"लौटने की क्रिया जीवन व्याकरण की सबसे जटिल क्रिया है"
डॉ. अनन्त द्विवेदी
के. जे सोमैया महाविद्यालय,
विद्याविहार, मुंबई–77
21 वीं सदी के दूसरे दशक का अंतिम दौर, हिंदी कविता में एक नए कवि की आमद , एक ज़रूरी आमद। आखिर ऐसी आमदें ज़रूरी क्यों हो जाती हैं, कि कविता इतिहास ना हो जाये। बीते सालों में मनीष के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए 2018 में ' इस बार तुम्हारे शहर में ', और 'अक्टूबर उस साल' 2019 में। एक सर्जनशील के लिए बीतते जाने के बाद, बीते हुए में लौटने की क्रिया जीवन व्याकरण की सबसे जटिल क्रिया है। कविताओं का सृजन अनिवार्य क्यों हो जाता है किसी के लिए? पहले से ही इस सवाल का जवाब, जाने कितने काव्यशास्त्रियों ने दिया है। अपने-अपने आग्रह हैं, पर इन संग्रहों की कविताओं को पढ़ते हुए साफ तौर पर यह भाँपा जा सकता है कि यह अपनी घुटन से पार पाने की जद्दोजहद है, मुक्ति की कोशिश है। यह अपनी तरह का मोक्ष है, यशलाभ और अर्थलाभ से परे का जगत तलाशती कविताएँ हैं। संवेदनाएं हजारों साल से चली आ रही हैं, वही, बार-बार अपने को दुहराती हुई। उनमें नयापन कवि का अपना निजी होता है, भाषा की तरफ से भी और संवेदना के उस पक्ष की तरफ से भी कि, जिसे जिया गया हो। ऐसी संवेदना और अभिव्यक्ति का स्वागत करने को जी चाहता है, जो बेहद आत्मीय और अपनी लगती है। अनुभूति बेहद गहन और अभिव्यक्ति बेहद सहज है। कविता के इस घटाटोप में स्वागत है, ' मनीष '। हिंदी कविता की एक लंबी परंपरा है। ना अच्छे कवियों की कमी रही, ना अच्छी कविता की कमी रही , पर कुछ नया आता रहना चाहिए। समय के साथ ताल से ताल मिला कर चलने में आसानी होती है , समय-संदर्भों को समझने में आसानी होती है।
कविता में सबसे पहले खुद की और फिर समाज की खंगाल होती है। इन कविताओं में जीवन को पलट-पलट कर देखने की जद्दोजहद है। क्या कविता से किसी को जाना जा सकता है, तो उत्तर है- हां। कविता जब अंतरंग होती है, तब अतीत में खुद की खोज की कोशिश है, कविता जो जीने से छूट गया है, उसे जीने की कोशिश है - फिर-फिर, बार-बार। इन कविता-संग्रहों की कविताएं जिंदगी में खुद को ढूंढने की, खोजने की कविताएं हैं। हालांकि 'लौटना' जीवन व्याकरण की सबसे कठिन क्रिया है। और हाँ, समय-साक्षी होने की भी। कविता में इतनी पारदर्शिता तो होनी ही चाहिए कि सारे अर्थ, सारा वजूद उन पंक्तियों में ही पैठा हो जिसे हम साफ-साफ देख सकें। इन संग्रहों की कविताएं पारदर्शी कवि के पारदर्शी जगत को पारदर्शिता से सामने रखती हैं। रिश्तो की एक गजब कशिश है इन कविताओं में। प्रेम है , ' विशुद्ध और विकाररहित ', रिश्ते हैं - अपनी रेशमी रूमानियत और प्रगाढ़ आस्थाओं के साथ। कविता लिखे जाने का सबसे बड़ा कारण क्या होता है? दरअसल कविता में कवि खुद से संघर्षरत होता है। उसका संघर्ष कभी व्यक्तिगत होता है और कभी समाजगत। हालांकि व्यक्तिगत कुछ भी नहीं होता, सब कुछ समाज का ही है। दरअसल हम समाज का होकर ही जी सकते हैं, कोई और रास्ता बनता ही नहीं है। कुतर्क चाहे जितने भी कर लिए जाएं, पर सच यही है।
कविताएं बेहद जीवंत हैं और इनमें अपनी तरह का तनाव है, जिंदगी की छोटी-छोटी मासूमियतें हैं। यह कविताएं रिश्तों से भी रूबरू होती हैं, और अपने माहौल की भी बातें करती हैं। इन कविताओं में रिश्ते अपनी तरह से परिभाषित होते हैं। रिश्तो में प्रेम है, बेहद आत्मीय और साथ ही अपरिभाषित भी। कविता में यह जरूरी भी है। यह संवेदना और यह अभिव्यक्ति, बहुत सारी कविताओं में है। लगातार बनावटी और संवेदनहीन होते जा रहे रिश्तो की साफगोई से शिकायत भी है। नई सदी में चीजें जिस तरह से बदली हैं और उन्होंने लोगों के जीने और सोचने को बदला है, उस संदर्भ में रिश्तो के बीच, परस्पर संवेदनाओं के बंध कमज़ोर हुए हैं, एक रिक्ति पैदा हुई है, जिसे अभिव्यक्त करने में यह कविता बड़ी समर्थ है। इस माहौल में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच बढ़ते फासले और अजनबी होते एहसास इस शब्द चित्र में ढल गए हैं -
एक शाम / इच्छा हुई कि / किसी से मिल आते हैं / किसी के यहाँ हो आते हैं / लेकिन किसके? / टेबल पर रखे /
सैकड़ों विजिटिंग कार्ड्स में से / एक भी ऐसा ना मिला / जिससे मिल आता / बिना किसी काम / बस ऐसे ही /
सिर्फ मिलने के लिए / ऐसा कोई नहीं मिला। (विज़िटिंग कार्ड्स)1
इस अफ़सोस का पूरा वहन इस कविता में उपस्थित है। सन 1991 के बाद भारत में बहुत सारे क्रांतिकारी आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक बदलाव हुए। बदलावों का यह पल्लव आने वाले दस-पन्द्रह सालों में बड़े पेड़ में तब्दील हो गया और इसके साथ देश में भाव-भावना के स्तर पर बड़े गंभीर परिवर्तन हुए। जो इन परिवर्तनों के गवाह हैं, वो जानते हैं कि उनका नीतिशास्त्र अब मर चुका है। इस संवेदना को कवि ने 'जूते' कविता में अभिव्यक्ति दी है। व्यक्ति की संवेदना और फिर अपने समय की संवेदना को महसूस करना और व्यक्ति और व्यक्ति तथा व्यक्ति और नियति के संबंधों को इतनी सूक्ष्म दृष्टि से मूल्याँकित करना कि जो कौंध बनकर चमक जाए और लगे कि यह कौंध हमारे भीतर ही कहीं है -
घिसे हुए
जूते
और
घिसा हुआ आदमी
बस एक दिन
'रिप्लेस' कर दिया जाता है
क्योंकि
घिसते रहना
अब किस्मत नहीं चमकाती । (जूते)2
मूल्यों को अपनी तरह से परिभाषित करने का, एक नई नजर से देखने का प्रयास है, ' जूते '। बहुत सारी कविताएं खुद की बुद-बुदाहट और बड़-बड़ाहट भी हैं, जिनमें विचार है और अपना दर्शन है, जो समकालीन जीवन से कुछ नया लेकर आया है। कुल मिलाकर मनुष्य हजारों साल से कविता के संसर्ग में है। मूल भावनाएं वही हैं, परिवेश बार-बार बदलता है और कविता को नए संदर्भ देता है, नई भाषा देता है और नए अर्थ से भर देता है। मनीष के साथ भी ऐसा ही है मूल भावनाएं वही हैं, बदलते परिवेश में कविता को नए संदर्भ दिए हैं, नई भाषा दी है और नए अर्थ भी ।
जीवन और दर्जे की परीक्षा में एक बड़ा फर्क है, दर्जा पास करने के लिए पहले एक निर्धारित पाठ्यक्रम से होकर गुजरना पड़ता है और फिर परीक्षा होती है। जीवन में पाठ्यक्रम निश्चित नहीं होता और परीक्षा भी पहले होती है। समकालीन जीवन में ' रिक्त स्थानों की पूर्ति ' का जो संकट उपस्थित है, उसको अभिव्यक्ति देती यह कविता - कि प्रश्नपत्र में " रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए " वाला प्रश्न बड़ा आसान लगता था, उत्तर या तो मालूम रहता या फिर ताक-झाँक से पता कर लेता, गुरुजी की नजरें बचा, किसी से पूछ भी लेता और रिक्त स्थानों की पूर्ति हो जाती। पर अब, जब बात ज़िंदगी की है -
लेकिन आज
जिंदगी की परीक्षाओं के बीच
लगातार महसूस कर रहा हूँ कि -
जिंदगी में जो रिक्तता बन रही है
उसकी पूर्ति
सबसे कठिन, जटिल और रहस्यमय है।
( रिक्त स्थानों की पूर्ति )3
इन संग्रहों की कविताओं में समय की खरोंचों की सहलाहट भी बार बार मिलती है। दरअसल विचार और दर्शन की पुष्टि के लिए अतीतोन्मुखी होना जरूरी होता है। अतीत के गर्भ में भविष्य के लिए बहुत कुछ छुपा होता है, जिसमें महत्वपूर्ण जो कुछ भी है वह बार-बार स्मृति पटल पर आता है। सबके साथ यही होता है पर यह कवि होता है जो उन खरोंचों से विचार और दर्शन की परतें निकाल कर कविता की शक्ल में अंजाम दे पाता है। यह खरोचें मनीष की कविताओं में जगह-जगह मिलती हैं । आज के समय में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच की जो पहचान है, वह पहले से कितनी जटिल हो चुकी है कि जानने और मानने - दोनों के लिए मायने भी अलग-अलग हैं। यह व्यक्ति के भीतर की जटिलता है जो उसे सरल नहीं रहने देती -
तुम्हें / जितना जाना / उतना ही उदास हुआ /
लेकिन / तुम्हें जानने /
और /
तुम्हें मानने के / व्याकरण / अलग हैं। ( तुम्हें मानने के)4
इन कविताओं में संवेदना बिल्कुल निजी बनकर उभरी है या हम कह सकते हैं की नजरों से अलग हटकर उन्होंने अपने माहौल को महसूस किया और उसे कविता में शब्द दिए कविताओं को एक संभावना बनाने की कोशिश है उनकी, और वह संभावना पूरे मानवी इतिहास और वर्तमान से प्रेरित हो, भविष्य की संभावना है -
क्या ऐसा होगा कि / आदमी और शब्दों की / किसी जोरदार बहस में /
शामिल हों कुछ / मेरी भी / कविताओं के शब्द ।
मुट्ठियाँ जहाँ / बंध गई हो / शोषण के खिलाफ / वहाँ रुँधे गले को /
वाणी देते हुए / उपस्थित हों / मेरी भी / कविताओं के शब्द ।
विचारों के / विस्तार की / भावी योजनाओं में / मानवता के पक्षधर बनकर /
उपस्थित रहे / मेरी भी / कविताओं के शब्द ।
(कविताओं के शब्द)5
मानवीय संवेदनाओं से परिचित होने के लिए और पूरी शिद्दत से अभिव्यक्त करने के लिए कवि को विमर्शों की दरकार नहीं है। स्त्री, धरा की बेहद संवेदनशील शक्तिरूपा है। विमर्शों के इस दौर में, विमर्श से परे हटकर, उसका मूल्यांकन, उसकी शक्ति का मूल्यांकन, उसकी शक्ति संभावना का घोष, बिना विमर्श की परिभाषा में शामिल हुए भी कितना सार्थक है -
तुम / औरत होकर भी / नहीं नहीं /
तुम औरत हो / और / होकर औरत ही /
तुम कर सकती हो / वह सब / जिनके होने से ही /
होने का कुछ अर्थ है / अन्यथा / जो भी है /
सब का सब / व्यर्थ है। (तुम जो सुलझाती हो)6
साहित्याकाश में उपस्थित बहस-मुबाहिसों की प्रासंगिकता-अप्रासंगिकता का ज़रूरी सवाल भी अपने तरीके से हल हुआ है इन कविताओं में। बात करने और कहने के लिए झण्डे और बैनर की अपेक्षा नहीं है, मानवीय होना या मनुष्य होकर इन सवालों से दो-चार होना कवि को कहीं ज्यादा जरूरी लगता है -
अप्रासंगिक होना / उनके हिस्से की / सबसे बड़ी त्रासदी है /
तकलीफ और विपन्नता / से क्षत-विक्षत / उनकी उत्सुक आंखें /
दरअसल / यातना की भाषा में लिखा /
चुप्पी का महाकाव्य है /
आज के इन तथाकथित विमर्शों में / शायद / इनकी झलक हो ।
(गंभीर चिंताओं की परिधि)7
अपने समय की बौद्धिक सरणियों से इस तरह गुजरना दुस्साहस है, और एक कवि को इस दुस्साहस के लिए हमेशा तैयार भी रहना चाहिए यही उसके होने की सार्थकता है। खुद से एकालाप करती कविताओं के साथ-साथ, अपने समय से संवाद करती, सवाल जवाब करती ऐसी कविताएँ इन संग्रहों में काफी हैं, संख्या की दृष्टि से नहीं बल्कि सार्थकता की दृष्टि से। कहन और बनाव में सशक्त, पूरी विनम्रता और धीरता से बात करती हुई, अपने पिछले और साथ चल रहे को तौलती हुई।
कवियों और लेखकों का कुछ जगहों से भावनात्मक और रचनात्मक जुड़ाव काफी अहम होता है। मनीष की कविताओं में पूर्वी उत्तर प्रदेश, खासतौर पर बनारस और अयोध्या इसी तरह से आए हैं। बनारस पर आधारित 'मणिकर्णिका', ' लंकेटिंग ', ' बनारस के घाट ' आदि कविताएँ हैं, जिनमें पूरा बनारस धड़कता दिखाई देता है। रोजमर्रा की छोटी-छोटी चीजें हैं, और वहाँ का परिवेश, जो इन जगहों को जीवंत बनाता है। कवि की सूक्ष्म दृष्टि से इनके बेजोड़ शब्दचित्र निर्मित हुए हैं। ' लंकेटिंग' बनारस के लंका मोहल्ले में होने वाली सुबह शाम की तफरी को दिया गया स्थानीय लोगों का नाम है। और इस तफरी को वहाँ का परिवेश तो जीवंत करता ही है, बाकी जो है वह -
छात्रों प्राध्यापकों / की राजनीति / यहां परवान चढ़ती है /
इश्कबाज / चायबाज और / सिगरेटबाजों के दम पर /
यह लंका रात भर / गुलजार रहती है।
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यह लंका / और यहाँ की लंकेटिंग / मीटिंग, चैटिंग, सेटिंग /
और जब कुछ ना हो तो / महाबकैती /
सिंहद्वार पर धरना-प्रदर्शन / फिर पी.ए.सी. रामनगर /
और पुलिस ही पुलिस । (लंकेटिंग)8
ऐसे ही बनारस के प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट का यह दृश्य और मणिकर्णिका से जुड़ी यह संवेदना -
यह मणिकर्णिका / बनारस को / महा श्मशान बनाती है /
मोक्ष देती मृत आत्माओं को /
तो पूरे बनारस के / पंडे-पुरोहितों को आश्वस्त भी करती /
जीवन पर्यंत / जीविकोपार्जन की / निश्चिंतता के प्रति भी। (मणिकर्णिका)9
इन संग्रहों की कविताओं में प्रेम और रिश्तों की रेशमी गर्माहट भी है। प्रेम की अन्तरंगता बड़ी मधुर है। उसमें परिणय-भाव है, उन्मुक्तता है, डूबने की चाह है और कुछ है जो बड़ा मधुर है -
मैंने कहा - / तुम जब भी रूठती हो /
मैं मना ही लेता हूँ / चाहे जैसे भी ।
वह बोली - / तुम मना नहीं लेते /
मैं ही मान जाती हूँ / चाहे जैसे भी । (तृषिता)10
ऐसे ही ना जाने कितनी कविताएँ इसी तपिश से सीझी हुई हैं - 'तुम्हें मानने के' , ' तुम्हारे ही पास ', 'चाय का कप ', ' मोबाईल ', ' वो मौसम ', ' आजकल ये पहाड़ी रास्ते ', ' तुम मिलती तो बताता ', 'आज मेरे अंदर रुकी हुई एक नदी' , ' ज़िक्र तेरा आ गया तो ', ' प्यार में ', ' बहुत कठिन होता है ' आदि।
मनीष की कविताओं में प्रेम की एक नई रवानी महसूस करने को मिल जाती है प्रेम की कैशोर्य बीहड़ता और विनम्र, सधी हुई वयस्कता इन कविताओं की शक्ति है -
अब लड़ रहा हूँ / अपने आप से / एक लड़ाई जिसमें /
हार निश्चित है मेरी क्योंकि / प्रेम में / जीत जाना - कलंक है। /
समय ने / तुम्हारे सामने / शायद इसलिए ही / खड़ा कर दिया था /
ताकि / सीख सकूँ / मैं भी प्रेम।
(मैं नहीं चाहता था)11
मनीष की कई कविताओं में माँ और ममता की विषय बने है। ' माँ ', ' यह पीला स्वेटर ', ' माँ ! तो वो तुम ही थी ', ' लड्डू' जैसी कई कविताओं में जीवनदात्री और पुत्र के एकालाप की गहन अनुभूति देखने को मिलती है। ' माँ ' शब्द पूरी तरलता के साथ उनकी कविताओं में उपस्थित है -
माँ ! / तो वो तुम ही थी / जो दरअसल नहीं थी /
पर थी शामिल / मुझमें और / मेरी तमाम संभावनाओं में /
जटिलताओं, विपदाओं के बीच / आशा की एक किरण /
मेरी जीत और हार के बीच /
जीत पर तिलक लगाते / हार पर दुर्बलताओं को दुलराते।
(माँ ! तो वो तुम ही थी)12
ईश्वर जब रिश्तों पर पूर्णविराम लगाता है तो जो खालीपन पैदा होता है, वो फिर आजीवन रिक्त ही रहता है। माँ का जाना, क्या होता है -
मैं जब उठा तो / माँ रोज़ की तरह चाय नहीं लायी थी /
ना ही वह / पूजाघर में थी /
वह पड़ी थी / निष्प्राण !! / एकदम शांत /
जैसे लीन हो / किसी तपस्या में । /
लेकिन माँ को / तपस्या की क्या ज़रूरत पड़ी ? /
वो तो खुद ही / एक तपस्या थी ।
-------------------------
अब सही-गलत क़दमों पर / कोई रोकेगा-टोकेगा नहीं /
शिकायतें / कहने - सुनने की /
सबसे विश्वसनीय जगह / खत्म हो चुकी थी । (माँ)13
न जाने कितने कवि हर साल साहित्य-पटल पर अपने हस्ताक्षर करते हैं। अपनी संवेदनाएँ कविता की शक्ल में अंकित करते हैं। पर कुछ ही होते हैं, जिनमें लंबे समय तक रह पाने की संभावना और गुंजाइश होती है। यह दोनों कविता संग्रह आश्वस्त करते हैं कि हिंदी को जो नया मिला है, वह संचनीय भी है, और सराहनीय भी। कविताएँ बेहद आत्मीय हैं, और ऐसे रूबरू होती हैं, जैसे अंतरंगता में बातचीत हो रही हो। यह सारी कविताएं खुद की तलाश की कविताएँ हैं। और खुद से संवाद करती कविताएँ हैं। इनमें क्षणों की संवेदनाएँ भी हैं, और बरसों की सुलगती अपेक्षाएँ भी हैं। खुद से बातें करती यह कविताएँ स्व-जगत में विचरण करती कविताएँ हैं, पर हमें तो अभी कवि में और विस्तार चाहिए। भाव-जगत और अभिव्यक्ति में विस्तार चाहिए। स्व-जगत से निकलकर पर-जगत में ऐसी ही गहनता चाहिए।
' इस बार तुम्हारे शहर में ' सन 2018 में प्रकाशित हुआ और ' अक्टूबर उस साल ' सन 2019 में प्रकाशित हुआ। 2020 का इंतज़ार भी खत्म होना चाहिए। लगातार दो कविता पुस्तकें, बधाई तो बनती है। सिर्फ पुस्तकों का आना बधाई के लिए काफी नहीं है, बल्कि बधाई इस बात के लिए कि कविता में एक संतोषपूर्ण संभावना पैदा हुई है। एक संभावनापूर्ण कवि और उसके कवित्व से अब हम और उम्मीदें तो लगा ही सकते हैं।
संदर्भ
1- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 71 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
2- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 70 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
3- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 81 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
4- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 23 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
5- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 13 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
6- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 17 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
7- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 80-81 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
8- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 101 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
9- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 105 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
10- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 21 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
11- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 84-85 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
12- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 114 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
13- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 101 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
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