बोध कथा ३१ : दैवी ऊँगली | ||
एक समय की बात है ताओ भिक्षु भविष्य बताया करते थे। इतने नामी कि जगह–जगह से लोग उनके पास अपनी किस्मत जानने आते थे। एक बार तीन स्कॉलर, जो पेइचिङ में होने वाली शाही परीक्षा में बैठने वाले थे, अपना भाग्य जानने के लिए इन भिक्षु महोदय के पास आए। उन्होंने इन्हें धूपदान किया और सिर नवाया। आखें बंदकर ताओ भिक्षु ने अपनी तर्जनी उनकी ओर उठाई। स्कॉलर, इस प्रतीक को समझ नहीं पाए। तो उन्होंने भिक्षु से मतलब समझाने को कहा। भिक्षु ने कहा, ‘‘दैवी इच्छा उद्घाटित नहीं की जा सकती।’’ तीनों मुँह लटकाए वहाँ से चल पड़े। उनके जाने के बाद एक नौजवान शिष्य ने ताओ भिक्षु से पूछा, ‘‘आचार्य, तीनों में से कौन परीक्षा में सफल होगा? भिक्षु ने कहा, ‘‘सही संख्या तो पहले से ही ज्ञात है।’’ ‘‘क्या एक उंगली (तर्जनी) उठाने का मतलब है कि उनमें से केवल एक सफल होगा? ‘‘हाँ’ ‘‘लेकिन अगर उनमें से दो सफल हो गए तो? ‘‘तब इसका मतलब हुआ कि उनमें से एक फेल होगा।’’ ‘‘लेकिन अगर तीनों सफल हो गए तो?” ‘‘तो अकेली उंगली का मतलब होगा,तीनों एक साथ पास होंगे?” ‘‘और अगर तीनों फेल हो गए तो?” ‘‘तो मेरी अकेली उंगली का मतलब होगा कि उनमें से एक भी सफल नहीं होगा।’’ शिष्य की समझ में बात समा गई , बोला,‘‘तो यही है दैवी की इच्छा। ऐसे लोगो के लिए ही किसी ने लिखा है कि-------------- '' उनका हर ऐब हुनर है , जो कहता खुद को ईश्वर है '' अनुवाद:सुकेश साहनी यह कहानी http://www.laghukatha.com/dasanter-23-1.हतं से ली गई है. |
Thursday, 22 April 2010
बोध कथा ३१ : दैवी ऊँगली
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