भारतीय ज्ञान परंपरा और कबीर
मानवीय आदर्शों के लोक कवि कबीर, भारतीय जनमानस के हृदय में गड़े हुए हैं । उनकी संवेदना का संबंध मानवीय करुणा और जन जागरण से है । कबीर को इसीलिए ‘मनुष्य की आत्मा’ का कवि स्वीकार किया गया । कबीर मनुष्यता की एक शाश्वत उम्मीद बनकर हमेशा अपनी प्रासंगिकता बनाए रखेंगे । कबीर हमारी शाश्वत सनातन परंपरा का पुनर्पाठ करने वाले पुरोधा हैं । आवश्यकता इस बात की है कि उनके मूल स्वरूप पर पड़े आवरण को हटाकर अपनी परंपरा,संस्कृति एवं आध्यात्मिक उदात्तता के आलोक में उन्हें देखा और समझा जाय ।
भारतीय दर्शन, रहस्यवाद, भक्ति और समाज सुधार की कबीर की संकल्पना इसी संस्कृति की थाती रही है । कबीर का विस्तृत मानवतावादी दृष्टिकोण सनातन परंपरा का प्राणतत्व रहा है । सिद्ध संत परंपरा, निर्गुण उपासना की परंपरा,पारमार्थिक प्रेम की परंपरा प्राचीन उपनिषदों, गीता और भागवत में विस्तृत रूप से उल्लेखित है । ईशावास्योपनिषद के अंतिम चारों मंत्र अव्यक्त निराकार परमात्मा के प्रति प्रार्थनाएँ हैं , जिनमें औपनिशिदिक भक्ति का उत्कृष्ट रूप झलकता है । बुद्ध, महावीर, दयानंद और महात्मा गांधी ने अध्यात्मिकता के अनुरोध से समाज सुधार की जिस संकल्पना को प्रांजल किया, कबीर उसी परंपरा के एक आदर्श, प्रादर्श और प्रतिदर्श हैं । ‘कबीर बड़े कवि वहाँ हैं जहां वे अपने ही अंतर्जगत का वैविध्य संधान करते हैं और उसी से जीवन की विराटता सिखाते हैं ।‘
कबीर का व्यक्तित्व एक सांस्कृतिक व्यक्तित्व है । उन्होने राम को गरीब के लिए सुलभ किया । जीवन के सम्पूर्ण कर्म को पूजा कहा । सर्व समावेशी भारतीय चिंतन को अग्रगामी बनाते हुए कबीर ने वैष्णव,शैव,हिन्दू,इस्लाम,ईसाई सब के तत्व को घोल कर प्रेम का ढाई आखर बना दिया । कबीर को सिर्फ असहमति एवं विद्रोह का कवि कहना, उनके विराट व्यक्तित्व को छोटा करके आँकने जैसा है । कबीर मनुष्य की आस्था, क्षमता और विश्वास को मजबूत करते हुए गौतम बुद्ध की तरह कहते हैं कि – अपना दीपक स्वयं बनों । कबीर के आत्मविश्वास का श्रोत उनकी विरल आध्यात्मिकता या भक्ति है । कबीर का मुक्तिमार्ग प्रेम की विस्तृत और विराट भाव भूमि पर टिका हुआ है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने स्पष्ट लिखा है कि – “उन्होने भारतीय ब्राम्ह्वाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठ योगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णव के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया ।’’ निराकार ईश्वर की संकल्पना के लिए कबीर ने भारतीय वेदांत का ही सिरा पकड़ा । अव्यक्त ब्रह्म की जिज्ञासा और व्यक्त सगुण ईश्वर या भगवान के सानिध्य की अभिलाषा मूल रूप से भारतीय पद्धति ही रही है ।
कबीर गुरु की सनातन परंपरा को स्वीकार करते हैं । वे तो गुरु गोविंद को एक बताते हैं । अपने सतगुरु से ही कबीर को राम नाम का मंत्र मिलता है । इसके बदले वे गुरुदक्षिणा देना चाहते हैं लेकिन यह आकांक्षा कबीर के मन में ही रह गयी । कबीर का यह पद इसकी पुष्टि करता है –
कबीर राम नाम के पटंतरे , देवे कों कछु नाहिं
क्या ले गुरु संतोषिए , हौंस रही मन मांहि । ।
कबीर के पदों में औपनिषदिक अद्वैतवाद की अनुगूँज है । कबीर इसकी घोषणा करते हुए स्वयं कहते हैं कि- आतमलीन अखंडित रामा । कहै कबीर हरि माहि समाना ।।
ठेठ भारतीय मर्यादा के अनुसार वे प्रभु को अपना पति मानते हैं और अपने को सती (पत्नी) । कबीर की कथन भंगिमा भी भारतीय परंपरा से जुड़ी हुई है । रचना शैली दोहा और पद उन्हें अपभ्रंश साहित्य से मिला । रमैनी भी पद्धड़ियाबंध का विकसित रूप है । अतः कबीर को अपनी ज्ञान परंपरा के आलोक में देखना ही उन्हें समग्रता में देखना होगा । कबीर को हमें जडताओं में नहीं अपनी जड़ों में तलाशना होगा ।