Sunday, 5 September 2010
फिर-फिर के मै फिर जाता हूँ
राह तेरी ही आता हूँ
ऐसा क्या है तुझमे
रोता गाता तुझमे ही रम जाता हूँ
फिर-फिर के मै फिर जाता हूँ
राह तेरी ही आता हूँ
जतन किया कितने ही
नमन किये कितने ही
याद तेरी नहीं जाती
फिर तुझ तक ही आ जाता हूँ
फिर-फिर के मै फिर जाता हूँ
राह तेरी ही आता हूँ
भाव विकल हो या हो तनहाई
खुशियों का मौसम या हो रुसवाई
हर लमहा तुम तक ही जाता
आसान हो रास्ता या कठिनाई
फिर-फिर के मै फिर जाता हूँ
राह तेरी ही आता हूँ
ख्वाबों में संसार बसाया
अच्छाई संग दौड़ लगाया
हर मंजिल पर तू ही दिखती
चाहे जिस ओर पैर बढाया
फिर-फिर के मै फिर जाता हूँ
राह तेरी ही आता हूँ
Saturday, 21 August 2010
क्या कहा क्या सुना क्या हुआ पता नहीं
इंतजार इकरार या ऐतराज पता नहीं
मंजिले मासूम उलफते मजमूम बंदगी अजीम
क्या किया क्या सहा क्या हुआ पता नहीं
Sunday, 1 August 2010
ठहरा हुआ जों वक़्त हो उससे निकल चलो
गम की उदासियों से हंस कर निपट चलो
गमनीन जिंदगानी को खो कर निखर चलो
कठिनाई के दौर से डटकर निपट चलो
बिखर रहा हो लम्हा यादों में किसी के
सजों कर कुछ पल दिल से निकल चलो
जिंदगी गुजर रही जों उसकी तलाश में
जी भर के तड़प के मुस्कराते निकल चलो
Friday, 30 July 2010
जिंदगानी भटकी हुई या खोया हुआ हूँ मै
राह चुनी थी सीधी चलता रहा हूँ मै
रिश्तों में राजनीती थी या संबंधों में कूटनीति
स्वार्थ था नातों में या नाता था स्वार्थ का
बातें दुविधाओं की थी या दुविधाओं की बातें
भाव ले प्यार का सरल चलता रहा हूँ मै
उलझे हुए किस्से सुने
झूठे फलसफे सुने
मोहब्बत की खोटी कसमे सुनी
सच्चाई की असत्य रस्में सुनी
प्यार को सजोये दिल में
चलता रहा हूँ मै
इश्क के वादों को
वफ़ा करता रहा हूँ मै
भटकी हुई जिंदगानी या खोया हुआ हूँ मै
राह चुनी थी सीधी चलता रहा हूँ मै
Friday, 23 July 2010
ढहता रहा जहाँ , मेरा विश्वास देखते रहे /
ऐ जिंदगी तेरा खुमार देखते रहे
जलजला गुजर रहा भूमि पे जहां हैं खड़े
ढहता रहा जहाँ मेरा
विश्वास देखते रहे
Thursday, 22 July 2010
तेरे सिने में बुझी राख थी /
आज क्यूँ तेरी बातों में अँधेरा था
क्यूँ धुंध है दिल में वहां
जहाँ कल तक मेरा बसेरा था
चमकती चांदनी में कितनी आग थी
सुबह रक्तिम सूरज में भी छावं थी
क्या खोया मन ने तेरे
तेरे सिने में बुझी राख थी /
Monday, 19 July 2010
बोझिल से कदमों से वो बाज़ार चला
बहु बेटो ने समझा कुछ देर के लिए ही सही अजार चला
कांपते पग चौराहे पे भीड़
वाहनों का कारवां और उनकी चिग्घाडती गूँज
खस्ताहाल सिग्नल बंद पड़ा
रास्ता भी गड्ढों से जड़ा था
हवालदार कोने में कमाई में जुटा चाय कि चुस्किया लगा रहा
छोर पे युवकों का झुण्ड जाने वालों कि खूबसूरती सराह रहा
चौराहा का तंत्र बदहवाल था
उसके कदमों में भी कहाँ सुर ताल था
तादात्म्यता जीवन कि बिठाते बिठाते
जीवन के इस मोड़ पे अकेला पड़ा था
लोग चलते रुकते दौड़ते थमते
एक मुस्तैद संगीतकार कि धुन कि तरह
अजीब संयोजन कि गान कि तरह
दाहिने हाथ के शातिर खिलाडी के बाएं हाथ के खेल की तरह
केंद्र और राज्य के अलग सत्तादारी पार्टियों के मेल की तरह
चौराहा लाँघ जाते फांद जाते
उसके ठिठके पैरों कि तरफ कौन देखता
८० बसंत पार उम्रदराज को कौन सोचता
निसहाय सा खड़ा था
ह्रदय द्वन्द से भरा था
मन में साहस भरा कांपते पैरों में जीवट
हनुमान सा आत्मबल और जीवन का कर्मठ
युद्धस्थल में कूद पड़ा था वो
किसी और मिट्टी का बना था वो
हार्न की चीत्कार
गाड़ियों की सीत्कार
परवा नहीं थी साहसी को
वो पार कर गया चौराहे की आंधी को
सहज सी मुस्कान लिए वो चला अगले युद्धस्थान के लिए
हर पल बदलती जिंदगी के नए फरमान के लिए /
Sunday, 11 July 2010
तुझमे दुविधाओं का मंजर पाया
Thursday, 6 May 2010
झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,
झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,
खड़ा एक कोने में चेहरे पे उदासी लिए ,
इंतजार अब भी है उसको की वो पलट आएगा ,
क्या जानता था वो की उसका प्यार बदल जायेगा /
दबी हुई आशाओं से अब लड़ पड़ता है वो ;
क्या पता था की निराशाओं से ना लड़ पायेगा /
झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,
खड़ा एक कोने में चेहरे पे उदासी लिए ,
उस दिल को कभी मोहब्बत सिखाया था उसने ,
उस हंसी के इश्क से दिल के हर कोने को सजाया था उसने ;
उस गुदाज बदन को कभी भावों से संवारा था उसने ,
क्या जानता था वो अनजान बन यूँ ही निकल जायेगा ,
क्या जानता था उसके दिल में पत्थर भी बसाया था उसने ;
झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,
खड़ा एक कोने में चेहरे पे उदासी लिए /
Wednesday, 5 May 2010
कैसे हो ?
प्यार में अनुनय ,
आवाज में अनुनय ,
पर अहसास से अनुनय,
कैसे हो ;
अधिकार की सीमा ,
ऐतराज की सीमा ,
पर प्यार की सीमा,
कैसे हो ;
हालात से समझौता ,
वारदात से समझौता ,
पर दिल का समझौता ,
कैसे हो ;
राह न भुला ,
चाह न भुला ,
पर विश्वास को भुला ,
कैसे हो ?
Friday, 30 April 2010
निकलती नहीं खुसबू तेरी सांसों की मन से ,
निकलती नहीं खुसबू तेरी सांसों की मन से ,
खिलती नहीं आखें बिना तेरे तन के ;
डूबा रहता हूँ सपनों में मिलन की घड़ियों का ;
पर तू मिलता नहीं कभी बिना उलझाव और अनबन के ;
कभी तो कहा कर प्यार बिना अहसान के ;
कभी तो मान अपना अधूरापन बिना मेरी प्यास के ;
खुद का मान तुझे मेरी मोहब्बत से प्यारा है ;
ऐ जिंदगी मैंने किसपे अपनी मोहब्बत को वारा है /
Friday, 23 April 2010
कैसे वो कह दे , 2
कैसे वो स्वीकारे ,
कौन है उसकी रूहों में आत्माओं में,
कौन है वो ,
जों बसा है उसकी हर धरनाओ में ;
कैसे वो कह दे ,
क्या तलाशती रही जिंदगी भर वो अपने भावों में
कैसे वो कह दे /
Tuesday, 6 April 2010
मन के कोलाहल से अविचल ,
देख रहा था खिला कँवल ;
पत्तों पे निर्मल ओस की बुँदे ,
डंठल के चहुँ ओर दल दल ;
.
.
माँ की ममता याद आई ,
देख रहा था खिला कँवल ;
गर्भ में कितनी आग लिए ,
कितना जीवन का संताप लिए ,
हर मुश्किल से वो लड़ लेती,
पर ममता का रहता खुला अंचल ;
मन के कोलाहल से अविचल ,
देख रहा था खिला कँवल ;
.
.
जंगल का कलरव ,
धुप का संबल ,
मृदु ह्रदय की वीणा ;
भावों की पीड़ा ,
अश्रु स्पंदन ,
खुशियों का क्रंदन ,
त्याग सभी रिश्तों का बंधन ;
मन के कोलाहल से अविचल ,
देख रहा था खिला कँवल ,
पत्तों पे निर्मल ओस की बुँदे ,
डंठल के चहुँ ओर दल दल /
.
.
Sunday, 4 April 2010
बिन प्यासा पानी चाहूँ , बिन तरसे प्यार /
राई के पर्वत पे बैठा , कैसे जायु पार /
Thursday, 1 April 2010
कभी पल में ख्वाब तोड़ जाती है ;
जैसे चलाये जिंदगी चल रहा हूँ ;
.
कभी जिंदगी बुला के पास सिने से लगाती है ;
कभी दुत्कार के बातें सुनाती है ;
कभी पथरीले डगरों की राहों में खोये हैं
कभी कातिल जिंदगानी के हिस्सों पे रोये हैं ;
कभी जिंदगी जिंदगी से नाता बताती है ,
कभी ये जिंदगी नहीं मेरी ये गाथा सुनाती है ;
.
जिंदगी की राह पे चल रहा हूँ ;
जैसे चलाये जिंदगी चल रहा हूँ ;
.
जिंदगी कब बदल जाये कह नहीं सकते ,
कितना भी बदले पर हम जिंदगी से कट नहीं सकते ;
जिंदगी इक पल में खुशियों से दामन भरती है ,
जिंदगी इक पल में आखों को सावन करती है ;
कभी जिंदगी सपने दिखाती है ,
कभी पल में ख्वाब तोड़ जाती है ;
.
जिंदगी की राह पे चल रहा हूँ ;
जैसे चलाये जिंदगी चल रहा हूँ /
Friday, 26 March 2010
बंद कमरे में बैठा सोच रहा हूँ ;
बाहर बच्चों की आवाजें ,बीबी के उलाहनो ,
घरवालों के तानो से बचता हुआ सोच रहा हूँ ;
यादें अब आखों को तकलीफ नहीं देती ,
सोचें फिर भी खामोश नहीं होती ;
राहें उलझी है भावों की तरह ,
कैसे खुद को बचायुं गुनाहों की तरह ;
बंद कमरे में बैठा सोच रहा हूँ ;
अपनो की आशाओं को जीत न पाया ,
अच्छाई की राहों में मीत ना पाया ;
उधेड़बुन में भटका किस तरह बढूँ ;
परिश्थितियों ने उलझाया किस तरह गिरुं ;
बंद कमरे में बैठा सोच रहा हूँ ;
दिल पत्थर का न बन पाया ,
लोंगों के दिल में क्या है ,ये भी ना समझ पाया ;
लड़ने का जज्बा बाकि है ,इमानदार हूँ मै ;
सच्च्चाई कहने का गुनाहगार हूँ मै ;
जिंदगी का मुकाम क्या है ,मेरा पयाम क्या है ;
बंद कमरे में बैठा सोचता रहता हूँ /
-
अमरकांत की कहानी -डिप्टी कलक्टरी :- 'डिप्टी कलक्टरी` अमरकांत की प्रमुख कहानियों में से एक है। अमरकांत स्वयं इस कहानी के बार...
-
अमरकांत की कहानी -जिन्दगी और जोक : 'जिंदगी और जोक` रजुआ नाम एक भिखमंगे व्यक्ति की कहानी है। जिसे लेखक ने मुहल्ले में आते-ज...