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Tuesday, 9 April 2013

मैं नहीं चाहता चिर दुख

मैं नहीं चाहता चिर दुख
,
सुख दुख की खेल मिचौनी

खोले जीवन अपना मुख!

सुख-दुख के मधुर मिलन से

यह जीवन हो परिपूरण,

फिर घन में ओझल हो शशि,

फिर शशि से ओझल हो घन!


जग पीड़ित है अति दुख से


जग पीड़ित रे अति सुख से,


मानव जग में बँट जाएँ


दुख सुख से औ' सुख दुख से!


अविरत दुख है उत्पीड़न,


अविरत सुख भी उत्पीड़न,


दुख-सुख की निशा-दिवा में,


सोता-जगता जग-जीवन।


यह साँझ-उषा का आँगन,


आलिंगन विरह-मिलन का;


चिर हास-अश्रुमय आनन


रे इस मानव-जीवन का!