युगपुरुष कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद
डॉ. सत्यवती चौबे
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
विल्सन कॉलेज, मुंबई
युगपुरुष स्वामी विवेकानंद एक ओजस्वी महापुरुष थे। वे बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने सर्वोच्च सत्य का ज्ञान प्राप्त किया था। वे देश के तमाम राष्ट्र भक्तों से भिन्न एक सर्वश्रेष्ठ देशभक्त थे। वे दैवीय शक्ति से अनुप्राणित एक अद्भुत वक्ता थे। वे नितांत भिन्न प्रकार के समाज सुधारक थे। इसके साथ ही अलौकिक सद्गुणों से युक्त तीन भाषाओं मसलन; संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी कविताओं के प्रणेता थे तथा सुरीली कंठ से समृद्ध थे।
आधुनिक युग के विश्वव्यापी विघटनशील परिवेश में हिंदू धर्म को एक ऐसे चट्टान की आवश्यकता थी, जहाँ वह लंगर डाल सके, हिंदू समाज को ऐसे मुखरित स्वर की आवश्यकता थी, जिसमें वह स्वयं को पहचान सके। ऐसे में स्वामी विवेकानंद समग्र हिंदू धर्म ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय सभ्यता, संस्कृति को एक वरदान के रूप में मिले, जिनसे शीर्ष के देशभक्त, राजनेता, योगी, तपस्वी से लेकर साधारण जनता सांगोपांग रूप से प्रभावित हुई। भारत सरकार ने भी यह महसूस किया कि स्वामी जी ने अपने सिद्धांतों और आदर्शों के लिए जीवन जिया, उनको फलीभूत करने के लिए मरणांतक कार्य करते रहे। वे समस्त विश्व को अपने वशीभूत कर चुके हैं और वे भारत के तमाम नवयुवकों-नवयुवतियों के लिए महत्त्वपूर्ण प्रेरणास्रोत बन सकते हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु सन 1984 में भारत सरकार ने देश में प्रति वर्ष 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने का आदेश दिया। सरकार का यह निर्णय वाकई प्रशंसनीय है क्योंकि इस देश को स्वामी विवेकानंद जैसे महान विभूतियों की नितांत आवश्यकता है, स्वामी विवेकानंद द्वारा बताए गए कर्तव्य पथ पर चलने की आवश्यकता है।
स्वामी जी यह मानते थे कि कर्मयोग का तत्व समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि कर्तव्य क्या है? किसी कार्य के करने से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि यह मेरा कर्तव्य है, तभी उस कार्य के साथ न्याय होगा। स्वामी जी के अनुसार कर्तव्य को परिभाषित कर सकना नितांत असंभव है। कर्तव्य एक आत्मनिष्ठ पक्ष है। जिस कर्म द्वारा हम ईश्वरीय तत्व से जुड़ते हैं, उन्नतशील होते हैं वह शुभ कार्य है और वही हमारा कर्तव्य है लेकिन जिस कर्म से हम नीचे गिरते हैं, पशुवत बनते हैं वह अशुभ कार्य है वह कार्य हमारा कर्तव्य नहीं हो सकता है। सभी युगों में समस्त संप्रदायों और देशों के मनुष्य द्वारा मान्य यदि कर्तव्य का कोई एक सार्वभौमिक भाव रहा है तो वह है 'परोपकार: पुण्याय पापाय प्रयोजनम' अर्थात परोपकार ही पुण्य है एवं दूसरे को दु:ख पहुंचाना ही पाप है। स्वामी जी उन्नति का एक मात्र उपाय कर्तव्य को मानते हैं कि पहले हम वह कर्तव्य करें, जो हमारे हाथ में है और शनै: शनै शक्ति संचित करते हुए क्रमश: हम सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। स्वामी जी ने सभी के लिए ध्यानयोग, राजयोग, कर्मयोग का मूल मंत्र दिया।
स्वामी विवेकानंद जी ने चरित्र की शुद्धता को स्त्री के साथ-साथ पुरुषों के लिए भी नितांत अनिवार्य माना। उनकी दृष्टि में पवित्रता ही स्त्री और पुरुष का प्रथम धर्म है। प्रत्येक पुरुष को अपनी पत्नी को छोड़कर अन्य सभी स्त्रियों को माता-बहन या पुत्री के समान देखना चाहिए और प्रत्येक स्त्री को अपनी चारित्रिक शुद्धता, पवित्रता को बनाए रखते हुए आचरण करना चाहिए। उनके अनुसार इस संसार में मातृपद ही सर्वश्रेष्ठ पद है क्योंकि मातृपद से ही नि:स्वार्थता की महत्त्वपूर्ण शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। केवल भगवत प्रेम ही माता के प्रेम से उच्च है।
निस्वार्थ भाव रखकर ही हमें कर्मयोग के मार्ग पर अग्रसरित होना चाहिए। स्वामी जी के अनुसार कर्मयोग के रहस्य का ज्ञान मुक्ति लाभ और स्वाधीनता के लिए आवश्यक है। सूर्य, चंद्रमा पृथ्वी समेत सभी ग्रह-नक्षत्र, पदार्थ निरंतर स्वाधीनता पाने के लिए प्रयासरत हैं। कर्मयोग, निरंतर अनासक्त होकर या आसक्ति त्यागकर कर्म करने पर बल देता है, जीवन के समस्त दुख-क्लेश संसार के अपरिहार्य व्यापार हैं। क्लेश, आसक्ति से ही उत्पन्न होता है कर्म से नहीं। स्वामी जी का कहना है कि 'मैं' और 'मेरा' अर्थात स्वार्थपरता की भावना ही समस्त क्लेश की जड़ है। स्वार्थपरता का प्रत्येक कार्य और विचार हमें किसी न किसी वस्तु का आसक्त बना देता है, हम उसके दास बन जाते हैं। 'मैं', 'मेरा' या स्वार्थपरता का भाव जितना अधिक होगा, आसक्ति भी उतनी ही गहरी होगी, दासत्व का भाव भी उतना ही बढ़ता जाएगा। परिणामस्वरूप, जीवन में क्लेश, दुख भी उसी अनुपात में बढ़ेगा। अतएव कर्मयोग कहता है कि स्वार्थपरता के अंकुर बढ़ने की प्रवृत्ति को नष्ट कर देना चाहिए और इसे रोके रखने की क्षमता रखनी चाहिए, मन की स्वार्थपरता को वीथियों में नहीं जाने देना चाहिए। स्वामी जी एक उदाहरण के माध्यम से समझाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार पानी में रहते हुए पद्मपत्र को पानी स्पर्श नहीं कर सकता और न ही उसे भिगो सकता है, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में निर्लिप्त भाव से रहना चाहिए। इसी को वैराग्य कहते हैं, इसी को कर्मयोग की नींव 'अनासक्ति' कहते हैं। इस अनासक्ति के बिना किसी भी तरह की योग साधना नहीं हो सकती क्योंकि अनासक्ति ही समस्त योग साधना की नींव है।
स्वामी विवेकानंद ने निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा देते हुए इस तथ्य को पुष्टि प्रदान की है कि "इस विशाल भभकती भट्ठी में जिसमें कर्तव्य रूपी अग्नि सभी को झुलसाती रहती है, तुम अमृत के इस प्याले का पान करो और प्रसन्न रहो। हम सब केवल उस प्रभु की इच्छा का पालन कर रहे हैं और किसी प्रकार के पुरस्कार अथवा दंड से हमारा कोई संबंध नहीं।"1
स्वामी जी ने इस संदर्भ में विस्तार से समझाया है कि यदि हम पुरस्कार के लिए इच्छुक हैं तो हमें दंड को भी स्वीकार करना होगा। दंड से छुटकारा पाने के लिए पुरस्कार पाने की भावना का त्याग करना होगा। दुखों से, क्लेश से मुक्त होने का यही उपाय है कि सुख की भावना का त्याग किया जाए। जीवन में जो कुछ भी किया जाए उसके लिए कभी किसी प्रकार की प्रशंसा या पुरस्कार की आशा न रखा जाए। मनुष्य की फितरत ऐसी हो गई है कि वह चंद रुपए चंदा में दान करके भी अखबार के माध्यम से नाम, यश पाना चाहता है। थोड़ा सा सत्कर्म करके प्रशंसा या पुरस्कार की आशा रखने लगता है जबकि विश्व के अनगिनत महापुरुष सत्कर्म करते हुए अज्ञात ही चले गए। प्रत्येक देश में सैकड़ों हजारों ऐसे महापुरुष हुए जो चुपचाप अपना काम करते हुए, शांति से अपना जीवन व्यतीत करते हुए इस संसार से चले गए। सर्वश्रेष्ठ महापुरुष अपने ज्ञान से किसी प्रकार की यश प्राप्ति की कामना नहीं करते। वे संसार की भलाई के लिए बिना कुछ दावा किए, अपने विचार छोड़ कर चले जाते हैं। वे अपने नाम से कोई संप्रदाय या धर्मप्रणाली नहीं स्थापित करते हैं। ऐसे महापुरुष सच्चे कर्मयोगी होते हैं।
अतएव कर्मयोग, स्वार्थपरता और सत्कर्म द्वारा मुक्ति लाभ करने का एक धर्म और नीतिशास्त्र है। कर्मयोगी को किसी प्रकार के सिद्धांत में विश्वास करने की आवश्यकता नहीं होती। उसे अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए संसार का भला करना चाहिए, दूसरों की सहायता करनी चाहिए, हम संसार का उपकार करके भी अपना ही भला कर रहे हैं। कार्य करने से हमारा सर्वोच्च उद्देश्य परोपकार, संसार का कल्याण ही होना चाहिए। वाणी मधुर होनी चाहिए क्योंकि शब्द शक्ति, कर्म के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
स्वामी विवेकानंद ने अपने अनेक अनेक व्याख्यानों में कर्मयोग, शब्द शक्ति, कर्तव्य परायणता को विभिन्न दृष्टांतों के माध्यम से व्याख्यायित किया है। उनकी दृष्टि में कर्म एक विज्ञान है। कर्मविज्ञान के अनेक पहलुओं में एक है विचार और शब्द के संबंध को जानना और यह ज्ञान प्राप्त करना कि शब्द शक्ति से क्या अर्जित किया जा सकता है। प्रत्येक धर्म, शब्द शक्ति की महत्ता को स्वीकारता है। किसी धर्म ने यह भी माना है कि समस्त सृष्टि ‘शब्द’ से ही निकली है। ईश्वर के संकल्प का वाह्य आकार ‘शब्द’ है और चूँकि ईश्वर ने सृष्टि रचना के पहले संकल्प एवं इच्छा की थी, इसलिए सृष्टि ‘शब्द’ से ही निकली है। शब्द के उच्च दार्शनिक एवं धार्मिक महत्त्व होने के साथ ही जीवन में शब्द प्रतीकों का अहम स्थान है। उदाहरणस्वरूप बिलख बिलख कर रोने वाली स्त्री सांत्वना भरे शब्द सुनकर शांत हो जाती है, मुस्कुरा देती है। इसी तरह कोई किसी को अपशब्द कह दे, तो सामने वाला व्यक्ति उसे मारने के लिए हाथ उठा लेता है। यह सबकुछ शब्द शक्ति के कारण ही होता है। इसलिए उच्च दर्शन के साथ-साथ हमारे साधारण जीवन में शब्द शक्ति की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अतः शब्द शक्ति के संबंध में विशेष विचार और अनुसंधान न करते हुए भी हम रात-दिन इस शब्द शक्ति का उपयोग करते हैं। इस शक्ति के स्वरूप को जानना तथा इसका उत्तम रूप से उपयोग करना भी कर्मयोग का अंग है। शब्द शक्ति का हमारे कर्म पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक सच्चा कर्मयोगी शब्द शक्ति की ताकत को बहुत बेहतरीन तरीके से समझा है।
कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के विश्व धर्म महासभा में 20 सितंबर, 1893 में ‘धर्म : भारत की प्रधान आवश्यकता नहीं’ विषय पर व्याख्यान दिया था। इसमें उन्होंने इस बात पर बल दिया था कि भारत की आवश्यकता कोई धर्म विशेष नहीं, अपितु रोटी है। उनका यह व्याख्यान कर्म, धर्म, कर्तव्य के साथ ही उनकी शब्द शक्ति, उनके कहन की प्रभावशाली शैली को भी व्याख्यायित करता है। उदाहरणस्वरूप, "ईसाइयों को सत्य आलोचना सुनने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए और मुझे विश्वास है कि यदि मैं आप लोगों की कुछ आलोचना करूँ, तो आप बुरा न मानेंगे। आप ईसाई लोग जो मूर्तिपूजकों की आत्मा का उद्धार करने के निमित्त अपने धर्म-प्रचारकों को भेजने के लिए इतने उत्सुक रहते हैं, उनके शरीरों को भूख से मर जाने से बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं करते? भारतवर्ष में जब भयानक अकाल पड़ा था, तो सहस्त्रों और लाखों हिंदू क्षुधा से पीड़ित होकर मर गए; पर आप ईसाइयों ने उनके लिए कुछ नहीं किया। आप लोग सारे हिंदुस्तान में गिरजे बनाते हैं; पर पूर्व का प्रधान अभाव धर्म नहीं है, उनके पास धर्म पर्याप्त है जलते हुए हिंदुस्तान के लाखों दुखार्त्त भूखे लोग सूखे गले से रोटी के लिए चिल्ला रहे हैं। वे हमसे रोटी माँगते हैं, और हम उन्हें देते हैं पत्थर! क्षुधातुरों को धर्म का उपदेश देना उनका अपमान करना है, भूखों को दर्शन सिखाना उनका अपमान करना है। भारतवर्ष में यदि कोई पुरोहित द्रव्य प्राप्ति के लिए धर्म का उपदेश करे, तो वह जाति से च्युत कर दिया जाएगा और लोग उस पर थूकेंगे। मैं यहाँ पर अपने दरिद्र भाइयों के निमित्त सहायता माँगने आया था, पर मैं यह पूरी तरह समझ गया हूँ कि मूर्तिपूजकों के लिए ईसाई धर्मावलंबियों से, और विशेषकर उन्हीं के देश में, सहायता प्राप्त करना कितना कठिन है।"2
स्वामी जी का यह व्याख्यान दर्शाता है कि कर्म में ही धर्म निहित है। भूख से व्याकुल अवस्था में मरते हुए समुदाय के लिए किसी भी धर्मोपदेश या दर्शनोपदेश से अधिक महत्त्वपूर्ण है उन्हें भूख से मरने से बचाना, उन्हें रोटी खिलाना और ऐसा करना ही उनका प्रधान कर्म है और उनके इस कर्म में ही उनका धर्म सन्निहित है।
स्वामी जी निरंतर कर्मयोगी बने रहने की प्रेरणा देते हुए भगवान बुद्ध का दृष्टांत देते हैं। उनका मानना था कि महात्मा बुद्ध ने कर्मयोग की शिक्षाओं को कार्यरूप में परिणित किया था। उन्होंने पूर्ण साधना की थी। महात्मा बुद्ध के अलावा संसार में जितने भी पैगंबर आए, उनकी नि:स्वार्थ कर्म प्रवृति के पीछे कोई न कोई वाह्य उद्देश्य अवश्य था। इन पैगंबरों की दो श्रेणियाँ थीं। एक वर्ग स्वयं को संसार में अवतीर्ण ईश्वर का अवतार मानता था, तो दूसरा वर्ग स्वयं को ईश्वर का दूत मानता था। वे अपनी आध्यात्मिक बातों से जनमानस को प्रभावित करके बहिर्जगत से पुरस्कार की आशा रखते थे। परंतु एकमात्र महात्मा बुद्ध ऐसे थे जिन्होंने कहा था- "मैं ईश्वर के बारे में तुम्हारे मत-मतान्तरों को जानने की परवाह नहीं करता। आत्मा के बारे में विभिन्न सूक्ष्म मतों पर बहस करने से क्या लाभ? भला करो और भले बनो। बस, यही तुम्हें निर्वाण की ओर अथवा जो कुछ भी सत्य है, उसकी ओर ले जाएगा”।3
स्वामी जी का मानना था कि महात्मा बुद्ध का दर्शन जितना उन्नत था, उतनी ही व्यापक उनमें सहानुभूति की भावना थी। सर्वश्रेष्ठ दर्शन का प्रचार-प्रसार करते हुए भी इन महान दार्शनिक के मन में संसार के क्षुद्रतम प्राणी के प्रति अत्यंत गहरी सहानुभूति थी। इसलिए वास्तव में वे ही संसार के आदर्श कर्मयोगी हैं क्योंकि उन्होंने पूर्णरूपेण हेतुशून्य होकर कर्म किया है। हृदय और मस्तिष्क के पूर्ण सामंजस्य के वे सर्वोत्कृष्ट दृष्टांत हैं।
स्वामी विवेकानंद जी, भगवान बुद्ध के दृष्टांत के माध्यम से कर्मयोग पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि इस संसार में सिर्फ वही व्यक्ति सबकी अपेक्षा उत्तम रूप से कार्य कर सकता है जो पूरी तरह से नि:स्वार्थी हो, जिसके मन में किसी प्रकार के धन-दौलत, यश-कीर्ति या अन्य किसी वस्तु के प्रति कोई लालसा न हो, इच्छा न हो। ऐसा करने में सक्षम और समर्थ होने वाला व्यक्ति स्वयं बुद्ध बन जाएगा और उसके अंतर्मन में एक ऐसी शक्ति प्रकट होगी जो संसार की अवस्था को पूरी तरह से बदल सकती है और यही व्यक्ति कर्मयोग के चरम आदर्श का प्रतीक बन सकता है।
स्वामी जी गीता के श्लोक ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ को सोदाहरण समझाया है कि मनुष्य का कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं। इसलिए मनुष्य को फल पाने के उद्देश्य से कर्म नहीं करना चाहिए। उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि फल की आशा के बिना कर्म क्यों करूँ। उन्होंने यह भी बताया है कि कर्मयोग का अर्थ है कुशलता से अर्थात वैज्ञानिक प्रणाली से कर्म करना। कर्मानुष्ठान की विधि भली-भांति समझ कर ही व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ कार्य कर सकता है और अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है, अपनी आत्मा को जाग्रत कर सकता है।
अंततोगत्वा, निष्कर्ष के रूप में शत-प्रतिशत यह द्रष्टव्य है कि स्वामी विवेकानंद युगचेता, युगद्रष्टा और महान युगपुरुष थे और महान कर्मयोगी के रूप में उन्होंने आजीवन नि:स्वार्थ भाव से कार्य करने के लिए समस्त विश्व को उद्बुद्ध किया, संपूर्ण संसार को कर्मयोगी बनने की ओर अग्रसरित किया, प्रोत्साहित किया। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को बताया कि कर्मयोग के माध्यम से कैसे इस संसार की तस्वीर बदल सकती है, हमारे कर्मों का हमारे चरित्र पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है, कर्म और कर्तव्य में क्या अंतर है और हम किस प्रकार नि:स्वार्थ भाव, अनासक्त भावना से संसार का भला करते हुए अपना उद्धार कर सकते हैं। कर्म करते हुए हमारे मन में किसी के प्रति किसी तरह का दुराग्रह नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुराग्रही व्यक्ति मूर्ख और सहानुभूतिशून्य होता है। दुराग्रह प्रेम का विरोधी है। हम जितने अधिक प्रेम संपन्न होंगे, हमारा कार्य उतना ही अधिक उत्तम होगा। जीवन के किसी भी अवस्था में, कर्मफल में बिना आसक्ति रखे हुए यदि उचित रूप से कर्तव्य किया जाए, तो उससे हमें आत्मा की पूर्णता का सर्वोच्च अनुभव प्राप्त होता है, आत्म संतुष्टि होती है। हमें चाहिए कि हम निरंतर कार्य करते रहें, जो कुछ भी हमारा कर्तव्य है उसे करते रहें, अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में सदैव डटे रहें, जुड़े-भिड़े रहें, इसी में हमारे जीवन की सार्थकता और पूर्णता है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इस बात की आवश्यकता और अधिक बलवती हो चुकी है कि स्वामी विवेकानंद द्वारा विवेचित कर्मयोग को समग्र भारतवासियों द्वारा आत्मसात किया जाय, इसे देश के हर गाँव गाँव, शहर शहर में विभिन्न जनसंचार माध्यमों के जरिये अधिक से अधिक संख्या पहुंचाया जाय, देशवासियों को उनके विचारों से अवगत कराया जाय क्योंकि स्वामी विवेकानंद द्वारा बताए गये कर्मयोग के मार्ग पर चलकर भारत पुनः विश्व गुरु बन सकता है, सर्वश्रेष्ठ देश बन सकता है।
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संदर्भ ग्रंथ:
1. विवेकानंद साहित्य, भाग 3, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 2000, पृष्ठ-78
2. विवेकानंद साहित्य, भाग 1, अद्वैत आश्रम, कोलकाता, 2000, पृष्ठ 22
3. विवेकानंद साहित्य, भाग 1, अद्वैत आश्रम, कोलकाता, 2000, पृष्ठ 89
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