ारसी साहित्य जगत अच्छे से परिचित है । वैसे अब परिचित तो विश्व
का अधिकांश साहित्य जगत है । गालिब वो नाम है जिनके बिना उर्दू और फ़ारसी अदब की
शायरी को समझा नहीं जा सकता ।
गालिब के दादा मिर्ज़ा कौकान बेग समरकन्द से भारत आए थे । समरकन्द
काफ़ी लम्बे समय से इतिहास के प्रसिद्ध नगरों में से एक रहा है। यह नगर सोवियत संघ
में, मध्य एशिया के उज़बेकिस्तान में स्थित है। उनके कई
पुत्रों में से एक थे अब्दुल्ला बेग खाँ उर्फ़ मिर्ज़ा दूल्हा जिनकी शादी आगरा के
प्रतिष्ठित ख़्वाजा गुलाम हुसैन खाँ कुमीदान की बेटी इज्जतउन्निसा से हुई थी ।
इन्हीं के सुपुत्र थे गालिब । गालिब तीन भाइयों में सबसे बड़े थे । आप का जन्म 27
दिसंबर 1797 ई. को आगरा में हुआ । गालिब जब पाँच साल के थे तभी उनके पिता की
मृत्यु हो गयी थी । पिता की मृत्यु के बाद गालिब के चाचा मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग ने
अपने भाई के परिवार को संभाला । लेकिन गालिब जब आठ साल के हुए तो चाचा का साया भी
सर से उठ गया ।
गालिब के चाचा अंग्रेजों के एक दस्ते के
रिसालदार थे अत: उनकी मृत्यु के बाद उनके वारिस के रूप में गालिब और उनके परिवार
के पालन पोषण की व्यवस्था अंग्रेजों ने की थी । लेकिन इसके बाद उनके पालन पोषण की
स्थितियों को लेकर सामग्री का अभाव और विद्वानों में मतभेद है । इतना ज़रूर है कि
इसके बाद वे अपने नाना के घर रहे । सम्पन्न ननिहाल में गालिब जवान हुए और बेफिक्री
भरी जवानी में किसी खूबसूरत नाचनेवाली के इश्क में दिवाने हुए । गालिब का संबंध
दिल्ली की किसी तुर्क महिला से भी रहा । गालिब की एक महिला शागिर्द भी थी जो तुर्क
थी और गदर में मारी गयी थी । गालिब अपने प्रेम प्रसंगों में जादा गंभीर नहीं दिखते
मानो प्रेम करना उनकी आदत में शुमार था । गालिब ने दिल्लगी में जादा समय बिताया । शराब
और शबाब के दिवाने गालिब जवानी इसीतरह बिताते रहे ।
गालिब कितने पढ़े लिखे थे इसके प्रमाण तो
नहीं मिलते लेकिन उनके शिक्षकों में “नज़ीर” अकबरबादी और मौलवी मुहम्मद मुअज्जम, शेख़ मुअज्जम के नाम आते हैं । विद्वान उनके साहित्य
के आधार पे यह मानते हैं कि आवारगी में भी उनकी शिक्षा- दिक्षा हुई होगी । अब
शिक्षा न भी हुई हो तो भी यह मानने से किसे इंकार होगा कि गालिब विलक्षण प्रतिभा
के धनी थे । गालिब का विवाह तेरह वर्ष की आयु में “उमराव बेगम” से 09 अगस्त 1810
ई. को हुआ था । विवाह के बाद गालिब दिल्ली ही रहे । यहाँ के साहित्यिक,सामाजिक परिवेश का असर गालिब पे दिखाई पड़ता है । वैचारिक धरातल पे गालिब
यहीं परिपक्क हुए । दिल्ली आने के बाद आय का कोई निश्चित साधन न होने की वजह से उन
पर कर्ज़ चढ़ता रहा । ससुराल से पैसा लेना उन्हें गवारा न था । इन्हीं परिस्थितियों पे
गालिब ज़िंदगी बसर कर रहे थे ।
मौलाना फज़्लेहक़ और अन्य विदानों के संग साथ से मिर्ज़ा
गालिब ने अपनी लेखनी को धार दी । अपनी गलतियों को विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया और उन्हें
परिष्कृत एवं परिमार्जित करते रहे । मिर्ज़ा दिल्ली के अमीर घरानों तक दख़ल रखते थे ।
उनके मित्रों में कई नवाबों के जिक्र आते हैं । लेकिन आर्थिक तंगी से वे अपने अंतिम
दिनों तक जूझते रहे । छोटे भाई के मानसिक संतुलन खोने के बाद मिर्ज़ा गालिब और परेशान
हुए । दिल्ली से कलकत्ता की यात्रा भी उन्होने इसीलिए की ताकि अंग्रेज़ हुक्मरानों से
कुछ मदद मिले और उन्हें मिलने वाली पेंशन की रकम बहाल हो सके ।
दिल्ली से कलकत्ता की यात्रा के बीच वे
बांदा से मोड़ा और यहाँ से चिल्लातारा आए । फिर यहीं से नाव के माध्यम से बनारस आए ।
बनारस में वे कई दिनों तक रहे । मिर्ज़ा गालिब ने बनारस की तारीफ कई दफा की है । फ़ारसी
में लिखी एक मसनवी “चिराग-ए-दैर” में कहा है,“ बनारस
शंख बजाने वालों का आराधना गृह है । इसे हिंदुस्तान का काबा ही समझिए । ख़ुदा बनारस
को बुरी नज़र से बचाये,यह उल्लास से भरपूर स्वर्ग है ।’’[1] वे बनारस से कलकत्ता नाव से ही जाने की इच्छा रखते थे, लेकिन इसमें ख़र्च अधिक था । मिर्ज़ा कलकत्ता लगभग तीन साल रहे लेकिन अपना काम
न बनता देख दिल्ली वापस आ गए ।
1842 में दिल्ली में ही मिर्ज़ा गालिब को
एक अवसर मिला फ़ारसी अध्यापिकी का । लेकिन पुरानी शानो-शौकत के आगे उन्होने नौकरी करना
अपनी तौहीन समझी । शतरंज और जुआ खेलने के लिए उन्हें सजा भी हुई । गालिब ने लिखा भी
है –
गर किया नासेह ने हमको कैद अच्छा यूँ सही
ये जुनून-ए- इश्क़ के अंदाज़ छूट जायेंगे
क्या ।
लेकिन उनकी इन्हीं आदतों की वजह से उनके कई करीबियों
ने उनसे किनारा कर लिया । 04 जुलाई 1850 को दिल्ली के बादशाह शाह जफ़र ने 50 रूपये मासिक
वेतन पे उन्हें नौकर रख लिया । इसतरह गालिब लाल क़िले के नौकर हो गए । वे लिखते भी हैं
कि –
गालिब वजीफ़ा खोर हो दो शाह को दुआ
वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ
मैं ।
गालिब इस काम में लगे रहे । लेकिन यह सब अधिक दिनों
तक नहीं चला । 1857 का विद्रोह हुआ, इन्हीं दिनों मिर्ज़ा के
भाई का देहांत हुआ । पत्नी जयपुर चली गयी । इसके बाद 1860 तक मिर्ज़ा ख़स्ताहाल ही रहे
। मई 1860 में अंग्रेज़ हुकूमत ने उनकी पुरानी पेंशन शुरू की । लेकिन 1860 से 1868 तक
के समय में मिर्ज़ा गालिब लगातार बीमार ही रहे और सन 1879 ई. में मिर्ज़ा गालिब का
इंतकाल हुआ, उनकी मजार दिल्ली में हज़रत निजामुद्दीन औलिया की
दरगाह के पास है.
मिर्ज़ा गालिब की सबसे बड़ी साहित्यिक विशेषता यह थी कि उन्होने किसी का अनुकरण
करने की बजाय अपना रास्ता स्वयं बनाया । गालिब का साहित्य एक ऐसे दौर का साहित्य है
जब मुगलों का पतन और अंग्रेजी राज का उदय हो रह था । जीवन का लंबा समय उन्होने दिल्ली
में बिताया और अमीरी- गरीबी की स्थितियों से ख़ुद गुजर चुके थे । जुआ,शराब, आशिक़ी, कर्ज़, जेल ,सम्मान, अपमान और बीमारियों
के बीच बुनी हुई मिर्ज़ा गालिब की ज़िंदगी दर्द की एक दास्तान के सिवा कुछ भी नहीं ।
इसी दर्द को जब उन्होने कलम से उतारा तो जमाना उनका मुरीद हो गया । गालिब के चंद शेर
देखिये –
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी, कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे, लेकिन
बहुत बेआबरू हो कर तिरे कूचे से हम
निकले
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़, जीने और मरने का
उसी को देखकर जीते हैं, जिस काफ़िर पे दम निकले
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।
उर्दू के महान शायर के रूप में गालिब हमेशा अमर रहेंगे
। जमाने के सितम से वे पूरी ज़िंदगी लड़ते रहे । इसलिए सितमगरों के सितम, सितम नहीं लगे । मिर्ज़ा ख़ुद लिखते हैं कि-
तेरी वफा से क्या हो,तलाफ़ी कि दहर में
तेरे सिवा भी हम पे बहुत से
सितम हुए ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
यूजीसी
रिसर्च अवार्डी
हिंदी
विभाग
बनारस
हिंदू यूनिवर्सिटी
वाराणसी
संदर्भ
ग्रंथ
गालिब
व्यक्तित्व और कृतित्व – नूरनबी अब्बासी, डॉ नुरुलहसन
नक़वी