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Tuesday, 7 September 2021
Sunday, 15 December 2019
प्रेम और संवेदना के जैविक कवि : मनीष
प्रेम और संवेदना के जैविक कवि : मनीष
डॉ. चमन लाल शर्मा
प्रोफेसर
'हिन्दी'
शासकीय
कला एवं विज्ञान स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
रतलाम
(विक्रम
विश्वविद्यालय, उज्जैन) मध्य प्रदेश
मो. 9826768561
E-mail- clsharma.rtm@gmail.com
आजकल कविता में जो कुछ लिखा जा रहा है
वह सब समकालीन है, यह पूरी तरह सच नहीं है। दरअसल समकालीनता एक रचना
दृष्टि है, जहां कवि अपने समय का आकलन करता है, अपने अनुभव, अपने
चिंतन और अपनी दृष्टि से वह कविता में जीवन का नया विन्यास गढ़ता है। कवि होने के
अपने खतरे भी हैं,
अपनी चुनौतियां भी हैं, क्योंकि कई बार कविता में वैयक्तिकता हावी हो जाने की संभावना बनी रहती है। यकीनन कविता
का आशय या उद्देश्य इतना भर नहीं है कि समाज में जो कुछ भी घटित हो रहा है या जैसा
दिखाई दे रहा है उसे ज्यों का त्यों लिखकर प्रस्तुत कर दिया जाय, इससे कविता के खत्म होने का खतरा बढ़ जाता है। एक कविता पाठक को
कई अर्थ देती है। कविता एक वैचारिक फलक के साथ-साथ एक कला रूप भी है, इसलिए कविता में भाषा, भाव
और शैली का एक संतुलन भी जरूरी है। इधर नई पीढ़ी के जो रचनाकार कविता लेखन में सक्रिय हैं उनमें मनीष मिश्र का नाम
प्रमुखता से लिया जा सकता है, उनकी
कविताओं में वैचारिकता की सपाट बयानी की मजबूरी नहीं है, नाही चिल्लाकर अपनी बात को दूर तक फैलाने की जुगत है। मनीष
संवेदनाओं की शक्ल में कविता के माध्यम से पाठकों से सीधे संवाद करते हुए दिखाई
देते हैं। छप्पन कविताओं वाले उनके पहले काव्य संग्रह 'अक्टूबर उस साल' की
पहली कविता 'आत्मीयता' में
वे सीधे पाठक से बात कर रहे हैं - 'क्षमा
की शक्ति / और / विवेक का आराधन / यह अनुभव की / साधना से / संचित / शक्तिपीठ है /
आत्मीयता से भरे / आत्मीय मित्रो /
सवागत
है / आपका /'
जिन पाठकों ने मनीष की कविताओं को ठीक से पढ़ा होगा
उनको मालूम होगा कि मनीष की कविताएं कला की सीमाओं से परे जाकर भी पाठक के मन को झकझोरती हैं और मन के अंदर एक उत्प्रेरण के भाव को जन्म देती हैं। मनीष की कविताओं का अलहदापन संवेदना, भाव, विचार, दर्शन
एवं भाषा के स्तर पर ही नहीं है बल्कि उनकी शैली में भी नवीनता है। बिंबों और
प्रतीकों से कैसे यथार्थ को लिबास पहनाकर वे अपनी कविता रचते हैं, यह वस्तुतः मनीष की अपनी शैली है- 'जब तुम्हें लिखता हूँ / तो जतन से लिखता हूँ / हर शब्द को चखकर
लिखता हूँ / जब तुम्हें लिखता हूँ / तो बसंत लिखता हूँ / होली के रंग में /
तुम्हें रंग कर लिखता हूँ / 'जब
तुम्हें देखता हूँ'
कविता की इन पंक्तियों में मनीष न केवल गहरी
संवेदना को कविता के केन्द्र में रखते हैं बल्कि कविता को शब्दों की जुगाली से
मुक्त कर जीवनानुभव से भी जोड़ते हैं। आजकल जीवन के रिश्तों में भी बाजारवाद हावी
होता दिखाई दे रहा है। फलतः मनुष्य के बीच सम्बन्धों की ऊष्मा भाप बनकर खत्म होती
जा रही है। मनीष की कविताएं रिश्तों के उधड़ने-बुनने की कविताएं हैं। मनुष्य के
दोहरे चरित्र को उजागर करती उनकी कविताएं सच को मरते नहीं देखना चाहतीं। मनीष कभी
नितान्त निजी अनुभवों की कविताई करते प्रतीत होते हैं तो कभी कठोर व्यंग्य से
सामाजिक यथार्थ को उघाड़ते हुए दिखाई देते हैं। जीवन की आपाधापी के बीच मनुष्य
अपने मन के भीतर कहीं कमजोर भी है, भविष्य
को लेकर चिंतित भी है,
घबराया हुआ भी है और रिश्तों को निभाने की उसके
अंदर
अकुलआहट भी है, पर आधुनिक जीवन शैली को अपनाने की होड़ में और आगे बढ़ने के
दबाव के कारण उसे रिश्ते दरकते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे में मनीष रिश्तों की
गरमाहट को महसूस करते हुए कहते हैं - 'जीवन
की जटिलताओं / और प्रपंचों से दूर / अपनी सहजता / और संवेदना के साथ / तुम जब भी
मिलती हो / भर देती हो / तृप्ति का भाव / तुम जब भी मिलती हो / तो मिलता है / विश्वास
/ सौभाग्य / और / जीवन के लिए / ऊष्मा, ऊर्जा
और संकल्प भी /'
युवा
कवि मनीष न किसी वाद के चौखट्टे में फिट बैठने के लिए लिखते हैं, और ना ही किसी विचारधारा के साथ सामंजस्य बैठाने की उठापटक के
लिए कविताई करते हैं, बल्कि वे आत्म चेतना के स्तर पर पाठक को टहलाते हुए वहां ले जाना चाहते हैं, जहां सीखने और टकराने दोनों की जरूरत है। वस्तुत: तिमिर के
शिकंजे में रमणीयतम लावण्य है मनीष की कविताई। स्त्री-पुरुष के संबंधों के व्याकरण
से उनकी कविताएं जीवन के मायनों को तलाशती हुई दिखाई देती हैं - 'और तुम / वन लताओं सी / कुम्हलाती / अपनी दिव्य आभा के साथ / घुलती
हो चंद्रमा में / ज्योति के कलश में / आरती की गूंज में / और देती हो मुझे /
नक्षत्रों के लबादे में / अनुराग का व्याकरण / आचरण के शुभ रंग / तथा / त्याग के / आत्मीय
प्रतीक चिन्ह /' 'प्रतीक्षा की स्थापत्य कला' कविता में मनीष जीवन में अनुराग के व्याकरण को अनिवार्य मानते हैं। अनुराग के
बिना जीवन लगभग व्यर्थ है। संभावनाओं के कवि मनीष अपने पहले कविता संग्रह 'अक्टूबर उस साल'
में अनुभूति, जीवनानुभूति
और कलात्मक अनुभूति का बेहद जरूरी संयोजन कर अपनी उत्पाद्य प्रतिभा का परिचय दे
देते हैं। कवि और कविता के लिए महत्वपूर्ण है अनुभव, जिसे सामाजिक व्यवहार से अर्जित किया जा सकता है। यह अनुभव ही
काव्य में संवेदना बनकर पाठक तक पहुंचता है। 'गंभीर चिंताओं की परिधि' कविता में युवा कवि मनीष आज के तथाकथित विमर्शों पर प्रासंगिक
टिप्पणी करते हैं - 'अप्रासंगिक होना / उसके हिस्से की / सबसे बड़ी
त्रासदी है / तकलीफ और विपन्नता / से क्षत-विक्षत / उसकी उत्सुक आंखें / दरअसल / यातना
की भाषा में लिखा / चुप्पी का महाकाव्य है /' दरअसल यह
भाड़े पर या उधार ली हुई संवेदना नहीं है, बल्कि अनुभव से अर्जित की हुई है। 'यूं तो संकीर्णताओं को' कविता में कवि एक और जहां अपनी परम्परा और संस्कृति की जड़ों
से उखड़े लोगों की मज़म्मत करते हैं,
वहीं दूसरी ओर भारतीय राजनीति के चरित्र को बेनकाब करने में युवा कवि ने जरा भी
संकोच नहीं किया है,
बल्कि तल्ख लहजे में सियासतदानों की असलियत को बड़ी
बेवाकी से पाठकों के सामने रखने की ईमानदार कोशिश की है, और नेताओं के भाषणों से सम्मोहित जनता की यथास्थिति वादी सोच पर
चिंता प्रकट की है। दरअसल मनीष की कविता छीजती मनुष्यता के बीच आशा का एक सुन्दर
विहान है। सामाजिक सन्दर्भों को तलाशती मनीष की कविता मेहनतकशों और मजदूरों के
पक्ष में खड़ी हुई दिखाई देती है। कार्पोरेट कल्चर में जहां मजदूरों की चिंता
करने वाला कोई नहीं है,
ऐसी स्थिति में मनीष पक्षधरता के साथ मजदूरों के सवालों को उठाते हैं - 'उन मजदूरों के / हिस्से में / क्यों कुछ भी नहीं / जो
मेहनत से / एक धरा और गगन कर रहे हैं /'
कविता को सफल बनाने के लिए कवि का
ईमानदार होना अत्यंत आवश्यक है। वह विषय स्थिति को स्पष्ट करने के लिए अपनी निजी
अनुभूतियों का इस्तेमाल करता है। मनीष की कविताओं से गुजरते हुए यह आभास सहज ही हो
जाता है। जब सामयिक सामाजिक परिस्थितियां जीवन में इतनी अधिक प्रभावी हो जाएं कि
समय का एक पल भी भारी लगने लगे,
कविताएं वहीं से आकार लेना शुरू करती हैं। कवि की आवश्यकता समय और समाज को वहीं से
अधिक महसूस होने लगती है। मां पर लिखी कविता में मनीष मां के उस शाश्वत रूप के
दर्शन कराते हैं जो हर पाठक को अपना सा लगता है। दरअसल कविता की खासियत ही यह है
कि वह कवि की होती हुई भी सबकी हो। हर पाठक को वह अपनी ही रचना लगे। नई पीढ़ी के कवियों में मनीष अलग विशेषता बनाए
हुए हैं। उनकी कविता सकारात्मक मूल्यों के साथ ही मनुष्य को समग्रता में आत्मसात
कर चलती है। उनकी कविताओं में जहां एक ओर सकारात्मक हस्तक्षेप का स्वर है, वहीं दूसरी ओर लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों की संवेदना भी है, जिससे पाठक के ज्ञान के क्षितिज का विस्तार होता है। मैं बहुत
प्रामाणिकता के साथ कह सकता हूं कि मनीष की कविताएं इंसानियत की रक्षा के लिए एक संवेदनशील धरातल
तैयार करती हैं, जिसमें प्राकृतिक उपादानों को भी वे शामिल करते
हैं - 'प्रेम से अभिभूत / ममता से भरी / वह गीली चिड़िया / शीशम की
टहनियों के बीच / उस घोंसले तक / पहुंचती
है / जहां / प्रतीक्षा में है / एक बच्चा / मां के लिए / भूख / अन्न के लिए / और
प्राण / जीवन के लिए /'
मनीष की कविताओं में वायवीय भावों,
विचारों एवं कल्पनाओं का कौतूहल नहीं है,
बल्कि वे जीवन के टूटे- विखरे पलों को भी आत्मीय बनाकर कविता में अपनी विनम्र
उपस्थिति दर्ज करा देते हैं। उनके यहां निषेधवादियों की तरह सब चीजों का नकार नहीं
है, बल्कि वे सृजनात्मक बीजों की तलाश कर अपने परिवेश
के उहा-पोह को भी सहजता के साथ मानवीय संदर्भों से जोड़ देते हैं। वह भरोसे की ऊष्मा
और संबंधों के ताप से हर हाल में मनुष्य होने की संभावनाओं को बचाना चाहते हैं - 'मैं / बचाना चाहता हूं / दरकता हुआ / टूटता हुआ / वह सब / जो
बचा सकूंगा / किसी भी कीमत पर /'
इस संकलन की अधिकांश कविताएं मानवीय रिश्तों, स्त्री-पुरुष के संबंधों और प्रेम पूर्ण संवेदनाओं के
इर्द-गिर्द ही घूमती हैं। कविता के बारे में कोई भी संतुलित निर्णय तभी दिया जा
सकता है जब हम भाषा, कथ्य और संदर्भ को एक साथ प्रस्तुत करें। भाषा के
तत्वों द्वारा ही हम कविता में उपस्थित कवि के अनुभव की सही व्याख्या कर सकते हैं।
आजकल की कविताओं की एक सीमा यह भी है कि अक्सर पुराने अनुभवों को दोहराकर
सुविधाजनक ढंग से कविता बना ली जाती है। इससे नया अर्थलोक पैदा होने की संभावनाएं
भी कम हो जाती हैं। मनीष की कविताओं की
भाषा में नया रंग भरता है। कविता में भाषा के अभिनव प्रयोग का अर्थ यह नहीं है कि
बिल्कुल अलग दिखाई देने वाली भाषा का उपयोग किया जाए या जबरदस्ती शब्द ठूंसकर
नवीनता का बोध कराया जाए। दरअसल कोई एक शब्द भी कविता को नए भावान्वेषण की ओर ले
जा सकता है, बशर्ते कवि को उस शब्द के परिप्रेक्ष्य का भान हो
और वह उसे सर्जनात्मक रूप देने मे समर्थ हो। मनीष के इस पहले कविता संग्रह में भाषा बोध के
स्तर को बनाए रखने में समर्थ दिखाई देती है।
2019 में प्रकाशित मनीष का दूसरा कविता संग्रह 'इस बार तेरे शहर में' में
कुल साठ कविताएं हैं, और इसकी भूमिका हिंदी
के वरिष्ठ साहित्यकार रामदरश मिश्र जी ने लिखी है। इस संग्रह की अधिकांश कविताएं
प्रेम की द्वन्द्वात्मक संवेदनाओं के बीच उभरी हैं, लेकिन कवि की युवा वाणी यहां कविता की सोद्देश्यता पर स्पष्ट
अभिमत प्रस्तुत करती है - मुठ्ठियां जहां
/ बंध दी गई हों / शोषण के खिलाफ / वहां रूंधे गले को / वाणी देते
हुए / उपस्थित हों / मेरी भी / कविताओं के
शब्द /' मनीष का कवि हृदय युगों से चली आ रही पुरुष की
सामंतवादी सोच पर सवाल खड़े करता है,
तथा स्त्री को रचना का प्रेरणा स्रोत, सूर्य की ऊष्मा, ऊर्जा का उद्गम, जीवन का हर्ष और उल्लास का निर्द्वंद सर्जक मानता है - 'तुम
औरत हो / और / और होकर औरत ही / तुम कर सकती हो / वह सब / जिनके होने से ही / होने का कुछ अर्थ है / अन्यथा / जो भी है / सब का
सब / व्यर्थ है/'
छद्म
राष्ट्रवाद पर प्रहार करते हुए कवि मनीष कविता में व्यंग्य को नए स्तर पर ले जाते
हुए कहते हैं - 'यहां अब देश नहीं / प्रादेशिकता महत्वपूर्ण होने लगी है / प्रादेशिक
भाषा में / गाली देने से ही / हम अपने सम्मान की / रक्षा कर पाते हैं / पराये नहीं
/ अपने समझे जाते हैं / '
बिगड़ते पर्यावरण की चिंता भी उनकी
रचना के मूल में है। हम अपने आने वाली
पीढ़ी के लिए क्या छोड़कर जा रहे हैं? इसकी बानगी देखनी हो तो दिल्ली के बच्चों से
पूछें। किस्तों में मरते हमारे पर्यावरण
को बचाने के लिए मनीष कोई बड़ा दर्शन या कोई बड़ा बोझिल तर्क प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि बहुत ही सादी लिबास की कविता में सीधे दिल को छू लेने
वाली बात कह देते हैं - 'इतने
दिनों बाद आ रहा हूं / बोलो / तुम्हारे लिए क्या लाऊं? / उसने कहा / वो मौसम / जो हमारा हो / हमारे लिए
हो / और हमारे साथ रहे / हमेशा /'
मनीष दरअसल परिवेश में बिखरी हुई प्राकृतिक
एवं सामाजिक शक्तियों को जगाने में विश्वास करते हैं। इनकी कविताएं वास्तव में मानवीय
संवेदनाओं की गहनतम अभिव्यक्ति हैं, तुकबाजी़ और नारेबाजी से मुक्त। इनकी कविताएं संवेदना से ही रसग्रहण करती हैं। तभी
तो मनीष की चयन दृष्टि अभीष्ट को ग्रहण कर
त्याज्य को छोड़ना चाहती हैं - 'नाखूनों
को / काटते हुए/ सोचने लगा कि / अनावश्यक
और अनचाही / हर बात के लिए / मेरे पास / एक नेल कटर / क्यों नहीं है? /' वर्तमान जिंदगी में
बनावटीपन ज्यादा है। दिखावे की संस्कृति ने व्यक्ति को बहुरूपिया बना दिया है।
उसके जीवन में न तो सहजता है और ना सरलता। इसलिए मनीष संबंधों के अनुबंधों से, जन्म-जन्म के वादों से और रीति-नीति के धागों से रिश्तों का
ताना-बाना बुनते हुए दिखाई देते हैं। इनकी कविताओं में सामाजिक, राजनीतिक,
वैश्विक एवं धार्मिक जीवन के कटु यथार्थ भी हैं। जन आकांक्षाओं के कवि मनीष की भाषा ढंकी-छुपी
राजनीतिक और सामाजिक बुराइयों को उघाड़ कर रख देने में जरा भी संकोच नहीं करती है।
इससे मनीष की चेतना की व्यापकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। लोकतांत्रिक मूल्यों
और मानवीय संवेदनाओं के ऊपर जहां भी खरोच आती है वहीं मनीष मुखर हो जाते हैं - 'राम / तुम्हारा धर्म-दर्शन / संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता में /
अपराध हो गया / हे राम ! / हे राम ! ! / अयोध्या / मानो शेष हों / अवशेष सिर्फ /
पर यह नि:शेष नहीं/'
मनीष
की कविताओं में आस्था, विश्वास एवं आत्म संबल का विस्तार है। श्यामा, वसंता और कस्तूरिका की इस देवभूमि में वे प्रकृति के साथ जीवन
का राग गाते हैं। पहाड़ी चिड़ियों,
फूलों और पेड़ों को देखना उन्हें ईश्वर को देखने जैसे लगता है। कवि मनीष का अनुभव
परिपक्व और दृष्टि संपन्न है। वे अपने परिवेश के प्रति गंभीर और संवेदनशील हैं।
परिवेश और प्राकृतिक सौंदर्य इनकी कविताओं को अलग ही पहचान दिलाता है - 'देवदार
और पाम / के यह घने जंगल / मानो लंगर हों / स्वच्छन्ता
उत्सुकता और / आकाश धर्मिता के / व्यास रावी चिनाव / सतलुज और कालिंदी के कल कल से
/ इठलाती बलखाती / सजती और संवरती देवभूमि / सौंदर्य की / विश्राम स्थली है /' प्रेम का हर एक स्तर
मूल्यवान होता है। प्रेम का आकर्षण अंतस् चेतना को अनुराग की ऊष्मा से भर देता है
- 'उसी का होकर / उसी में खोकर / उसी के साथ / जी
लूंगा तब तक / जब तक कि / वह देती रहेगी अपने प्रेम और स्नेह का जल / अपनेपन की / उष्मा
के साथ /' इसी तरह एक अन्य कविता 'उसे जब देखता हूं' में कवि कहता है - 'उसे जब देखता हूं / तो बस देखता ही रह जाता हूं / उसमें देखता
हूं / अपनी आत्मा का विस्तार / अपने सपनों का / सारा आकाश /'
कंटेंट और भाषा की अपनी तमाम सीमाओं
के बावजूद मनीष की कविताएं अच्छेपन और इंसानियत का एहसास कराती हैं। 'इस बार तेरे शहर में' ऐसा
लघु काव्य संग्रह है, जिसकी लगभग सभी कविताएं पठनीय हैं। इन कविताओं में
गुंथे गए भाव धीरे-धीरे शब्दों के जरिए पाठक के अंदर उतरते जाते हैं। मनीष वस्तुतः
संवेदनाओं के ऐसे जैविक कवि हैं जिनमें मिलावट का नकार और मौलिकता का स्वीकार है।
चाहे भाषा के स्तर पर हो या भाव के स्तर पर अथवा कथन की शैली के स्तर पर 'इस बार तेरे शहर में' में
संकलित उनकी सभी कविताएं आश्वस्त करती हैं। इसी संग्रह की 'झरोखा'
कविता की इन पंक्तियों के साथ आपको मनीष की काव्य यात्रा पर चलने का निमंत्रण देता
हूं - 'कभी / वक्त मिले तो / पढ़ना / झांकना / इन कविताओं
को / यह यकीनन / लौटायेंगी / तुम्हारे चेहरे की / वो गुलाबी मुस्कान / मुझे यकीन
है /'
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