Tuesday, 27 April 2010

सूखा पत्ता /HINDI WRITER AMERKANTS FAMOUS NOVEL

सूखा पत्ता :-


सन 1984 में राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 202 पृष्ठों का यह उपन्यास खूब चर्चित हुआ। इस उपन्यास की कहानी अमरकांत के एक मित्र की कहानी है। इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा का खुलासा करते हुए अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ''यह मेरे एक मित्र की कहानी है। बीते दिनों के संस्करणों से भी युक्त उनकी मोटी डायरी पढ़ने के बाद यह उपन्यास लिखने की इच्छा उत्पन्न हुई, जो शीघ्र ही इतनी तीव्र हो गयी कि मेरे दिमाग में स्वत: ही एक खाका उभरता गया और कुछ ही महीनों में मैने इसे लिख लिया।``22

अमरकांत की उपर्युक्त बात से स्पष्ट है कि यह उपन्यास अमरकांत ने मात्र पैसों के लिए नहीं लिखा। साथ ही साथ इसे लिखने में उनकी पूरी एनर्जी भी लगी। यह बात इसलिए स्पष्ट कर रहा हूँ क्योंकि अमरकांत यह कह चुके हैं कि उन्होंने अधिकतर उपन्यास आर्थिक अभाव में दूसरों के आग्रह पर सप्रयास लिखा है। 'सूखा पत्ता` अमरकांत के ऐसे उपन्यासों से अलग है। अत: इसकी प्रतिष्ठा भी उनके अन्य उपन्यासों की तुलना में अलग रही।

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार जी अमरकांत के इस उपन्यास को शरत के श्रीकांत से प्रेरित मानते हैं। इस उपन्यास पर अपनी लंबी प्रतिक्रिया देते हुए वे लिखते हैं कि, ''उपन्यास की दृष्टि से 'सूखा पत्ता` सबल रचना है। अमरकांत का यह पहला उपन्यास मैंने पढ़ा और इस रचना के लिए मैं उन्हें बधाई देना चाहता हूँ। यों 'सूखा पत्ता` भी निर्दोष रचना नहीं है। कच्चापन उसमें भी स्पष्ट झलकता है। प्रेरणा-स्त्रोत स्पष्टत: शरत बाबू का 'श्रीकांत` है। उपन्यास का किशोर नायक, कृष्ण कुमार दसवीं जमात में पढ़ते हुए क्रांतिकारी दल की स्थापना करता है और साहस संचय की इच्छा से अपने साथी दीनेश्वर के साथ सरदियों की एक रात गंगा तट पर श्मशान में बिताता है। इस अंश की पूरी प्रेरणा शरत बाबू के 'श्रीकांत` के इंद्रनाथ से ली गई प्रतीत होती है, यद्यपि लेखक ने इस सब में भी मौलिक प्रतीत होने का भरसक प्रयत्न किया है।``23

इस तरह इस उपन्यास को सबल रचना मानते हुए भी विद्यालंकार जी इसके कच्चेपन की चर्चा करना नहीं भूलते। वैसे उपन्यास के पहले अंश को लेकर कही गयी उनकी यह बात सही भी लगती है। अपने वास्तविक जीवन में भी अमरकांत का बचपन ऐसी ही कुछ सच्ची घटनाओंे से युक्त रहा। बचपन में अमरकांत का परिचय जब अपने मोहल्ले के स्थानीय क्रांतिकारियों व उनके क्रांतिकारी साहित्य से हुआ तो कुछ स्थानीय क्रांतिकारी मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने राजनीतिक वतर्कता दिखायी थी। पर उनकी वह सतर्कता हास्यास्पद की कही जायेगी। ऐसी ही कुछ घटनाओं को थोड़े परिवर्तन के साथ अमरकांत ने अपने इस उपन्यास 'सूखा पत्ता` में चित्रित किया है। उपन्यास में यह दिखाया गया है कि किस तरह चीनी और बोरे चुकारक युवकोें का एक दल उसे महान क्रांतिकारी घटना मानता है।

चंद्रगुप्त विद्यालंकार जी इस उपन्यास की एक और कमजोरी का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि, '' 'सूखा पत्ता` की एक कमजोरी यह भी है कि उपन्यास का नायक कृष्ण कुमार उर्मिला से प्रेम के संबंध में बहुत बड़ी दुर्बलता दिखाता है। मेरी राय में उसे माँ-बाप के विरूद्ध और समाज की जातपातीय व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह करना चाहिए था। ........क्रांति का बार-बार नाम लेने वाले अमरकांत जातपात तोड़ने तक से जैसे घबराते हैं। आखिर वह कोई जीवन चरित्र तो लिख नहीं रहे थे।``24

चंद्रगुप्त विद्यालंकार जी की यह बात हमें भी खटकती है। 'मूस`, 'हत्यारे`, 'दोपहर का भोजन` और 'जिंदगी और जोंक` जैसी सशक्त कहानियों का लिखने वाला लेखक उपन्यासों में इतना संकोच क्यों करता है? यह बात स्पष्ट नहीं हो पाती। ''फिर भी 'सूखा पत्ता` एक शक्तिशाली रचना है। लिखने का ढंग, कहानी का उत्थान और शैली - तीनों प्रथम श्रेणी के हैं और यह इस उपन्यास की बहुत बड़ी विशेषता है।``25

लेकिन इस उपन्यास में ही समलिंगी प्रेम के वर्णन का सहारा अमरकांत के एक नए स्वरूप को हमारे सामने रखता हैं। राजेन्द्र किशोर जी तो अमरकांत को 'निराला` की टक्कर का संयमित साहस रखनेवाला उपन्यासकार मानते हैं। इस उपन्यास की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं कि, ''कथा के प्रथम खण्ड में नायक के मित्र तथा आदर्श मनमोहन के चरित्र को बड़े प्रभावशाली ढंग से उभारा गया है। इस चरित्र की कल्पना का साहर और इसकी इतनी प्रभावशाली रचना बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसके संबंध के सारे विवरण औपन्यासिक होते हुए भी अपनी प्रामाणिकता से हमंे प्रभावित करते हैं। यह न केवल 'साहसिक` है, बल्कि यह नायक से समलिंगी प्रेम भी करता हैै। इसके चरित्र के इस पक्ष को उभारने के लिए लेखक ने वातावरण का बड़ी बारीकी से चित्रण किया है और सबसे बड़ी बात यह है कि लेखक इसके वर्णन में स्वयं पतित नहीं हुआ। निराला के बाद शायद ऐसा संयमित साहस अमरकान्त ने ही किया है।``26

परमानंद श्रीवास्तव जी इस उपन्यास के संबंध में लिखते हैं कि, ''अमरकांत के इस उपन्यास में कृष्णकुमार के चरिये इसकी कैशोर मानसिक विकृतियों और किसी हद तक इसी के ब्याज से उपरिपक्व राष्ट्रीय मानस की कमजोरियों का आकलन प्रस्तुत किय है। सम्भव है इस सजग आत्म-विश्लेषण से कृष्णकुमार की 'गति` बदले - पर ऐसा कोई सुधारवादी आग्रह लेखक के उद्देश्य पर हावी नहीं है और यह शुभ है।``27

'सूखा पत्ता` उपन्यास के संदर्भ में यह जान लेना भी आवश्यक है कि अमरकांत ने इसे 1956 में ही लिख लिया था। और इसका एकाध संस्करण 1959 में छप भी गया था। पर इसका सही मूल्यांकन 1984 में ही निकाला। इसके बाद ही इसका व्यापक डिस्ट्रीब्युशन हुआ और समीक्षकों तक यह उपन्यास पहुँच पाया। स्वयं अमरकांत इस संदर्भ में लिखते हैं कि, ''सन 1959 में 'सूखा पत्ता` का पहला संस्करण हुआ था। उसी समय कई पत्र-पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा छपी, बहुत से लेखकों ने इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रियाएँ भी दी। पर्याप्त स्वागत हुआ था इस उपन्यास का। लेकिन लिस प्रकाशक ने इसे छापा था, उसकी बिक्री व्यवस्था ठीक नहीं थी। फिर भी, 1969 में दूसरा संस्करण छपा, 1984 में राजकमल प्रकाशन ने पेपर बैंक में भी इसे छाप दिया। ..... अपने उपन्यासों में 'सूखा पत्ता` को ही मैं विशिष्ट मानता हूँ, कहानियाँ जरूर कुछ ऐसी हैं जो इससे हटकर हैं और उन्हें कुछ लोग 'सूखा पत्ता` से अधिक प्रौढ़ एवम् सशक्त भी कह सकते हैं।``28

इस तरह स्पष्ट है कि अपने उपन्यासों में अमरकांत 'सूखा पत्ता` को विशिष्ट मानते हैं। समीक्षकों ने इस पर पर्याप्त समीक्षाएँ भी लिखी। हम कह सकतें हैं कि अमरकांत द्वारा लिखा गया यह उपन्यास ही सही मायनों में उपन्यासकार के रूप में उन्हें हिंदी साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करता है।

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