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Thursday, 22 April 2010

बोध कथा ३२: गुलामी -खलील जिब्रान

बोध कथा ३२: गुलामी -खलील जिब्रान


राजसिंहासन पर सो रही बूढ़ी रानी को चार दास खड़े पंखा झल रहे थे और वह मस्त खर्राटे ले रही थी। रानी की गोद में एक बिल्ली बैठी घुरघुरा रही थी और उनींदी आंखों से गुलामों की ओर टकटकी लगाए थी।
एक दास ने कहा, ‘‘यह बूढ़ी औरत नींद में कितनी बदसूरत लग रही है। इसका लटका हुआ मुँह तो देखो, ऐसे भद्दे ढंग से साँस ले रही है मानों किसी ने गर्दन दबा रखी हो।’’
तभी बिल्ली घुरघुराई और अपनी भाषा में बोली, ‘‘सोते हुए रानी उतनी बदसूरत नहीं लग रही जितना कि तुम जागते हुए अपनी गुलामी में लग रहे हो।’’
तभी दूसरा दास बोला, ‘‘सोते हुए इसकी झुर्रियां कितनी गहरी मालूम हो रही हैं, जरूर कोई बुरा सपना देख रही है।’’
बिल्ली फिर घुरघुराई, ‘‘तुम जागते हुए आजादी के सपने कब देखोगे?’’
तीसरे ने कहा, ‘‘शायद यह सपने में उन लोगों को जुलूस की शक्ल में देख रही है, जिनको इसने निर्ममता से कत्ल करवा दिया था।’’
बिल्ली अपनी जबान में बोली, ‘‘हाँ, वह तुम्हारे बाप दादाओं और बड़े हो रहे बच्चों के सपने देख रही हेै।’’
चौथे ने कहा, ‘‘इस तरह इसके बारे में बातें करने से अच्छा लगता है, फिर भी खड़े–खड़े पंखा करने से हो रही थकान में तो कोई फर्क नहीं पड़ रहा।’’
बिल्ली घुरघुराई,‘‘तुम्हें अनन्तकाल तक इसी तरह पंखे से हवा करते रहना चाहिए...’’
ठीक इसी समय रानी ने नींद में सिर हिलाया तो उसका मुकुट फर्श पर गिर गया।
उनमें से एक दास बोला, ‘‘यह तो अपशकुन है।’’
बिल्ली ने कहा, ‘‘किसी के लिए जो अपशकुन होता है, वही दूसरे के लिए शुभ संकेत होता है।’’
दूसरा दास बोला, ‘‘अगर अभी ये जाग जाए और अपना गिरा हुआ मुकुट देख ले तो? निश्चित रूप से हमें कत्ल करवा देगी।’’
बिल्ली घुरघुराई, ‘‘जब से तुम पैदा हुए वो वह तुम्हें कत्ल करवाती आ रही है और तुम्हें पता ही नही।’’
तीसरे दास ने कहा, ‘‘हाँ, वह हमें कत्ल करवा देगी और फिर इसे ‘ईश्वर के लिए बलिदान’ का नाम देगी।’’
बिल्ली की घुरघुराहट, ‘‘केवल कमजोर लोगों की ही बलि चढ़ायी जाती है।’’
चौथे दास ने सबको चुप कराया और फिर सावधानी से मुकुट उठाकर वापस रानी के सिर पर रख दिया। उसने इस बात का ध्यान रखा कि कहीं रानी जाग न जाए।
बिल्ली ने घुरघुराहट में कहा, ‘‘एक गुलाम ही गिरा हुआ मुकुट वापस रखता है।’’
थोड़ी देर बाद रानी जाग गई। उसने जमुहाई लेते हुए चारों तरफ देखा, फिर बोली, ‘‘लगता है मैं सपना देख रही थी। एक अत्यद्दिक प्राचीन ओक का पेड़...उसके चारों और भागते चार कीड़े..उनका पीछा करता एक बिच्छु! मुझे तो यह सपना अच्छा नहीं लगा।’’
यह कहकर उसने फिर अंाखें बन्द कर लीं और खर्राटे लेने लगी। चारों दास फिर पंखों से हवा करने लगे।
बिल्ली घुरघुराई और बोली, ‘‘हवा करते रहो...पंखा झलते रहो! मूर्खो!! तुम आग को हवा देते रहो ताकि वह तुम्हें जलाकर राख कर दे।’’
 किसी ने लिखा भी है क़ि-------- 
   ''पिजड़ा हो सोने का फिर भी ,
 भली नहीं है कभी गुलामी '' 
  

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