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Sunday, 20 December 2009
अभिलाषा १०१ ------------------------------------------------------
माना की हो दूर तुम लेकिन,
दिल से दूर कंहा हो मेरे ?
आंखे बंद कर देख लिया,
चाहा जब भी तुम्हे प्रिये .
--------अभिलाषा १०१
Thursday, 1 October 2009
गाँधी जी के तीन बंदर
/
पिछले २ अक्टूबर २००८ की शाम
गांधीजी के तीन बंदर राज घाट पे आए.
और एक-एक कर गांधी जी से बुदबुदाए,
पहले बंदर ने कहा-
''बापू अब तुम्हारे सत्य और अंहिंसा के हथियार,
किसी काम नही आ रहे हैं ।
इसलिए आज-कल हम भी एके४७ ले कर चल रहे हैं। ''
दूसरे बंदर ने कहा-
''बापू शान्ति के नाम ,
आज कल जो कबूतर छोडे जा रहे हैं,
शाम को वही कबूतर,नेता जी की प्लेट मे नजर आ रहे हैं । ''
तीसरे बंदर ने कहा-
''बापू यह सब देख कर भी,
हम कुछ कर नही पा रहे हैं ।
आख़िर पानी मे रह कर ,
मगरमच्छ से बैर थोड़े ही कर सकते हैं ? ''
तीनो ने फ़िर एक साथ कहा --
''अतः बापू अब हमे माफ़ कर दीजिये,
और सत्य और अंहिंसा की जगह ,कोई दूसरा संदेश दीजिये। ''
इस पर बापू क्रोध मे बोले-
'' अपना काम जारी रखो,
यह समय बदल जाएगा ।
अमन का प्रभात जल्द आयेगा । ''
गाँधी जी की बात मान,
वे बंदर अपना काम करते रहे।
सत्य और अंहिंसा का प्रचार करते रहे ।
लेकिन एक साल के भीतर ही ,
एक भयानक घटना घटी ।
इस २ अक्टूबर २००९ को ,
राजघाट पे उन्ही तीन बंदरो की,
सर कटी लाश मिली ।

गांधीजी के तीन बंदर राज घाट पे आए.
और एक-एक कर गांधी जी से बुदबुदाए,
पहले बंदर ने कहा-
''बापू अब तुम्हारे सत्य और अंहिंसा के हथियार,
किसी काम नही आ रहे हैं ।
इसलिए आज-कल हम भी एके४७ ले कर चल रहे हैं। ''
दूसरे बंदर ने कहा-
''बापू शान्ति के नाम ,
आज कल जो कबूतर छोडे जा रहे हैं,
शाम को वही कबूतर,नेता जी की प्लेट मे नजर आ रहे हैं । ''
तीसरे बंदर ने कहा-
''बापू यह सब देख कर भी,
हम कुछ कर नही पा रहे हैं ।
आख़िर पानी मे रह कर ,
मगरमच्छ से बैर थोड़े ही कर सकते हैं ? ''
तीनो ने फ़िर एक साथ कहा --
''अतः बापू अब हमे माफ़ कर दीजिये,
और सत्य और अंहिंसा की जगह ,कोई दूसरा संदेश दीजिये। ''
इस पर बापू क्रोध मे बोले-
'' अपना काम जारी रखो,
यह समय बदल जाएगा ।
अमन का प्रभात जल्द आयेगा । ''
गाँधी जी की बात मान,
वे बंदर अपना काम करते रहे।
सत्य और अंहिंसा का प्रचार करते रहे ।
लेकिन एक साल के भीतर ही ,
एक भयानक घटना घटी ।
इस २ अक्टूबर २००९ को ,
राजघाट पे उन्ही तीन बंदरो की,
सर कटी लाश मिली ।
Monday, 7 September 2009
हिन्दी की दुर्दशा
हिन्दी की हालत आज हम बहुत सतोषजनक नही कह सकते। english की तुलना में हिन्दी को अभी लम्बी लडाई लड़नी है । बाज़ार के साथ हिन्दी आज जुड़ चुकी है ,यह अच्छी बात है लेकिन अभी और प्रयास की जरूरत है । वैसे इस बारे में आप क्या सोचते हैं ?
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Friday, 3 April 2009
गृहस्थी एक बैल गाड़ी है -----------------
गृहस्थी एक बैलगाडी है
बेचार बैल ,कितना अनाड़ी है ।
काम उसी के होते हैं अब ,
जो शुरू से जुगाड़ी है ।
मेरे हांथो मे उनके मेकप का बिल ,
दुशाशन के हाँथ द्रोपती की साड़ी है ।
दुश्मन घर में घुस के मारते हैं ,
किस बात पे चौडी छाती हमारी है ।
बेचार बैल ,कितना अनाड़ी है ।
काम उसी के होते हैं अब ,
जो शुरू से जुगाड़ी है ।
मेरे हांथो मे उनके मेकप का बिल ,
दुशाशन के हाँथ द्रोपती की साड़ी है ।
दुश्मन घर में घुस के मारते हैं ,
किस बात पे चौडी छाती हमारी है ।
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Saturday, 28 March 2009
दिन करीब चुनाव के आने लगे हैं ------------
जोड़ कर हाँथ वे लुभाने लगे हैं
दिन चुनाव के करीब आने लगे हैं
गली के गुंडों को टिकट मिल गया है
तहजीब मे अब वे बतियाने लगे हैं
पार्टी का जो भी रूठा था अपना
उसको नेता बडे सब मनाने लगे हैं
अनुबंधों मे गठबंधन का
नेता लुफ्त उठाने लगे हैं
सियासत है यंहा कुछ पक्का नही
एक-दूजे के घर मे लोग झाकने लगे हैं
इसके पीछे भी साजिस है गहरी
जो मुफ्त मे वो पीने-पिलाने लगे हैं
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Monday, 5 January 2009
हास्य कवि बनाम हास्यास्पद कवि
मैं ख़ुद हास्य व्यंग कवि के रूप मे सालों से अपनी जेब गर्म करता रहा हूँ । मंचों की जोड़ -तोड़ से अच्छी तरह परचित भी हूँ । ऐसे मे आज कल एक सवाल तथाकथित साहित्यकार अक्सर पूछ लते हैं की हम हास्य कवि हैं या हास्यास्पद कवि ?
मुझे इस सवाल पे गुस्सा नही आता .मैं बड़ी शालीनता से कहता हूँ की हम हास्यास्पद कवि हैं.आखिर इस देश मे ऐसा बचा क्या है जो हास्यास्पद ना हो ? साहित्य सरोकारों से दूर कुछ आलोचकों की सराब और रंगीन हरी -हरी नोटों का मोहताज हो गया है । किताब छापना अब पैसो वालों का शौख हो गया है .पढ़ने वाले क्या पढ़ना चाहते हैं यह किसी से छुपा नही है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किस तरह पूँजी की गिरफ्त मे है यह हम देख ही रहे हैं । प्रिंट मीडिया के पास विज्ञापनो से जो जगह बच जाती है, वहा कुछ ख़बर देने का प्रयास करती है ।
ऐसे मे आर्थिक परेशानियों से घिरे रचनाकार भी रूपया कमाने के लिये अगर हास्यास्पद बन रहे हैं तो इसमे ग़लत क्या है ? आप ऐसा ना करके कोण सा साहित्य अकादमी का पुरस्कार अपने नाम कर ले रहें हैं ? वैसे आजकल पुरस्कार भी किसे और क्यों मिलते हैं जह भी आपलोगों से छुपा नही है । एक सत्य यह भी है की मंचो का विरोध करने वाला एक बहुत बड़ा वर्ग ख़ुद मंचो पे सक्रीय होना चाहता है । लेकिन उनकी हालत वही है की अंगूर ना मिले तो खट्टे हैं ।
मैं यह मानता हूँ की आज KAVYA मंचो की गरिमा पहले जैसी नही रह गई है, लेकिन इस का ठीकरा केवल रचनाकारों के ऊपर नही फोड़ा जा सकता । आज की तेज रफ़्तार संवेदना शून्य आत्मकेन्द्रित जीवन शैली ही मूल रूप से इसकी जिम्मेदार है । जो हो रहा है उसका दुःख हमे भी है ,लेकिन
अपनी मर्जी से हम भी कहा सफर मे हैं
रुख हवाओ का जिधर है , हम भी उधर हैं
बाकी आप क्या सोचते हैं ?
मुझे इस सवाल पे गुस्सा नही आता .मैं बड़ी शालीनता से कहता हूँ की हम हास्यास्पद कवि हैं.आखिर इस देश मे ऐसा बचा क्या है जो हास्यास्पद ना हो ? साहित्य सरोकारों से दूर कुछ आलोचकों की सराब और रंगीन हरी -हरी नोटों का मोहताज हो गया है । किताब छापना अब पैसो वालों का शौख हो गया है .पढ़ने वाले क्या पढ़ना चाहते हैं यह किसी से छुपा नही है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किस तरह पूँजी की गिरफ्त मे है यह हम देख ही रहे हैं । प्रिंट मीडिया के पास विज्ञापनो से जो जगह बच जाती है, वहा कुछ ख़बर देने का प्रयास करती है ।
ऐसे मे आर्थिक परेशानियों से घिरे रचनाकार भी रूपया कमाने के लिये अगर हास्यास्पद बन रहे हैं तो इसमे ग़लत क्या है ? आप ऐसा ना करके कोण सा साहित्य अकादमी का पुरस्कार अपने नाम कर ले रहें हैं ? वैसे आजकल पुरस्कार भी किसे और क्यों मिलते हैं जह भी आपलोगों से छुपा नही है । एक सत्य यह भी है की मंचो का विरोध करने वाला एक बहुत बड़ा वर्ग ख़ुद मंचो पे सक्रीय होना चाहता है । लेकिन उनकी हालत वही है की अंगूर ना मिले तो खट्टे हैं ।
मैं यह मानता हूँ की आज KAVYA मंचो की गरिमा पहले जैसी नही रह गई है, लेकिन इस का ठीकरा केवल रचनाकारों के ऊपर नही फोड़ा जा सकता । आज की तेज रफ़्तार संवेदना शून्य आत्मकेन्द्रित जीवन शैली ही मूल रूप से इसकी जिम्मेदार है । जो हो रहा है उसका दुःख हमे भी है ,लेकिन
अपनी मर्जी से हम भी कहा सफर मे हैं
रुख हवाओ का जिधर है , हम भी उधर हैं
बाकी आप क्या सोचते हैं ?
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