जी हाँ! मैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष, जिसके विषय में पद््मपुराण यह कहता है कि - जो मनुष्य
सड़क के किनारे तथा जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाता है वह स्वर्ग में उतने ही वह वृक्ष
फलता फूलता है। इस तरह आप मेरे महत्त्व को समझ सकते हैं। मेरी प्रशंसा करते हुए महाकवि कालीदास
`अभिज्ञान शाकुन्तलम्' में लिखते हैं -
``अनुभवति हि मूर्ध्ना पादपस्तीऋामुष्णं।
शमयति परितापं छायया संश्रितानाम्।।''
जिसका अर्थ है कि मैं (वृक्ष)
अपने सिर पर गर्मी सह लेता हँू। परन्तु अपनी छाया से औरों को गर्मी से
बचाता हूँ। मेरे ही विषय में `शार्गधरपद््धति:' में कहा गया है कि -
``पत्रपुष्पफलच्छाया मूल वल्कल दारुभि:
।
गन्धनिर्यासभस्मास्थितोक्मैं: कामान् वितन्वते।।''
अर्थात, मैं (वृक्ष)
अपने पत्ते, फूल, फल,
छाया, मूल, वल्कल,
काष्ट, गन्ध, दूध,
भस्म, गुण्ली और कोमल अंकुर से सभी प्राणियों को
सुख पहुँचाता हँू।
यह सब बातें मेरे महत्त्व को बतलाने में समर्थ
हैं। मैं हजारों-लाखो-करोडों वर्षो से अपना सबकुछ देकर इस धरा के धराधारियों
को जीवन प्रदान कर रहा हँू। लेकिन आज मैं यह सोचकर सिहर जाता हँू कि आखिर मैं अपनी
यह जिम्मेदारी कबतक निभा पाऊगाँ? मुझे नष्ट करने वाले नादान,
ये नहीं समझ पा रहे हैं कि मेरे बिना उनका अपना ही अस्तित्व शून्य में
विलीन हो जायेगा।
सूर्य इस संसार की आत्मा है। वेदों की यह वाणी
आध्यात्मिक और वैज्ञानिक रुपों में सच है। आधुनिक चिकित्साशास्त्र भी सूर्य की किरणों
को `प्राकृतिक महौबाधि' मानता है। पर सूर्य कब तक हमें ऊर्जा
और स्वास्थ्य देने वाला बना रहेगा? यह प्रश्न आज के मनुष्यों
के चिंतन का विषय होना चाहिए। क्योंकि शायद बहुत लम्बे समय तक सूर्य अपनी यह जिम्मेदारी
निभा नहीं पायेगा।
आज का मनुष्य अपनी करतूतों से ऐसी परिस्थितियाँ
पैदा करने जा रहा है कि सूर्य आराध्य देव नहीं बल्कि सबसे बड़ा शत्रु हो जायेगा। सूर्य की किरणें कैंसर जैसे भयानक
रोग अपने साथ लाएगी और रोग से लड़ने की इंसानी क्षमता को नष्ट कर देगी। गर्मी बेहद
बढ़ जायेगी और बर्फ पिघल कर समुद्रतल को बढ़ा देगी। समुद्र के किनारे बसे शहर पानी
में डूब जायेगे। कूएँ सूख जाएँगे और रेत का साम्राज्य इतना बढ़ जाएगा कि लोगों को जान
बचाने के लिए मैदानों व जंगलों की तरफ भागना पड़ेगा। पर इसमें सूर्य की क्या गलती?
गलती तो अपने अहंकार में चूर मानव की ही है। मनुष्य मुझे और मुझसे निर्मित
पर्यावरण को महत्त्वहीन मान रहा है। हमारे साथ खिलवाड़ करते हुए वह यह भूल गया है कि
हमारे बिना मनुष्य अपने आनेवाले कल की कल्पना तक नही कर सकता।
यह सब मैं इसलिए कह रहा हँू क्योंकि संकट की
घड़ी आ चुकी है। जीवनभर सहज स्वाभाविक तौर पर जीते हुए साँसों के जरिये प्राणवायु का
इस्तमाल करते हुए मनुष्य कभी भी उसके बारे में नहीं सोचता। परन्तु साँसों में तकलीफ
होते ही आक्सीजन सिलेण्डर की याद आती है। जब तक आपदाएँ कहर बनकर नहीं टूटीं तब तक जल, हवा,
जमीन और मेरे बारे में किसी मनुष्य ने भी नहीं सोचा।
ऐसा नहीं है कि सभी मनुष्य एक समान हैं। वे महान
आत्माएँ जो मेर महत्त्व को समझने में सफल हुए, उन्होनें इसे दूसरों तक पहुँचाने का
अथक प्रयास किया। `सामान इकट्ठा करते जाना' इसे समृद्धि का प्रतिमान मानने की प्रवृत्ति को महान रवीन्द्रनाथ टैगोर ने
जिस नाम से पुकारा वह है - `सभ्यतानाम्नी पाताल'। नदी के पानी पर बाँध-बाँधने के खिलाफ उन्होंने `मुक्तधारा' नाटक लिखा। धरती के नीचे सुषुप्त सम्पदा को
कुछ लालची लोगों द्वारा निकाले जाने के विरूद्ध उन्होंने `रक्तकरबी'
और अनेक निबंध लिखे हैं। उन्होंने कहा था, `मनुष्य
का लोभ सिर्फ प्रकृति के विनाश से शान्त नहीं होगा, वह मनुष्य
का भी विनाश करेगा। `महात्मा गाँधी का यह कथन सभी देशों के पर्यावरण विद यंत्रवत उद्धृत करते हैं
- Nature
has enough for everybody's need but not for everybody's greed.
मनुष्य की सभ्यता का इतिहास मूलत: मेरे साथ उसकी
गृहस्थी का इतिहास है। प्रत्येक प्राचीन सभ्यता में आम लोग प्राकृतिक शक्तियों का सम्मान
करते रहे हैं। उनसे प्यार
करते रहे हैं। आदिम काल में मनुष्य ने सिर्फ अज्ञान और भयवश प्राकृतिक शक्तियों की
पूजा की है, ऐसा नहीं है। पर्यावरण संरक्षण के लिए तमाम नियम
उन्होंने बनाये थे। जिन्हें वे मानते थे। किस मौसम में कौन-सी
मछलियाँ या सब्जियाँ खायी जाएँ, जंगल से पेड़ काटने जरूरी हो
तो कैसे छाँटे जाएँ, ऐसे अनेक नियम उन्होंने अपने अनुभवो से ही
बनाए। बंगाल में `खनार बचन' हिन्दी में `घाघ'
और राजस्थान में `भडलीपुराण' तो असल में मिट्टी, जल और सौर उर्जा के अन्तरसम्बन्धों
पर आधारित सटीक कृषि कार्य संचालन के अनुभवों का संकलन ही है।
मुझे कभी - कभी यह सोचते हुए हँसी भी आती
है और गुस्सा भी आता है कि मैं वृक्ष होकर भी महान आत्माओं द्वारा कहे हुए व लिखे हुए
ज्ञान को जानता हँू, समझता हूँ, पर मनुष्य
खुद इन चीजों पर अमल करते हुए कही दिखायी नहीं दे रहा है। आज मनुष्य उसी शेख चिल्ली
की तरह व्यवहार कर रहा है जो उसी डाल को काटने पर तुला हुआ रहता जिस पर खुद बैठता था।
`आ बैल मुझे मार' यह बात आज के मनुष्यो
पर उनके क्रियाकलापों को देखकर सच लग रही है। आज मेरे विनाश में पृथ्वी के सभी देशों
की सरकारे लगी है। सत्ता संपन्न लोग भी वन-विनाश की नीतियाँ तैयार
करते नजर आ रहे हैं। और यह काम दिन दुनी रात चौगनी वाली स्थिती में पहुँचकर आज एक भयानक
मानवीय संकट के रुप में प्रतिष्ठित हो चुका है।
मनुष्यों द्वारा अपना स्वार्थ को साधने में मेरा
भरपूर इस्तमाल किया गया है। भारत के संदर्भ में कहूँ तो - कहना होगा
कि ब्रिटिश नौसैनिक बेड़ों की अपराजेयता भारत वर्ष और बर्मा के सागौन जंगलों की कीमत
पर स्थापित हुई। इससे पहले यूरोप मे जहाज ओक की लकड़ियों से बनाये जाते थे। लेकिन औपनिवेशिक
शक्तियों की आपसी लड़ाइयो में उन्नीसवीं सदी के शुरू में ही यूरोप के प्राचीन व विख्यात
ओक के जंगल समाप्त हो गए। परिवहन सुविधा के म ेनजर ब्रिटिश हुक्मरानों ने जब भारतवर्ष
में रेल की पटरियां बिछानी शुरु की और रेलवे इंजन दौड़ने लगे, तब पटरियों के स्लीपरों के लिए व्यापक पैमाने पर अहेतुक अपव्यय के बतौर हिमालय
से, खासतौर पर कुमायूँ गढ़वाल से हजारों-हजार वृक्ष काटे गए। निर्यात के लिए जिन इलाकों में खेती का पैमाना बढ़ाने
की जरुरत पड़ी, उन सभी जगहों पर मेरी अन्धाधुन्ध कटाई हुई। गुलाम
भारतवर्ष की विशाल अरण्यभूमि इसीतरह हिंस्त्र, अदूरदर्शी,
स्वार्थान्वेषी आक्रमणों में निहत हुई। यह सिर्फ भारतवर्ष का ही नहीं,
तीसरी दुनियाँ के प्रत्येक देश का सत्य है। स्पेन ने दक्षिण अमेरिका
के जिन देशों को उपनिवेश बनाया, वहाँ गन्ने के रस से चीनी तैयार
करने के क्रम में इंधन के तौर पर उन इलाकों के जंगल काटकर फूंक दिये।
सबसे भयंकर बात तो यही है कि यह भयंकर विनाश
बन्द होने के बजाय आज और भी ज्यादा तेजी से चल रहा है। उपग्रहों से मिली तस्वीरों के
द्वारा मनुष्यां को यह ज्ञात है कि हरसाल लगभग 13 लाख हेक्टेअर जमीन पर बसे जंगल
साफ हो रहे हैं। कहीं सड़के बन रही हैं, कहीं नये पर्यटन स्थल
बन रहे है अथवा कहीं नगर-निर्माण के लिए हजारो-हजार हेक्टेअर प्राचीन वनभूमि का विध्वंस हो रहा है। जंगलों के विनाश से वनवासियों
के संकट और कष्टों के अलावा सबसे बड़ा संकट भूमि कटाव का है। जंगल ही जमीन को वर्षा
के सीधे प्रहार से बचाते हैं। जंगल - रिक्त भूमि की उर्वर ऊपरी
सतह वृष्टि से घुल जाती है। इससे एक ओर तो विस्तीर्ण अंचल रूक्ष, निष्पादप और अनुर्वर बन जाते हैं, दूसरी ओर पानी के साथ
निकली वह मिट्टी नदियों की सतह में जमा होने लगती है, और नदियों
का स्वाभाविक प्रवाह बाधित होता है। इसी कारण से पशुपालन क्षेत्र भी नष्ट होते हैं।
इसतरह मेरी दुर्दशा का आलम यह है कि वह सार्वभौम
होते हुए भी,
काई सार्थक पहल मुझे बचाने के लिए नही हो रही है। सबसे चिंतनीय परिस्थितियाँ
उष्णकटिबंध के जंगलों की है, जो धरती के केवल सात फीसदी हिस्से
पर फैले हैं पर दुनियाँ के 50 से 80 जैविक और वानस्पतिक प्रजातियों के
घर हैं। इन जगलों के विनाश की रफ्तार प्रति सेकेण्ड एक मैदान के बराबर है। ब्राजील
के दो-दो सौ फुट ऊँचे पेड़ो वाले विशाल रांडोनिया के जंगलो का
20 नष्ट किया जा चुका
है। और अगर इसकी यही रफ्तार रही तो आनेवाले 20-22 सालों में रांडोनिया
के जंगल धरती के नक्शे से गुम हो जायेगें।
वैसे मनुष्यों द्वारा लिखे गए पौराणिक ग्रंथो
में यह कहा गया है कि मेरा उद््भव मेरी कृतघ्नता के दंड स्वरुप हुआ है। जिसके प्रायश्चित
स्वरुप मुझे इस जन्म में जेठ की गरमी, माघ की शीत व आषाढ़ की वर्षा सहनी पड़ती
है। इस तरह मैं दूसरों के परमार्थिक, भौतिक विकास के कार्यो में
अनवरत एकांगी भाव से लगा रहता हँू। हो सकता है कि मेरे द्वारा पूर्वजन्म में किये गये
पापों से छुटकारा पाने का यह साधन है। यदि इसी को मनुष्य द्वारा खोजे गये वैज्ञानिक
तथ्यों के आधार पर वैज्ञानिक ढ़ग से सोचा जाय तो प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचंद्र
बोस ने सिद्ध किया है कि सामान्य मनुष्य की भाँति मुझे भी श्वसन, निद्रा, भय, भोजन तथा विसर्जन की
आवश्यकता होती है। अर्थात समानता में मैं मनुष्य के समतुल्य जीव हँू। ऐसे में प्रश्न
उठता है कि फिर क्यों आज हम दोनों के बीच भाईचारे का भाव घटता जा रहा है। क्योंकि अपने
स्वार्थीपन के कारण मनुष्य अपने सिवाय दूसरों के बारे में नहीं सोचता है। वैसे जो आनेवाले
दुष्परिणामों के बारे में नहीं सोचता वह अदूरदर्शी होता है। और मनुष्यों की मुझे मिटाने
की मुहिम देखकर इसमें कोई शंका नहीं रह जाती कि आज का मनुष्य अदूरदर्शी हो गया है।
यदि यह विनाश लीला जारी रही तो मानव अपनी संतानों
को विरासत में मरू-भूमि तथा संस्कार विहीन धरती को प्रदान करेगे। जिसमें सबसे ज्यादा हानि मनुष्यों
की ही होगी। इसलिए चाहिए कि मनुष्य समय रहते चेत जाये। जो मनुष्य समय रहते नही चेतते;
समय उन्हें नष्ट कर देता है। हे मनुष्यों! समय
के महत्त्व को समझो और यह मान लो कि अब तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं बचा है -
सिवाय पाने के। इसलिए आप सब से मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि आप सब मेरी
इन बातों पर गंभीरता पूर्वक विचार करते हुए किसी साहसिक कदम को उठायें।
मनुष्य और शेष प्रकृति को इस विनाश से बचाने
के लिए; जिसका जिम्मेदार स्वयं मनुष्य ही है, उसे (मनुष्य को) उस परंपरा की ओर लौटना होगा जहाँ मनुष्य और
प्रकृति में सामंजसय हो विरोध नहीं। जीवन दृष्टि प्रकृति के संयमित और विवेकशील इस्तेमाल
की हो, लूट खसोट की नहीं। वृक्षो की संस्कृति पर आधारित जीवन
पद्धति की ओर और जीवन-दृष्टि की ओर मनुष्यों को लौटना ही होगा।
क्योंकि मेरे बिना न प्रकृति होगी और न जीवन। और जीवन के बिना मनुष्य क्या होगा?
उत्तर होगा पाषाण। वृक्षो के बिना मनुष्य चेतना शून्य हो जायेगा। मनुष्यों
में अगर चेतनता है तो इसका एकमात्र कारण सिर्फ मैं हूँ मैं। मनुष्य इस बात को जितनी
जल्दी समझ जाये यह उसके हित में ही होगा।
मैनें अपनी व्यथा व अपनी चिंता आपके सामने रख
दी है। मुझे न्ष्ट करके आपको कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। आपका कल्याण, मेरे कल्याण
के ही साथ जुड़ा हुआ है। फिर भी अगर आप में से कुछ लोगों को यह लगता है कि मैंने यह
सब बातें केवल अपने स्वार्थ के लिए आप की हमदर्दी हासिल करने के खातिर की है। तो मैं
आप लोगों से कवि के इन्हीं शब्दों के साथ विदा चाहता हँू कि -
``मैं गाता हूँ, नहीं किसी की प्रीति चुराने के लिए।
मेरा यह तप है, दुनियाँ का
दु:ख पी जाने के लिए।''
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
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बढीया !
ReplyDeleteNice I like
ReplyDeleteIts a great to workout
ReplyDeletenope, it's waaaaay too long. and it's a bit complicated for children to understand.
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