Showing posts with label कात्यायनी की कविता - शोक गीत. Show all posts
Showing posts with label कात्यायनी की कविता - शोक गीत. Show all posts

Sunday, 18 August 2013

कात्यायनी की कविता - शोक गीत


09 मई 1959 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में जन्मी कात्यायनी आज की शीर्षस्थ हिंदी कवियित्रियों में एक हैं। आप की कविताएँ मुख्य रूप से नारी विमर्श की कविताएँ हैं। आपके प्रमुख काव्य संग्रह हैं।
1. सात भाइयों के बीच चम्पा - 1994
2. इस पौरूषपूर्ण समय में - 1999
3. जादू नहीं कविता - 2002
4. रात के संतरी की कविता।
5. चाहत
6. कविता की जगह।
7. आखेट।
8. कुहेर की दीवार खड़ी है।
इनके अतिरिक्त रूसी और अंग्रेजी भाषा में आपकी कविताओं का अनुवाद हुआ है। नारी प्रश्न संबंधित आपके लेखों का संग्रह `दुर्ग द्वार पर दस्तक' नाम से प्रकाशित हो चुका है। अगर आप इंटरनेट के माध्यम से कात्यायनी जी के साहित्य को पाना चाहते हैं तो   पर जाकर उनसे संबंधित जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
जिस नारी विमर्श / स्त्री विमर्श और नारीवादी इत्यादी आंदोलनों की चर्चा हम सुनते रहते हैं वह पुरुषों के समकक्ष स्त्रियों की राजनीतिक, सामाजिक एवम् शैक्षिक समानता का आंदोलन है। जिसकी जड़े 18वी शती के मानवतावाद और औद्योगिक क्रांति में थी। यह एक कड़वी सच्चाई है कि आज भी विश्व की पूरी ज़मीन का केवल 1  भाग महिलाओं के नाम है। जबकि वे दुनियाँ की आधी आबादी हैं। विश्व के काम का 60  महिलाएँ करती हैं, मगर आमदनी का केवल 10  हिस्सा उनकी निजी आमदनी मानी जाती है। आज भी निरक्षर जनता का तीन चौथाई भाग महिलाओं का है। भारत में लगभग पाँच हजार महिलाएँ प्रतिवर्ष दहेज के लिए मार दी जाती हैं। पूरे एशिया में एक लाख महिलाएँ हरवर्ष वेश्यावृत्ति में ढकेल दी जाती हैं। ऐसे समय में जीते हुए, अगर कात्यायनी जी अपनी कविताओं का मुख्य बिंदु `नारी विमर्श' को बनाती हैं, तो सही ही करती हैं।
एक साहित्यकार या रचनाकार होने के नाते हमारी यह नैतिक जिम्मेदारी होती है कि हम अपने वक्त की चौह ी में घिरे हुए सामान्य व्यक्ति के द्वंद्व और सपने को प्रधानता दें, न की किसी विचारधारा या विमर्श की चौह ी में अपने आप को बाँधकर, इस बंधन को ही `शाश्वत बंधन धर्म' घोषित करते हुए उन्हीं का गुणगान करते रहें।
लेकिन सिक्के का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अलग-अलग विमर्शो एवम् अनुशासनों में जो लेखन हो रहा है, वह भी साहित्य का ही एक हिस्सा है। इस लेखन के कारण ही समाज और साहित्य का आपसी संबंध पहले से कहीं अधिक प्रगाढ़ हुआ है। आज के साहित्य की सबसे बड़ी चिंता तो सामाजिक और आर्थिक उ ेश्यों को लेकर चलनेवाले विभिन्न विमर्श जल्द ही अपने मार्ग से भटककर यश, प्रतिष्ठा, पुरस्कार एवम् सुविधाएँ बटोरने के साधन मात्र बन जाते हैं। ऐसे रचनाकारों की साधना, साधन के आगे भंग हो जाती है। लेकिन जहाँ तक प्रश्न कात्यायनी जी का है, तो अब तक ऐसी कोई बात दिखायी नहीं पड़ती। अपनी रचनाशीलता के लिए उन्होंने जिस धारणा को केन्द्रिय बिन्दु बनाया है, वह धारण व्यापक रूप में साहित्य की मानवीय अवधारणा की पूर्ति जरूर करती है। इसलिए `विमर्शवादी' कवयित्री मात्र कह कर उनके श्रम को नकारा नहीं जा सकता।
पाठ्यक्रम में निर्धारित उनकी कविता `शोक गीत' के संक्षिप्त विश्लेषण से यह बात और स्पष्ट हो जायेगी। `शोकगीत' मूल रूप में जीवन की विडम्बनओं, जीवन के संघर्ष, आशा-निराशा और इसके (जीवन) आस-पास के परिवेश में बढ़ रही मूल्यहीनता, अवसरवादिता, स्वार्थपरकता, दोहरे व्यक्तित्व इत्यादि की कलई खोलते हुए इस कठिन समय में जी रहे सामान्य व्यक्ति के असामान्य संघर्ष को सामने लाती है। यहाँ शोक जीवन भी नहीं, इस जीवन की विडंबनाओं का है। और अगर विड़बनाओं का शोक है, तो इनमें तप रहे व्यक्ति के साहस, संघर्ष और आशा-निराशा और इसके (जीवन) आस-पास के परिवेश में बढ़ रही मूल्यहीनता, अवसरवादिता, स्वार्थपरकता, दोहरे व्यक्तित्व इत्यादी की कलई खोलते हुए इस कठिन समय में जी रहे सामान्य व्यक्ति के असामान्य संघर्ष को सामने लाती है। यहाँ शोक जीवन ही नही, इस जीवन की विडंबनाओं का है। और अगर विड़बनाओं का शोक है, तो इनमे तप रहे व्यक्ति के साहस, संघर्ष और आसक्ती ----- के प्रति इस काव्यगीत कविता के माध्यम से एक आदर और सम्मान का भाव भी है।
कविता की शुरूआत करते हुए कात्यायनी जी लिखती हैं कि -
``बस यूँ ही गुजार दी जिंदगी
नहीं रच सके कोई `एपिक' (महाकाव्य)
न हो सके पाठकों के आँखे के तारे
न किसी आलोचक श्रेष्ठ के दुलारे
अपुन तो बस यूँ ही गुजार दी
पूरी जिंदगी''
ऊपरी तौर पर इन पंक्तियों का अर्थ यही निकलता है कि कवियित्री `एपिक' अर्थात महाकाव्य न रच पाते दुख को जता रही हैं। पाठको में प्रिय न होने का दुख जता रही हैं और साथ ही साथ किसी ``आलोचक श्रेष्ठ'' की कृपा पात्र न बन पाने के दुख को भी प्रगट कर रही हैं। लेकिन वो जो कहना चाह रही हैं मेरी समझ से वह यह है कि यदि आपको जिंदगी ``यूँ ही'' नहीं बिताती, साहित्य जगत में ख्याति प्राप्त करती है, पाठकों के बीच अपने आप को लोकप्रिय बनाता है तो आपको अनिवार्यत: किसी श्रेष्ठ आलोचक की कृपा हासिल करनी होगी। उसका प्रिय होना होगा। आपको चापलूस होना होगा, अवसदवादी होना होगा और पदप्रतिष्ठा इत्यादि के लिए जीवनमूल्यों से समझौता करना होगा। और अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो आप अपनी जिंदगी `यँ ही' बिता देने को अभिशप्त रहेंगे।
इन पंक्तियाँ में एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी आयी है कि कवियित्री `एपिक' या महाकाव्य न रच पाने के दुख को व्यक्त कर रही हैं। अब सवाल यह उठता है कि `महाकाव्य' ही न रचने का दुख उन्होंने क्यों जताया। दरअसल महाकाव्य किसी भी सुसंस्कृत समाज की सांस्कृतिक और साहित्यिक संपत्ति हैं। ये मानव जीवन को उसकी समग्रता में प्रस्तु करती हैं। ये प्राचीन देशों की पूर्ण विकसित संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। और समांतर रूप से आधुनिक जीवन को भी प्रभावित करते हैं इन महाकाव्यों में विद्यमान मूल्य, मानवीय दृष्टिकोण और इनकी निश्चल गुणवत्ता ने अभिजात्य साहित्य में इनका शाश्वत स्थान बनाये रखा है। महाकाव्यों का मुख्य उ ेश्य वैचारिक दृष्टिकोण में परिवर्तन के साथ मानवीय व्यवहार का पोषण एवम् संवर्धन है। ये संस्कृति के संगठित खजाने हैं। अब आप समझ सकते हैं कि यदि महाकाव्य लिखना है तो मानवीय मूल्यों जे समझौता नही हो सकता। मगर परेशानी यह है कि अगर आप समझौता नहीं हो सकता। अगर परेशानी यह है कि अगर आप समझौता नहीं करेंगे तो आपके रचे हुए काव्य को `महाकाव्य' की श्रेणी में रखेगा कौन? ये जो आदर्श और व्यवहार का द्वंद्व है, कवियित्री का इशारा उसी तरफ है। अपने रसात्मक एवम् कलात्मक गुणों के द्वारा कोई रचना काल बन जाये, यह आज के काव्य में संभव सा नहीं दिखता। क्योंकि इस त्रासदी भरे युग के रचना की होड़ रचना से नहीं अपने समय की विसंगतियाँ के बीच से निकलने के लिए आपको एक रचनाकार होने के नाते जो कीमत चुकानी पड़ेगी वह चुकाने के बाद आपके पास `मूल्यों' के रूप में कुछ बचेगा नहीं। और जो बचेगा वह `एपिक' या महाकाव्य नहीं हो सकता।
कविता को आगे बढ़ाते हुए कात्यायनी जी जीवन के एक दूसरे बड़े महत्त्वपूर्ण पर वर्जित क्षेत्र में प्रवेश करते हुए लिखती हैं -
``प्यार किया एक मामूली आदमी की तरह
राशन-पानी जुटाया
सब्जियों की खरीदारी की
पूरी जिम्मेदारी के साथ।
भरपूर गुस्से के साथ
जुलूस में शामिल हुए मँहगाई के खिलाफ,
निष्ठापूर्वक गये हड़ताल पर।
नहीं बना सके एक शांत सुरूचिपूर्ण
अध्ययन कक्ष।''
यहाँ पर कात्यायनी जी आम व्यक्ति की तरह प्यार करने की बात स्वीकार कर रही हैं। लेकिन मन में सवाल यह उठ रहा है कि आम व्यक्ति का प्यार होता कैसा है? दूसरी बात यह कि वे `प्यार' की जिम्मेदारी के साथ कर रहीं है। कैसे ही जैसे भी जिम्मेदारी के साथ पाती जुटाना और सब्जी खरीदने का काम होता है। अगर आप लोगों को मामूली आदमी की तरह सब्जी खरीदने का अनुभव होगा, तो आप जानते होगे कि यह कितना कठिन काम है। मोल-भाव करना, बराबर तौलवान और जो आपने खरीदा उसकी गुणवत्ता भी अच्छी तरह --- तो जितनी सावधानी से आज का आम आदमी सब्जी खरीद रहा है, उतनी ही जिम्मेदारी से वह प्यार भी कर रहा है। वह प्रेम में भी व्यावहारिक दृष्टिकोण देख रहा है। आज प्रेम किसी के लिए तरक्की की सीढ़ी की तरह है तो किसी के लिए सामाजिक और आर्थिक सुरखा की गारंटी। आज जिस बाज़ारवादी संस्कृति में हम जी रहे हैं, वह हमें खुद बता रहा है कि हमें प्रेम को किस तरह जीना चाहिए। ``72 घंटों के भीतर एक गोली'' जैसे विज्ञापन बहुत कुछ कहते हैं। अब प्रेम एक हकीकत है। शायद कात्यायनी जी इसी ``आम आदमी वाले प्रेम'' को स्वीकार करती हैं। वैसे भी हीर-राँझा, सोनी-महिवाल और लैला-मजनू जैसा प्रेम आज के जमाने में किसी काम का नहीं रहा। जीवन की इसी विडंबना को कात्यायनी जी ने बड़े ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है।
कविता को आगे बढ़ाते हुए कात्यायनी जी लिखती हैं कि -
``जब एक उत्कृष्ट कविता
लिखने का समय था,
उसे हारे हुए समय में भी
लिख रहे थे दीवारों पर तारे।
जब लिखनी थी
अपने समय की सर्वाधिक चर्चित कहानी
लिख रहे थे हड़ताल का पर्चा
सामान्य ही रहे अंत तक।
यूँ हुए असफल।''
जब वे लिखती हैं कि जब एक उत्कृष्ट कविता लिखने का समय था, तो सवाल उठता है कि कौन सा समय उत्कृष्ट कविता को लिखने का होता है? फिर आगे वे लिखती हैं कि `` उस हारे हुए समय में भी तो पुन: प्रश्न उठता है कि समय कब, और किससे हारा हुआ था? जब तक हम इन दो प्रश्नों के उत्तर नहीं खोज लेंगे, तब तक इन काव्य पंक्तियों के लालित्य को भी समझ नहीं सकेंगे। जहाँ तक मेरी अपनी सोच ओर समझ है, उसके अनुसार मुझे यह लगता है कि अगर हम यह मानते हैं कि ``कविता-भाषा में आदमी होने की तमीज हैं तो हमें यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा कि ``कविता मानवता की मातृभाषा हैं।'' इस तरह कविता को रचनेवाला कठिन से कठिन अमानुषिक और आततायी व्यवस्था के बीच में भी मानवता और रचनात्मकता से बचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य अपनी कविता के माध्यम से करता है। स्पष्ट है कि हारे हुए समय में रची गयी कविता ही उत्कृष्ट कविता होगी। और यहाँ ``हारे हुए समय'' से अभिप्राय समय विशेष की परिस्थितियों में मानवी मूल्यों के बिखराव, विघटन और बिनाश से है। तो ऐसे समय में जीवन जी रहे व्यक्ति की आकांक्षा, व्यग्रता, उल्लास, अधूरापन, बेबसी, अवसाद और कसमसाहट को व्यक्त करने के लिए उसे अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए संवेदनशील रचनाकार कविता का सहारा लेता है। यहाँ पर वह जो कविता रच रहा है, उसमें `रचने' से ज्यादा `बचने' का भाव होता है। आवश्यकता से कहीं अधिक प्रश्न `अनिवार्यता' का होता है।
`किसी भी समाज में कविता स्वायत्त घटना नहीं होती' नामक अपने एक लेख में (सहस्त्राब्दी अंक तेरह 2003, आलोचना त्रैमासिक में प्रकाशित) कुमार अंबुज लिखते हैं कि, ``एक अच्छी ओर विश्वसनीय कविता में आवेगों, उत्तेजनाओं और ऊहापोहों का सम्मिश्रण भी संभव है। कविता कोई निर्णायक इतिहास रचे, ऐसी कामना एक अच्छा स्वप्न् है। ऐसा शताब्दीयों से होता है। इस लिहाज से समकालीन हिन्दी कविता के सामने चुनौती है। लेकिन फिर वही सवाल तो खड़ा होगा ही। यानी आप सोचते हैं कि समाज में बहुसंख्यक नागरिक लोलुप, भ्रष्ट, कायर, अवसरवादी और यथास्थितिवादी बनें रहे लेकिन कविता निर्णायक इतिहास रच दे। यदि कविता समाज की आँख है तो उसका `देखना' तब ही सार्थक और प्रतिफलित होगा जब शरीररूपी समाज के शेष अंग भी अपना काम मुस्तैदी से करें।''
तो उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हुआ कि उत्कृष्ट कविता लिखने का समय कौन सा है।? हारे हुए समय से ---- अभिप्राय है और इसी तरह अपने समय भी सर्वाधिक चर्चित कहानी लिखने का समय कौन सा है? कुल मिलाकर कवियित्री शायद यह कहना चाह रही हैं कि वे जिस कठिन परिवेश में जी रही है उसमें अच्छी रचनाधर्मिता के लिए पर्याप्त --- तो है लेकि उस अच्छी रचना के लिए अवकाश कहाँ? अवसर कहाँ है? साधन कहाँ है? समय तो बीत रहा है मँहगाई के खिलाफ जुलूस में शामिल होने में, दीवारों पर नारे लिखने में और हड़ताल के चर्चे लिखने में। किसी शांत सुरूचिपूर्ण अध्ययन कक्ष में बैठकर चिंतन-मनन के लिए न तो साधन ही हैं और नही उन साधनों को जुटाने के लिए अवकाश।
दरअसल `हड़ताल' `तारे' और `हड़ताल का पर्चा' जैसे शब्द भी मुझे प्रतीकात्मक से लग रहे हैं। ये शब्द किसी आंदोलन या क्रांति के प्रतीक न होकर राजनीतिक छलावे को अधिक अभिव्यक्त कर रहे हैं। मजदूर युनियनों और राजनीति एवम् पूँजीपतियों की साँठगॉठ से कौन परिचित नहीं है। दरअसल कविता समाज से अलग कोई स्वतंत्र या हवाई वस्तु नहीं है। अगर पिछले दो-तीन दशकों में समाज में कोई क्रांति या आंदोलन नहीं हुआ है तो उसकी अपेक्षा साहित्य में कैसे की जा सकती है। हाँ, आंदलनो का छलावा जरूर सामने आया है। जिसका शिकार यही सामान्य आदमी हुआ है जो, नारे और पर्चो में ही उलझा रहा। पर्दे के पीछे के सौदे से वे अनभिज्ञ रहे। मतलब की यहाँ भी - संघर्ष और आंदोलन के नाम पर सामान्य आदमी केवल और केवल छला गया। इसे किसी वस्तु की तरह इस्तमाल किया गया और छोड़ दिया गया वहीं जहाँ से उसे उठाया गया था। चुनावों और रैलियों में पैसे और खाने का लालच देकर ट्रकों में भर-भरकर इसी सामान्य व्यक्ति सेनारे दिलवाये जाते हैं। और `भीड़तंत्र' के छलावे में `लोकतंत्र' की नींव मजबूत करने का दावा किया जाता है। ऐसे लोग ही अंत तक सामान्य रहते हुए असफल रहते हैं। लेकिन इस छलावे के बीच भी जीवन जीने की तृषिता उनके जान जुड़ी होती है।
कविता के अंत में कवियित्री लिखिती हैं कि -
``अपनी सभी विलक्षण कारगुजारियों को
मानवता की सेवा में प्रस्तुत कर
न हो सके महान।
नहीं लिखेगा कोई गणमान्य कवि
एक शोकगीत
मेरे मरने के बाद।
यूँ होगा
एक कठिन
कहानी का

      सुखांत।''