काले उजले दिन :-
163 पृष्ठों के इस उपन्यास का प्रकाशन सन् 2003 से 'राजकमल प्रकाशन` द्वारा हुआ। इस उपन्यास पर अपनी समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कमलाप्रसाद पाण्डेय जी लिखते हैं कि, 'काले उजले दिन` आत्मकथात्मक कहानी है। उसका नायक खुद अपने विकास को दुहराता है। वह विमाता की ईर्ष्या और पिता की विमाता द्वारा संचालित कुटिलता के बीच में पलता है। वह देखता है कि विमाता का पुत्र अशोक सम्पन्नता में जीता है और वह दीनता में। प्यार का अभाव उसकी कुण्ठा बनती है। वह अपने पारिवारिक ममताहीन जीवन से छूटना चाहता है और इसी क्रम मंे उसे क्रान्तिकारी वासुदेव सिंह अच्छे लगे। बाद में मामा के घर की याद आई, विवाह में स्त्री से प्यार की आकांक्षा की - पर सब कुछ परम्परा के भीतर होने से औपचारिक बना रहा। सामन्ती आचार में जिंदगी पिसती रही। नायक प्यार के लिए तड़पता रहा, कान्ति पत्नी ने उसे आदर श्रद्धा और यहाँ तक कि जिन्दगी का उत्सर्ग उसके लिये किया, पर उसमें प्यार की क्षमता नहीं थी। प्यार मिला समानधर्मी रजनी में। अत: पत्नी कांति और प्रेयसी रजनी। नामक के कान्ति और रजीनक े बीच व्यक्तित्व का अनुभवाधीन सहज विकास होता रहा। मानसिक धरातल में ही नहीं, संघर्ष यथार्थ की जमीन में झेला गया।30
कमलाप्रसाद जी का उपर्युक्त मंतव्य इस उपन्यास के संदर्भ में एकदम सटीक है। हमारे समाज में जो परिवर्तन होते हैं, जो असंगतियाँ रह जाती हैं, वे किसी न किसी रूप में समाज के हर व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। सामाजिक मान्यताओं और आदर्शों के बीच यथार्थ की जमीन अलग होती है। इस भूमि पर संघर्षरत व्यक्ति अपनी इच्छओं के अनुरूप चाह कर भी नहीं जी पाता। ऐसे में वह सही-गलत की परिभाषा को अपने तरीके से व्याख्यायित करने का प्रयत्न करता है। किन्तु व्यक्ति और समाज के बीच संघर्ष निरंतर होते हुए भी 'व्यक्ति` की उम्र समाज की तुलना में बहुत कम होती है। अमरकांत ने इस उपन्यास के माध्यम से व्यक्ति, समाज और परिवर्तन के त्रिकोण में निहित द्वंद्व की वेदना को बड़े ही कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास की समस्या किसी काल विशेष की न होकर शाश्वत रूप में व्यक्ति और समाज के बीच होने वाले संघर्ष की समस्या है।
हम अपने जीवनम ें जो भी पाते है, जो भी अनुभव करते हैं, उन्हीं से हमारा व्यक्तित्व लगता है। फिर यही व्यक्तित्व समाज में अपनी सशक्तता के आधार उन मूल्यों को उखाड फेकना चहता है जो उसके अपने अनुभव से समाज के लिए घातक हैं। पर व्यक्ति-व्यक्ति का अपना अलग दायरा होता हैं। यही अलगाव अलग सोच को भी जन्म देता है। अत: समाज इन अलग सोच से होनेवाले खतरों को टालने के लिए कुछ सामाजिक नियम बनाता है। इन नियमों की अवहेलना समाज में हटकर करना मुश्किल है। पर इनके बीच छटपटाहट हर व्यक्ति के हंदर होती है। पुन: इन्ही का संयुक्त प्रयास ही मान्य परम्पराओं को तोड़कर नई परम्परा बनाते हैं। पर हर नई के साथ हमेशा संघर्ष की एक नई स्थिति बनी रहती है।
समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत का उपन्यास काले उजले दिन वास्तव में व्यक्ति के जीवन चक्र में निहित दुख और सुख के क्षणों के प्रतिफल में निर्मित उसके व्यक्तित्व की पड़ताल का अनुपम प्रयोग है। जीवन का पूरा दर्शन कई खंडों में बिखरे व्यक्तिगत अनुभवों का निचोड़ होता है। ऐसे में किसे के द्वारा किया हुआ कोई कार्य सही है या गलत? इसका निर्णय करना बहुत मुश्किल होता है। अमरकांत निश्चित तौर पर इस उपन्यास के माध्यम से जिन प्रश्नों को उठाने का प्रयत्न करते हैं, वे इस बात को झुठला देते हैं कि अमरकांत छोटे दायरे के लेखक हैं।
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Tuesday, 27 April 2010
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