आकाश पक्षी :-
राजकमल प्रकाशन द्वारा ही इस उपन्यास का प्रथम संस्करण 2003 में प्रकाशित हुआ। 219 पृष्ठों का यह उपन्यास अमरकांत की एम महत्वपूर्ण कृति है।
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यक उपन्यास हेमा (हेमवती) नामक लड़की की कहानी है। जो एक बड़े रियासत से 'बड़े सरकार` की बेटी है। पर देश आजाद होने के साथ ही साथ काँग्रेस ने रियासतों का राज खत्म कर दिया। इसका प्रभाव हेमा के परिवार पर भी हुआ। वे अपनी रियासत छोड़कर लखनऊ की अपनी कोठी में रहने के लिए आ जाते हैं। पर हेमा के पिताजी की आदतों के कारण जल्द ही उनकी माली हालत बहुत ही बुरी हो जाती है। हेमा के पिताजी को अपने बड़े भाई 'राजा साहब` से बड़ी उम्मीदें थी, जो कि रियासत खत्म होने के बाद दिल्ली रहने चले गये थे। शुरू में राजा साहब ने हेमा के पिताजी को भरोसा दिलाया था कि घर खर्च के लिए पैसे भेजते रहेंगे। पर बाद में उन्होंने पैसे भेजने बंद कर दिये। हेमा के पिताजी ठेके का काम करना चाहते थे, पर उनकी आदतों ने जल्द ही उन्हें कंगाल बना दिया।
इसी बीच हेमा को पड़ोस मंे रहनेवाले 'रवि` से प्यार हो जाता है। रवि उसे पढ़ाने उसके घर पर आता था। दोनों एक दूसरे को बहुत चाहने लगे थे। पर हेमा की माँ को यह पसंद नहीं आता। अपने उँचे कुल-खानदान और रियासती दिनों की शानो-शौकत के आगे वे रवि को अपने बेटी के लायक नहीं समझती थीं। रवि के पिता इंजीनियर थे। वे रवि और हेमा की शादी का प्रस्ताव हेमा के पिता के सामने रखते हैं। पर हेमा के पिता इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं। साथ ही साथ वे इंजीनियर साहब के मकान छोड़कर चले जाने की हिदायत भी दे देते हैं।
इंजीनियर साहब ऐसा ही करते हैं। रवि के चले जाने के बाद हेमा उदास हरने लगी। पर हेमा पर उसके घरवालों को बिलकुल भी तरस नहीं आया। उन्होंने कुँअर युवराज सिंह नाम एक पैंतालिस वर्ष के साथ हेमा का विवाह करने का निश्चय कर लिया। कँुअर साहब भी किसी पुरानी रियासत के मालिक रह चुके थे। उम्र में हेमा से बहुत बड़े थे। हेमा उन्हें बिलकुल पसंद नहीं करती थी, पर माँ-बाप और अपनी पारिवारिक परिस्थितियों के कारण वह मजबूर थी। और अंतत: वह अपने माँ-बाप और परिवार के लिए खुद की बलि देने के लिए तैयार हो जाती हैं।
इस तरह अपना शरीर वह कुँअर साहब को समर्पित कर देती है। कुँअर साहब से उसकी शादी हो जाती है। परिवार का झूठा अहंकार और सम्मान बच जाता है। कुँअर साहब से रिश्ता जुड़ जाने के कारण हेमा के परिवार को भी आर्थिक सहायता मिल जाती है। हेमा के माँ-बाप चाहते भी यही थे।
अमरकांत का यह उपन्यास भारतीय सामंतवाद की हताशा, निराशा, कुंठा और उनके झूठ अहम के बीच पिसनेवाली एक निर्दोष लड़की हेमा की बड़ी ही मार्मिक कहानी है। होने वाले सामाजिक परिवर्तन को अपने झूठे अहम के दम पर कोई कब तक दबा सकता है। और इसकी कीमत क्या वह अपने ही बच्चों की खुशियों में आग लगा कर करेगा? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर यह उपन्यास बखुबी देता है।
हेमा बदलती हुई परिस्थितियों को समझ रही थी। वह समय के साथ बदलना भी चाहती है, पर उसके माँ-बाप ऐसा नहीं चाहते। खुद हेमा के शब्दों में, ''यह कहना गलत होगा कि हम लोगों के पतन का दायित्व कांग्रेस या देश की स्वतन्त्रता को है, जैसा कि बड़े सरकार कहा करते थे। मैं अब अच्छी तरह समझ गयी थी कि यह धारणा अत्याधिक गलत है। हम लोगों में जो गिरावट आ गयी है वह केवल हमारी ही वजह से। हम न मालूम कितने वर्षो से इस देश के शरीर पर फोड़े की तरह विद्यमान थे जिसको काटकर निकाल फेंकने में ही सारे देश की तरक्की हो सकती थी। परंतु अफसोस की बात तो यह थी कि रियासतें खत्म हो जाने पर भी बहुत से राजा-महाराजा अपनी खोखली उँचाई से नीचे उतरकर जनता में मिलते-जुलते नहीं थे।``29
अमरकांत ने इस उपन्यास के लिए जो कथानक चुना वह सचमुच बड़ा ही संवेदनशील है। रवि और हेमा के प्रेम के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज में हो रहे बहुत बड़े परिवर्तन को रेखांकित करने का प्रयास किया है। कहा जा सकता है कि एक सजग रचनाकार के तौर पर अमरकांत ने इस उपन्यास के माध्यम से समाज में घटित हो रही एक पूरी की पूरी परिवर्तन श्रृंखला को बड़े ही सुंदर तरीके से उपन्यास में पिरोया।
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Tuesday, 27 April 2010
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