बोध कथा १४ : मेहनत का पारस
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किसी गाँव में एक संत स्वभाव का मोची रहता था. सब से प्रेम से मिलता और आदर पूर्वक व्यवहार कर्ता. गाँव में उस मोची क़ी सभी प्रशंशा करते.उस मोची क़ी प्रशंशा को सुकर एक बार एक महात्मा हिमालय से उसके पास आये. इतने बड़े महात्मा को अपने घर अतिथि के रूप मे पाकर वः मोची अपने को धन्य समझ रहा था. उसने उस महात्मा क़ी बहुत सेवा क़ी. जो कुछ भी उससे हो सकता वः सब उसने किया.
कई दिनों तक मोची के घर रहने के बाद,एक दिन वे महात्मा वापस हिमालय क़ी तरफ जाने को निकले.जाने से पहले उन्होंने अपने झोले से एक सफ़ेद पत्थर निकाल कर मोची को देते हुवे बोले,''हे भक्त,मैं तुम्हारी सेवा से खूब प्रसन्न हूँ. यह पारस
पत्थर मैं तुम्हे इनाम के तौर पर देता हूँ.तुम इस पत्थर से लोहे को सोना बना सकते हो .''
उन महात्मा क़ी बात सुनकर उस मोची ने कहा क़ि,'' महाराज,मैं मेहनत पे विश्वाश रखता हूँ.अपनी मेहनत से अपने परिवार का पेट पाल लेता हूँ.मुझे इस पत्थर क़ि जरूरत नहीं है.'' इस पर वे महात्मा बोले क़ि ,'' यह पत्थर मैंने घोर तपस्या से प्राप्त किया है. मैं इसे तुम्हारे पास छोड़ जाता हूँ. तुम चाहो तो इसे इस्तमाल कर लेना,अन्यथा मैं जब दुबारा आऊंगा तो मुझे लौटा देना .'' वह मोची इस बात पर तैयार हो गया.पत्थर आलमारी में रख वह महात्मा को छोड़ने के लिए गाँव क़ी सीमा तक उनके साथ ही रहा.
महात्मा के चले जाने के बाद वह मोची फिर से अपनी दिन चर्या में लग गया.उस पारस पत्थर क़ी तो उसे याद ही नहीं रही. कई साल इसीतरह बीत गए. एक दिन जब वह मोची पसीने से तरबतर कोई चप्पल बनाने का काम कर रहा था,तभी वही महात्मा वंहा वापस आये. मोची क़ी वही दसा देख उन्हें बड़ा दुःख हुआ. उन्होंने जब पारस पत्थर के बारे में पूछा तो उस मोची ने आलमारी से उसे निकाल कर महात्मा को वापस कर दिया.
पारस ले कर वे महात्मा बोले,''तुम मूर्ख हो.इतनी कीमती वास्तु पास रहते हुवे भी तुम इतनी जी तोड़ मेहनत कर रहे हो .'' महात्मा क़ी बात को सुन वह संत मोची विनम्रता से बोला ,''महात्मा जी ,जो बात मेहनत क़ी कमाई में है वो किसी और में नहीं. मेरे इस मेहनत के पसीने में किसी पारस पत्थर से अधिक शक्ति है.''इतना कहकर उस मोची ने जूते-चप्पल बनाने वाले लोहे के स्टैंड को अपने पसीने से भीगे माथे से जैसे ही लगाया,वह लोहे का स्टैंड सोने में बदल गया. यह चमत्कार देख वे महात्मा हतप्रभ रह गए.वे समझ गए क़ी यह मोची कोई साधारण व्यक्ति नहीं है.और वे महात्मा उस मोची के पैरों में गिर पड़े. और बोले महाराज अपना परिचय दें .
महात्मा को उठाकर उस व्यक्ति ने खड़ा किया और बोला,''मुझे संत रैदास कहते हैं. याद रखना मेहनत का पारस ही वह पारस है जो लोहे को सोने में बदल सकता है. जिसे अपनी मेहनत पर भरोसा नहीं,वह जीवन में कुछ भी हासिल नहीं कर सकता .''
संत रैदास क़ी बातों से वे बहुत प्रभावित हुवे.संत रैदास को प्रणाम कर उन्होंने अपनी राह पकड़ी.सच ही कहा है किसी ने क़ि-------------------------
'' खून-पसीने की मेहनत का ,जो भी मिल जाए अच्छा है
किसी और का हक जो छीने, वही व्यक्ति तो गन्दा है ''
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Monday, 29 March 2010
Sunday, 28 March 2010
बोध कथा १३ : अपना
बोध कथा १३ : अपना
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बहुत पुरानी बात है.पुराने मगध साम्राज्य में राजा ने अपने एक सेवक को पत्थरों से मारने क़ी सजा सुनाई .यह पहली बार था जब राजा ने किसी को ऐसी सजा सुनाई हो. सेवक चुप-चाप इस सजा को कबूल कर सब के सामने खड़ा था.सभी लोग बस एक-दूसरे का मुह देख रहे थे.तभी राजा ने फिर कहा,'' आदेश का पालन किया जाय.''
बस फिर क्या था,चारों तरफ से पत्थर उस सेवक पर बरसने लगे.उसका पूरा शरीर लहू लुहान हो गया था.पर वह एक प्रतिमा क़ी भांति अपनी जगह पर खड़ा रहा.इतने पत्थर खाने के बाद भी उसकी आँख से आंसू नहीं निकले.इतने एक दूसरा व्यक्ति वंहा पर आया और उसने अपने हाँथ के फूलों के गुलदस्ते को उस सेवक क़ी तरफ फेंक दिया.वह फूलों का गुलदस्ता सीधे उस सेवक के सर पर लगा,और वह जोर-जोर से रोने लगा.
लोगों को इस बात का बड़ा आश्चर्य हुवा क़ि जो व्यक्ति इतने पत्थरों को खाने के बाद भी नहीं रोया,वह फूलों क़ि मार से कैसे रोने लगा ? धीरे -धीरे सब लोग वंहा से जाने लगे. अंत में एक बूढ़े व्यक्ति ने उस सेवक से पूछा ,''हे सेवक ,तुम्हे सब ने इतने पत्थर मारे ,मगर तुम जरा भी नहीं रोये.इन फूलों से मार खाने के बाद तुम क्यों रो रहे हो ?''इस पर उस घायल सेवक ने जवाब दिया क़ि,''हे बाबा,जो लोग मुझे पत्थर मार रहे थे ,वे मेरे कोई नहीं थे.उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था.पर जिसने मुझे फूलों से मारा वह मेरा अपना था.इसलिए उसके मारने पर मुझे रोना आ गया .''
उस सेवक क़ी बात सुनकर बूढा बोला,''समझ गया बेटा.अपनों के दिए हुवे जख्म बड़े गहरे होते हैं. '' और बूढा वहां से जाने लगा.जाते-जाते उसके कान में घायल ,असहाय सेवक के जो शब्द पड़े वे इस प्रकार थे-------
'' अपनों से ही घाव मिले हैं ,किसको हाल बताऊँ अपना
पीठ में खंजर मारा उसने,जिसे समझता रहा मैं अपना ''
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बहुत पुरानी बात है.पुराने मगध साम्राज्य में राजा ने अपने एक सेवक को पत्थरों से मारने क़ी सजा सुनाई .यह पहली बार था जब राजा ने किसी को ऐसी सजा सुनाई हो. सेवक चुप-चाप इस सजा को कबूल कर सब के सामने खड़ा था.सभी लोग बस एक-दूसरे का मुह देख रहे थे.तभी राजा ने फिर कहा,'' आदेश का पालन किया जाय.''
बस फिर क्या था,चारों तरफ से पत्थर उस सेवक पर बरसने लगे.उसका पूरा शरीर लहू लुहान हो गया था.पर वह एक प्रतिमा क़ी भांति अपनी जगह पर खड़ा रहा.इतने पत्थर खाने के बाद भी उसकी आँख से आंसू नहीं निकले.इतने एक दूसरा व्यक्ति वंहा पर आया और उसने अपने हाँथ के फूलों के गुलदस्ते को उस सेवक क़ी तरफ फेंक दिया.वह फूलों का गुलदस्ता सीधे उस सेवक के सर पर लगा,और वह जोर-जोर से रोने लगा.
लोगों को इस बात का बड़ा आश्चर्य हुवा क़ि जो व्यक्ति इतने पत्थरों को खाने के बाद भी नहीं रोया,वह फूलों क़ि मार से कैसे रोने लगा ? धीरे -धीरे सब लोग वंहा से जाने लगे. अंत में एक बूढ़े व्यक्ति ने उस सेवक से पूछा ,''हे सेवक ,तुम्हे सब ने इतने पत्थर मारे ,मगर तुम जरा भी नहीं रोये.इन फूलों से मार खाने के बाद तुम क्यों रो रहे हो ?''इस पर उस घायल सेवक ने जवाब दिया क़ि,''हे बाबा,जो लोग मुझे पत्थर मार रहे थे ,वे मेरे कोई नहीं थे.उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था.पर जिसने मुझे फूलों से मारा वह मेरा अपना था.इसलिए उसके मारने पर मुझे रोना आ गया .''
उस सेवक क़ी बात सुनकर बूढा बोला,''समझ गया बेटा.अपनों के दिए हुवे जख्म बड़े गहरे होते हैं. '' और बूढा वहां से जाने लगा.जाते-जाते उसके कान में घायल ,असहाय सेवक के जो शब्द पड़े वे इस प्रकार थे-------
'' अपनों से ही घाव मिले हैं ,किसको हाल बताऊँ अपना
पीठ में खंजर मारा उसने,जिसे समझता रहा मैं अपना ''
Saturday, 27 March 2010
बोध कथा :१२ भरोसा
बोध कथा :१२ भरोसा
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एक गाँव में लगातार २० सालों से सूखा पड़ रहा था. पूरे गाँव में हाहाकार मचा हुआ था. कई तरह क़ी महामारी फ़ैल रही थी.लोग बीमार पड़ रहे थे.कई लोग तो गाँव को छोड़ कर जा चुके थे.
ऐसे में एक पुजारी ने गाँव वालों को बताया क़ि यदि वे भगवान् इंद्र को खुश करने के लिए एक बड़ी पूजा आयोजित करें,तो हो सकता है क़ि इंद्र देवता प्रश्नं हो कर बरसात कर दें. गाँव वालों को भी यह बात सही लगी.फिर क्या था, पूजा क़ी तैयारी होने लगी. जिस दिन पूजा का अंतिम दिन था ,तब तक तो बरसात हुई नहीं.फिर भी कोई कुछ कह नहीं रहा था.लेकिन एक आशंका सब के मन में थी. जब पूजा क़ी आहूति देने का समय आया तो गाँव का एक बच्चा हाँथ में छाता और रेनकोट पहने उस जगह पहुंचा .सब लोग उसे देख कर हंस पड़े.
एक बूढ़े व्यक्ति ने उस बच्चे से पूछा,''क्यों रे ,बारिश कंहा हो रही है ?तू छाता लेकर क्यों आया है ?''
उस बूढ़े क़ी बात को सुनकर उस छोटे से बच्चे ने बड़ी ही मासूमियत से जवाब दिया,''दादा,आज पूजा पूरी हो रही है. अभी थोड़ी देर में बारिश शुरू हो जायेगी.उस बारिश से बचने के लिए ही मैं छाता लेकर आया हूँ.''
उस बच्चे क़ी बात पर किसी को विश्वाश नहीं हुआ.लेकिन थोड़ी ही देर में बारिश शुरू हो गई.उस बच्चे का भरोसा काबिले तारीफ़ था. हमे भी अपने द्वारा किये जा रहे श्रम पर भरोशा रखना चाहिए.किसी ने लिखा भी है क़ि --
'' जिनका होता है भरोसा बुलंद,
मंजिल उन्ही क़ी चूमती है कदम ''
(इन तस्वीरों पे मेरा कोई कॉपी राइट नहीं है )
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एक गाँव में लगातार २० सालों से सूखा पड़ रहा था. पूरे गाँव में हाहाकार मचा हुआ था. कई तरह क़ी महामारी फ़ैल रही थी.लोग बीमार पड़ रहे थे.कई लोग तो गाँव को छोड़ कर जा चुके थे.
ऐसे में एक पुजारी ने गाँव वालों को बताया क़ि यदि वे भगवान् इंद्र को खुश करने के लिए एक बड़ी पूजा आयोजित करें,तो हो सकता है क़ि इंद्र देवता प्रश्नं हो कर बरसात कर दें. गाँव वालों को भी यह बात सही लगी.फिर क्या था, पूजा क़ी तैयारी होने लगी. जिस दिन पूजा का अंतिम दिन था ,तब तक तो बरसात हुई नहीं.फिर भी कोई कुछ कह नहीं रहा था.लेकिन एक आशंका सब के मन में थी. जब पूजा क़ी आहूति देने का समय आया तो गाँव का एक बच्चा हाँथ में छाता और रेनकोट पहने उस जगह पहुंचा .सब लोग उसे देख कर हंस पड़े.
एक बूढ़े व्यक्ति ने उस बच्चे से पूछा,''क्यों रे ,बारिश कंहा हो रही है ?तू छाता लेकर क्यों आया है ?''
उस बूढ़े क़ी बात को सुनकर उस छोटे से बच्चे ने बड़ी ही मासूमियत से जवाब दिया,''दादा,आज पूजा पूरी हो रही है. अभी थोड़ी देर में बारिश शुरू हो जायेगी.उस बारिश से बचने के लिए ही मैं छाता लेकर आया हूँ.''
उस बच्चे क़ी बात पर किसी को विश्वाश नहीं हुआ.लेकिन थोड़ी ही देर में बारिश शुरू हो गई.उस बच्चे का भरोसा काबिले तारीफ़ था. हमे भी अपने द्वारा किये जा रहे श्रम पर भरोशा रखना चाहिए.किसी ने लिखा भी है क़ि --
'' जिनका होता है भरोसा बुलंद,
मंजिल उन्ही क़ी चूमती है कदम ''
(इन तस्वीरों पे मेरा कोई कॉपी राइट नहीं है )
Thursday, 25 March 2010
बोध कथा ११ :निशानेबाज
बोध कथा ११ :निशानेबाज
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बहुत पुरानी बात है. रामनगर नामक एक छोटे से गाँव में एक युवक रहता था.उसका नाम था,विवेक. विवेक को तीरंदाजी का बड़ा शौख था. वह दिन-रात बस एक सफल तीरंदाज बनने के सपने देखा करता था. उसकी मेहनत भी धीरे-धीरे रंग ला रही थी. उसकी कला को गाँव वाले सम्मान भी देने लगे थे. अचूक निशाना लगाने में वह लगभग पारंगत हो गया था. लेकिन उसे पूरी दक्षता अभी हासिल नहीं हुई थी.इस लिए वह अपना अभ्यास लगातार कर रहा था .
एक दिन किसी ने उसे बताया क़ि उस राज्य का राजकुमार सबसे बड़ा तीरंदाज है. उसके जैसा निशाना पूरे राज्य में कोई नहीं लगा सकता. यह बात सुनकर विवेक के मन में राजकुमार से मिलने और तीरंदाजी के गुर सीखने क़ि इच्छा हुई. और उसने निश्चित किया क़ि वह राजकुमार से मिलेगा.
एक दिन उसे खबर मिली क़ि राजकुमार शिकार खेलने के लिए जंगल में आये हुए हैं. फिर क्या था ,विवेक भी जंगल क़ि तरफ निकल पड़ा.और सौभाग्य से उसकी राजकुमार से मुलाकात भी हो जाती है. राजकुमार से मिल कर विवेक उन्हें अपने तीरंदाजी क़ि बात से अवगत कराता है :साथ ही साथ उनसे अनुरोध भी करता है क़ि वे उसे तीरंदाजी के कुछ गुर सिखाएं .
विवेक क़ि बातों से राजकुमार प्रभावित होते हैं.राजकुमार उसे तीरंदाजी के कुछ नमूने दिखाने को कहते हैं. विवेक की कला का प्रदर्शन देख कर राजकुमार आश्चर्य चकित हो जाते हैं. वे विवेक से कहते हैं क़ि,'' तुम तो बहुत अच्छे तीरंदाज हो.मुझ से भी अच्छे .मैं तो तुम्हारे आगे कुछ भी नहीं. सीखना तो मुझे तुमसे चाहिए .'' राजकुमार क़ि बातों पर विवेक को विश्वाश नहीं हुआ.आखिर राजकुमार ने विवेक से कहा ,''मित्र,तुम पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करते हो,फिर वंहा निशाना लगाते हो.मैं ऐसा नहीं करता ,मैं पहले तीर चला देता हूँ.फिर वह तीर जंहा लग जाता है,उसे ही लक्ष्य घोषित कर देता हूँ.आखिर राजकुमार जो हूँ. कुछ समझे ?'' इतना कहकर राजकुमार हसने लगे. विवेक भी हसने लगा .
बड़े परिवारों या बड़े घरानों में पैदा हो जाने से भी,यह समाज आप को प्रतिभावान मानने लगता है.ऐसे लोगों के लिए ही किसी ने लिखा है क़ि-------
''जिनके घर अमीरी का सजर लगता है
उनका हर ऐब ,जमाने को हुनर लगता है ''
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बहुत पुरानी बात है. रामनगर नामक एक छोटे से गाँव में एक युवक रहता था.उसका नाम था,विवेक. विवेक को तीरंदाजी का बड़ा शौख था. वह दिन-रात बस एक सफल तीरंदाज बनने के सपने देखा करता था. उसकी मेहनत भी धीरे-धीरे रंग ला रही थी. उसकी कला को गाँव वाले सम्मान भी देने लगे थे. अचूक निशाना लगाने में वह लगभग पारंगत हो गया था. लेकिन उसे पूरी दक्षता अभी हासिल नहीं हुई थी.इस लिए वह अपना अभ्यास लगातार कर रहा था .
एक दिन किसी ने उसे बताया क़ि उस राज्य का राजकुमार सबसे बड़ा तीरंदाज है. उसके जैसा निशाना पूरे राज्य में कोई नहीं लगा सकता. यह बात सुनकर विवेक के मन में राजकुमार से मिलने और तीरंदाजी के गुर सीखने क़ि इच्छा हुई. और उसने निश्चित किया क़ि वह राजकुमार से मिलेगा.
एक दिन उसे खबर मिली क़ि राजकुमार शिकार खेलने के लिए जंगल में आये हुए हैं. फिर क्या था ,विवेक भी जंगल क़ि तरफ निकल पड़ा.और सौभाग्य से उसकी राजकुमार से मुलाकात भी हो जाती है. राजकुमार से मिल कर विवेक उन्हें अपने तीरंदाजी क़ि बात से अवगत कराता है :साथ ही साथ उनसे अनुरोध भी करता है क़ि वे उसे तीरंदाजी के कुछ गुर सिखाएं .
विवेक क़ि बातों से राजकुमार प्रभावित होते हैं.राजकुमार उसे तीरंदाजी के कुछ नमूने दिखाने को कहते हैं. विवेक की कला का प्रदर्शन देख कर राजकुमार आश्चर्य चकित हो जाते हैं. वे विवेक से कहते हैं क़ि,'' तुम तो बहुत अच्छे तीरंदाज हो.मुझ से भी अच्छे .मैं तो तुम्हारे आगे कुछ भी नहीं. सीखना तो मुझे तुमसे चाहिए .'' राजकुमार क़ि बातों पर विवेक को विश्वाश नहीं हुआ.आखिर राजकुमार ने विवेक से कहा ,''मित्र,तुम पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करते हो,फिर वंहा निशाना लगाते हो.मैं ऐसा नहीं करता ,मैं पहले तीर चला देता हूँ.फिर वह तीर जंहा लग जाता है,उसे ही लक्ष्य घोषित कर देता हूँ.आखिर राजकुमार जो हूँ. कुछ समझे ?'' इतना कहकर राजकुमार हसने लगे. विवेक भी हसने लगा .
बड़े परिवारों या बड़े घरानों में पैदा हो जाने से भी,यह समाज आप को प्रतिभावान मानने लगता है.ऐसे लोगों के लिए ही किसी ने लिखा है क़ि-------
''जिनके घर अमीरी का सजर लगता है
उनका हर ऐब ,जमाने को हुनर लगता है ''
Wednesday, 24 March 2010
बोध कथा १० : आदमी
बोध कथा १० : आदमी
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एक बहुत ही दानी और अमीर व्यापारी के बारे में सुन कर गरीब ब्राह्मण रामानंद ने सोचा क़ि वह भी क्यों ना व्यापारी के पास जा कर कुछ स्वर्ण मुद्राएँ मांग लाये.अपने मन की बात जब रामानंद ने अपनी धर्म पत्नी से कही तो उन्होंने भी इसके लिए हाँ कर दिया .
फिर क्या था ? सुबह -सबेरे ब्राह्मण देवता चना-चबैना-गंगजल लेकर नगर क़ी तरफ निकल पड़े.लम्बी पद यात्रा कर के जब वे व्यापारी के पास पहुंचे तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना ना था. उन्होंने व्यापारी को अपनी सब ग्रह दशा बता दी. व्यापारी ने बड़े ही अनमने भाव से उनकी बात सुनी.अंत में बोला'' ठीक है ब्राह्मण ,कल आ जाना.आज कोई आदमी नहीं है.'' इतना कह कर वह व्यापारी घर के अंदर चला गया. ब्राह्मण सोचने लगा क़ि कुछ बड़ा सा दान मिलने वाला है.एक दिन इन्तजार सही.नगर में इधर-उधर घूम कर भूखे पेट जैसे-तैसे उन्होंने रात बिताई.सुबह जब फिर व्यापारी के पास गए तो व्यापारी ने वही टका सा जवाब दिया. ''कल आना,आज आदमी नहीं है.''
इस तरह लगभग एक महीना बीत गया. ब्राह्मण रोज व्यापारी के पास जाता और व्यापारी वही रटा-रटाया जवाब देता क़ि,''कल आना,आदमी नहीं है .'' इस बार भी जब ब्राह्मण को वही जवाब मिला तो ,उससे रहा नहीं गया.ब्राह्मण ने हाँथ जोडकर विनम्रता पूर्वक कहा,''हे सेठ श्री,गलती आप की नहीं है. आप के पास आदमी नहीं है ,और मैं तो आप को ही आदमी समझ कर आ गया था.बड़ी भूल हुई,अब नहीं आऊंगा .''इतना कह कर ब्राह्मण तो चला गया पर व्यापारी को काटो तो खून नहीं.वह अपने व्यवहार पर अंदर ही अंदर जीवन भर शर्मिंदा होता रहा.
हमे जीवन में किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए.रहीम ने लिखा भी है क़ि------
'' रहिमन वे नर मर चुके,जो कुछ मांगन जांहि
उनसे पहले वो मुवें,जिन मुख निकसत नाहिं ''
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एक बहुत ही दानी और अमीर व्यापारी के बारे में सुन कर गरीब ब्राह्मण रामानंद ने सोचा क़ि वह भी क्यों ना व्यापारी के पास जा कर कुछ स्वर्ण मुद्राएँ मांग लाये.अपने मन की बात जब रामानंद ने अपनी धर्म पत्नी से कही तो उन्होंने भी इसके लिए हाँ कर दिया .
फिर क्या था ? सुबह -सबेरे ब्राह्मण देवता चना-चबैना-गंगजल लेकर नगर क़ी तरफ निकल पड़े.लम्बी पद यात्रा कर के जब वे व्यापारी के पास पहुंचे तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना ना था. उन्होंने व्यापारी को अपनी सब ग्रह दशा बता दी. व्यापारी ने बड़े ही अनमने भाव से उनकी बात सुनी.अंत में बोला'' ठीक है ब्राह्मण ,कल आ जाना.आज कोई आदमी नहीं है.'' इतना कह कर वह व्यापारी घर के अंदर चला गया. ब्राह्मण सोचने लगा क़ि कुछ बड़ा सा दान मिलने वाला है.एक दिन इन्तजार सही.नगर में इधर-उधर घूम कर भूखे पेट जैसे-तैसे उन्होंने रात बिताई.सुबह जब फिर व्यापारी के पास गए तो व्यापारी ने वही टका सा जवाब दिया. ''कल आना,आज आदमी नहीं है.''
इस तरह लगभग एक महीना बीत गया. ब्राह्मण रोज व्यापारी के पास जाता और व्यापारी वही रटा-रटाया जवाब देता क़ि,''कल आना,आदमी नहीं है .'' इस बार भी जब ब्राह्मण को वही जवाब मिला तो ,उससे रहा नहीं गया.ब्राह्मण ने हाँथ जोडकर विनम्रता पूर्वक कहा,''हे सेठ श्री,गलती आप की नहीं है. आप के पास आदमी नहीं है ,और मैं तो आप को ही आदमी समझ कर आ गया था.बड़ी भूल हुई,अब नहीं आऊंगा .''इतना कह कर ब्राह्मण तो चला गया पर व्यापारी को काटो तो खून नहीं.वह अपने व्यवहार पर अंदर ही अंदर जीवन भर शर्मिंदा होता रहा.
हमे जीवन में किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए.रहीम ने लिखा भी है क़ि------
'' रहिमन वे नर मर चुके,जो कुछ मांगन जांहि
उनसे पहले वो मुवें,जिन मुख निकसत नाहिं ''
Monday, 22 March 2010
बोध कथा ९ : दोस्ती
बोध कथा ९ : दोस्ती
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एक दिन जब तबेले में सुबह-सुबह ताज़ा दूध निकाला जा रहा था,तभी दूध क़ी नजर सामने पड़े पानी से लबा-लब भरी बाल्टी पर गयी.पानी को देखते ही दूध ने इतरा कर कहा ,''कहो दोस्त ,क्या हाल है ?''. पानी का ध्यान दूध क़ी तरफ गया.उसने भी विनम्रता पूर्वक कहा,''ठीक हूँ दोस्त.बस तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था. अभी थोड़ी देर में ये लोग हम दोनों को मिलाकर एक कर देंगे.मै भी तुम्हारे ही रंग में रंग कर,तुम्हारा ही अंश बन जाऊँगा .'' दूध क़ी बात सुनकर पानी बोला,''हाँ भाई,तुम्हारी तो मजा ही मजा है. हो तो मामूली पानी लेकिन मेरे साथ मिलकर मेरे ही भाव में बिकते हो.तुम्हे अपने इस दोस्त का एहसान मानना चाहिए .'' यह बात सुनकर पानी थोडा संकोच में पड़ गया,लेकिन उसने तुरंत जवाब दिया कि,''मैं तुम्हारी बात मानता हूँ.तुम मुझे अपने में शामिल कर मेरा मूल्य बढ़ा देते हो.मै भी वचन देता हूँ क़ि जब भी तुम पर कोई खतरा आएगा ,पहले उस खतरे का सामना मै करूँगा.मेरे जीते जी कोई तुम्हारा बाल भी बाका नहीं कर सकेगा.''
इतने में तबेलेवाला वंहा आया और उसने दूध और पानी को मिलाकर एक ही कर दिया.थोड़ी देर में एक गाडी आयी और उसमे दूध को रख दिया गया. दूध को बेचने के लिए बाजार भेजा जा रहा था. बाजार में पूरा दूध थोडा-थोडा कर बेच भी दिया गया.लेकिन जंहा भी दूध गया ,वंहा उसे गर्म करने के लिए खरीदार ने गैस पे रख दिया. जब आग क़ि आंच दूध ने महसूस क़ी तो वह चिल्ला पड़ा,''अरे यह क्या ? इस तरह तो ये लोग हमे जला कर मार डालेंगे .अब हम क्या करें ?'' दूध क़ी बात को सुनकर उसमे मिले पानी ने कहा,''चिंता मत करो मित्र.जब तक मै तुम्हारे साथ हूँ ,तुम्हे कुछ नहीं होने दूंगा.अगर जलना ही है तो पहले मैं जलूँगा.''
यह कहकर पानी जलने लगता है. वह वाष्प बनने लगता है. अपने दोस्त क़ी यह हालत देखकर दूध का मन विचलित हो जाता है.वह पानी को अपने से दूर जाने से रोकने के लिए ,अपने मलाई क़ी एक मोटी परत पूरे बर्तन के ऊपर फैला देता है. परिणामस्वरूप पानी वाष्प के रूप में बाहर नहीं जा पाता और दूध में उबाल आ जाता है.उबाल को देख कर खारीदार भी गैस बंद कर देता है. इसतरह दूध और पानी सच्ची दोस्ती क़ी एक मिसाल सामने रखते हैं.वे अपने प्राणों क़ी भी परवाह नहीं करते.ऐसी दोस्ती के लिए ही किसी ने लिखा है क़ि-----
'' हर रिश्ते से बड़ा है,दोस्ती का रिश्ता
मत तोडना कभी,दोस्ती का रिश्ता ''
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एक दिन जब तबेले में सुबह-सुबह ताज़ा दूध निकाला जा रहा था,तभी दूध क़ी नजर सामने पड़े पानी से लबा-लब भरी बाल्टी पर गयी.पानी को देखते ही दूध ने इतरा कर कहा ,''कहो दोस्त ,क्या हाल है ?''. पानी का ध्यान दूध क़ी तरफ गया.उसने भी विनम्रता पूर्वक कहा,''ठीक हूँ दोस्त.बस तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था. अभी थोड़ी देर में ये लोग हम दोनों को मिलाकर एक कर देंगे.मै भी तुम्हारे ही रंग में रंग कर,तुम्हारा ही अंश बन जाऊँगा .'' दूध क़ी बात सुनकर पानी बोला,''हाँ भाई,तुम्हारी तो मजा ही मजा है. हो तो मामूली पानी लेकिन मेरे साथ मिलकर मेरे ही भाव में बिकते हो.तुम्हे अपने इस दोस्त का एहसान मानना चाहिए .'' यह बात सुनकर पानी थोडा संकोच में पड़ गया,लेकिन उसने तुरंत जवाब दिया कि,''मैं तुम्हारी बात मानता हूँ.तुम मुझे अपने में शामिल कर मेरा मूल्य बढ़ा देते हो.मै भी वचन देता हूँ क़ि जब भी तुम पर कोई खतरा आएगा ,पहले उस खतरे का सामना मै करूँगा.मेरे जीते जी कोई तुम्हारा बाल भी बाका नहीं कर सकेगा.''
इतने में तबेलेवाला वंहा आया और उसने दूध और पानी को मिलाकर एक ही कर दिया.थोड़ी देर में एक गाडी आयी और उसमे दूध को रख दिया गया. दूध को बेचने के लिए बाजार भेजा जा रहा था. बाजार में पूरा दूध थोडा-थोडा कर बेच भी दिया गया.लेकिन जंहा भी दूध गया ,वंहा उसे गर्म करने के लिए खरीदार ने गैस पे रख दिया. जब आग क़ि आंच दूध ने महसूस क़ी तो वह चिल्ला पड़ा,''अरे यह क्या ? इस तरह तो ये लोग हमे जला कर मार डालेंगे .अब हम क्या करें ?'' दूध क़ी बात को सुनकर उसमे मिले पानी ने कहा,''चिंता मत करो मित्र.जब तक मै तुम्हारे साथ हूँ ,तुम्हे कुछ नहीं होने दूंगा.अगर जलना ही है तो पहले मैं जलूँगा.''
यह कहकर पानी जलने लगता है. वह वाष्प बनने लगता है. अपने दोस्त क़ी यह हालत देखकर दूध का मन विचलित हो जाता है.वह पानी को अपने से दूर जाने से रोकने के लिए ,अपने मलाई क़ी एक मोटी परत पूरे बर्तन के ऊपर फैला देता है. परिणामस्वरूप पानी वाष्प के रूप में बाहर नहीं जा पाता और दूध में उबाल आ जाता है.उबाल को देख कर खारीदार भी गैस बंद कर देता है. इसतरह दूध और पानी सच्ची दोस्ती क़ी एक मिसाल सामने रखते हैं.वे अपने प्राणों क़ी भी परवाह नहीं करते.ऐसी दोस्ती के लिए ही किसी ने लिखा है क़ि-----
'' हर रिश्ते से बड़ा है,दोस्ती का रिश्ता
मत तोडना कभी,दोस्ती का रिश्ता ''
Sunday, 21 March 2010
बोध कथा ८ :कछुए और खरगोश क़ी आगे क़ी कहानी
बोध कथा ८ :कछुए और खरगोश क़ी आगे क़ी कहानी
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आप में से शायद ही कोई हो जिसे कछुए और खरगोश क़ी कहानी मालूम ना हो .लेकिन वह कहानी जंहा ख़त्म होती है ,वँही से मैं यह नई कहानी शुरू कर रहा हूँ.आशा है आप लोंगों को पसंद आएगी .
--------------तो जैसा क़ी आप जानते हैं क़ि कछुए और खरगोश क़ी दौड़ में कछुआ विजयी होता है.यह बात जब जंगल में फैलती है तब खरगोश का बड़ा मजाक उड़ाया जाता है. हर कोई खरगोश को ताने देने लगता है. बेचारा खरगोश बहुत दुखी होता है. उसे समझ में नहीं आता क़ि वह क्या करे? अंत में वह निर्णय लेता है क़ि वह शांतिपूर्वक अपनी हार का कारण समझने क़ी कोशिस करेगा.बहुत चिन्तन-मनन करने के बाद उसे यह बात समझ में आ गयी क़ि ,''शत्रु या प्रतिस्पर्धी को कभी भी कमजोर नहीं समझना चाहिए .साथ ही साथ अति आत्मविश्वाश से भी हमे नुकसान उठाना पड़ता है.''इस बात को अच्छी तरह समझ कर वह फिर से कछुए से शर्त लगाने क़ी योजना बनता है. इसी संदर्भ में बात करने के लिए वह कछुए के घर जाता है. कछुआ उसका ह्रदय से स्वागत करता है. थोड़े अल्पाहार के बाद कछुए ने खरगोश से पूछा -''कहो मित्र कैसे आना हुआ ?'
खरगोश बोला,''भाई ,मैं तो आप को पिछली जीत क़ी बधाई और नई दौड़ प्रतियोगिता के लिए आमंत्रित करने के लिए आया हूँ.आशा है तुम इनकार नहीं करोगे.'' कछुए ने मन ही मन सोचा क़ि वह तो खरगोश को एक बार हरा ही चुका है,दुबारा दौड़ लगाने में मेरा क्या नुकसान .और बिना कुछ सोचे समझे अति उत्साह में वह हाँ बोल देता है. और दूसरे दिन फिर दौड़ शुरू होती है.इस बार भी खरगोश बहुत आगे निकल आता है. कछुआ बहुत पीछे छूट गया रहता है. खरगोश ने इस बार पक्का निर्णय लिया था क़ि जब तक वह दौड़ जीत नहीं जाता ,वह कंही रुकेगा नहीं.परिणामस्वरूप इस बार दौड़ खरगोश जीत जाता है.और अपने अपमान का बदला लेने में कामयाब हो जाता है.
लेकिन इस घटना से कछुआ बड़ा दुखी होता है. उसे लगता है क़ि नाहक ही उसने दुबारा दौड़ के लिए हाँ किया.जंगल में उसकी कितनी इज्जत बढ़ गयी थी,लेकिन सब किये कराये पर पानी फिर गया. वह चुप -चाप घर पर पड़े-पड़े सोचने लगा क़ि आखिर वह इस बार हार क्यों गया ? .और बहुत सोचने के बाद उसे समझ में आया क़ि,''हर व्यक्ति के अंदर कुछ प्रकृति दत्त क्षमताएं हैं.वह उसी के अंदर हो सकती हैं. खरगोश जमीन पर हर हाल में मुझसे दौड़ में जीत जाएगा.मैं जमीन पर उसका मुकाबला नहीं कर सकता.यह उसकी प्रकृति है.मैं पानी में तेज चल सकता हूँ,जब क़ि खरगोश नहीं.यह मेरी प्रकृति है.''यह सोचते हुवे ही कछुए के मन में एक बात आती है. वह सोचता है क़ि अगर दौड़ नदी के उस पार तक लगायी जाए तो मेरी जीत सुनिश्चित है,क्योंकि खरगोश नदी पार नहीं कर पायेगा .बस फिर क्या था ,कछुआ खरगोश के पास जाकर बोला,''खरगोश भाई,आप को जीत मुबारक हो.आप के कहने पर मैंने दुबारा शर्त लगाई.अब मेरी इच्छा है क़ि कल एक बार फिर हम दोनों दौड़ लगाएं.लेकिन इस बार हम नदी के उस पार आम के पेड तक जायेंगे.बोलो,मंजूर है ?'' खरगोश कुछ समझ नहीं पाया.उसने भी शर्त के लिए हाँ कर दिया .
एक बार फिर दौड़ शुरू हुई. नदी तट तक तो खरगोश आगे रहा ,पर वह नदी पार नहीं कर सकता था.नदी का प्रवाह तेज था और नदी गहरी थी.परिणामस्वरूप वह वँही रुक गया.जब क़ि कछुआ आसानी से नदी पार कर,आम के पेड तक पहुँच गया.और इस तरह इस बार की दौड़ कछुआ जीत गया.इस जीत से वह खुश हुआ .उधर खरगोश अपनी हार से निराश था.वह समझ गया था क़ि कछुए ने चालाकी से काम लिया है.
बहुत दिनों बाद दोनों फिर मिले और अपनी हार-जीत पर बातें करने लगे.बहुत लम्बी चर्चा के बाद दोनों इस निष्कर्ष पर पहुंचे क़ि,
''हर व्यक्ति क़ि क्षमता अलग-अलग होती है.अगर हम परस्पर सहयोग और सहकारिता क़ी नीति पर चलते हुए कार्य करें,तभी हम आगे बढ़ सकते हैं.सच्ची शक्ति इस आपसी सहयोग में ही है.आपसी प्रतिस्पर्धा में नहीं.एकता ही हमे अलौकिक शक्ति प्रदान कर सकती है.इसलिए हमे एक होकर काम करना चाहिए.''
अपनी इसी बात को जंगल में सभी को समझाने के लिए दोनों एक बार फिर से नदी के उस पार तक दौड़ लगाते हैं. इस बार जब तक जमीन पर दौड़ना था,तब तक कछुआ ,खरगोश क़ी पीठ पर बैठा रहा.और जब नदी पार करने क़ी बात आयी तो खरगोश ,कछुए क़ी पीठ पर बैठ गया. इसतरह परस्पर सहयोग से दोनों ने दौड़ पूरी क़ी और दोनों ही संयुक्त विजेता घोषित किये गए.सारा जंगल उनकी बुद्धिमानी क़ी चर्चा कर रहा था.दोनों का ही सम्मान जंगल में बढ़ गया था.
इस तरह इस नई कहानी से हमे सीख मिलती है क़ि ताकत जोड़ने से बढती है ,और आपसी सहयोग से नामुमकिन कार्य भी मुमकिन हो जाता है. इसलिए हमे हर किसी क़ि क्षमता के अनुरूप उसका सम्मान करना चाहिए.किसी को भी कमजोर नहीं समझना चाहिए.किसी ने लिखा भी है क़ि
'' हाँथ पकडकर एक-दूजे का,
आगे ही आगे बढो .
एकता क़ी शक्ति के दम पर,
मुमकिन सब तुम काम करो ''
डॉ.मनीष कुमार मिश्रा
( i do not have any type of copy right on the photos of this post.i have got them as a mail. )
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