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Friday, 8 January 2010

अभिलाषा ११०

अभिलाषा ११० 
        ११० 
 शब्द-शब्द  सब  मन्त्र  बन गए , 
प्रेम में जो भी लिख डाला .  
जाप इन्ही  का करना यदि , 
अभिलाषा हो कोई प्रिये . 

टूटे सारे छंद -व्याकरण ,
फूटा जब भावों का झरना . 
इसमें चाहत का कलरव,
और मदिरा सा नशा प्रिये . 

         १११ 
अभिलाषा ने जीवन के,
कदमो पे गिर के पूछा - 
पूरी कब हो पाऊँगी , 
बतला दो बस इतना प्रिये .

जीवन  फिर हंसते-हंसते, 
उससे केवल इतना बोला-
जो पूरी हो जाये वह, 
रहे नहीं  अभिलाषा प्रिये .  

  

 

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