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Tuesday 25 December 2018

8. ग़लीज़ दिनों की माशूक़ ।


उन दिनों
आवारा बदचलन रातें
गलीज़ दिनों की माशूक़ थीं 
शायद वह समय
सबकुछ ख़त्म होने का था ।
ये वही दिन थे
जब सारी अफ़वाहें
लगभग सच होतीं
आधी रात के बाद भी आसमान
बिना सितारों का होता
मुसीबतों से स्याह
मग़र चुप ।
ऐसे समय में
न कोई हमसुखन
न हमजुबांन
इश्क़ ओ अदब पर
मानों कर्बला का साया हो
सारंगी पर
सिर्फ़ वह फ़कीर सुनाता
तहजीब-ओ-अदब की
आख़री बात ।
तीख़ी घृणा के बीच
वीभत्स हत्याओं का ज़श्न
यादें मिटाती नफ़रतें
इंसानियत
लाचारी की हद तक बीमार
लिजलिजी
और असहाय ।
ऐसे खोये हुए समय में
सब के सब
खेलने भर के खिलौनें थे
यह कोई
देखा हुआ स्वप्न था
या फ़िर
हमारी आत्मकेंद्रियता की
खोह में छुपा
सचमुच कोई वक्त !!!!
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।