डॉ.
गजेन्द्र भारद्वाज
हिंदी सहायक प्राचार्य
काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’
साल 2019 में प्रकाशित मनीष मिश्रा जी के कृतित्व का वह
इतिहास है जो उनके उत्तरोत्तर मँझते हुए लेखन और उनकी कविताओं के भाव गांभीर्य की
विकास यात्रा को न केवल संकलित कविताओं के शीर्षक अपितु उनकी भाव संपदा की तन्मयता
की गाथा सुनाता है। आज अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों से जो भी कविताएँ पढ़ने को
मिलती हैं उनमें से अधिकांश को पढ़कर ऐसा लगता है मानो उन्हें एक
ढाँचा निर्मित करके सायास लिखा गया है ऐसी कविताओं के लेखन के बीच से ऐसी कविता जो
अनायास बन जाए इस संग्रह में दिखाई दी हैं जिन्हें पढ़कर यह लगता है कि आज भी कविता
शब्दों और भावनाओं के परे जाकर हमारी चैतन्यता से जुड़ी है। मनीष इस संग्रह और इसमें संकलित कविताओं के
प्रस्तुतिकरण के लिए बधाई के पात्र हैं जिनका प्रयास इतने कम समय में भी परिपक्वता
की ओर अग्रसर दिखाई पड़ रहा है।
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हिन्दी कविता में फैण्टेसी के महारथी गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताओं में
जो अप्रस्तुत का प्रस्तुत उनकी कविताओं के अंतस में छिपा दिखाई देता है, उसी परोक्ष की प्रत्यक्षता मनीष मिश्र के इस संग्रह की कविताओं में भी
परिलक्षित होती है। इनकी कविता सरल होते हुए भी एकाधिक बार पढ़े जाने की मांग करती
है। इन कविताओं को पहली बार पढ़ने से लगता है कि यह एक प्रेमी के द्वारा अपनी
प्रेमिका के लिए उद्भाषित होते उद्गार हैं पर ध्यान देकर दोबारा पढ़ने पर लगता है
कि ये कवि की एक भावना का दूसरे भाव से आत्म संवाद है, चिंतन करते हुए तीसरी बार पढ़ते हुए
महसूस होता है कि ये तो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में बसने वाले एक नादान बालक की
अपने भीतर बसने वाले समझदार व्यक्ति से बातचीत है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि
इस संग्रह की कविताएँ जितनी बार पढ़ी जाएँ उतनी बार नया और आह्लादकारी अर्थ देती
हुई मन को रोमांचित करती हैं।
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यह कविता स्वयं में व्यष्टि
से समष्टि और वैयक्तिकता से सामाजिकता का वह पूरा ऐतिहासिक लेखा जोखा प्रस्तुत कर
देती है । जिसमें समाज की उस विचारधारा पर
व्यंग्य की चोट की गई है जिसे अनगिनत कवियों ने प्रस्तुत करने के लिए वर्षों साधना
करते हुए अनेक ग्रंथ रच डाले हैं , पर फिर भी खुलकर उस बात पर चोट नहीं
कर पाए । जिसके सम्मोहन में आकर हम इस नश्वर देह और अस्थायी संबंधों को ही अपने
जीवन का लक्ष्य मानकर मोहपाष में बँधे हुए जीवन व्यतीत करते चले जा रहे हैं। इस
भवसागर के प्रपंच में फँसे मानव को जीवन दर्शन का कठिन फलसफा बताते हुए कवि संकेत भी
करता है कि ‘‘शिक्षित होने की/करने की/पूरी यात्रा/धोखे के
अतिरिक्त/कुछ भी नहीं।/मित्रता, शत्रुता।/लाभ-हानि/पुण्य-पाप/मोक्ष और अमरता/सिर्फ और सिर्फ/धोखाधड़ी
है।’’ वह लिखता है ‘‘आत्मीय संबंधो का/भ्रमजाल/धोखे के/सबसे घातक/हथियारों में से
एक हैं।’’
इस कविता में अनुभूति
और अभिव्यक्ति की जो तीखी धार पाठक को महसूस होती है, उसे स्वयं अज्ञेय ने भी महसूस किया था
। जिसे उन्होंने अपनी एक कविता में बताते हुए लिखा था कि ‘‘साँप तुम सभ्य तो हुए
नहीं/शहर में रहना भी तुम्हें नहीं आया/एक बात पूछूँ
उत्तर दोगे/फिर कैसे सीखा डसना/विष कहाँ से पाया।’’ अज्ञेय द्वारा प्रयुक्त ‘डसना’
और कवि मनीष मिश्र द्वारा प्रयुक्त ‘धारदार हथियार’ दोनों ही उस धोखे की ओर संकेत
करते हैं। जिसका अनुभव पाठक को अपने जीवन के प्रारंभ से ही हो जाता है। यही कारण
अज्ञेय और मनीष मिश्र जी में साम्य के रूप में उभरकर आता है। इतना ही नहीं कवि इस
कविता में सांकेतिक रूप से इस समस्या का एक हल भी प्रस्तुत करता है । जिसको समझने के लिए इस कविता को पूरा पढ़े बिना
मन नहीं मानता। इस हल को ढूँढने की जिज्ञासा पाठक को कविता पूरी पढ़ने के लिए बाध्य
करती है। पाठक की यह बाध्यता कवि की उस परिपक्वता को इंगित करती है जो
उसने इस अल्पवय में अपने लेखन की अवस्था में ही प्राप्त कर ली है।
‘तुम्हारी एक मुस्कान के लिए’ कविता भी कुछ ऐसी ही तासीर की कविता है
जिसमें पाठक देशकाल के बंधनों से परे जाकर जीवन के प्रत्येक
क्षण में अपने प्रिय के साथ बिताए पलों को उसी ताजगी से याद करता है, जिस ताजगी से वे घटित हुए थे। इस
कविता में जब कवि कहता है कि ‘तुम्हारी एक मुस्कान के लिए/जनवरी में भी/हुई झमाझम
बारिश/और अक्टूबर में ही/खेला गया फाग।’ तब वह वर्तमान में
होते हुए भी अपने प्रिय के साथ समययात्रा करता हुआ सूक्ष्म समायांतराल में एक
पुनर्जीवन को जी लेता है। मनीष जी की कविताएँ पाठक की संवेदनाओं को भी संबोधित
करती हैं। ‘जब तुम साथ होती हो’ में ऐसा ही संबोधन सुनाई पड़ता है मानो व्यक्ति
अपनी आशा को संबोधित करते हुए कह रहा हो कि ‘तुम जब साथ
होती हो/तो होता है वह सब/कुछ जिसके होने से/खुद के होने का/एहसास बढ़ जाता है।’ इस
कविता का पहला भाव नायक द्वारा नायिका के प्रति उद्गार के रूप में सामने आता है पर
एक अन्य अर्थ में ऐसा प्रतीत होता है कि कवि अपनी आशा के होने के महत्व का वर्णन करते हुए
कह रहा है कि आशा के कारण ही कवि का अस्तित्व और पहचान है।
‘वह साल, वह अक्टूबर’ कविता इस संग्रह की मुख्य कविता प्रतीत होती है । जिसके इर्दगिर्द इस संग्रह का तानाबाना रचा गया लगता है। इस कविता में कवि ने अपने और प्रिय के व्यक्तिगत अनुभवों को शब्दबद्ध करने का प्रयास किया है। जब वह कहता है कि ‘इस/साल का/यह अक्टूबर/याद रहेगा/साल दर साल/यादों का/एक सिलसिला बनकर।’ तो इन पंक्तियों में कवि की नितांत व्यक्तिगत किंतु महत्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षणों की एक श्रृंखला ध्वनित होती दिखाई देती है। ‘बहुत कठिन होता है’, ‘अवसाद’, ‘कच्चे से इष्क में’, ‘विफलता के स्वप्न’ ‘भाषा के लिबास में’, ‘इतिहास मेरे साथ’, ‘पिछली ऋतुओं की वह साथी’ आदि इसी श्रेणी की कविताएँ है। इन कविताओं में बीते जीवन की जो सुखद अनुभूतियों की गूँज है उसी का इतिहास इस संग्रह में दिखाई देता है जिसके कारण इस संग्रह का शीर्षक ‘अक्टूबर उस साल’ बहुत उपर्युक्त प्रतीत होता है। इस संग्रह की कविता ‘जीवन यात्रा’ की निम्न पंक्तियाँ इसी तथ्य का साक्ष्य भी देती हैं ‘ऐसी यात्राएँ ही/जीवन हैं/जीवन ऐसी ही/यात्राओं का नाम है।’ एक अन्य कविता ‘चाँदनी पीते हुए’ में भी कवि प्रिय के अनुराग को व्यक्त करते हुए न जाने कितनी ही बिसरी बातें याद कर जाता है वह कहता है ’याद आता है/मुझे वह साल/जिसमें मिटी थी/दृगों की/चिर-प्यास।’ इस कविता की इन प्रारंभिक पंक्तियों को पढ़ते ही पाठक की अपनी बीती अनुरक्ति की यादें ताजा हो जाती हैं उसकी आँखों के झरने में एक-एक करके अनगिनत मीठे लम्हे भीग जाते हैं। इस कविता में जब कवि लिखता है कि ‘यह/तुम्हारे भरोसे/और/मेरे बढ़ते अधिकारों की/एक सहज/यात्रा थी।’ तब तक पाठक इस कविता के शब्दों के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है और कवि के शब्दों के अनुरूप अपने बीते जीवन को एक बार फिर से अपने भावदेष में जीने लगता है और तब कवि पाठक की अनुभूतियों को कुरेदता हुआ उन बातों की तह तक पहुँच जाता है जिसमें कवि और पाठक एक-दूसरे से अपनी अंतरंग बातें साझा करते हैं कवि लिखता है ‘तुम्हारे बालों में/घूमती/मेरी उंगलियाँ/निकल जाती/सम्मोहन की/किसी लंबी यात्रा पर।’ कवि की इस कविता के साथ पाठक अपने मन की गइराइयों में छुपे उस अनुराग की तान छेड़ देता है जिसके कारण उसे प्रेम का उदात्त आभास हुआ है। इस भाव को शब्द देते हुए कवि लिखता है ‘जहाँ से तुम/मेरी सर्जनात्मक शक्ति की/आराध्या बन/रिसती रहोगी/मिलती रहोगी/उसी लालिमा/और आत्मीयता के साथ।’ कवि की कविता इन शब्दांे के साथ पूरी हो जाती है किंतु इस तरह की कविताओं के पाठ से पाठक के हृदय में जो स्पंदन शुरु हो जाता है वह पाठक को न केवल पूरी कविता को दोबारा पढ़ने के लिए विवष करता है बल्कि वह पाठक को प्रेरित करता है कि इसी प्रकार उसके मन की उन सभी बातों को इस संग्रह की अन्य कविताओं में ढूँढे जिनको पाठक ने स्वयं से भी साझा नहीं किया है। पाठक उत्प्रेरित होता है और इस संग्रह की अन्य कविताओं में अपने निजी क्षणों की तलाष करता है।
हर व्यक्ति के जीवन
में कोई ऐसा प्रिय व्यक्ति अवष्य होता है जिसके प्रति उसका व्यवहार एक अतिरिक्त
सावधानी या सुरक्षा के चलते कुछ ऐसा हो जाता है कि उस प्रिय व्यक्ति के कुछ निजी
पलों का हमसे अतिक्रमण हो जाता है। ‘मुझे आदत थी’ कविता की पंक्तियाँ ‘मुझे आदत
थी/तुम्हें रोकने की/टोकने की/बताने और/समझाने की।’ ऐसे ही प्रिय व्यक्ति के प्रति
पाठक द्वारा किए गए अतिक्रमण की क्षमायाचना करती है तथा प्रायष्चित स्वरूप पाठक को
‘अब/जब नहीं हो तुम/तो इन आदतों को/बदल देना चाहता हूँ/ताकि/षामिल हो
सकूँ/तुम्हारे साथ/हर जगह/तुम्हारी आदत बनकर।’ के माध्यम से समाधान करने का प्रयास
करती है जिससे उसके मन की टीस समाप्त हो सके। ‘कब होता है प्रेम’, ‘रंग-ए-इष्क में’ कविता की निम्न
पंक्तियाँ भी पाठक को अपने रंग मंे रंगने में सफल हो जाती है ‘जहाँ बार-बार/लौटकर
जाना चाहूँ/वह प्यार वाली/ऐसी कोई गली लगती।’
इस संग्रह में कुछ अन्य
कविताएँ जैसे ‘चुप्पी की पनाह में’, ‘कुछ उदास परंपराएँ’, ‘इन फकीर निगाहों के मुकद्दर में’, ‘प्रतीक्षा की स्थापत्य कला’, ‘पिघलती चेतना और तापमान से’, ‘गंभीर चिंताओं की परिधि’ आदि पाठक को
अपने स्वप्नलोक से वापस लाकर यथार्थ का आभास कराती हैं और बताती हैं कि वह जिस
भावभूमि में था वह उसको नास्टेल्जिया मात्र है पर ‘दो आँखों मंे अटकी’ जैसी कविता
पाठक को आष्वस्त भी करती है कि उसके मन की गइराइयों में जो निष्छल और निर्मल प्रेम
छुपा है वही उसकी अनमोल निधि है जो उसे उसके संबंधों के निर्माण के लिए प्रेरित
करती है। जब कवि लिखता है ‘यकीन मानों/मेरे पास/और कुछ भी नहीं/मेरे कुछ होने
की/अब तक कि/पूरी प्रक्रिया में।’
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कवि मनीष की कविताओं में यथा स्थान बिम्ब, प्रतीक एवं मिथकों को प्रयोग भी किया
गया है जो युवा कवि होने पर भी अपने कार्य में दक्षता को दर्षाता है। इसी कविता
में उनका यह लिखना कि ‘रावण के पक्ष में/खुद को/खड़ा करके/ये हर साल/किसका दहन कर
रहे हैं?’ मनीष जी की कविता मंे इसी कलात्मकता की
ओर संकेत करता है। इस संग्रह में मनीष जी की अनुभूतियों का सबसे सषक्त रूप उनकी
‘माँ’ कविता में उभरकर सामने आता है। शायद यह कविता इस संग्रह की सबसे लंबी कविता
भी है। हो भी क्यों न, व्यक्ति
के समस्त जीवन की एकमात्र संभावना इस कविता के शीर्षक में छिपी हुई है। यदि इस
कविता की भाव संपदा की व्याख्या की गई तो शायद अन्य किसी कविता के लिए अवकाष ही न
मिले। कवि मनीष जी द्वारा अपनी माँ को समर्पित यह कविता उनके सहज, सरल और शांत व्यक्तित्व के निर्माण कर
कहानी कहती है। इस कविता के तुरंत बाद की कविता में अपने पर हावी हो जाने के
द्वंद्व में पददलित की हुई इच्छाओं का जैसा संक्षिप्त और
सटीक प्रस्तुतिकरण कवि ने किया है उससे ‘तुम से प्रेम’ कविता कवि की प्रस्तुति का
अंदाज ही बदल देती है। जो कवि अभी तक सरल शब्दों में अपनी बात रखता जा रहा था इस
कविता से उसके शब्द अचानक अत्यंत गंभीर और गहरे अर्थों वाले दार्षनिक हो जाते हैं
जिससे ऐसा लगता है मानो कवि वर्षों की काव्य साधना की चिर समाधि का अनुभव साथ लिए
हुए धीरे-धीरे अपना पद्यकोष खोल रहा है।
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‘प्रेम ओर समर्पण’ कविता प्रथमदृष्टया
इस संग्रह के प्रतिकूल दिखाई देने पर भी इस संग्रह के लिए निहायत ही अनुकूल है पर
इस कविता को इस संग्रह में जो स्थान दिया गया है वह अनुकूल जान नहीं पड़ता। इस
कविता को इस संग्रह की कविताओं ‘अवसाद’ और ‘मतवाला करुणामय पावस’ के बीच कहीं होना
चाहिए था। इसी तरह ‘आगत की अगवानी में’, ‘स्थगित संवेदनाएँ’, ‘जो लौटकर आ गया’ इस संग्रह की ऐसी
कविताएँ हैं जिनकी गहराई को समझने के लिए वांछित परिपक्वता अभी मुझमें नहीं है ऐसा
मुझे प्रतीत होता है। इस संग्रह की अंतिम कविता ‘बचाना चाहता हूँ’ को पढ़कर ऐसा
महसूस होता है कि लेखक ने इस संग्रह की अंतिम कविता के रूप में इसको बहुत पहले ही
लिख लिया होगा क्योंकि यह कविता हर लिहाज़्ा से संग्रह की अंतिम कविता के रूप मंे ही
फिट बैठती है। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए पाठक अपने बीते हुए नितांत
व्यक्तिगत और सुखदायी वैचारिक जगत् मंे विचरण करता है उससे पाठक को यह समाधान हो
जाता है कि उसके प्रेम के ये ही निजी क्षण उसकी ऐसी अक्षय निधि हैं जो उसके
अकेलेपन को भावों के परिवार से भर देती हैं और पाठक विवष हो जाता है कि यदि उसे
अपने अस्तित्व और अपने व्यक्तित्व की रक्षा करनी है तो उसे इन सुखद स्मृतियों को
बचाना ही होगा। ऐसे निष्चय के साथ यह अंतिम कविता पाठक को अपने इस निर्णय पर अटल
होने के लिए प्रेरित करती हैं जिसमें कवि कहता है ‘मैं/बचाना चाहता हूँ/दरकता
हुआ/टूटता हुआ/वह सब/जो बचा सकूँगा/किसी भी कीमत पर’ कवि ने बचाने वाली इस संपत्ति
के कोष में जिस टूटते हुए मन, भरोसे की ऊष्मा, आँखों में बसे सपने की बात की है उनके लिए पाठक को लगता है कि ये तो
स्वयं पाठक के मन में उठने वाले विचार हैं। इस प्रकार कवि मनीष की यह कविता भी
पाठक के साथ तारतम्य स्थापित कर लेती है।
इस अंतिम कविता को
पढ़ने के बाद इस बात की तसल्ली होती है कि अपने दूसरे ही संग्रह की कविताओं में कवि
मनीष ने पाठक की रुचि के अनुरूप ऐसी कविताओं की रचना की है जो पहली कविता से लेकर
अंतिम कविता तक पाठक को बाँधे रखने में सफल होती है। यद्यपि इन कविताओं में
ध्यानस्थ पाठक की चेतना भंग नहीं होती तथापि कुछ कविताओं का स्थान यदि इधर-उधर कर
दिया जाता तो मेरे जैसे अल्पज्ञ किंतु भावुक पाठक को और भी अधिक आनंद आता। फिर भी
कम शब्दों में रची हुई छोटी छोटी कविताएँ होने के बावजूद कवि ने अपनी अनुभूति की
अभिव्यक्ति जिस प्रकार से की है उसका रसास्वादन करते हुए साहित्य के बड़े-बड़े
कवियों का अनायास स्मरण हो जाना कवि की कवितओं की सफलता और काव्य चेतना की गहराई
की ओर संकेत करता है। इन कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि यह कवि केवल लिखने लिए ही
कविताएँ नहीं लिखता बल्कि इसकी सूक्ष्म चैतन्य दृष्टि आज के आपाधापी भरे समय में
भी मनुष्य को विश्राम देकर स्वयं के बारे में विचार करने के लिए बाध्य करती है।
डाॅ. मनीष मिश्रा जी को उनके काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ की छोटी, सुंदर और गहरी कविताओं की रचना के लिए
बहुत बधाई।
डॉ गजेन्द्र भारद्वाज,
हिंदी
सहायक
प्राचार्य
सी.एम.बी.
कालेज डेवढ़
(ललित नारायण मिथिला विष्वविद्यालय
दरभंगा
का अंगीभूत महाविद्यालय)
घोघरडीहा, जिला- मधुबनी, बिहार
ईमेल-
हंददन9483/हउंपसण्बवउ
संपर्क-
7898227839