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Sunday, 18 August 2013

इक्कीसवीं शती और भारत



एक बड़ा ही स्वाभाविक प्रश्न हो सकता है कि नई शताब्दी के नाम पर इतना शोर क्यों? सिर्फ तिथियों के बदल जाने से क्या स्थितियाँ भी बदल जाती है? यह सब इसलिए क्योंकि हमें कहीं से शुरू करनी है वह यात्रा जो हमें नई शक्ति, नई चेतना, नया विकास और नया आयाम दे। हमें एक ऐसी यात्रा शुरू करनी है जो हमें उस मंजिल तक पहुँचाए; जहाँ हमें एक नई पहचान मिल सके, एक नया आकाश और एक नया - `नयापन'। इसलिए इस नई शताब्दी को लेकर अंत:करण में उथल-पुथल मची हुई है। और यह उथल-पुथल भी इसलिए हो रही है क्योंकि हम अपने बीते हुए कल को देखकर यह समझना चाह रहे हैं कि - गलत क्या हुआ?
हम ऐसे भविष्य को नहीं चाहते, जो अतीत से हमारा संबंध ही तोड़ दे। भविष्य का अनुमान लगाने के लिए हमें अतीत की ओर मुड़ना ही होगा। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि हमें आगे नहीं बढ़ना है। यह अतीत की तरफ देखना, वास्तव में भविष्य के प्रति तैयारी का ही हिस्सा है। जिस तरह धनुष्य पर तीर चढ़ाने के बाद हम डोरी को पहले पीछे की तरफ खींचते है, और तब तीर छोड़ते हैं। उसी प्रकार अतीत को हम जितनी गहराई से जानेगे, भविष्य की उतनी ही अच्छी तैयारी कर सकेगे। भूतकाल के ज्ञान के आधार पर भविष्य जाना जा सकता है। और प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे वह कितना ही सुख-सुविधा संपन्न हो, अपना भविष्य जानने की उत्कट इच्छा उसके मन में रहती ही है, क्योंकि मानव मन सदैव अप्राप्य और अगोचर के लिए उत्कण्ठित रहता है। मानव का भावी जीवन व जीवन की घटनाएँ भविष्य के गर्भ में निहित रहती हैं, अतएव उसकी भविष्य जानने की इच्छा बलवती रहनी स्वाभाविक है।
फिर ध्यान से समझनेवाली बात यह है कि हमें अतीत को जानना है, उसे समझना है। हमें अतीत से चिपकना नहीं है। हमें सिर्फ और सिर्फ अतीत का होकर नहीं रहना है। अतीत हमें यह बता देता है कि हमेने कब-कब कौन सी गलतियाँ की। इस तरह हम भविष्य के प्रति सचेत हो सकते हैं और बीते हुए कल की तुलना में आनेवाले कल को अधिक सुखमय और अधिक मानवीय बना सकेगें। इस तरह यह नई शती हमें आत्मचिंतन के लिए विवश कर रही है। और हमारा आत्मचिंतन हमें `नवीन' के संदर्भ में चेता रहा है। अतीत स्मरण करा रहा है वो भयंकर गलतियाँ जो हमें नहीं करनी चाहिए थी। इसीलिए मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है कि इक्कीसवीं शती का भारत कैसा हो? और वह भारत हम कैसे बना पायेगें? इसका उत्तर एक नई शुरुआत ही होगी। और शुरुआत कहाँ से होइस पर किसीकी ये पंक्तियाँ याद आती हैं कि -
``करनी है हमें, एक नई शुरुआत।
यह सोचना ही, एक शुरुआत है नई।''
हमें विरासत में कुछ ऐसे जलते हुए प्रश्न मिले हैं, जिनका उत्तर हम आज-तक तलाश नहीं कर पाये हैं। गरीबी की समस्या, कश्मीर की समस्या, दंगों की समस्या, दंगों की समस्या, बेरोजगारी की समस्या भाषा की समस्या और अच्छे नेतृत्व की समस्या आज भी हमारे सामने राक्षस की तरह मुँह खोले खड़े हैं। जब हम नयी शती को भारत की शती बनाने की बात करते हैं, तो यह जरूरी है कि हम पहले इन समस्याओं से पीछा छुडालें जो हमारे विकाश के मार्ग में अवरोध की तरह हैं। वरना हम बड़े-बड़े आयोजनों में योजनाएँ बनाते रहेगें, कागजों पर देश को प्रगति और विकाश की ओर अग्रसर होते हुए देखते रहेगे; जबकि बुनियादी - जमीनी सच्चाई `ढ़ाक के तीन पात' की तरह जस की तस ही रह जायेगी।
थोड़ा आश्चर्य, मेरी इस बात पर संभव है कि - आज तक हम जिन समस्याओं से जूझते रहे, उनके लिए जिम्मेदार हम खुद हैं। जिन्हें `महात्मा' मानकर हम भेड़ों की तरह उनका अनुसरण करते रहे वे जिम्मेदार हैं हमारी आज की समस्याओं के लिए। सभ्यता, संस्कृति रीति-रिवाज, वेद-पुराण आदि के नाम पर जो `भेड़चाल' हम चलते रहे, वह जिम्मेदार है हमारी आज ककी इन समस्याओं के लिए। हमारे अंदर की `कायरता' ही आज की हमारी समस्याओं के लिए। आचार्य श्रीराम शर्मा कहते भी हैं कि ``अन्यायी और अत्याचारी की करतूतें मनुष्यता के नाम पर खुली चुनौती है, जिसे वीर पुरुषों को स्वीकार करना चाहिए।'' मगर हमनें इतने सालों में स्वीकार नहीं किया, इसलिए क्योंकि हम वीर नहीं कायर हैं। इसलिए क्योंकि हमारे अंदर भय निवास करता है। बालजक ने लिखा ही है कि - `` '' पंडित कमलापति त्रिपाठी कहते हैं कि - ``अनाचार और अत्याचार को चुपचाप सिर झुकाकर वे ही सहन करते हैं जिनमें नैतिकता और चरित्र का अभाव हुआ करता है।'' इसलिए हमारे अंदर नैतिकता और चरित्र का अभाव है, यह हमें स्वीकार करना ही होगा। हमारा यही `अभाव' ही हमें जाने-अनजाने में अत्याचारी बना देता है, पापी बना देता है और दुखी बना देता है। राबर्ट बर्न्स लिखते भी है कि -
"Man's inhumanity to man
Makes countless thousands mourn!"
`मानव मात्र में बुद्धिगत ऐसा कोई दोष नहीं है जिसका प्रतिकार उचित अभ्यास के द्वारा न हो सकता हो। शारीरिक व्याधि दूर करने के लिए जैसे अनेक प्रकार के व्यायाम है वैसे ही मानसिक रुकावटों को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के अध्ययन हैं। `जितना ही हम अध्ययन करते हैं, उतना हमको अपने अज्ञान का आभास होता जाता है।' `अध्ययन आनंद का, अलंकरण का और योग्यता का काम करता है।' और इन सबके बीचे जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह यह कि ``अध्ययन खंडन और असत्य सिद्ध करने के लिए न हो, न विश्वास करके मान लेने के लिए हो, न बातचीत और विवाद करने के लिए हो, बल्कि मनन और परिशीलन के लिए हो।'' हमें भी अब मनन करना होगा कि आखिर क्या कारण रहा जो हम इतनें सालों में भी देश की जमीन से जुड़ी हुई समस्याओं का समाधान नहीं निकाल पाये? कारण यही है कि हमने खंडन व मंडन, बातचीत और विवाद तथा दूसरे को असत्य व जिम्मेदार ठहराने के लिए अपनी पूरी शक्ती और अपने ज्ञात ज्ञान को लगाते रहे। अगर यह, सारी शक्ति, यह सारा अध्ययन, यह सारा समय और अपना अबतक का श्रम यदि हम मनन व चिंतनद्वारा देश के जलते हुए प्रश्नों को हल करने में लगाते हो आज की यह शती `भारत की शती' हो चुकी होती।
आज का भारत यदि इस शती को अपनी शती बनाना चाहता है, तो उसे सबसे पहले उन प्रश्नों का हल सामनें रखना होगा, जो प्रश्न `रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद' से जुड़े हैं, हिंदू-मुस्लिम दंगों से जुड़े हैं, नदियों के पानी के बॅटवारे से जुड़े हैं, भ्रष्टाचार व अपराध से जुड़े हैं साथ ही साथ उन प्रश्नों के भी हल अब निकालने ही होगे जो इस देश की एकता, अखंडता और समप्रभुता से जुड़े हुए हैं। और अगर हम इनका हल निकालने की कोशिश नहीं करेगें तो यह शती क्या, आने वाली कई-कई शताब्दियों तक भारत इसीतरह लाचार, विवश और दीन बना रहेगा। दुनियाँ चाँद-सितारों पर डेरा डालेगा और हम `रामलीला' में ही अटके रहेगें। `राम राज्य' बड़ा अच्छा था, सुखद था - यह सब ठीक है पर खाली बीते अतीत को दुहराने से क्या लाभ? बल्कि हमें एक ऐसा भारत और एक ऐसा नया भारतीय राज्य  लाने की चेष्टा करनी चाहिए, जिसे देख राम और कृष्ण भी अपने वंशजों पर गर्व कर सकें। मगर इन समस्याओं के संदर्भ में हम यह मान बैठें हैं कि -
``ये दर्द सर ऐसा है, कि सर जाये तो जाये ।
उल्फत का नशा, जब कोई मर जाये तो जाये।''
पूरनचंद जोशी जैसे विद्ववान यह स्पष्ट कर चुके हैं कि इक्कीसवीं सदी में मानवता का भविष्य, मानवता का आर्थिक भविष्य, पश्चिम के विश्व पर वर्चस्व में सुरक्षित नहीं है। इक्कीसवीं सदी को एशिया, अफ्रिका और लेटिन अमेरिका की अभावग्रस्त और पश्चिमी अपविकास से अभिशप्त मानवता से मुक्ति की आकांक्षी विशाल जन साधारण की सदी होना पड़ेगा, इसी में मानवता के पश्चिमी भूभाग की मानवता की सुरक्षा भी निहित है। एशियाई नव-जागरण की उपनिवेशवाद की समीक्षा एक नए भविष्य की तलाश पर केन्द्रित होनी चाहिए। और इस समस्त नवजागरण के मूल में `शिक्षा व आत्मविश्वास' ये दो तत्त्व बीज रुप में होने ही चाहिए।
शिक्षा व समाज सदैव से परस्पर सम्बन्धित रहे हैं, क्योंकि समाज की अपेक्षित सामाजिकता की पूर्ति शिक्षा के माध्यम से ही होती है। सामाजिक व्यवहारों एवं मूल्यों के प्रतिमानों के समाजीकरण में भी शिक्षा की प्रमुख भूमिका है। शिक्षा मानव जीवन के लिए वैसे ही है जैसे संगमरमर के टुकड़े के लिए शिल्पकला। कार्य कौशल और कर्मशीलता ही हमारी शिक्षा का मूल मंत्र है। शिक्षा राष्ट्र की सस्ती सुरक्षा है। संसार में जितने प्रकार की प्राप्तियाँ है, शिक्षा सबसे बढ़ कर है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिक्षा एक ऐसी सामाजिक प्रणाली है जिसके माध्यम से समाज अपने सदस्यों के व्यवहारों को अपनी आकांक्षाओं के स्वरुपों में ढालता है।
हमने जिस दूसरे बीज तत्त्व की बात की वह है - आत्मविश्वास। आत्म-विश्वास की मात्रा हममे जितनी अधिक होगी उतना ही हमारा सम्बन्ध अनन्त जीवन और अनन्त शक्ति के साथ गहरा होता जायेगा। जो मनुष्य आत्म विश्वास से सुरक्षित है वह उन चिन्ताओं, आशंकाओं से मुक्त रहता है, जिनसे दूसरे आदमी दबे रहते है।  आत्म-विश्वास सरीखा दूसरा मित्र नहीं है। आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की प्रथम सीढ़ी है। आत्मविश्वास सफलता का मुख्य रहस्य है। इन दो बीज तत्त्वों के साथ ही हम देश की प्रगति और विकास सुनिश्चित कर सकते हैं।
और इन दोनों बातों को लेकर जो राष्ट्र श्रम करेगा, यह शती उसीकी होगी। अन्यथा कोई कारण नही है कि हम इस शती को भारत की शती बनाने का शोर मचाये। फिर भी अगर हम ऐसा करते हैं तो हम अपने को ही छलेगें। और इसमें हरतरफ से नुकसान हमारा ही है। इसलिए हमें इस शती को भारत की शती बनाने का सिर्फ शोर नहीं मचाना है; बल्कि पूरी निष्ठा और पूरे समर्पण के साथ इस कार्य को अंजाम भी देना है। इसके सिवा अब हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है। कवि के शब्दों में अपनी बात समाप्त करना चाहूगाँ कि -
``राज-तिलक का वह अधिकारी है।

जिसके श्रम की दुनिया आभारी है।''

                                           डॉ मनीष कुमार मिश्रा